चैप्टर 23 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 23 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

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Chapter 23 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

Chapter 23 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti

वह नहाकर आया और शीशे के सामने खड़ा होकर बाल काढ़ने लगा-फिर शीशे की ओर एकटक देखकर बोला, ”मुझे क्या देख रहे हो, चंदर बाबू! मुझे तो तुमने बर्बाद कर डाला। आज कई महीने हो गये और तुमने एक चिट्ठी तक नहीं लिखी, छिह!” और उसने शीशा उलटकर रख दिया।

महराजिन खाना ले आयी। उसने खाना खाया और सुस्त-सा पड़ रहा। ”भइया, आज घूमै न जाबो?”

”नहीं!” चंदर ने कहा और पड़ा-पड़ा सोचने लगा। पम्मी के यहाँ नहीं गया।

यह गेसू दूसरे कमरे में बैठी थी। इस कमरे में बिनती उसे कैलाश का चित्र दिखा रही थी।…चित्र उसके मन में घूमने लगे… चंदर, क्या इस दुनिया में तुम्हीं रह गये थे फोटो दिखाकर पसन्द कराने के लिए… चंदर का हाथ उठा। तड़ से एक तमाचा…चंदर, चोट तो नहीं आयी…मान लिया कि मेरे मन ने मुझसे न कहा हो, तुमसे तो मेरा मन कोई बात नहीं छिपाता…तो चंदर, तुम शादी कर क्यों नहीं लेते? पापा लड़की देख आएँगे…हम भी देख लेंगे…तो फिर तुम बैठो तो हम पढ़ेंगे, वरना हमें शरम लगती है… चंदर, तुम शादी मत करना, तुम इस सबके लिए नहीं बने हो…नहीं सुधा, तुम्हारे वक्ष पर सिर रखकर कितना सन्तोष मिलता है…

आसमान में एक-एक करके तारे टूटते जा रहे थे।

वह पम्मी के यहाँ नहीं गया। एक दिन…दो दिन…तीन दिन…अन्त में चौथे दिन शाम को पम्मी खुद आयी। चंदर खाना खा चुका था और लॉन पर टहल रहा था। पम्मी आयी। उसने स्वागत किया लेकिन उसकी मुस्कराहट में उल्लास नहीं था।

”कहो कपूर, आये क्यों नहीं? मैं समझी, तुम बीमार हो गये!” पम्मी ने लॉन पर पड़ी एक कुर्सी पर बैठते हुए कहा, ”आओ, बैठो न!” उसने चंदर की ओर कुर्सी खिसकायी।

”नहीं, तुम बैठो, मैं टहलता रहूँगा!” चंदर बोला और कहने लगा, ”पता नहीं क्यों पम्मी, दो-तीन दिन से तबीयत बहुत उदास-सी है। तुम्हारे यहाँ आने को तबीयत नहीं हुई!”

”क्यों, क्या हुआ?” पम्मी ने पूछा और चंदर का हाथ पकड़ लिया। चंदर पम्मी की कुर्सी के पीछे खड़ा हो गया। पम्मी ने चंदर के दोनों हाथ पकड़ कर अपने गले में डाल लिये और अपना सिर चंदर से टिकाकर उसकी ओर देखने लगी। चंदर चुप था। न उसने पम्मी के गाल थपथपाये, न हाथ दबाया, न अलकें बिखेरीं और न निगाहों में नशा ही बिखेरा।

औरत अपने प्रति आने वाले प्यार और आकर्षण को समझने में चाहे एक बार भूल कर जाये, लेकिन वह अपने प्रति आने वाली उदासी और उपेक्षा को पहचानने में कभी भूल नहीं करती। वह होठों पर होठों के स्पर्शों के गूढ़तम अर्थ समझ सकती है, वह आपके स्पर्श में आपकी नसों से चलती हुई भावना पहचान सकती है, वह आपके वक्ष से सिर टिकाकर आपके दिल की धड़कनों की भाषा समझ सकती है, यदि उसे थोड़ा-सा भी अनुभव है और आप उसके हाथ पर हाथ रखते हैं तो स्पर्श की अनुभूति से ही जान जाएगी कि आप उससे कोई प्रश्न कर रहे हैं, कोई याचना कर रहे हैं, सान्त्वना दे रहे हैं या सान्त्वना माँग रहे हैं। क्षमा माँग रहे हैं या क्षमा दे रहे हैं, प्यार का प्रारम्भ कर रहे हैं या समाप्त कर रहे हैं। स्वागत कर रहे हैं या विदा दे रहे हैं। यह पुलक का स्पर्श है या उदासी का चाव और नशे का स्पर्श है या खिन्नता और बेमनी का।

पम्मी चंदर के हाथों को छूते ही जान गयी कि हाथ चाहे गरम हों, लेकिन स्पर्श बड़ा शीतल है, बड़ा नीरस। उसमें वह पिघली हुई आग की शराब नहीं है, जो अभी तक चंदर के होठों पर धधकती थी, चंदर के स्पर्शों में बिखरती थी।

”कुछ तबीयत खराब है कपूर, बैठ जाओ!” पम्मी ने उठकर चंदर को जबरदस्ती बिठाल दिया, ”आजकल बहुत मेहनत पड़ती है, क्यों? चलो, तुम हमारे यहाँ रहो!”

पम्मी में केवल शरीर की प्यास थी, यह कहना पम्मी के प्रति अन्याय होगा। पम्मी में एक बहुत गहरी हमदर्दी थी चंदर के लिए। चंदर6अगर शरीर की प्यास को जीत भी लेता, तो उसकी हमदर्दी को वह नहीं ठुकरा पाता था। उस हमदर्दी का तिरस्कार होने से पम्मी दु:खी होती थी और उसे वह तभी स्वीकृत समझती थी जब चंदर उसके रूप के आकर्षण में डूबा रहे। अगर पुरुषों के होठों में तीखी प्यास न हो, बाहुपाशों में जहर न हो, तो वासना की इस शिथिलता से नारी फौरन समझ जाती है कि सम्बन्धों में दूरी आती जा रही है। सम्बन्धों की घनिष्ठता को नापने का नारी के पास एक ही मापदंड है, चुम्बन का तीखापन!

चंदर के मन में ही नहीं वरन स्पर्शों में भी इतनी बिखरती हुई उदासी थी, इतनी उपेक्षा थी कि पम्मी मर्माहत हो गयी। उसके लिए यह पहली पराजय थी! आजकल पम्मी जान जाती थी कि चंदर का रोम-रोम इस वक्त पम्मी की साँसों में डूबा हुआ है।

लेकिन पम्मी ने देखा कि चंदर उसकी बाँहों में होते हुए भी दूर, बहुत दूर न जाने किन विचारों में उलझा हुआ है। वह उससे दूर चला जा रहा है, बहुत दूर। पम्मी की धड़कनें अस्त-व्यस्त हो गयीं। उसकी समझ में नहीं, आया वह क्या करे! चंदर को क्या हो गया? क्या पम्मी का जादू टूट रहा है? पम्मी ने अपनी पराजय से कुंठित होकर अपना हाथ हटा लिया और चुपचाप मुँह फेरकर उधर देखने लगी। चंदर चाहे जितना उदास हो, लेकिन पम्मी की उदासी वह नहीं सह सकता था। बुरी या भली, पम्मी इस वक्त उसकी सूनी जिंदगी का अकेला सहारा थी और पम्मी की हमदर्दी का वह बहुत कृतज्ञ था। वह समझ गया, पम्मी क्यों उदास है! उसने पम्मी का हाथ खींच लिया और अपने होंठ उसकी हथेलियों पर रख दिये और खींचकर पम्मी का सिर अपने कंधे पर रख लिया…

पुरुष के जीवन में एक क्षण आता है, जब वासना उसकी कमजोरी, उसकी प्यास, उसका नशा, उसका आवेश नहीं रह जाती। जब वासना उसकी हमदर्दी का, उसकी सान्त्वना का साधन बन जाती है। जब वह नारी को इसलिए बाँहों में नहीं समेटता कि उसकी बाँहें प्यासी हैं, वह इसलिए उसे बाँहों में समेट लेता है कि नारी अपना दुख भूल जाए। जिस वक्त वह नारी की सीपिया पलकों के नशे में नहीं वरन उसकी आँखों के आँसू सुखाने के लिए उसकी पलकों पर होंठ रख देता है, जीवन के उस क्षण में पुरुष जिस नारी से सहानुभूति रखता है, उसके मन की पराजय को भुलाने के लिए वह नारी को बाहुपाश के नशे में बहला देना चाहता है! लेकिन इन बाहुपाशों में प्यास जरा भी नहीं होती, आग जरा भी नहीं होती, सिर्फ नारी को बहलावा देने का प्रयास मात्र होता है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि चंदर के मन पर छाया हुआ पम्मी के रूप का गुलाबी बादल उचटता जा रहा था, नशा उखड़ा-सा रहा था। लेकिन चंदर पम्मी को दु:खी नहीं करना चाहता था, वह भरसक पम्मी को बहलाये रखता था…लेकिन उसके मन में कहीं-न-कहीं फिर अंतर्द्वंद्व का एक तूफान चलने लगा था…

गेसू ने उसके सामने उसकी साल-भर पहले की जिंदगी का वह चित्र रख दिया था, जिसकी एक झलक उस अभागे को पागल कर देने के लिए काफी थी। चंदर जैसे-तैसे मन को पत्थर बनाकर, अपनी आत्मा को रूप की शराब में डुबोकर, अपने विश्वासों में छलकर उसको भुला पाया था। उसे जीता पाया था। लेकिन गेसू ने और गेसू की बातों ने जैसे उसके मन में मूर्च्छित पड़ी अभिशाप की छाया में फिर प्राण-प्रतिष्ठा कर दी थी और आधी रात के सन्नाटे में फिर चंदर को सुनाई देता था कि उसके मन में कोई काली छाया बार-बार सिसकने लगती है और चंदर के हृदय से टकराकर वह रुदन बार-बार कहता था, ”देवता! तुमने मेरी हत्या कर डाली! मेरी हत्या, जिसे तुमने स्वर्ग और ईश्वर से बढ़कर माना था…” और चंदर इन आवाजों से घबरा उठता था।

विस्मरण की एक तरंग जहाँ चंदर को पम्मी के पास खींच लायी थी, वहाँ अतीत के स्मरण की दूसरी तरंग उसे वेग में उलझाकर जैसे फिर उसे दूर खींच ले जाने के लिए व्याकुल हो उठी। उसको लगा कि पम्मी के लिए उसके मन में जो मादक नशा था, उस पर ग्लानि का कोहरा छाता जा रहा है और अभी तक उसने जो कुछ किया था, उसके लिए उसी के मन में कहीं-न-कहीं पर हल्की-सी अरुचि झलकने लगी थी। फिर भी पम्मी का जादू बदस्तूर कायम था। वह पम्मी के प्रति कृतज्ञ था और वह पम्मी को कहीं, किसी भी हालत में दुखी नहीं करना चाहता था। भले वह गुनाह करके अपनी कृतज्ञता जाहिर क्यों न कर पाये, लेकिन जैसे बिनती के मन में चंदर के प्रति जो श्रद्धा थी, वह नैतिकता-अनैतिकता के बन्धन से ऊपर उठकर थी, वैसे ही चंदर के मन में पम्मी के प्रति कृतज्ञता पुण्य और पाप के बन्धन से ऊपर उठकर थी। बिनती ने एक दिन चंदर से कहा था कि यदि वह चंदर को असन्तुष्ट करती है, तो वह उसे इतना बड़ा गुनाह लगता है कि उसके सामने उसे किसी भी पाप-पुण्य की परवा नहीं है। उसी तरह चंदर6 सोचता था कि सम्भव है कि उसका और पम्मी का यह सम्बन्ध पापमय हो, लेकिन इस सम्बन्ध को तोड़कर पम्मी को असन्तुष्ट और दु:खी करना इतना बड़ा पाप होगा जो अक्षम्य है।

लेकिन वह नशा टूट चुका था, वह साँस धीमी पड़ गयी थी…अपनी हर कोशिश के बावजूद वह पम्मी को उदास होने से बचा न पाता था।

एक दिन सुबह जब वह कॉलेज जा रहा था कि पम्मी की कार आयी। पम्मी बहुत ही उदास थी। चंदर ने आते ही उसका स्वागत किया। उसके कानों में एक नीले पत्थर का बुन्दा था, जिसकी हल्की छाँह गालों पर पड़ रही थी। चंदर ने झुककर वह नीली छाँह चूम ली।

पम्मी कुछ नहीं बोली। वह बैठ गयी और फिर चंदर से बोली, ”मैं लखनऊ जा रही हूँ, कपूर!”

”कब? आज?”

”हाँ, अभी कार से।”

”क्यों?”

”यों ही, मन ऊब गया! पता नहीं, कौन-सी छाँह मुझ पर छा गयी है। मैं शायद लखनऊ से मसूरी चली जाऊँ।”

”मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा, पहले तो तुमने बताया नहीं!”

”तुम्हीं ने कहाँ पहले बताया था!”

”क्या?”

”कुछ भी नहीं! अच्छा, चल रही हूँ।”

”सुनो तो!”

”नहीं, अब रोक नहीं सकते तुम…बहुत दूर जाना है चंदर…” वह चल दी। फिर वह लौटी और जैसे युगों-युगों की प्यास बुझा रही हो, चंदर के गले में झूल गयी और कस लिया चंदर को…पाँच मिनट बाद सहसा वह अलग हो गयी और फिर बिना कुछ बोले अपनी कार में बैठ गयी। ”पम्मी…तुम्हें हुआ क्या यह?”

”कुछ नहीं, कपूर।” पम्मी कार स्टार्ट करते हुए बोली, ”मैं तुमसे जितनी ही दूर रहूँ उतना ही अच्छा है, मेरे लिए भी, तुम्हारे लिए भी! तुम्हारे इन दिनों के व्यवहार ने मुझे बहुत कुछ सिखा दिया है?”

चंदर सिर से पैर तक ग्लानि से कुंठित हो उठा। सचमुच वह कितना अभागा है! वह किसी को भी सन्तुष्ट नहीं रख पाया। उसके जीवन में सुधा भी आयी और पम्मी भी, एक को उसके पुण्य ने उससे छीन लिया, दूसरी को उसका गुनाह उससे छीने लिये जा रहा है। जाने उसके ग्रहों का मालिक कितना क्रूर खिलाड़ी है कि हर कदम पर उसकी राह उलट देता है। नहीं, वह पम्मी को नहीं खो सकता-उसने पम्मी का कॉलर पकड़ लिया, ”पम्मी, तुम्हें हमारी कसम है-बुरा मत मानो! मैं तुम्हें जाने नहीं दूँगा।”

पम्मी हँसी-बड़ी ही करुण लेकिन सशक्त हँसी। अपने कॉलर को धीमे-से छुड़ाकर चंदर की अँगुलियों को कपोलों से दबा दिया और फिर वक्ष के पास से एक लिफाफा निकालकर चंदर के हाथों में दे दिया और कार स्टार्ट कर दी…पीछे मुड़कर नहीं देखा…नहीं देखा।

कार कड़ुवे धुएँ का बादल चंदर की ओर उड़ाकर आगे चल दी।

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