चैप्टर 24 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 24 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

चैप्टर 24 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 24 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel In Hindi, Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas 

Chapter 24 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu

Chapter 24 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

हाँ रे, अब ना जीयब रे सैयाँ

छतिया पर लोटल केश,

अब ना जीयब रे सैयाँ !

महँगी पड़े या अकाल हो, पर्व-त्योहार तो मनाना ही होगा। और होली ? फागुन महीने की हवा ही बावरी होती है। आसिन-कातिक के मैलेरिया और कालाआजार से टूटे हुए शरीर में फागुन की हवा संजीवनी फूंक देती है। रोने-कराहने के लिए बाकी ग्यारह महीने तो हैं ही, फागुन-भर तो हँस लो, गा लो। जो जीयै सो खेलै फाग। दूसरे पर्व-त्योहार को तो टाल भी दिया जा सकता है। दीवाली में एक-दो दीप जला दिए, बस – छुट्टी। लेकिन होली तो मुर्दा दिलों को भी गुदगुदी लगाकर जिलाती है। बौरे हुए आम ‘के बाग से हवा आकर बच्चे-बूढ़ों को मतवाला बना जाती है।…चावल का आटा, गुड़ और तेल ! पूआ-पकवान के इस छोटे-से आयोजन के लिए मालिकों के दरवाजे पर पाँच दिन पहले से ही भीड़ लग जाती है। बखार के मुँह खोल दिये जाते हैं। मालिक बही-खाता लेकर बैठ जाते हैं, पास में कजरौटी खुली हुई रहती है। धान नापनेवाला धान की ढेरी से धान नापता जाता है।…बादरदास को एक मन !…सोनाय ततमा को तीन पसेरी।…सादा कागज पर अंगूठे का निशान देते जाओ। भादों महीने में यदि भदै धान चुका दोगे तो ड्योढ़ा, यानी एक मन का डेढ़ मन। यदि अगहनी फसल में चुकाओगे तो डेढ़ मन का तीन मन। सीधा हिसाब है।

गाँव के सभी बड़े-बड़े किसानों का अपना-अपना मजदूर टोला है-सिंघ जी का ततमाटोला और पासवानटोला; तहसीलदार साहब का पोलियाटोला, धानुकटोला, कुर्मीटोला और कियोटटोला; खेलावन यादव का गुआरटोला और कोयरीटोला। संथालटोली पर किसी का खास अधिकार नहीं।

इस बार तहसीलदार साहब को छोड़कर किसी ने मजदूरों को धान नहीं दिया।…अँगूठे का निशान नहीं देंगे और धान लेंगे ? बाप-दादे के अमल से अंगूठे का निशान देते आ रहे हैं, कभी बेईमानी नहीं हुई। इस साल बेईमानी कर लेंगे ? कालीचरन ने टीप देने को मना किया है तो कालीचरन से ही धान लो।

तहसीलदार को नए टीप की जरूरत नहीं। पुराने टीप ही इतने हैं कि कोई इधर-उधर नहीं कर सकता। दूसरे किसानों के मजदूरों को भी तहसीलदार साहब ने इस बार धान दिया है, लेकिन कालीचरन को जमानतदार रखकर। धान वसूलवा देना कालीचरन का काम होगा। अरे, ड्योढ़ नहीं तो सवैया ही सही।…जो भी हो, तहसीलदार के दिल में दया-धर्म है। बाकी मालिक लोग तो पिशाच हैं, पिशाच !

एक ओर लौटस बारी रे बिहउबा !

फागुआ का हर एक गीत देह में सिहरन पैदा करता है। फुलिया का चुमौना खलासी जी से हो गया है। खलासी जी बिदाई कराने के लिए आए थे। लेकिन फुलिया इस होली में जाने को तैयार नहीं हुई ! खलासी जी बहुत बिगड़े; धरना देकर चार दिन तक बैठे रहे। आखिर में रूठकर जाने लगे। फुलिया ने रमजू की स्त्री के आँगन में खलासी जी से भेंट करके कहा था-“इस साल होली नैहर में ही मनाने दो। अगले साल तो…।”

नयना मिलानी करी ले रे सैयाँ, नयना मिलानी करी ले।

अबकी बेर हम नैहर रहबौ, जे दिल चाहय से करी ले !

दोपहर से शाम तक रमजूदास की स्त्री के आँगन में रहकर फुलिया ने खलासी जी को मना लिया है। होली के लिए खलासी जी ने एक रुपया दिया है।…बेचारा सहदेव मिसिर इस बार किससे होली खेलेगा ? पिछले साल की बात याद आते ही फुलिया की देह सिहरने लगती है। “भाँग पीकर धुत्त था सहदेव मिसर। एक ही पुआ को बारी-बारी से दाँत से काटकर दोनों ने खाया था।…अरे, जात-धरम ! फुलिया तू हमारी रानी है, तू हमारी जाति, तू ही धरम, सबकुछ।”…बाबू को दारू पीने के लिए डेढ़ रुपया दिया था और माँ को अठन्नी।…रात-भर सहदेव मिसर जगा रह गया था।…फुलिया की देह के पोर-पोर में मीठा दर्द फैल रहा है। जोड़-जोड़ में दर्द मालूम होता है। कई बाँहों में जकड़कर मरोड़े कि जोड़ की हड्डियाँ पटपटाकर चटख उठे और दर्द दूर हो जाए।…सहदेव मिसर को खबर भेज दें !…लेकिन गाँववाले ?…ऊँह, होली में सब माफ है।…वह आवेगा ? नाराज जो है।

अरे बँहियाँ पकड़ि झकझोरे श्याम रे

फूटल रेसम जोड़ी चूड़ी

मसकि गई चोली, भींगावल साड़ी

आँचल उड़ि जाए हो

ऐसो होरी मचायो श्याम रे…!

कमली की आँखें लाल हो रही हैं। पिछले साल होली के ही दिन वह बेहोश हुई थी। इस बार क्या होगा ? वह बेहोश नहीं होगी इस बार। इस बार डाक्टर है; उसे बेहोश नहीं होने देगा।…लेकिन सुबह से ही डाक्टर बाहर है। रोगी देखने गया है रामपुर। यदि वह आज नहीं आया तो ?…नहीं, वह जरूर आएगा। माँ ने एक सप्ताह पहले ही निमन्त्रण दे दिया है। रंग, अबीर,…गुलाब ! पिचकारी !

“माँ !”

“क्या है बेटी ?”

“तुम्हारा डाक्टर आज नहीं आवेगा ?”

“क्यों, क्या बात है बेटी ?”

“मेरा जी अच्छा नहीं।”

“ऐसा मत कहो बेटी, दिल को मजबूत करो। कुछ नहीं होगा।”

…आजु ब्रज में चहुदिश उड़त गुलाल !

चारों ओर गुलाल उड़ रहा है। डाक्टर को कोई रंग नहीं देता है। रामपुर में भी किसी ने रंग नहीं दिया। रास्ते में एक जगह कुछ लड़के पिचकारी लेकर खड़े थे, लेकिन डाक्टर को देखते ही सहम गए।…रंग नहीं, गोबर है। रंग के लिए इतने पैसे कहाँ ! डाक्टर को लोग रंग नहीं देते। वह सरकारी आदमी है, सरकारी उर्दी पहन हुए है। सरकारी उर्दी को रंग देने से जेल की सजा होती है। डाक्टर सरकारी आदमी है, बाहरी आदमी है। वह गाँव के समाज का नहीं।…यह डाक्टर की ही गलती है। शुरू से ही वह गाँव से, गाँववालों से अलग-अलग रहा है। उसका नाता सिर्फ रोग और रोगी से रहा। उसने गाँव की जिन्दगी में कभी घुलने-मिलने की चेष्टा नहीं की। लेकिन डाक्टर को अब गाँव की जिन्दगी अच्छी लगने लगी है, गाँव अच्छा लगने लगा है और गाँव के लोग अच्छे लगते हैं। वह गाँव को प्यार करता है। उसे कोई रंग क्यों नहीं देता ? वह रंग में, गोबर में, कीचड़ में सराबोर होना चाहता है !.

“अर र र र ! कोई बुरा न माने, होली है !”

डाक्टर के सफ़ेद कुर्ते पर लाल-गुलाबी रंगों की छीटें छरछराकर पड़ती हैं।

“ओ कालीचरन !”

“बुरा मत मानिए डाक्टर साहब, होली है।”

डाक्टर मनीबेग से दस रुपए का नोट निकालकर कालीचरन को देता है-होली का चन्दा ! रंग और अबीर का चन्दा !

होली है ! होली है ! होली है !

गनेश हाथ में पिचकारी लिए मौसी का आँचल पकड़कर खड़ा है। मौसी हँसकर कहती है, “सुबह से ही रंग खेलने के लिए जिद्द कर रहा है। मेरी एक साड़ी को तो रंग से सराबोर कर दिया है। अब जिद्द पकड़ा है कि गाँव के लड़कों के साथ खेलेंगे।”

“आओ भैया गनेश !” कालीचरन गनेश का हाथ पकड़कर ले चलता है। गनेश खुश होकर डाक्टर पर रंग की पिचकारी से फुहारें बरसाता हुआ कालीचरन के साथ भाग जाता है। मौसी खुश है।

“जुगजुग जियो काली बेटा !”

“बड़ा मस्त नौजवान है।” डाक्टर कहता है।

“कमली पाँच बार पुछवा चुकी है-डाक्टर साहब लौटे हैं या नहीं। मुझे धमकी दे गई है-आज डाक्टर को तुम नहीं खिला सकतीं। आज मेरे यहाँ निमन्त्रण है।”

ढोल-ढाक, झाँझ-मृदंग और डम्फ !

होली, फगुआ, भड़ौवा और जोगीड़ा।

कालीचरन का दल बहुत बड़ा है। दो ढोल, एक ढाक है, झाँझ-डम्फ। सभी अच्छे गानेवाले भी उसी के दल में हैं। सुन्दरलाल, सुखीलाल, देवीदयाल और जोगीड़ा कहनेवाला महन्था। मिडिल में पढ़ता है; पढ़ने में बड़ा तेज ! दोहा-कवित्त जोड़ने में उसको चाँदी की चकत्ती मिली है। गाँव के छोटे-छोटे दल भी कालीचरन के दल में मिल गए हैं।

जोगीड़ा सर…र र……

जोगीड़ा सर- र…

जोगी जी ताल न टूटे

तीन ताल पर ढोलक बाजे।

ताक धिना धिन, धिन्नक तिन्नक

जोगी जी!

होली है ! कोई बुरा न माने होली है !

बरसा में गड्ढे जब जाते हैं भर

बेंग हजारों उसमें करते हैं टर्र

वैसे ही राज आज कांग्रेस का है

लीडर बने हैं सभी कल के गीदड़…

जोगी जी सर…र र…!

जोगी जी, ताल न टूटे

जोगी जी, तीन-ताल पर ढोलक बाजे

जोगी जी, ताक धिना धिन !

चर्खा कातो, खध्धड़ पहनो, रहे हाथ में झोली

दिन दहाड़े करो डकैती बोल सुराजी बोली…

जोगी जी सर…र र…!

सिर्फ जोगीड़ा ही नहीं। महन्था ने नया फगुआ गीत भी जोड़ा है। बटगमनी फगुआ-राह में चलते हुए गाने के लिए।

आई रे होरिया आई फिर से!

आई रे!

गावत गाँधी राग मनोहर

चरखा चलावे बाबू राजेन्दर

गुंजल भारत अमहाई रे ! होरिया आई फिर से !

वीर जमाहिर शान हमारो,

बल्लभ है अभिमान हमारो,

जयप्रकाश जैसो भाई रे ! होरिया आई फिर से !

होली है ! होली है ! होली !

कोयरीटोले का बूढ़ा कलरू महतो कहता है, “अरे डागडर साहेब ! अब क्या लोग होली खेलेंगे ! होली का जमाना चला गया। एक जमाना था जबकि गाँव के सभी बूढ़ों को नंगा करके नचाया जाता था, एकदम नंगा। उस बार राज के मनेजर जनसैन साहब के साथ तीन-चार साहेब आए थे। काला बक्सा में आँख लगाकर छापी लेते थे। बाद में खानसामाँ से मालूम हुआ कि बिलैत के गजट में छापी हुआ था। एकदम नंगा!”

कामरेड वासुदेव ‘भँडौवा’ गाने के लिए कह रहे हैं, “अब एक नया भँडौवा हो। एकदम नया ताजा माल ! जर्मनवाला !”

ढाक ढिन्ना, ताक ढिन्ना।

अरे हो बुड़बक बभना, अरे हो बुड़बक बभना,

चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए।

सुपति-मउनियाँ लाए डोमनियाँ, माँगे पिपास से पनियाँ

कुआँ के पानी न पाए बेचारी, दौड़ल कमला के किनरियाँ,

सोही डोमनियाँ जब बनली नटिनियाँ, आँखी के मारे पिपनियाँ

तेकरे खातिर दौड़ले बौड़हवा, छोड़के घर में बभनिया।

जोलहा धुनिया तेली तेलनियाँ के पीये न छुअल पनियाँ

नटिनी के जोबना के गंगा-जमुनुवाँ में डुबकी लगाके नहनियाँ।

दिन भर पूजा पर आसन लगाके पोथी-पुरान बँचनियाँ

रात के ततमाटोली के गलियन में जोतखी जी पतरा गननियाँ।

भकुआ बभना, चुम्मा लेवे में जात नहीं रे जाए!

कोई बुरा न माने होली है ! होली है !

तहसीलदार साहब की ड्योढ़ी पर पैर रखते ही डाक्टर के मुँह पर गुलाल मल दिया गया। डाक्टर की आँखें बन्द हैं, लेकिन स्पर्श में ही वह समझ गया है कि गुलाल किसने मला है। कमली !…वसन्तोत्सव की कमली ! डाक्टर याद करने की चेष्टा करता है, एक बार किसी चित्रकार का ‘मैथिली’ शीर्षक चित्र किसी मासिक पत्रिका में देखा था !… कौन था वह चित्रकार !

“डाक्टर बेचारे के पास न अबीर है और न रंग की पिचकारी। यह एकतरफा होली कैसी !…लीजिए डाक्टरबाबू, अबीर लीजिए। और इस बाल्टी में रंग है।” माँ बेहद खुश है आज। पिछले साल होली के दिन इसी आँगन में मातम हो रहा था और इस साल उसकी बेटी चहकती फिर रही है।…दुहाई बाबा भोलानाथ !

बेचारा डाक्टर रंग भी नहीं देना जानता; हाथ में अबीर लेकर खड़ा है। मुँह देख रहा है, कहाँ लगावे !

“जरा अपना हाथ बढ़ाइए तो।”

“क्यों ?”

“हाथ पर गुलाल लगा दूँ ?”

“आप होली खेल रहे हैं या इंजेक्शन दे रहे हैं। चुटकी में अबीर लेकर ऐसे खड़े हैं मानो किसी की माँग में सिन्दूर देना है !” कमली खिलखिलाकर हँसती है। रंगीन हँसी!

डाक्टर अब पहले की तरह कमली की बोली को एक बीमार की बोली समझकर नहीं टाल सकता है। कमरे में लालटेन की हलकी रोशनी फैली हुई है; सामने कमली खड़ी हँस रही है। ऐसी हँसी डाक्टर ने कभी नहीं देखी थी। वह स्वस्थ हँसी हैविकारशून्य ! कमली का अंग-अंग मानो फड़क रहा है। डाक्टर अपने दिल की धड़कन को साफ-साफ सुन रहा है। उसके ललाट पर आज भी पसीने की बूंदें चमक रही हैं। सामने दीवार पर एक बड़ा आईना है। डाक्टर उसमें अपनी सूरत देखता है…ललाट पर पसीने की बूँदें मानो दूल्हे के ललाट पर चन्दन की छोटी-छोटी बिन्दियाँ सजाई गई हैं !…डाक्टर को भवभूति के माधव-मालती की याद आती है। होली को पहले मदनमहोत्सव कहा जाता था। आम की मंजरियों से मदन की पूजा की जाती थी। इसी मदनोत्सव के दिन माधव और मालती की आँखें चार हुई थीं और दोनों प्रेम की डोरी में बँध गए थे। जहाँ राधेश्याम खेले होरी !

डाक्टर अबीर की पूरी झोली कमली पर उलट देता है। सिर पर लाल अबीर बिखर गया-मुँह पर, गालों पर और नाक पर।…कहते हैं, सिन्दूर लगाते समय जिस लड़की के नाक पर सिन्दूर झड़कर गिरता है, वह अपने पति की बड़ी दुलारी होती है।…

ऐसी मचायो होरी हो,

कनक भवन में श्याम मचायो होरी !

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