चैप्टर 22 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 22 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
Chapter 22 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
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कोसलेश प्रसेनजित् : वैशाली की नगरवधू
महाराज प्रसेनजित् कोमल गद्दे पर बैठे थे। दो यवनी दासियां पीछे खड़ी चंवर ढल रही थीं, उनका शरीर अत्यन्त गौरवर्ण था। आयु पैंसठ से भी अधिक हो गई थी। उनके खिचड़ी बाल बीच में चीरकर द्विफालबद्ध किए गए थे। बड़ी-बड़ी मूंछे यत्न से संवारी गई थीं और वे कान तक फैल रही थीं। वे कोमल फूलदार कौशेय पहने थे और कण्ठ, भुजा और मणिबंध पर बहुमूल्य रत्नाभरण पहने थे। इस समय उनका मन प्रसन्न नहीं था, वे कुछ उद्विग्न-से बैठे थे। कंचुकी ने राजपुत्र विदूडभ के आने की सूचना दी।
महाराज ने संकेत से आने को कहा।
विदूडभ ने बिना प्रणाम किए, आते ही पूछा—”महाराज ने मुझे स्मरण किया था!”
“किया था।”
“किसलिए?”
“परामर्श के लिए।”
“इसके लिए महाराज के सचिव और आचार्य माण्डव्य क्या यथेष्ट नहीं हैं?”
“किन्तु मैं तुम्हें कुछ परामर्श देना चाहता हूं विदूडभ!”
“मुझे! महाराज के परामर्श की मुझे आवश्यकता ही नहीं है।” राजपुत्र ने घृणा व्यक्त करते हुए कहा।
महाराज प्रसेनजित् गम्भीर बने रहे। उन्होंने कहा—”किन्तु रोगी की इच्छा से औषध नहीं दी जाती राजपुत्र!”
“तो मैं रोगी और आप वैद्य हैं महाराज?”
“ऐसा ही है। यौवन, अधिकार और अविवेक ने तुम्हें धृष्ट कर दिया है विदूडभ!”
“परन्तु महाराज को उचित है कि वे धृष्टता का अवसर न दें।”
“तुम कोसलपति से बात कर रहे हो विदूडभ!”
“आप कोसल के भावी अधिपति से बात कर रहे हैं महाराज!”
क्षण-भर स्तब्ध रहकर महाराज ने मृदु कण्ठ से कहा—”पुत्र, विचार करके देखो, तुम्हें क्या ऐसा अविवेकी होना चाहिए? मैं कहता हूं—तुमने मेरी आज्ञा बिना शाक्यों पर सैन्य क्यों भेजी है?”
“मैं कपिलवस्तु को निःशाक्य करूंगा, यह मेरा प्रण है।”
“किसलिए? सुनूं तो।”
“आपके पाप के लिए महाराज!”
“मेरा पाप, धृष्ट लड़के! तू सावधानी से बोल!”
“मुझे सावधान करने की कोई आवश्यकता नहीं है महाराज, मैं आपके पाप के कलंक को शाक्यों के गर्म रक्त से धोऊंगा।”
“मेरा पाप कह तो।” “कहता हूं सुनिए, परन्तु आपके पापों का अन्त नहीं है, एक ही कहता हूं, कि आपने मुझे दासी से क्यों उत्पन्न किया? क्या मुझे जीवन नहीं प्राप्त हुआ, क्या मैं समाज में पद-प्रतिष्ठा के योग्य नहीं?”
“किसने तेरा मान भंग किया?”
“आपने शाक्यों के यहां किसलिए भेजा था?”
“शाक्य अपने करद हैं। पश्चिम में वत्सराज उदयन कोसल पर सेना तैयार कर रहा है। पूर्व में मगध सम्राट् बिम्बसार। वैशाली के लिच्छवी अलग खार खाए बैठे हैं। ऐसी अवस्था में शाक्यों का प्रेम और साहाय्य प्राप्त करना था, इसीलिए और किसी को न भेजकर कपिलवस्तु तुझे ही भेजा था, तू मेरा प्रिय पुत्र है और शाक्यों का दौहित्र।”
विदूडभ ने अवज्ञा की हंसी हंसकर कहा—”शाक्यों का दौहित्र या दासीपुत्र? आप जानते हैं, वहां क्या हुआ?”
“क्या हुआ?”
“सुनेंगे आप? घमण्डी और नीच शाक्यों ने संथागार में विमन होकर मेरा स्वागत किया, अथवा उन्हें स्वागत करना पड़ा। पर पीछे संथागार को और आसनों को उन्होंने दूध से धोया।”
प्रसेनजित् का मुंह क्रोध से लाल हो गया। उन्होंने चिल्लाकर कहा—”क्षुद्र शाक्यों ने यह किया?”
“मुझे मालूम भी न होता, मेरा एक सामन्त अपना भाला वहां भूल आया था, वह उसे लेने गया, तब जो दास-दासी दूध से संथागार को धो रहे थे, उनमें एक मुझे गालियां दे रही थी, कह रही थी—दासीपुत्र की धृष्टता तो देखो, रज्जुले का वेश धारण करके आया है। संथागार को अधम ने अपवित्र कर दिया।”
“शाक्यों के वंश का मैं नाश करूंगा।”
“आप क्यों? आपका उन्होंने क्या बिगाड़ा है? आपको शाक्यों की राजकुमारी से ब्याह का शौक चढ़ा था, क्योंकि आप राजमद से अन्धे थे। पर आप जैसे बूढ़े अशक्त और रोगी को शाक्य अपनी पुत्री देना नहीं चाहते थे, खासकर इसलिए कि आपके रनवास में कोई कुलीन स्त्री है ही नहीं। आपने माली की लड़की को पट्टराजमहिषी पद पर अभिषिक्त किया है। शाक्य अपनी ऊंची नाक रखते थे, पर आपकी सेना से डरते भी थे। उन्होंने दासी की लड़की से आपका ब्याह कर दिया।”
“यह शाक्यों का भयानक छल था; किन्तु …।”
“किन्तु पाप तो नहीं, जैसा कि आपने किया। उसी दासी में इन्द्रियवासना के वशीभूत हो आपने मुझे पैदा किया; आपमें साहस नहीं कि मुझे आप अपना पुत्र और युवराज घोषित करें। यह आर्यों की पुरानी नीचता है। सभी धूर्त कामुक आर्य अपनी कामवासना–पूर्ति के लिए इतर जातियों की स्त्रियों के रेवड़ों को घर में भर रखते हैं। लालच-लोभ देकर कुमारियों को खरीद लेना, छल-बल से उन्हें वश कर लेना, रोती कलपती कन्याओं को बलात् हरण करना, मूर्च्छिता-मदबेहोशों का कौमार्य भंग करना यह सब धूर्त आर्यों ने विवाहों में सम्मिलित कर लिया। फिर बिना ही विवाह के दासी रखने में भी बाधा नहीं। आप क्षत्रिय लोग लड़कर, जीतकर, खरीदकर खिराज के रूप में देश-भर की सुन्दरी कुमारियों को एकत्रित करते हैं और ये कायर पाजी ब्राह्मण पुरोहित आपके लिए यज्ञ-पाखण्ड करके दान और दक्षिणा में इन स्त्रियों से उत्पन्न राजकुमारियों और दासियों को बटोरते हैं। ऐसे धूर्त हैं आप आर्य लोग! उस दिन विदेहराज ने परिषद् बुलाई थी। एक बूढ़े ब्राह्मण को हज़ारों गायों के सींगों में मुहरें बांधकर और दो सौ दासियां स्वर्ण आभरण पहनाकर दान कर दीं। वह नीच ब्राह्मण गायों को बेचकर स्वर्ण घर ले गया। पर दासियों को संग ले गया। वे सब तरुणी और सुन्दरी थीं। फिर क्या उन स्त्रियों के सन्तान न होगी? उन्हें आप आर्यों ने मज़े में वर्णसंकर घोषित कर दिया। उनकी जाति और श्रेणी अलग कर दी। ऐसा ही वर्णसंकर मैं भी हूं, दासीपुत्र हूं। मेरे पैर रखने से शाक्यों का संथागार अपवित्र होता है और मेरे जन्म लेने से कोसल राजवंश कलंकित होता है। महाराज, मैं यह सह नहीं सकता; मैं शाक्यवंश का नाश करूंगा और इसी तलवार के बल पर कोसल के सिंहासन पर आसीन होऊंगा। अब आर्यों के दिन गए। पाखण्डी ब्राह्मणों की भी समाप्ति आई। आज आर्यावर्त में नाम के आर्य राजे रह गए हैं। सभी राज्य हम लोगों ने, जिन्हें आप घृणा से वर्णसंकर कहते हैं, अधिकृत कर लिए हैं। मैं कोसल, काशी, शाक्य और मगध राज्य को भी आक्रान्त करूं तो ही असल दासीपुत्र विदूडभ।”
प्रसेनजित् के हाथ की तलवार नीची हो गई। उनकी गर्दन भी झुक गई। उन्होंने धीमे स्वर से कहा—”किन्तु विदूडभ राजपुत्र, यह तो परम्परा है, कुछ मेरे बस की बात नहीं। तुम्हें सभी तो राजोचित भोग प्राप्त हैं।”
“अवश्य हैं महाराज, केवल सामाजिक सम्मान नहीं प्राप्त है, आपका औरस पुत्र होने पर भी कोसल की गद्दी का अधिकार नहीं प्राप्त है। वही मैं छल-बल और कौशल से प्राप्त करूंगा।”
प्रसेनजित् क्रोध से तनकर गद्दी पर बैठ गए। उन्होंने कहा—”विदूडभ, यह राजद्रोह है।”
“मैं राजद्रोही हूं महाराज!”
“इसका दण्ड प्राणदण्ड है! जानते हो, राजधर्म कठोर है?”
“आत्मसम्मान उससे भी कठोर है महाराज!”
“पर यह वैयक्तिाक है।”
“हम सब दासीपुत्र, वर्णसंकर बन्धु, जो आप कुलीन किन्तु कदाचारी आर्यों से घृणा करते हैं, उसे सार्वजनिक बनाएंगे। हम आर्यों के समस्त अधिकार, समस्त राज्य, समस्त सत्ताएं छीन लेंगे।”
“मैं तुम्हें बन्दी करने की आज्ञा देता हूं। कोई है?”
राजा ने दस्तक दी। दो यवनी प्रहरिकाएं खड्ग लिए आ उपस्थित हुईं।
विदूडभ ने खड्ग ऊंचा करके कहा—”और मैं अभी आपका सिर धड़ से जुदा करता हूं।”
विदूडभ की भावभंगी और खड्ग उठाने से वृद्ध प्रसेनजित् आतंकित हो अपना खड्ग उठा खड़े हो गए। अकस्मात् विदूडभ का खड्ग झन्न से उसके हाथ से छूटकर दूर जा गिरा।
प्रसेनजित् ने आश्चर्यचकित हो आगन्तुक की ओर देखकर कहा—
“यह किसका उपकार मुझ पर हुआ?”
“कुशीनारा के मल्ल बंधुल का।” महाक्षत्रप कौशल्य हिरण्यनाभ ने पीछे से आगे बढ़कर कहा।
प्रसेनजित् ने दोनों हाथ फैलाकर कहा—”क्या मेरा मित्र बन्धुल मल्ल आया है?”
“महाराज की जय हो! मुझे हर्ष है महाराज, मैं ठीक समय पर आ पहुंचा।” बन्धुल ने आगे बढ़कर कहा।
“निश्चय। नहीं तो यह दासीपुत्र मेरा हनन कर चुका था। क्षत्रप हिरण्यनाभ, इसे बन्दी कर लो।”
बन्धुल ने कहा—”महाराज प्रसन्न हों! इस बार राजपुत्र को क्षमा कर दिया जाए। मैं समझता हूं, वे अपने अविवेक को समझ लेंगे।”
राजा ने कहा—”कोसल में तेरा स्वागत है मित्र बन्धुल, विदूडभ के विषय में तेरा ही वचन रहे।”
“कृतार्थ हुआ महाराज, तो राजपुत्र, अब तुम स्वतन्त्र हो मित्र।” विदूडभ चुपचाप चला गया।
बन्धुल ने कहा—”महाराज को याद होगा, तक्षशिला में आपने इच्छा की थी कि यदि आप राजा हुए तो मुझे सेनापति बनना होगा।”
“याद क्यों नहीं है मित्र, मैंने तो तुझे बहुत लेख लिखे, तेरी कोसल को भी ज़रूरत है और मुझे भी। कौशाम्बीपति उदयन की धृष्टता तूने नहीं सुनी, गांधारराज कलिंगदत्त ने अपनी अनिन्द्य सुन्दरी पुत्री कलिंगसेना मुझे दी है, तो उदयन उसी बहाने श्रावस्ती पर चढ़ने की तैयारी कर रहा है। इधर मगध सम्राट् बिम्बसार पुराने सम्बन्ध की परवाह न करके कोसल को हड़पने के लिए कोसल पर अभियान कर रहे हैं। अन्य शत्रु भी कम नहीं हैं। बन्धुल मित्र, कोसल को तेरी कितनी आवश्यकता है और मुझे भी, वह तो तूने देख ही ली।”
“तो मैं आ गया हूं महाराज, पर मेरी कुछ शर्ते हैं।”
“कह मित्र, मैं स्वीकार करूंगा।”
“मैं मल्ल वंश में हूं।”
“समझ गया, तुझे कभी मल्लों पर अभियान न करना होगा। मैं राज्य-विस्तार नहीं चाहता हूं। जो है वही रखना चाहता हूं। मित्र, कह और भी कुछ तेरा प्रिय कर सकता हूं।”
“बस महाराज।”
“तो कौशल्य हिरण्यनाभ, मित्र बन्धुल का सब प्रबन्ध कर तो। जब तक हम साकेत में हैं, बन्धुल सुख से रहें।”
“ऐसा ही होगा महाराज!”
“और श्रावस्ती जाकर तुझे मैं सेनापति के पद पर अभिषिक्त करूंगा। तेरा कल्याण हो। जा, अब विश्राम कर।”
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