चैप्टर 23 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 23 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 23 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 23 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 23 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

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माण्डव्य उपरिचर : वैशाली की नगरवधू

महाराज प्रसेनजित् दीर्घिका के शुभ्र मर्मर सोपान पर बैठे थे। स्वच्छ जल में रंग-बिरंगी मछलियां क्रीड़ा कर रही थीं। प्रभात का सुखद समीर नये पत्तों से लदे वृक्षों को मन्द-मन्द हिला रहा था। बड़ा ही मनोहर वसन्त का प्रभात था वह। महाराज की आंखें उनींदी और शरीर अलस हो रहा था। वे चुपचाप बैठे जल की तरंगों को देख रहे थे।

एक वेत्रवती ने निवेदन किया—”आचार्य माण्डव्य उपरिचर आए हैं।”

“यहीं ले आ उन्हें।”

माण्डव्य आचार्य की आयु का कोई पता ही नहीं लगता था। उनका चेहरा भावहीन, नेत्र अतिरिक्त भ्रमित–से, भौंहें बहुत बड़ी-बड़ी, कान नीचे तक लटके हुए, शरीर रोमश और रंग अति काला था। उनकी कमर पर लाल रंग का कौशेय था। ऊपर की पीठ और वक्ष बिलकुल खुला था। मस्तक पर रक्तचन्दन का लेप और पैरों में मृगचर्म का उपानह था। उनकी दन्तावली सुदृढ़ थी। नेत्रों की कोर से कभी-कभी चमक निकलती थी। चेहरा श्मश्रु से भरा था। उनका शरीर लोह-निर्मित मालूम होता था। कण्ठ में स्वच्छ जनेऊ था। हाथ में एक मोटा दण्ड था। चलने का ढंग मतवालों जैसा था।

उन्होंने कर्कश वाणी से हाथ उठाकर महाराज को आशीर्वाद दिया।

“आचार्य, मैं बड़ी देर से आपकी प्रतीक्षा कर रहा हूं।”

“किसलिए महाराज, रात को सुखद नींद आती है न?”

“आचार्य, रात की बात क्या कहते हैं, जीवन अब घिस-सा गया है। सोचता हूं, कुछ परलोक-चिन्तन करूं।”

“महाराज की बातें! लोक-परलोक, सुख-दुख, पाप-पुण्य, आचार-दुराचार, देव-देवता, ये सब तो बाल कल्पनाएं हैं राजन्! क्या आप भी उस मूर्ख प्रवाहण की मुक्ति, पुनर्जन्म और आत्मा के मायाजाल में फंसे हैं?”

“परन्तु जीवन तो मिथ्या नहीं है आचार्य।”

“जीवन सत्य है। तो फिर नकद छोड़कर उधार के पीछे क्यों दौड़ते हैं?”

“अरे आचार्य! नकद सामने रहते जो टुकुर-टुकुर ताकना पड़ता है सो?”

आचार्य हंसकर वहीं शिलाखण्ड पर बैठ गए। उन्होंने कहा—”क्या यहां तक महाराज!”

“सत्य ही आचार्य, नग्न रूप और यौवन भी मेरे गलित काम को नहीं जगाता, पुराण द्राक्षा की सुवास अब नेत्रों में रक्त आभा नहीं प्रकट कर सकती, कभी उस के रंग में जगत् रंगीला दीखता था।”

“तब महाराज सिद्ध योगी हो गए प्रतीत होते हैं।”

“योगी को फिर देश-विदेश से लाई सुन्दरियों का क्या लाभ है?”

“बांट दीजिए महाराज, तरुणों को उनकी आवश्यकता है। एक यज्ञ रचकर सुपात्र ऋत्विज ब्राह्मणों को उन्हें दान दीजिए।”

“किन्तु ये स्वार्थी लोलुप ब्राह्मण इधर सुन्दरी दासियों को ले जाते हैं, उधर उनके रत्नाभरण उतारकर पांच-पांच निष्क में बूढ़ों को बेच देते हैं।”

“इसमें बूढ़ों का प्रत्युपकार भी तो होता है महाराज, उन्हें तरुणियों की अत्यधिक आवश्यकता है।”

“फिर इस बूढ़े की ओर आचार्य क्यों नहीं ध्यान देते? क्या आपको विदित नहीं कि गान्धार-कन्या कलिंगसेना अन्तःपुर में आ रही हैं। आपकी अमोघ रसायन-विद्या किस काम आएगी?”

“क्यों? क्या तक्षशिला के उस तरुण मागध वैद्य का वाजीकरण व्यर्थ गया?”

“जीवक कौमारभृत्य की बात कहते हैं आचार्य?”

“यही तो उसका नाम है।”

“बिलकुल व्यर्थ? आचार्य, सुना था, वह तक्षशिला से चिकित्सा में पारंगत होकर आया है। मैंने बड़ी आशा की थी।”

“परन्तु अब बिलकुल आशा नहीं रही, महाराज?”

“आचार्यपाद जब तक हैं, तब तक तो आशा है। मुनि बृहस्पति के फिर आप शिष्य कैसे?”

“तब यह लीजिए महाराज, रसायन देता हूं।”

यह कहकर एक छोटा-सा बिल्वफल आचार्य ने महाराज के हाथ पर रखकर कहा—”इसमें एक ही मात्रा रसायन है। यह देह-सिद्धि तथा लोह-सिद्धि दोनों ही कार्य करेगी। इससे चाहे तो सामने के सम्पूर्ण पर्वत को स्वर्ण का बना लें महाराज चाहे अपने इस गलित-वृद्ध शरीर को वज्र के समान दृढ़ बना लें और स्वच्छन्द नव विकसित अनिन्द्य गान्धार पुत्री के सौन्दर्य का आनन्द लूटें।”

“आचार्य का बड़ा अनुग्रह है। स्वर्ण-राशि की मेरे कोष में कमी नहीं। यह देह उपलब्ध सुख-साधनों के भोगने में समर्थ हो, यही चाहता हूं।”

“तो राजन्, चिरकाल तक उन सुख-साधनों का भोग कीजिए। मैं आशीर्वाद देता हूं।”

आचार्य हंसते हुए चले गए। महाराज उत्साहित हो धीरे-धीरे दो युवतियों के कन्धों पर हाथ रख महल में लौटे। धूप तेज हो गई थी।

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