चैप्टर 24 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 24 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 24 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 24 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 24 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 24 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

जब कार ओझल हो गयी, तब चंदर को होश आया कि उसके हाथ में एक लिफाफा भी है। उसने सोचा, फौरन कार लेकर जाये और पम्मी को रोक ले। फिर सोचा, पहले पढ़ तो ले, यह है क्या चीज? उसने लिफाफा खोला और पढ़ने लगा-

”कपूर, एक दिन तुम्हारी आवाज और बर्टी की चीख सुनकर अपूर्ण वेश में ही अपने श्रृंगार गृह से भाग आयी थी और तुम्हें फूलों के बीच में पाया था, आज तुम्हारी आवाज मेरे लिए मूक हो गयी है और असन्तोष और उदासी के काँटों के बीच मैं तुम्हें छोड़ कर जा रही हूँ।

जा रही हूँ इसलिए कि अब तुम्हें मेरी जरूरत नहीं रही। झूठ क्यों बोलूँ, अब क्या, कभी भी तुम्हें मेरी जरूरत नहीं रही थी, लेकिन मैंने हमेशा तुम्हारा दुरुपयोग किया। झूठ क्यों बोलें, तुम मेरे पति से भी अधिक समीप रहे हो। तुमसे कुछ छिपाऊँगी नहीं। मैं तुमसे मिली थी, जब मैं एकाकी थी, उदास थी, लगता था कि उस समय तुम मेरी सुनसान दुनिया में रोशनी के देवदूत की तरह आये थे। तुम उस समय बहुत भोले, बहुत सुकुमार, बहुत ही पवित्र थे। मेरे मन में उस दिन तुम्हारे लिए जाने कितना प्यार उमड़ आया! मैं पागल हो उठी। मैंने तुम्हें उस दिन सेलामी की कहानी सुनायी थी, सिनेमा घर में, उसी अभागिन सेलामी की तरह मैं भी पैगम्बर को चूमने के लिए व्याकुल हो उठी।

देखा, तुम पवित्रता को प्यार करते हो। सोचा, यदि तुमसे प्यार ही जीतना है, तो तुमसे पवित्रता की ही बातें करूँ। मैं जानती थी कि सेक्स प्यार का आवश्यक अंग है। लेकिन मन में तीखी प्यास लेकर भी मैंने तुमसे सेक्स-विरोधी बातें करनी शुरू कीं। मुँह पर पवित्रता और अन्दर में भोग का सिद्धान्त रखते हुए भी मेरा अंग-अंग प्यासा हो उठा था…तुम्हें होठों तक खींच लायी थी, लेकिन फिर साहस नहीं हुआ।

फिर मैंने उस छोकरी को देखा, उस नितान्त प्रतिभाहीन दुर्बलमना छोकरी मिस सुधा को। वह कुछ भी नहीं थी, लेकिन मैं देखते ही जान गयी थी कि तुम्हारे भाग्य का नक्षत्र है, जाने क्यों उसे देखते ही मैं अपना आत्मविश्वास खो-सा बैठी। उसके व्यक्तित्व में कुछ न होते हुए भी कम-से-कम अजब-सा जादू था, यह मैं भी स्वीकार करती हूँ, लेकिन थी वह छोकरी ही!

तुम्हें न पाने की निराशा और तुम्हें न पाने की असीम प्यास, दोनों के पीस डालने वाले संघर्ष से भागकर, मैं हिमालय में चली आयी। जितना तीखा आकर्षण होता है कपूर कभी-कभी नारी उतनी ही दूर भागती है। अगर कोई प्याला मुँह से न लगाकर दूर फेंक दे, तो समझ लो कि वह बेहद प्यासा है, इतना प्यासा कि तृप्ति की कल्पना से भी घबराता है। दिन-रात उस पहाड़ी की धवल चोटियों में तुम्हारी निगाहें मुस्कराती थीं, पर मैं लौटने का साहस न कर पाती थी।

लौटी तो देखा कि तुम अकेले हो, निराश हो। और थोड़ा-थोड़ा उलझे हुए भी हो। पहले मैंने तुम पर पवित्रता की आड़ में विजय पानी चाही थी, अब तुम पर वासना का सहारा लेकर छा गयी। तुम मुझे बुरा समझ सकते हो, लेकिन काश कि तुम मेरी प्यास को समझ पाते, कपूर! तुमने मुझे स्वीकार किया। वैसे नहीं जैसे कोई फूल शबनम को स्वीकार करे। तुमने मुझे उस तरह स्वीकार किया जैसे कोई बीमार आदमी माफिया (अफीम) के इन्जेक्शन को स्वीकार करे। तुम्हारी प्यासी और बीमार प्रवृत्तियाँ बदली नहीं, सिर्फ बेहोश होकर सो गयीं।

लेकिन कपूर, पता नहीं किसके स्पर्श से वे एकाएक बिखर गयीं। मैं जानती हूँ, इधर तुममें क्या परिवर्तन आ गया है। मैं तुम्हें उसके लिए अपराधी नहीं ठहराती, कपूर ! मैं जानती हूँ तुम मेरे प्रति अब भी कितने कृतज्ञ हो, कितने स्नेहशील हो लेकिन अब तुममें वह प्यास नहीं, वह नशा नहीं। तुम्हारे मन की वासना अब मेरे लिए एक तरस में बदलती जा रही है।

मुझे वह दिन याद है, अच्छी तरह याद है चंदर, जब तुम्हारे जलते हुए होठों ने इतनी गहरी वासना से मेरे होठों को समेट लिया था कि मेरे लिए अपना व्यक्तित्व ही एक सपना बन गया था। लगता था, सभी सितारों का तेज भी इसकी एक चिनगारी के सामने फीका है। लेकिन आज होंठ होंठ हैं, आग के फूल नहीं रहे-पहले मेरी एक झलक से तुम्हारे रोम-रोम में सैकड़ों इच्छाओं की आँधियाँ गरज उठती थीं…आज तुम्हारी नसों का खून ठंडा है। तुम्हारी निगाहें पथरायी हुई हैं और तुम इस तरह वासना मेरी ओर फेंक देते हो, जैसे तुम किसी पालतू बिल्ली को पावरोटी का टुकड़ा दे रहे हो।

मैं जानती हूँ कि हम दोनों के सम्बन्धों की उष्णता खत्म हो गयी है। अब तुम्हारे मन में महज एक तरस है, एक कृतज्ञता है, और कपूर, वह मैं स्वीकार नहीं कर सकूँगी। क्षमा करना, मेरा भी स्वाभिमान है।

लेकिन मैंने कह दिया कि मैं तुमसे छिपाऊँगी नहीं! तुम इस भ्रम में कभी मत रहना कि मैंने तुम्हें प्यार किया था। पहले मैं भी यही सोचती थी। कल मुझे लगा कि मैंने अपने को आज तक धोखा दिया था। मैंने इधर तुम्हारी खिन्नता के बाद अपने जीवन पर बहुत सोचा, तो मुझे लगा कि प्यार जैसी स्थायी और गहरी भावना शायद मेरे जैसे रंगीन बहिर्मुख स्वभावशाली के लिए है ही नहीं। प्यार जैसी गम्भीर और खतरनाक तूफानी भावना को अपने कन्धों पर ढोने का खतरा देवता या बुद्धिहीन ही उठा सकते हैं-तुम उसे वहन कर सकते हो (कर रहे हो। प्यार की प्रतिक्रिया भी प्यार की ही परिचायक है कपूर), मेरे लिए आँसुओं की लहरों में डूब जाना सम्भव नहीं। या तो प्यार आदमी को बादलों की ऊँचाई तक उठा ले जाता है, या स्वर्ग से पाताल में फेंक देता है। लेकिन कुछ प्राणी हैं, जो न स्वर्ग के हैं न नरक के, वे दोनों लोकों के बीच में अन्धकार की परतों में भटकते रहते हैं। वे किसी को प्यार नहीं करते, छायाओं को पकड़ने का प्रयास करते हैं, या शायद प्यार करते हैं या निरन्तर नयी अनुभूतियों के पीछे दीवाने रहते हैं और प्यार बिल्कुल करते ही नहीं। उनको न दु:ख होता है न सुख, उनकी दुनिया में केवल संशय, अस्थिरता और प्यास होती है…कपूर, मैं उसी अभागे लोक की एक प्यासी आत्मा थी। अपने एकान्त से घबराकर तुम्हें अपने बाहुपाश में बाँधकर तुम्हारे विश्वास को स्वर्ग से खींच लायी थी। तुम स्वर्ग-भ्रष्ट देवता, भूलकर मेरे अभिशप्त लोक में आ गये थे।

आज मालूम होता है कि फिर तुम्हारे विश्वास ने तुम्हें पुकारा है। मैं अपनी प्यास में खुद धधक उठूँ, लेकिन तुम्हें मैंने अपना मित्र माना था। तुम पर मैं आँच नहीं आने देना चाहती। तुम मेरे योग्य नहीं, तुम अपने विश्वासों के लोक में लौट जाओ।

मैं जानती हूँ तुम मेरे लिए चिन्तित हो। लेकिन मैंने अपना रास्ता निश्चित कर लिया है। स्त्री बिना पुरुष के आश्रय के नहीं रह सकती। उस अभागी को जैसे प्रकृति ने कोई अभिशाप दे दिया है।…मैं थक गयी हूँ इस प्रेमलोक की भटकन से।…मैं अपने पति के पास जा रही हूँ। वे क्षमा कर देंगे, मुझे विश्वास है।

उन्हीं के पास क्यों जा रही हूँ? इसलिए मेरे मित्र, कि मैं अब सोच रही हूँ कि स्त्री स्वाधीन नहीं रह सकती। उसके पास पत्नीत्व के सिवा कोई चारा नहीं। जहाँ जरा स्वाधीन हुई कि बस उसी अन्धकूप में जा पड़ती है जहाँ मैं थी। वह अपना शरीर भी खोकर तृप्ति नहीं पाती। फिर प्यार से तो मेरा विश्वास जैसे उठा जा रहा है, प्यार स्थायी नहीं होता। मैं ईसाई हूँ, पर सभी अनुभवों के बाद मुझे पता लगता है कि हिन्दुओं के यहाँ प्रेम नहीं वरन धर्म और सामाजिक परिस्थितियों के आधार पर विवाह की रीति बहुत वैज्ञानिक और नारी के लिए सबसे ज्यादा लाभदायक है। उसमें नारी को थोड़ा बन्धन चाहे क्यों न हो लेकिन दायित्व रहता है, सन्तोष रहता है, वह अपने घर की रानी रहती है। काश कि तुम समझ पाते कि खुले आकाश में इधर-उधर भटकने के बाद, तूफानों से लड़ने के बाद मैं कितनी आतुर हो उठी हूँ बन्धनों के लिए, और किसी सशक्त डाल पर बने हुए सुखद, सुकोमल नीड़ में बसेरा लेने के लिए। जिस नीड़ को मैं इतने दिनों पहले उजाड़ चुकी थी, आज वह फिर मुझे पुकार रहा है। हर नारी के जीवन में यह क्षण आता है और शायद इसीलिए हिन्दू प्रेम के बजाय विवाह को अधिक महत्व देते हैं।

मैं तुम्हारे पास नहीं रुकी। मैं जानती थी कि हम दोनों के सम्बन्धों में प्रारम्भ से इतनी विचित्रताएँ थीं कि हम दोनों का सम्बन्ध स्थायी नहीं रह सकता था, फिर भी जिन क्षणों में हम दोनों एक ही तूफान में फँस गये थे, वे क्षण मेरे लिए अमूल्य निधि रहेंगे। तुम बुरा न मानना। मैं तुमसे जरा भी नाराज नहीं हूँ। मैं न अपने को गुनहगार मानती हूँ, न तुम्हें, फिर भी अगर तुम मेरी सलाह मान सको तो मान लेना। किसी अच्छी-सी सीधी-सादी हिन्दू लड़की से अपना विवाह कर लेना। किसी बहुत बौद्धिक लड़की, जो तुम्हें प्यार करने का दम भरती हो, उसके फन्दे में न फँसना कपूर, मैं उम्र और अनुभव दोनों में तुमसे बड़ी हूँ। विवाह में भावना या आकर्षण अकसर जहर बिखेर देता है। ब्याह करने के बाद एक-आध महीने के लिए अपनी पत्नी सहित मेरे पास जरूर आना, कपूर। मैं उसे देखकर वह सन्तोष पा लूँगी, जो हमारी सभ्यता ने हम अभागों से छीन लिया है।

अभी मैं साल भर तक तुमसे नहीं मिलूँगी। मुझे तुमसे अब भी डर लगता है लेकिन इस बीच में तुम बर्टी का खयाल रखना। कभी-कभी उसे देख लेना। रुपये की कमी तो उसे न होगी। बीवी भी उसे ऐसी मिल गयी है, जिसने उसे ठीक कर दिया है…उस अभागे भाई से अलग होते हुए मुझे कैसा लग रहा है, यह तुम जानते, अगर तुम बहन होते।

अगला पत्र तुम्हें तभी लिखूँगी जब मेरे पति से मेरा समझौता हो जाएगा…नाराज तो नहीं हो?

-प्रमिला डिक्रूज।”

चंदर पम्मी को लौटाने नहीं गया। कॉलेज भी नहीं गया। एक लम्बा-सा खत बिनती को लिखता रहा और इसकी प्रतिलिपि कर दोनों नत्थी कर भेज दिये और उसके बाद थककर सो गया…बिना खाना खाये।

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