चैप्टर 23 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 23 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel In Hindi , Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas
Chapter 23 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu
गाँव के लोग अर्थशास्त्र का साधारण सिद्धान्त भी नहीं जानते। ‘सप्लाई’ और ‘डिमांड’ के गोरख-धन्धे में वे अपना दिमाग नहीं खपाते। अनाज का दर बढ़ रहा है; खुशी की बात है। पाट का दर बढ़ रहा है, बढ़ता जा रहा है, और भी खुशी की बात है। पन्द्रह रुपए में साड़ी मिलती है तो बारह रुपए मन धान भी तो है। हल का फाल पाँच रुपए में मिलता है, दस रुपए में कड़ाही मिलती है तो क्या हुआ ? पाट का भाव भी तो बीस रुपए मन है। खुशी की बात है।
अनाज के ऊँचे दर से गाँव के तीन ही व्यक्तियों ने फायदा उठाया है-तहसीलदार साहब ने, सिंघ जी ने और खेलावनसिंह यादव ने। छोटे-छोटे किसानों की जमीनें कौड़ी के मोल बिक रही हैं। मजदूरों को सवा रुपए रोज मजदूरी मिलती है, लेकिन एक आदमी का भी पेट नहीं भरता। पाँच साल पहले सिर्फ पाँच आने रोज मजदूरी मिलती थी और उसी में घर-भर के लोग खाते थे।
तहसीलदार साहब ने धान तैयार होते ही न जाने कहाँ छिपा दिया है। दरवाजे पर दर्जनों बखार हैं, लेकिन इस साल सब खाली। चमगादड़ों के अड्डे हैं।…सरकार शायद धान-जप्ती का कानून बना रही है।
कपड़े के बिना सारे गाँव के लोग अर्धनग्न हैं। मर्दो ने पैंट पहनना शुरू कर दिया है और औरतें आँगन में काम करते समय एक कपड़ा कमर में लपेटकर काम चला लेती हैं; बारह वर्ष तक के बच्चे नंगे ही रहते हैं।
शिवनाथ चौधरी सभा में खादी के अर्थशास्त्र पर प्रकाश डाल रहे हैं। आँकड़े देकर साबित कर रहे हैं कि यदि घर का एक-एक व्यक्ति चरखा चलाने लगे तो गाँव से गरीबी दूर हो जाएगी; अन्न-वस्त्र की कमी नहीं रहेगी।
चरखा सेंटर खुल गया है। अब गाँव में गरीबी नहीं रहेगी। पटना से दो मास्टर आए हैं-चरखा मास्टर और करघा मास्टर। एक मास्टरनी भी आई हैं-औरतों को चरखा सिखाने के लिए। औरतों से कहती हैं, “चरखा हमार भतार-पूत, चरखा हमार नाती; चरखा के बदौलत मोरा दुआर झूले हाथी।”
चरखा की बदौलत हाथी ? जै…गाँधी जी की जै !
सैनिक जी और चिनगारी जी की तरह गरम भाखन शिवनाथ चौधरी जी नहीं देते हैं, लेकिन बात पक्की कहते हैं। एकदम हिसाब से सब बात कहते हैं। खूब ज्ञान की बात कहते हैं। कल का पिसा हुआ आटा नहीं खाते हैं। चीनी नहीं, गुड़ खाते हैं। त्यागी आदमी हैं। चौधरी जी के साथ में दरभंगा जिले में तमोडिया टीशन से रमलगीना बाबू आए हैं। सुनते हैं, पानी से ही बीमारी का इलाज करते हैं। आग में पकाई हुई चीज नहीं खाते हैं। साग की हरी पत्तियाँ चबाकर खाते हैं। कहते हैं, इसमें बहुत ताकत है। वह भी असल त्यागी हैं। देह में सिर्फ हड्डियाँ बाकी बच गई हैं, मांस का लेश भी नहीं। दिन-भर में करीब पन्द्रह बार हाथ में लोटा लेकर मैदान की ओर जाते हैं।
सादा कागजवाला एक फाहरम (परचा) बाँट हुआ है। फाहरम पर महतमा जी की छापी (तस्वीर) है और नीचे लिखा है…
बापू कहते हैं :
जो पहने सो काते,
जो काते सो पहने।
सोशलिट पाटीवालों ने भी फाहरम बाँट किया था। लेकिन वह लाल रंग का था और उसमें एक दोहा ज्यादा था…
जो जोतेगा सो बोएगा।
जो बोएगा सो काटेगा।
जो काटेगा वह बाँटेगा।
बालदेव जी की जगह पर बौनदास आया है। यही पुरैनियाँ सभा में रजिन्नरबाबू के सामने भाखन देता था। बालदेव जी को पुर्जी बाँटने से छुट्टी नहीं मिलती है, इसीलिए पबलि का काम करने के लिए बौनदास को यहाँ भेजा गया है। बड़ा बहादुर है बौनदास ! कहते हैं, जब 42 के मोमेंट में लोग कचहरी पर झंडा फहराने जा रहे थे तो मलेटरी ने घेर लिया था। बौनदास एक मलेटरी के फैले हुए पैर के बीच से उस पार चला गया और कचहरी के हाता में झंडा फहरा दिया…रमैन में हलुमान जी ने सुरसा को मसक रूप धरकर जिस तरह छकाया था, उसी तरह।
“इस आर्यावर्त में केवल आर्य अर्थात् शुद्ध हिन्दू ही रह सकते हैं,” काली टोपीवाले संयोजक जी बौद्धिक क्लास में रोज कहते हैं, “यवनों ने हमारे आर्यवर्त की संस्कृति, धर्म, कला-कौशल को नष्ट कर दिया है। अभी हिन्दू सन्तान म्लेच्छ संस्कृति की पुजारी हो गई है। शिव जी, महाराणा प्रताप…।”
बौद्धिक क्लास ! सोशलिस्ट पार्टी का बासुदेव कहता है…बुद्ध किलास। बासुदेव ही नहीं, काली टोपीवाले बहुत से जवान भी बुद्धू किलास ही कहते हैं।
लाठी, भाला और तलवार हाथ में लेते ही खून गरम हो जाता है राजपूत नौजवानों का। उस दिन हरगौरी कह रहा था-संयोजक जी ! यवनों पर मुझे क्रोध नहीं होता। यवनों का पक्ष लेनेवाले हिन्दुओं की तो गरदन उड़ा देने को जी करता है।” संयोजक जी जरा दूर हट गए थे, नहीं तो हरगौरी ने इस तरह तलवार चलाई थी कि संयोजक जी की गरदन ही धड़ से अलग हो जाती।…आरजाब्रत !…मेरीगंज का ही नाम अब शायद ‘आरजाब्रत’ हो गया है ! लेकिन इस गाँव में तो एक भी मुसलमान नहीं !…
गाँव-भर के हलवाहों, चरवाहों और मजदूरों का नेता कालीचरन है। छोटा नेता बासुदेव सबों को समझाता है, “भाई, आदमी को एक ही रंग में रहना चाहिए। यह तीन रंग का झंडा…थोड़ा सादा, थोड़ा लाल और पीला…यह तो खिचड़ी पाटी का झंडा है। कांग्रेस तो खिचड़ी पाटी है। इसमें जमींदार हैं, सेठ लोग हैं और पासंग मारने के लिए थोड़ा किसान-मजदूरों को भी मेम्बर बना लिया जाता है। गरीबों को एक ही रंग के झंडेवाली पार्टी में रहना चाहिए।”
तहसीलदार साहब भी कांग्रेसी हो गए हैं।
उन्होंने चरखा-सेंटर के लिए अपना गुहाल-घर दे दिया है; खद्दर पहनने लगे हैं। बोलते थे, सारी जिन्दगी तो झूठ-बेईमानी करते ही गुजर गई। आखिरी उम्र में पुण्य भी करना चाहिए। …तहसीलदार साहब चवन्निया मेम्बर नहीं बने हैं। चवन्निया मेम्बर तो सभी बनते हैं। तहसीलदार साहब चार-सौ-टकिया मेम्बर बने हैं। देखा नहीं ? शिवनाथबाबू ने रसीद काटकर दिया और तहसीलदार साहब ने तुरन्त मंधाता (तम्बाकू की एक किस्म) तम्बाकू के पत्तों के बराबर चार नम्बरी नोट निकालकर दे दिया। खड़-खड़ करता था नोट !…अब सोशलिस्ट पाटी का चलना मुश्किल है। पाटी में एक भी धनी आदमी नहीं है। मठ की कोठारिन कब तक पाटी चलाएगी।
दफा 40 की लोटिस आई है।
जिला कांग्रेस के मन्त्री जी ने लोटिस भेज दिया है। सोशलिस्ट पार्टी तो जोर-जबर्दस्ती जमीन पर कब्जा करने को कहती है। कांग्रेस के मन्त्री जी ने दफा 40 कानून पास करके नोटिस भेज दिया है। बालदेव जी हाट में लोटिस बाँट रहे हैं;…दफा 40 कानून पास हो गया। अधिया, बटैयादारी करनेवाले किसान अपनी जमीन नकदी करा लें, बहती गंगा में हाथ धो लें। नया कानून पास हो गया। हिंसाबाद करने की जरूरत नहीं। पुरैनियाँ कचहरी में दफा 40 का हाकिम आ गया है। दरखास दे दो, बस, जमीन नकदी हो जाएगी।
वाजिब बात कहते हैं बालदेव जी। यदि बिना तूलफजूल किए ही जमीन नकदी हो रही है तो सोशलिट पाटी में जाने की क्या जरूरत है ? कांग्रेस का राज है, जिस चीज की जरूरत हो, कांग्रेस के मन्त्री जी से कहो। कानून बना देंगे। तब, एक बात है। इस तरह छिटपुट होकर कहने से कांग्रेस के मन्त्री भी कुछ नहीं कर सकते हैं। सबों को एक जगह मिलना चाहिए, मिलकर एक ही बात बोलनी चाहिए। दस मिलकर करो काज, हारो-जीतो क्या है लाज !…गलती तो पबलि की ही है, कोई कांग्रेस में तो कोई सुशलिट में तो कोई काली टोपी में, इस तरह तितिर-बितिर रहने से पबलि की कोई भलाई नहीं हो सकती। बालदेव जी ठीक कहते हैं !
“फॉट्टी बी.टी. ऐक्ट ?” सोशलिस्ट पार्टी के जिला मन्त्री जी कॉमरेड कालीचरन को समझाते हैं, “फौट्टी बी.टी. ऐक्ट तो कोई नया कानून नहीं। यह तो पुराना कानून है। कांग्रेस के मन्त्री ने परचे बँटवाए हैं ? ठीक है। आप भी गाँव के किसानों से कहिए कि जितने बड़े किसान हैं, सबों की जमीन पर धावा कर दें। कोई किसी के खिलाफ गवाही नहीं दे। कानून से क्या होता है ? असल चीज है, साबित करना। सबूत पक्का होना चाहिए। गवाहों के इजहार में भी जरा डेढ़-बेढ़ नहीं हो। यह तो तभी हो सकता है जब सभी गरीब एक झंडे के नीचे एक पार्टी में, एक सूत्र में बंध जाएँ। तहसीलदार साहब कांग्रेसी हो गए हैं। बस, उन्हीं की जमीन पर किसानों द्वारा दावा करवा दीजिए। रंग खुल जाएगा। तब देखिएगा कि कांग्रेस के मन्त्री जी की नोटिस-बाजी की क्या कीमत है !…’लाल-पताका’ के इस अंक में चिनगारी जी का इस सम्बन्ध में एक विशेष आर्टिकल है, ज्यादे कौपी ले जाइए इस बार।”
“…दफा 40, आधी और बटैयादारी करनेवालों की जमीन पर सर्वाधिकार दिलाने का कानून है। लेकिन कानून में छोटा-सा छेद भी रहे तो उससे हाथी निकल जा सकता है।…जितने दफा 40 के हाकिम नियुक्त हुए हैं, सभी या तो जमींदार अथवा बड़े-बड़े किसानों के बेटे हैं। उनसे गरीबों की भलाई की आशा बेकार है। लेकिन, एकता की शक्ति कानून से भी बढ़कर है। सोशलिस्ट पार्टी के लाल झंडे के नीचे होकर हम प्रतिज्ञा करें कि जमींदारों और बड़े किसानों के पक्ष में गाँव का एक बच्चा भी गवाही नहीं देगा। ‘लाल पताका’ आधीदारों को विश्वास दिलाता है…।”
कहना वाजिब है!
“बात वाजिब नहीं, यह बात का बतंगड़ है !”
जोतखी जी सभी बात में मीन-मेख निकालते हैं, “दो भैंस की लड़ाई में दूव के सिर आफत। कांग्रेस और सुशलिंग अपने में लड़ रहा है। दोनों अपना-अपना मेम्बर बनाना चाहता है। चक्की के दो पाट में गरीब लोग ही पीसे जाएँगे।”
“गरीब पीसे नहीं जाएँगे, गरीबों की भलाई होगी। एक पाटी रहने से काम नहीं होता है। जब दो दलों में मुकाबला और हिडिस (प्रतियोगिता) होता है तो फायदा पबलि का ही होता है। उस बार रौतहट मेला में बिदेसिया नाचवाला आया था। मन लगाकर न तो नाच करता था और न गाना ही अच्छी तरह गाता था। तीसरे दिन बलवाही नाच (बाउल सुर में गीत गाकर नाचनेवाला दल) का भी एक दल आ गया। दोनों में मुकाबला हो गया। साम ही से दोनों ने नाच शुरू किया; कितना गजल, कौवाली, खेमटा और दादरा गाया, इसका ठिकाना नहीं। सूरज उगने तक दोनों दलवाले नाचते ही रहे। तब मेला मनेजर बाबू ने दोनों दलों के लोगों को समझा-बुझाकर नाच बन्द करवाया था।”
चलित्तर कर्मकार आया है।
किरांती चलित्तर कर्मकार ! जाति का कमार है, घर सेमापुर में है। मोमेंट के समय गोरा मलेटरी इसके नाम को सुनते ही पेसाब करने लगता था। बम-पिस्तौल और बन्दूक . चलाने में मसहूर ! मोमेंट के समय जितने सरकारी गवाह बने थे, सबों के नाक-कान काट लिए थे चलित्तर ने। बहादुर है। कभी पकड़ाया नहीं। कितने सीआईडी को जान से खतम किया। धरमपुर के बड़े-बड़े लोग इसके नाम से थर-थर काँपते थे। ज्यों ही चलित्तर का घोड़ा दरवाजे पर पहुँचा कि ‘सीसी सटक’ । दीजिए चन्दा।…पचास ! नहीं, पाँच सौ से कम एक पैसा नहीं लेंगे। नहीं है ? चाबी लाइए तिजोरी की। नहीं ?…ठाएँ। ठाएँ !…दस खूनी केस उसके ऊपर था, लेकिन कभी पकड़ा नहीं गया। आखिर हारकर सरकार ने मुकदमा उठा लिया ! किरांती चलित्तर कर्मकार कालीचरन के यहाँ आया है ? बस, तब क्या है ? करैला चढ़ा नीम पर। चलित्तर भी सोशलिट पाटी में है ? तब तो जरूर बम-पेस्तौल की टरेनि ही देने आया है। बम-पेस्तौल के सामने काली टोपीवालों की लाठी क्या करेगी ? हाथी के आगे पिद्दी !
चरखा-कर्घा, लाठी-भाला और बम-पेस्तौल ! तीन टरेनि ! :
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तीसरी कसम फणीश्वर नाथ रेणु का उपन्यास
चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास