चैप्टर 24 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 24 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
Chapter 24 Kayakalp Novel By Munshi Premchand
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रेलवे स्टेशन पर कहीं तिल रखने की जगह न थी। अंदर का चबूतरा और बाहर का सहन सब आदमियों से खचाखच भरे थे। चबूतरे पर विद्यालयों के छात्र थे, रंग-बिरंगी वर्दियां पहने हुए, और सेवा-समितियों के सेवक, रंग-बिरंगी झंडियां लिए हुए। मनोरमा नगर की कई महिलाओं के साथ अंचल में फूल भरे सेवकों के बीच में खड़ी थी। उसका एक-एक अंग आनंद से पुलकित हो रहा था। बरामदे में राजा विशालसिंह, उनके मुख्य कर्मचारी और शहर के रईस और नेता जमा थे। मुंशी वज्रधर इधर-उधर पैंतरे बदलते और लोगों को सावधान रहने की ताकीद करते फिरते थे। कोई घबराहट की बात नहीं, कोई तमाशा नहीं, वह भी तुम्हारे ही जैसा दो हाथ पैर का आदमी है। आएगा, तब देख लेना, धक्कम-धक्का करने की जरूरत नहीं।
दीवान हरिसेवक सिंह सशंक नेत्रों से सरकारी सिपाहियों को देख रहे थे और बार-बार राजा साहब के कान में कुछ कह रहे थे, अनिष्ट भय से उनके प्राण सूखे हुए थे। स्टेशन के बाहर हाथी. घोड़े, बग्घियां, मोटर पैर जमाए खड़ी थीं। जगदीशपुर का बैंड बड़े मनोहर स्वरों में विजय-गान कर रहा था। बार-बार सहस्रों कंठों से हर्षध्वनि निकलती थी, जिससे स्टेशन की दीवारें हिल जाती थीं। थोड़ी देर के लिए लोग व्यक्तिगत चिंताओं और कठिनाइयों को भूलकर राष्ट्रीयता के नशे में झूम रहे थे।
ठीक दस बजे गाड़ी दूर से धुआं उड़ाती हुई दिखाई दी। अब तक लोग अपनी जगह पर कायदे के साथ खड़े थे, लेकिन गाड़ी के आते ही सारी व्यवस्था हवा हो गई। पीछे वाले आगे आ पहुंचे, आगे वाले पीछे पड़ गए, झंडियां रक्षास्त्र का काम करने लगीं और फलों की टोकरियां ढालों का। मुंशी वज्रधर बहुत चीखे-चिल्लाए, लेकिन कौन सुनता है? हां, मनोरमा के सामने मैदान साफ था। दीवान साहब ने तुरंत सैनिकों को उसके सामने से भीड़ हटाते रहने के लिए बुला लिया था। गाड़ी आकर रुकी और चक्रधर उतर पड़े। मनोरमा भी अनुराग से उन्मत्त होकर चली, लेकिन तीन-चार पग चली थी कि एक बात ध्यान में आई। ठिठक गई और एक स्त्री की आड़ से चक्रधर को देखा, एक रक्तहीन, मलिन-मुख, क्षीण मूर्ति सिर झुकाए खड़ी थी, मानो जमीन पर पैर रखते डर रही है कि कहीं गिर न पड़े। मनोरमा का हृदय मसोस उठा, आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी, अंचल के फूल अंचल ही में रह गए। उधर चक्रधर पर फूलों की वर्षा हो रही थी, इधर मनोरमा की आंखों से मोतियों की।
सेवा-समिति का मंगल-गान समाप्त हुआ, तो राजा साहब ने आगे बढ़कर नगर के नेताओं की ओर से उनका स्वागत किया। सब लोग उनसे गले मिले और जुलूस जाने लगा। मुंशी वज्रधर जुलूस के प्रबंध में इतने व्यस्त थे कि चक्रधर की उन्हें सुधि ही न थी। चक्रधर स्टेशन के बाहर आए और यह तैयारियां देखीं, तो बोले-आप लोग मेरा इतना सम्मान करके मुझे लज्जित कर रहे हैं। राष्ट्रीय सम्मान किसी महान् राष्ट्रीय उद्योग का पुरस्कार होना चाहिए। मैं इसके सर्वथा अयोग्य हूँ। मुझे सम्मानित करके आप लोग सम्मान का महत्त्व खो रहे हैं! मुझ जैसों के लिए इस धूमधाम की जरूरत नहीं। मुझे तमाशा न बनाइए।
संयोग से मुंशीजी वहीं खड़े थे। ये बातें सुनीं, तो बिगड़कर बोले-तमाशा नहीं बनना था, तो दूसरे के लिए प्राण देने को क्यों तैयार हुए थे। लोग दस-पांच हजार खर्च करके जन्म-भर के लिए ‘राय साहब’ और ‘खां बहादुर’ हो जाते हैं। तुम दूसरों के लिए इतनी मुसीबतें झेलकर यह सम्मान पा रहे हो, तो इसमें झेंपने की क्या बात है, भला! देखता हूँ कि कोई एक छोटा-मोटा व्याख्यान देता है, तो पत्रों में देखता है कि मेरी तारीफ हो रही है या नहीं। अगर दुर्भाग्य से कहीं संपादक ने उसकी प्रंशसा न की, तो जामे से बाहर हो जाता है और तुम दस-पांच हाथी-घोड़े देखकर घबरा गए। आदमी की इज्जत अपने हाथ है। तुम्हीं अपनी इज्जत न करोगे, तो दूसरे क्यों करने लगे? आदमी कोई काम करता है, तो रुपए के लिए या नाम के लिए। अगर दो में से एक भी हाथ न आए, तो वह काम करना ही व्यर्थ है।
यह कहकर उन्होंने चक्रधर को छाती से लगा लिया। चक्रधर का रक्तहीन मुख लज्जा से आरक्त हो गया। यह सोचकर शरमाए कि ये लोग अपने मन में पिताजी की हंसी उड़ा रहे होंगे। और कुछ आपत्ति करने का साहस न हुआ। चुपके से राजा साहब की टुकड़ी पर आ बैठे। जुलूस चला। आगे-आगे पांच हाथी थे, जिन पर नौबत बज रही थीं। उनके पीछे कोतल घोड़ों की लंबी कतार थी, जिन पर सवारों का दल था। बैंड के पीछे जगदीशपुर के सैनिक चार-चार की कतार में कदम मिलाए चल रहे थे। फिर क्रम से आर्य-महिला-मंडल, खिलाफत, सेवा-समिति और स्काउटों के दल थे। उनके पीछे चक्रधर की जोड़ी थी, जिसमें राजा साहब मनोरमा के साथ बैठे हुए थे। इसके बाद तरह-तरह की चौकियां थीं, उनके द्वारा राजनीतिक समस्याओं का चित्रण किया गया था। फिर भांति-भांति की गायन मंडलियां थीं, जिनमें कोई ढोल-मंजीरे पर राजनीतिक गीत गाती थीं, कोई डंडे बजा-बजाकर राष्ट्रीय ‘हर गंगा’ सुना रही थीं और दो-चार सज्जन ‘चने जोर गरम और चूरन अमलबेत’ की वाणियों का पाठ कर रहे थे। सबके पीछे बग्घियों, मोटरों और बसों की कतारें थीं, अंत में जनता का समूह था।
जुलूस नदेसर, चेतगंज, दशाश्वमेध और चौक होता हुआ दोपहर होते-होते कबीर चौरे पर पहुंचा। यहां मुंशीजी के मकान के सामने एक बहुत बड़ा शामियाना तना हुआ था। निश्चय हुआ था कि यहीं सभा हो और चक्रधर को अभिनंदन पत्र दिया जाए । मनोरमा स्वयं पत्र पढ़कर सुनाने वाली थी, लेकिन जब लोग आ-आकर पंडाल में बैठे और मनोरमा अभिनंदन पढ़ने को खड़ी हुई, तो उसके मुंह से एक शब्द न निकला। आज एक सप्ताह से उसने जी तोड़कर स्वागत की तैयारियां की थीं, दिन को दिन और रात को रात न समझा था, रियासत के कर्मचारी दौड़ते-दौड़ते तंग आ गए थे। काशी जैसे उत्साहहीन नगर में ऐसे जुलूसों का प्रबंध करना आसान न था। विशेष करके चौकियां और गायन मंडलियों की आयोजना करने में उसे बहुत कष्ट उठाने पड़े थे और कई मंडलियों को दूसरे शहरों से बुलाना पड़ा था। उसकी श्रमशीलता और उत्साह देख-देख कर लोगों को आश्चर्य होता था, लेकिन जब वह शुभ अवसर आया कि वह अपनी दौड़-धूप का मनमाना पुरस्कार ले, तो उसकी वाणी धोखा दे गई। फिटन में वह चक्रधर के सम्मुख बैठी थी। राजा साहब चक्रधर से जेल के संबंध में बात करते रहे पर मनोरमा वहां चुप ही रही। चक्रधर ने उसकी आशा के प्रतिकूल उससे कुछ न पूछा। यह अगर उसका तिरस्कार नहीं तो क्या था? हां, यह मेरा तिरस्कार है, वह समझते हैं कि मैंने विलास के लिए विवाह किया है। इन्हें कैसे अपने मन की व्यथा समझाऊं कि यह विवाह नहीं, प्रेम की बलि-वेदी है।
मनोरमा को असमंजस में देखकर राजा साहब ऊपर आ खड़े हुए और उसे धीरे-से कुर्सी पर बिठाकर बोले-सज्जनो, रानीजी के भाषण में आपको जो रस मिलता, वह मेरी बातों में कहाँ? कोयल के स्थान पर कौआ खड़ा हो गया है, शहनाई की जगह नृसिंह ने ले ली है। आप लोगों को ज्ञात न होगा कि पूज्यवर बाबू चक्रधर रानी साहिबा के गुरु रह चुके हैं, और वह उन्हें अब भी उसी भाव से देखती हैं। अपने गुरु का सम्मान करना शिष्य का धर्म है, किंतु रानी साहिबा का कोमल हृदय इस समय नाना प्रकार के आवेगों से इतना भरा हुआ है कि वाणी के लिए जगह ही नहीं रही। इसके लिए वह क्षम्य हैं। बाबू साहब ने जिस धैर्य और साहस से दीनों की रक्षा की, वह आप लोग जानते ही हैं। जेल में भी आपने निर्भीकता से अपने कर्तव्य का पालन किया। आपका मन दया और प्रेम का सागर है। जिस अवस्था में और युवक धन की उपासना करते हैं, आपमें धर्म और जाति-प्रेम की उपासना है। मैं भी आपका पुराना भक्त हूँ।
एक सज्जन ने टोका-आप ही ने तो उन्हें सजा दिलाई थी?
राजा-हां, मैं इसे स्वीकार करता हूँ। राज्य के मद में कुछ दिनों के लिए मैं अपने को भुल गया था। कौन है, जो प्रभुता पाकर फूल न उठा हो? यह मानवीय स्वभाव है और आशा है, आप लोग मुझे क्षमा करेंगे।
राजा साहब बोल ही रहे थे कि मनोरमा पंडाल से निकल आई और मोटर पर बैठकर राजभवन चली गई। रास्ते-भर वह रोती रही। उसका मन चक्रधर से एकांत में बातें करने के लिए विकल हो रहा था। वह उन्हें समझाना चाहती थी कि मैं तिरस्कार योग्य नहीं, दया के योग्य हूँ। तुम मुझे विलासिनी समझ रहे हो, यह तुम्हारा अन्याय है। और किस प्रकार मैं तुम्हारी सेवा करती? मुझमें बुद्धि-बल न था, धन-बल न था, विद्या-बल न था, केवल रूप-बल था, और वह मैंने तुम्हें अर्पण कर दिया। फिर भी तुम मेरा तिरस्कार करते हो!
मनोरमा ने दिन तो किसी तरह काटा, पर शाम को वह अधीर हो गई। तुरंत चक्रधर के मकान पर जा पहुंची। देखा, तो वह अकेले द्वार पर टहल रहे थे। शामियाना उखाड़ दिया गया था। कुर्सियां, मेजें, दरियां, गमले, सब वापस किए जा चुके थे। मिलने वालों का तांता टूट चुका था। मनोरमा को इस समय बड़ी लज्जा आई। न जाने वह अपने मन में क्या समझ रहे होंगे। अगर छिपकर लौटना संभव होता, तो वह अवश्य लौट पड़ती। मुझे अभी न आना चाहिए था। दो-चार दिन में मुलाकात हो ही जाती। नाहक इतनी जल्दी की, पर अब पछताने से क्या होता था? चक्रधर ने उसे देख लिया और समीप आकर प्रसन्न भाव से बोले-मैं तो स्वयं आपकी सेवा में आने वाला था। आपने व्यर्थ कष्ट किया।
मनोरमा-मैंने सोचा, चलकर देख लूं, यहां का सामान भेज दिया गया है या नहीं? आइए, सैर कर आएं। अकेले जाने को जी नहीं चाहता। आप बहुत दुबले हो रहे हैं। कोई शिकायत तो नहीं है न?
चक्रधर-नहीं, मैं बिल्कुल अच्छा हूँ, कोई शिकायत नहीं है। जेल में कोई कष्ट न था, बल्कि सच पूछिए तो मुझे वहां बहुत आराम था। मुझे अपनी कोठरी से इतना प्रेम हो गया था कि उसे छोड़ते हुए दुःख होता था। आपकी तबीयत अब कैसी है? उस वक्त तो आपकी तबीयत अच्छी न थी।
मनोरमा-वह कोई बात न थी। यों ही जरा सिर में चक्कर आ गया था।
यों बातें करते-करते दोनों छावनी की ओर जा पहुंचे। मैदान में हरी घास का फर्श बिछा हुआ था। बनारस के रंगीले आदमियों को यहां आने की कहाँ फुरसत? उनके लिए तो दालमंडी की सैर ही काफी है। यहां बिल्कुल सन्नाटा छाया हुआ था। बहुत दूर पर कुछ लड़के गेंद खेल रहे थे। दोनों आदमी मोटर से उतरकर घास पर जा बैठे। एक क्षण तो दोनों चुप रहे। अंत में चक्रधर बोले-आपको मेरी खातिर बड़े-बड़े कष्ट उठाने पड़े। यहां मालूम हुआ कि आप ही ने मेरी सजा पहले कम करवाई थी और आप ही ने अबकी मुझे जेल से निकलवाया। आपको कहाँ तक धन्यवाद दूं!
मनोरमा-आप मुझे ‘आप’ क्यों कह रहे हैं? क्या अब मैं कुछ और हो गई हूँ? मैं अब भी अपने को आपकी दासी समझती हूँ। मेरा जीवन आपके किसी काम आए, इससे बड़ी मेरे लिए सौभाग्य की और कोई बात नहीं। मुझसे उसी तरह बोलिए, जैसे तब बोलते थे। मैं आपके कष्टों को याद करके बराबर रोया करती थी। सोचती थी, न जाने वह कौन-सा दिन होगा, जब आपके दर्शन पाऊंगी। अब आप फिर मुझे पढ़ाने आया कीजिए। राजा साहब भी आपसे कुछ पढ़ना चाहते हैं। बोलिए, स्वीकार करते हैं?
मनोरमा के इन सरल भावों ने चक्रधर की आंखें खोल दीं। उन्होंने उसे विलासिनी, मायाविनी, छलिनी समझ रखा था। अब ज्ञात हुआ कि यह वही सरल बालिका है, जो निस्संकोच भाव से उनके सामने अपना हृदय खोलकर रख दिया करती थी। चक्रधर स्वार्थांध न थे, विवेक-शून्य भी न थे, कारावास में उन्होंने आत्मचिंतन भी बहुत किया था। परोपकार के लिए वह अपने प्राणों का उत्सर्ग कर सकते थे, पर मन की लीला विचित्र है, वह विश्व-प्रेम से भरा होने पर भी अपने भाई की हत्या कर सकता है, नीति और धर्म के शिखर पर बैठकर भी कुटिल प्रेम में रत हो सकता है। कुबेर का धन रखने पर भी उसे प्रेम का गुप्त दान लेने में संकोच नहीं होता। मनोरमा के ये शब्द सुनकर चक्रधर का मन पुलकित हो उठा। लेकिन संयम वह मित्र है, जो जरा देर के लिए चाहे आंखों से ओझल हो जाए , पर धारा के साथ बह नहीं सकता। संयम अजेय है, अमर है। चक्रधर संभल गए, बोले-नहीं मनोरमा, अब मैं तुम्हें न पढ़ा सकूँगा। मुझे क्षमा करो। मुझे देहातों में बहुत घूमना है। महीनों शहर न आ सकूँगा-तुम्हारे पढ़ने में हर्ज होगा!
मनोरमा-यहां बैठे-बैठे अपने स्वयंसेवकों द्वारा क्या आप काम नहीं करा सकते?
चक्रधर-नहीं, यह संभव नहीं। हमारे नेताओं में यही बड़ा ऐब है कि वे स्वयं देहातों में न जाकर शहरों में जमे रहते हैं, जिससे देहातों की सच्ची दशा उन्हें नहीं मालूम होती, न उन्हें वह शक्ति ही हाथ आती है, न जनता पर उनका वह प्रभाव ही पड़ता है, जिसके बगैर राजनीतिक सफलता हो ही नहीं सकती। मैं उस गलती में न पडूंगा।
मनोरमा-आप बहाने बताकर मुझे टालना चाहते हैं, नहीं तो मोटर पर तो आदमी रोजना एक सौ मील आ-जा सकता है। कोई मुश्किल बात नहीं।
चक्रधर-उड़न-खटोले पर बैठकर संगठन नहीं किया जा सकता। जरूरत है जनता में जागृति फैलाने की, उनमें उत्साह और आत्मबल का संचार करने की। चलती गाड़ी से यह उद्देश्य कभी पूरा नहीं हो सकता।
मनोरमा-अच्छा, तो मैं आपके साथ देहातों में घूमूंगी। इसमें तो आपको आपत्ति नहीं है?
चक्रधर-नहीं मनोरमा, तुम्हारा कोमल शरीर इन कठिनाइयों को न सह सकेगा। तुम्हारे हाथ में ईश्वर ने एक बड़ी रियासत की बागडोर दे दी है। तुम्हारे लिए इतना ही काफी है कि अपनी प्रजा को सुखी और संतुष्ट रखने की चेष्टा करो। यह छोटा काम नहीं है।
मनोरमा-मैं अकेली कुछ न कर सकूँगी। आपके इशारे पर सब कुछ कर सकती हूँ। आपसे अलग रहकर मेरे किए कुछ भी न होगा ! कम-से-कम इतना तो कर ही सकते हैं कि अपने कामों में मुझसे धन की सहायता लेते रहें। ज्यादा तो नहीं, पांच हजार रुपए मैं प्रति मास आपको भेंट कर सकती हूँ, आप जैसे चाहें उसका उपयोग करें। मेरे संतोष के लिए इतना ही काफी है कि वे आपके हाथों खर्च हों। मैं कीर्ति की भूखी नहीं। केवल आपकी सेवा करना चाहती हो इससे मुझे वंचित न कीजिए। आपमें न जाने वह कौन-सी शक्ति है, जिसने मुझे वशीभूत कर लिया है। मैं न कुछ सोच सकती हूँ, न समझ सकती हूँ, केवल आपकी अनुगामिनी बन सकती हैं।
यह कहते-कहते मनोरमा की आंखें सजल हो गईं। उसने मुंह फेरकर आंसू पोंछ डाले और फिर बोली-आप मुझे दिल में जो चाहें, समझें मैं इस समय आपसे सब कुछ कह दूंगी। मैं हृदय में आप ही की उपासना करती हूँ। मेरा मन क्या चाहता है, यह मैं स्वयं नहीं जानती; अगर कुछ-कुछ जानती भी हूँ, तो कह नहीं सकती। हां, इतना कह सकती हूँ कि जब मैंने देखा कि आपकी परोपकार कामनाएं धन के बिना निष्फल हुई जाती है। जो कि आपके मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है, तो मैंने उसी बाघा को हटाने के लिए यह बेड़ी अपने पैरों में डाली। मैं जो कुछ कह रही हैं, उसका एक-एक अक्षर सत्य है। मैं यह नहीं कहती कि मुझे धन से घृणा है। नहीं, मैं दरिद्रता को संसार की विपत्तियों में सबसे दुःखदाई समझती हूँ। लेकिन मेरी सुख लालसा किसी भी भले घर में शांत हो सकती थी। उसके लिए मुझे जगदीशपुर की रानी बनने की जरूरत न थी। मैंने केवल आपकी इच्छा के सामने सिर झुकाया है, और मेरे जीवन को सफल करना अब आपके हाथ है।
चक्रधर ये बातें सुनकर मर्माहत-से हो गए। उफ् ! यहां तक नौबत पहुँच गई! मैंने इसका सर्वनाश कर दिया। हा विधि ! तेरी लीला कितनी विषम है! वह इसलिए उससे दूर भागे थे कि वह उसे अपने साथ दरिद्रता के कांटों में घसीटना न चाहते थे। उन्होंने समझा था, उनके हट जाने से मनोरमा उन्हें भूल जाएगी और अपने इच्छानुकूल विवाह करके सुख से जीवन व्यतीत करेगी।
उन्हें क्या मालूम था कि उनके हट जाने का यह भीषण परिणाम होगा और वह राजा विशालसिंह के हाथों में जा पड़ेगी ! उन्हें वह बात याद आई, जो एक बार उन्होंने विनोद-भाव से कही थी-तुम रानी होकर मुझे भूल जाओगी। उसका जो उत्तर मनोरमा ने दिया था, उसे याद करके चक्रधर एक बार कांप उठे। उन शब्दों में इतना दृढ़ संकल्प था, इसकी वह उस समय कल्पना भी न कर सकते थे। चक्रधर मन में बहुत ही क्षुब्ध हुए। उनके हृदय में एक साथ ही करुणा, भक्ति, विस्मय और शोक के भाव उत्पन्न हो गए। प्रबल उत्कंठा हुई कि इसी क्षण इसके चरणों पर सिर रख दें और रोएं। वह अपने को धिक्कारने लगे। मनोरमा को इस दशा में लाने का, उसके जीवन की अभिलाषाओं को नष्ट करने का भार उनके सिवा और किस पर था?
सहसा मनोरमा ने फिर कहा-आप मन में मेरा तिरस्कार तो नहीं कर रहे हैं?
चक्रधर लज्जित होकर बोले-नहीं मनोरमा, तुमने मेरे हित के लिए जो त्याग किया है, उसका दुनिया चाहे तिरस्कार करे, मेरी दृष्टि में तो वह आत्म-बलिदान से कम नहीं, लेकिन क्षमा करना, तुमने पात्र का विचार नहीं किया। तुमने कुत्ते के गले में मोतियों की माला डाल दी। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, अभी तुमने मेरा असली रूप नहीं देखा। देखकर शायद घृणा करने लगो! तुमने मेरा जीवन सफल करने के लिए अपने ऊपर जो अन्याय किया है, इसका अनुमान करके ही मेरा मस्तिष्क चक्कर खाने लगता है। इससे तो यह कहीं अच्छा था कि मेरा जीवन नष्ट हो जाता, मेरे सारे मंसूबे धूल में मिल जाते। मुझ जैसे क्षुद्र प्राणी के लिए तुम्हें अपने ऊपर यह अत्याचार न करना चाहिए था। अब तो मेरी ईश्वर से यही प्रार्थना है कि मुझे अपने व्रत पर दृढ़ रहने की शक्ति प्रदान करें। वह अवसर कभी न आए कि तुम्हें अपने इस असीम विश्वास और असाधारण त्याग पर पछताना पडे। अगर वह अवसर आने वाला हो, तो मैं वह दिन देखने के लिए जीवित न रहूँ। तुमसे भी मैं एक अनुरोध करने की क्षमा चाहता हूँ। तुमने अपनी इच्छा से त्याग का जीवन स्वीकार किया है। इस ऊंचे आदर्श का सदैव पालन करना। राजा साहब के प्रति एक पल के लिए भी तुम्हारे मन में अश्रद्धा का भाव न आने पाए। अगर ऐसा हुआ, तो तुम्हारा यह त्याग निष्फल हो जाएगा।
मनोरमा कुछ देर तक मौन रहने के बाद बोली-बाबूजी, आपका हृदय बड़ा कठोर है। चक्रधर ने विस्मित होकर मनोरमा की ओर देखा, मानो इसका आशय उनकी समझ में न आया हो।
मनोरमा बोली-मैंने इतना सब कुछ किया, फिर भी आपको मुझसे सहायता लेने में संकोच हो रहा है।
चक्रधर ने दृढ़ भाव से कहा-मनोरमा, मैं नहीं चाहता कि किसी को तुम्हारे विषय में कुछ आक्षेप करने का अवसर मिले।
मनोरमा फिर कुछ देर के लिए मौन रहकर बोली-आपको मेरे विवाह की खबर कहाँ मिली?
चक्रधर-जेल में अहिल्या ने कही।
मनोरमा-क्या जेल में आपकी भेंट अहिल्या से हुई थी?
चक्रधर-हां, एक बार वह आई थी।
मनोरमा-यह खबर सुनकर आपके मन में क्या विचार आए थे? सच कहिएगा।
चक्रधर-मुझे तो आश्चर्य हुआ था।
मनोरमा-केवल आश्चर्य! सच कहिएगा।
चक्रधर ने लज्जित होकर कहा-नहीं मनोरमा, दुःख भी हुआ और कुछ क्रोध भी।
मनोरमा का मुख विकसित हो उठा। ऐसा ज्ञात हुआ कि उसके पहलू से कोई कांटा निकल गया! एक ऐसी बात, जिसे जानने के लिए वह विकल हो रही थी, अनायास इस प्रश्न द्वारा चक्रधर के मुंह से निकल गई।
मनोरमा यहां से लौटी तो उसका चित्त प्रसन्न था। उसके कान में ये शब्द गूंज रहे थे-हां मनोरमा, दुःख भी हुआ और कुछ क्रोध भी।
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