चैप्टर 22 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 22 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

चैप्टर 22 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास, Chapter 22 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel In Hindi , Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas 

Chapter 22 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu

Chapter 22 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

सतगुरु हो ! सतगुरु हो !

महन्थ रामदास भी छींकने, खाँसने और जमाही लेने के समय महन्थ सेवादास जी की तरह ही चुटकी बजाते हैं, ‘सतगुरु हो’, ‘सतगुरु हो’ कहते हैं और आँखें स्वयं ही बन्द हो जाती हैं। भजन, बीजकपाठ और सतसंग को अब लछमी ही सँभालती है। महन्थ रामदास जी पढ़ना-लिखना नहीं जानते, सतगुरु-वचन की गम्भीरता की तह तक नहीं पहुँच सकते, लेकिन बँजड़ी पर तो उनका पूरा अधिकार है। यों तो बँजड़ी भंडारी भी बजाता है, लेकिन कोठारिन लछमी दासिन उसके ताल पर गड़बड़ा जाती है। तब महन्थ रामदास – जी भंडारी के हाथ से बँजड़ी ले लेते हैं। लछमी मुस्कराकर गाने लगती है…

सन्तो हो, करूँ बँहियाँ वल आपनी

छाइँ बिरानी आस !

सन्तो हो, जिंहिं अँगना नदिया बहै,

सो कस मरे पियास ! हो सन्तो, सो कस मरे पियास !

सो कस मरे पियास ? महन्थ रामदास के आँगन में नदी बह रही है और वह प्यास से मर रहे हैं।…सतगुरु बचन में कहा है-‘जस खर चन्दन लादे मारा, परमिल बास न जानु गमारा।’ परमिल वास महन्थ रामदास को नहीं लगती, सो बात नहीं। परमिल वास से उनका भी मन मत हो जाता है, लेकिन वह क्या करें ? एक दिन मुँह से निकल गया था, “लछमी ! जरा इधर आना तो।” बस, चार घंटे तक कोठारिन ने सतगुरु बचनामिरित की झड़ी लगा दी थी-“अन्तर जोति सबद इक नारी, हरि ब्रह्मा ताके त्रिपुरारी। ते तिरिए भंगलिंग अनन्ता, तेऊ न जाने आदि न अन्ता। महन्थसाहेब, आप अपने चित्त को मत विचलित कीजिए। यह आपके पूर्वजन्म का पुण्य है कि आपको महन्थी की गद्दी मिली है, नहीं तो आपके जैसे लोगों को भैंस चराने के सिवा और कोई काम भी नहीं मिल सकता। आप मेरे गुरुबेटा हैं, मैं आपकी गुरुमाई।”

एक-डेढ़ महीने में ही महन्थ रामदास जी का कलेवर बदल गया है। लछमी बड़े जतन से सेवा करती है। दूध, मक्खन और ताजे फलों के सेवन से महन्थ साहब के श्यामल मुखमंडल पर भी लाली दौड़ गई है। पेट जरा बाहर की ओर निकल रहा है, और तन का ताप भी कभी-कभी मन को बड़ा बेचैन कर देता है। लछमी सतगुरु वचनामृत बरसाकर शान्त करने की चेष्टा करती है। सतगुरु वचनामृत से भी बढ़कर तन के ताप को शीतल करती है कालीचरन की याद ! कालीचरन रोज मठ पर एक बार थोड़ी देर के लिए ही, जरूर आता है। कभी पार्टी के लिए चन्दा, आफिस-घर बनाने के लिए बाँस-खड़ माँगने आता है। लछमी कहती है-“कालीचरन असल नियायी आदमी है। गाँव के सभी बड़े लोग सिर्फ कहने को बड़े हैं। कालीबाबू का सुभाव जरा तिब्र है, लेकिन दुनिया के लोग अब इतने कुटिल हो गए हैं कि सीधे लोगों की यहाँ गुजर नहीं। फिर सुभाव में जरा कड़ापन तो सुपुरुख का लच्छन है…।”

महन्थ रामदास को पहले कालीचरन पर बड़ा सन्देह था। जब वह मठ पर आता तो महन्थसाहब छिपकर लछमी और काली की बातें सुनते थे, बाँस की टट्टी में छेद करके देखते थे। लेकिन कालीचरन हमेशा लछमी से चार हाथ दूर ही हटकर खड़ा रहता था। उसकी बोली में भी माया की मिलावट नहीं रहती थी। लछमी से बातें करते समय कभी उसकी पलकें शरमाकर झुकती नहीं थीं। बहुत कम लोगों को ऐसा देखा है रामदास ने। कालीचरन को बस अपनी सुशलिट पाटी से जरूरत है। लाल झंडा और सुशलिट पाटी को वह औरत की तरह प्यार करता है।…उस पर सन्देह करना बेकार है। लेकिन, बालदेव जी ? वह तो आजकल आते ही नहीं। उनकी नजर बड़ी मैली है।

लछमी बालदेव जी को भूली नहीं है। कहती है, साधू सुभाव के पुरुष हैं; किसी का चित्त दुखाना नहीं चाहते। बालदेव जी मठ पर नहीं आते हैं, कहते हैं, लछमी दासिन ने हिंसाबात करवाया है मठ पर, मठ पर नहीं जाएँगे।…बहुत सीधे हैं बालदेव जी। सच्चे साधू हैं। उनसे छिमा माँगना होगा।

महन्थ रामदास जी सोच-विचारकर देखते हैं, कालीचरन के डर से ही वह प्यासा है। कोई बात हुई कि लछमी उससे कह देगी; और उसके बाद ? चादरटीका के दिन कालीचरन और उसके गणों ने जो कांड किया था उसे भूलना मुश्किल है।…और उन्हीं की बदौलत तो रामदास महन्थ बना है।

माना कि कालीचरन के बल से उसे महन्थी मिली है। इसका यह अर्थ नहीं कि कालीचरन मठ के सभी मामले में दखल देगा। इंसाफन महन्थी की गद्दी पर तो उसका अधिकार था ही। यदि कल कालीचरन कहे कि गद्दी पर तुम्हारा हक नहीं तो क्या वह मान लेगा ?…महन्थ रामदास जी धीरे से उठते हैं। दबे पाँव लछमी की कोठरी के पास जाते हैं। किवाड़ी खुली है ? नहीं, बन्द है। महन्थसाहब बाहर से भी किवाड़ की छिटकनी खोलना जानते हैं। पतली-सी लकड़ी फँसाकर खोलते हैं।…लछमी अब किवाड़ में ओखल नहीं लगाती है।..लछमी सोई है। उसके कपड़े अस्त-व्यस्त हैं, बाल बिखरे हुए हैं। लालटेन की मद्धिम रोशनी में भी उसकी सूरत चमक रही है।…

“कौन ?”

“रामदास ?”

“………”

“रामदास ! हाथ छोड़ो। बैठो। आखिर तुम चित्त को नहीं सँभाल सके। माया ने तुम्हें भी अन्धा बना दिया।”

“माया से कोई परे नहीं। माया को कोई जीत नहीं सकता,” महन्थ साहब आज लछमी को हर बात का जवाब देंगे।

“तुम नरक की ओर पैर बढ़ा रहे हो। अब भी चेतो।”

“अब चेतने से फायदा नहीं। मुझे सरग नहीं चाहिए।…इस नरक में पहली बार नहीं आया हूँ।”

लछमी को बचपन की बातों की याद दिलाना चाहता है रामदास। लछमी हाथ छुड़ाकर बिछावन पर से उठना चाहती है, लेकिन महन्थ साहब ने दस मिनट पहले ही चौथी चिलम गाँजा फूंका है।

“मैं तुम्हारी गुरुमाई हूँ रामदास !”

“कैसी गुरुमाई ? तुम मठ की दासिन हो। महन्थ के मरने के बाद नए महन्थ की दासी बनकर तुम्हें रहना होगा। तू मेरी दासिन है।”

“चुप कुत्ता !” लछमी हाथ छुड़ाकर रामदास के मुँह पर जोर से थप्पड़ लगाती है। दोनों पाँवों को जरा मोड़कर, पूरी ताकत लगाकर रामदास की छाती पर मारती है। रामदास उलटकर गिर पड़ता है।…सतगुरु हो !

सन्तो अचरज भौ एक भारी

पुत्र धयल महतारी।

एके पुरुष एकहि नारी

ताके देखु बिचारी।

“भंडारी ! भंडारी !”

“सरकार !”

“पानी लाओ!”

लछमी थर-थर काँपती है। महन्थ सेवादास की दम तोड़ती हुई मूर्ति उसकी आँखों के सामने दिखाई पड़ रही है। नहीं, मरा नहीं। भंडारी कहता है, “महन्थ साहब को फिर मिरगी की बीमारी शुरू हुई ? कल रामपुर मठ से जो साधू आया है, मिरगी की दवा जानता है। कल ही दिलवा दीजिए।”

सतगुरु हो !

महन्थ साहब को बुखार है, छाती में दर्द है ! डाक्टर साहब ने मालिश का तेल भेजा है। लछमी महन्थ साहब की छाती पर तेल-मालिश कर रही है। महन्थ साहब कराह रहे हैं, “सतगुरु हो ! अब नहीं बचेंगे। हमको कासी जी भेज दो कोठारिन ! हम अपने पाप का प्राच्छित करेंगे।…हमको जाने से ही क्यों न मार दिया ?…हाय रे ? सतगुरु हो !”

“जाय हिन्द कोठारिन जी!”

“जै हिन्द ! आइए बालदेव जी ! बहुत दिन बाद ?”

“रामदा…महन्थ साहब को क्या हुआ है ?”

“बुखार है, छाती में दर्द है।”

“दर्द है ? पुरानी गाये के घी की मालिस कीजिए।”

पुरानी गाये का घी अर्थात् गाय का पुराना, सड़ा घी। सुनते ही लछमी को मिचली आने लगती है। महन्थ सेवादास को भी जब दमे का दौरा होता था तो गाय का घी ही मालिश करवाते थे।

“कोठारिन जी ! सिवनाथबाबू आ रहे हैं। यहाँ एक चरखा-संटर खुलना चाहिए। कुछ मदत दिया जाए।”

“चरखा-संटर ! इसमें क्या होगा ?”

“चरखा-संटर में ? यही चरखा, करघा, धुनकी और बिनाई की टरेनि होगी।”

“गाँव में तो रोज नया-नया संटर खुल रहा है-मलरिया-संटर, काली-टोपी संटर, लाल झंडा संटर, और अब यह चरखा संटर !”

“हाँ, नए जमाने में तो रोज नई-नई बात होगी। सुनते हैं आपने सोशलिट पाटी को काफी मदत दी है।…लेकिन कोठारिन जी ! गन्ही महतमा का रस्ता ही सबसे पुराना और सही रस्ता है। नई-नई पाटी खुल रही है, मगर किसी का रस्ता ठीक नहीं। सब हिंसाबाद के रस्ते पर हैं।”

“सतगुरु हो ! सतगुरु हो ! कोठारिन, इसको जो चन्ना देना है, देकर बिदा करो। सतगुरु हो !” महन्थ साहब दर्द से छटपटाते हैं।…बालदेव जी की नजर बड़ी मैली है।”

दस रुपए का एक नोट निकालकर देते हुए लछमी कहती है, “आजकल तो हाथ एकदम खाली है। आप तो आजकल इधर का रास्ता ही भूल गए हैं। हमसे जो अपराध हुआ है, छिमा कीजिए।”

“नहीं कोठारिन जी, आजकल छुट्टी ही नहीं मिलती है कभी। कपड़े की पुर्जी बाँटने का काम क्या मिला है, एक आफत में जान फँस गई है। काँगरेस का भी कोई काम नहीं कर सकता हूँ। उधर दूसरी पाटीवालों को मौका मिल गया है। कालीचरन दिन-रात खटता है। हमारे काँगरेस के मिम्बरों को भी सोशिलट पाटी का मिम्बर बना लिया है। इसलिए सिवनाथबाबू को बुला रहे हैं। चटखा-संटर खुलेगा। एक पुराना काजकर्ता बावनदास भी आ रहा है। पुराना तो नहीं है, मेरे ही साथ सुराजी में नाम लिखाया था।…बावनदास बौना है, सिरफ डेढ़ हाथ ऊँचा। वैष्णव है। आएगा तो यहाँ ले आएँगे। जाय हिन्द !”

“जै हिन्द”

बालदेव जी को फिर लछमी की देह की सुगन्ध लगी। कितनी मनोहर !

लछमी देखती है, बालदेव जी आजकल बहुत दुबले हो गए हैं। बालदेव जी के दिल में जरा भी मैल नहीं। कितने सरल हैं !…न जाने क्यों, लछमी का जी आज बालदेव जी को देखकर इतना चंचल हो रहा है। बालदेव जी सच्चे साधू हैं।

बिरह की ओदी लाकड़ी

सपुचै और धुधुआए।

दुख से तबहिं बाचिहौं

जब सकलौ जरि जाए !

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