चैप्टर 22 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 22 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

चैप्टर 22 कायाकल्प मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 22 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 22 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

Chapter 22 Kayakalp Novel By Munshi Premchand

फागुन का महीना आया, ढोल-मंजीरे की आवाजें कानों में आने लगीं; कहीं रामायण की मंडलियां बनीं, कहीं फाग और चौताल का बाजार गर्म हुआ। पेड़ों पर कोयल कूकी, घरों में महिलाएं कूकने लगीं। सारा संसार मस्त है; कोई राग में, कोई साग में। मुंशी वज्रधर की संगीत सभा भी सजग हुई। यों तो कभी-कभी बारहों मास बैठक होती थी; पर फागुन आते ही बिना नागा मृदंग पर थाप पड़ने लगी। उदार आदमी थे, फिक्र को कभी पास न आने देते। इस विषय में वह बड़े-बड़े दार्शनिकों से भी दो कदम आगे बढ़े हुए थे। अपने शरीर को वह कभी कष्ट न देते थे। कवि के आदेशानुसार बिगड़ी को बिसार देते थे, हां, आगे की सुधि न लेते थे। लड़का जेल में है,घर में स्त्री रोते-रोते अंधी हुई जाती है, सयानी लड़की घर में बैठी हुई है, लेकिन मुंशीजी को कोई गम नहीं। पहले पच्चीस रुपए में गुजर करते थे, अब पचहत्तर रुपए भी पूरे नहीं पड़ते। जिनसे मिलते हैं हंसकर, सबकी मदद करने को तैयार, मानो उनके मारे अब कोई प्राणी रोगी, दुखी, दरिद्र न रहने पाएगा; मानो वह ईश्वर के दरबार से लोगों के कष्ट दूर करने का ठेका लेकर आए हैं। वादे सबसे करते हैं, किसी ने झुककर सलाम किया और प्रसन्न हो गए। दोनों हाथों से वरदान बांटते फिरते हैं, चाहे पूरा एक भी न कर सकें। अपने मुहल्ले के कई बेफिक्रों को, जिन्हें कोई टके को भी न पूछता था, रियासत में नौकर करा दिया-किसी को चौकीदार, किसी को मुहर्रिर, किसी को कारिंदा। मगर नेकी करके दरिया में डालने की उनकी आदत नहीं। जिससे मिलते हैं, अपना ही यश गाना शुरू करते हैं और उसमें मनमानी अतिशयोक्ति भी करते हैं। मशहूर हो गया है कि राजा और रानी दोनों इनकी मुट्ठी में हैं। सारा अख्तियार मदार इन्हीं के हाथ में है।

अब मुंशीजी के द्वार पर सायलों की भीड़ लगी रहती है, जैसे क्वार के महीने में वैद्यों के द्वार पर रोगियों की। मुंशीजी किसी को निराश नहीं करते, और न कुछ कर सकें, तो बातों से ही पेट भर देते हैं। वह लाख बुरे हों, फिर भी उनसे कहीं अच्छे हैं, जो दर पाकर अपने को भूल जाते हैं, जमीन पर पांव ही नहीं रखते। यों तो कामधेनु भी सबकी इच्छा पूरी नहीं कर सकती; पर मुंशीजी की शरण आकर दु:खी हृदय को शांति अवश्य मिलती है, उसे आशा की झलक दिखाई देने लगती है। मुंशीजी कुछ दिनों तक तहसीलदारी कर चुके हैं, अपनी धाक जमाना जानते हैं। जो काम पहुँच से बाहर होता है, उसके लिए भी हां-हां’ कर देना, आंखें मारना, उड़नघाइयां बताना, इन चालों में वह सिद्ध हैं। स्वार्थ की दुनिया है, वकील, ठीकेदार, बनिये, महाजन, गरज हर तरह के आदमी उनसे कोई-न-कोई काम निकालने की आशा रखते हैं, और किसी न किसी हीले से कुछ न कुछ दे ही मरते हैं।

मनोरमा का राजा साहब से विवाह होना था कि मुंशीजी का भाग्य-सूर्य चमक उठा। एक ठीकेदार को रियासत के कई मकानों का ठीका दिलाकर अपना मकान पक्का करा लिया, बनिया बोरों अनाज मुफ्त में भेज देता, धोबी कपड़ों की धुलाई नहीं लेता। सारांश यह कि तहसीलदार साहब के ‘पौ बारह’ हैं। तहसीलदारी में जो मजे न उड़ाए थे, वह अब उड़ा रहे हैं।

रात के आठ बज गए थे। झिनकू अपने समाजियों के साथ आ बैठा। मुंशीजी मसनद पर बैठे पेचवान पी रहे थे। गाना होने लगा।

मुंशीजी-वाह, झिनकू वाह ! क्या कहना! अब तुम्हें एक दिन दरबार में ले चलूंगा।

झिनकू-जब मर जाऊंगा, तब ले जाइएगा क्या? सौ बार कह चुके, भैया हमारी भी परवरिश कर दो; मगर जब अपनी तकदीर ही खोटी है तो तुम क्या करोगे। नहीं तो क्या गैर-गैर तो तुम्हारी बदौलत मूंछों पर ताव देते और मैं कोरा ही रह जाता। यों तुम्हारी दुआ से सांझ तक रोटियां तो मिल जाती हैं, लेकिन राज दरबार का सहारा हो जाए , तो जिंदगी का कुछ मजा मिले।

मुंशीजी-क्या बताऊं जी, बार-बार इरादा करता हूँ लेकिन ज्यों ही वहां पहुंचा, कभी राजा साहब और कभी रानी साहब कोई ऐसी बात छेड़ देते हैं कि मुझे कुछ कहने की याद ही नहीं रहती। मौका ही नहीं मिलता।

झिनकू-कहो, चाहे न कहो, मैं तो अब तुम्हारे दरवाजे से टलने का नहीं।

मुंशीजी-कहूँगा जी और बदकर। यह समझ लो कि तुम वहां हो गए। बस, मौका मिलने भर की देर है। रानी साहब इतना मानती हैं कि जिसे चाहूँ, निकलवा दूं, जिसे चाहूँ, रखवा दूं। दीवान साहब भी अब दूर ही से सलाम करते हैं। फिर मुझे अपने काम से काम है, किसी की शिकायत क्यों करूं? मेरे लिए कोई रोकटोक नहीं है; मगर दीवान साहब बाप हैं तो क्या, बिला इत्तला कराए सामने नहीं जा सकते।

झिनकू-रानीजी का क्या पूछना, सचमुच रानी हैं। आज शहर भर में वाह-वाह हो रही है। बुढ़िया के राज में हकीम डॉक्टर लूटते हैं, अब गुनियों की कदर है।

मुंशीजी-पहुंचा नहीं कि सौ काम छोड़कर दौड़ी हुई आकर खड़ी हो जाती हैं। क्या है लालाजी, क्या है लालाजी? जब तक रहता हूँ, दिमाग चाट जाती हैं, दूसरों से बात नहीं करतीं। लल्लू को बहुत याद करती हैं। खोद-खोदकर उन्हीं की बातें पूछती हैं। सब्र करो, होली के दिन तुम्हारी नजर दिला दूंगा; मगर भाई, इतना याद रखो कि यहां पक्का गाना गाया और निकाले गए। ‘तूम तनाना’ की धुन मत देना।

इतने में महादेव नाम का एक बजाज सामने आया और दूर ही से सलाम करके बोला-मुंशीजी, हुजूर के मिजाज अच्छे तो हैं?

मुंशीजी ने त्यौरियां बदलकर कहा-हुजूर के मिजाज की फिक्र न करो, अपना मतलब कहो। महादेव-हुजूर को सलाम करने आया था।

मुंशीजी-अच्छा, सलाम।

महादेव-आप हमसे कुछ नाराज मालूम होते हैं। हमसे तो कोई ऐसी बात….

मंशीजी-बड़े आदमियों से मिलने जाया करो, तो तमीज से बात किया करो। मैं तुम्हें सेठ जी’ कहने के बदले ‘अरे, ओ बनिये’ कहूँ, तो तुम्हें बुरा लगेगा या नहीं?

महादेव-हां, हुजूर इतनी खता तो हो गई, अब माफी दी जाए । नया माल आया है, हुक्म हो तो कुछ कपड़े भेजूं।

मुंशीजी-फिर वही बनियेपन की बातें ! कभी आज तक और भी आए थे पूछने कि कपड़े चाहिए, हुजूर को? मैं वही हूँ या कोई और? अपना मतलब कहो साफ-साफ।

महादेव-हुजूर तो समझते ही हैं, मैं क्या कहूँ?

मुंशीजी-अच्छा, तो सुनो लालाजी, घूस नहीं लेता, रिश्वत नहीं लेता। जब तहसीलदारी के जमाने ही में न लिया, तो अब क्या लूंगा? लड़की की शादी होने वाली है, उसमें जितना कपड़ा लगेगा, वह तुम्हारे सिर। बोलो, मंजूर हो तो आज ही नजर दिलवा दूं। साल भर में एक लाख का माल बेचोगे, जो बेचने का शऊर होगा। हां, बुढ़िया रानी का जमाना नहीं है कि एक के चार लो। बस, रुपए में एक आना बहुत है। इससे ज्यादा लिया और गर्दन नापी गई।

महादेव-हुजूर, खर्चा छोड़कर दो पैसे रुपए ही दिला दें। आपके वसीले से जाकर भला ऐसा दगा करूं।

मुंशीजी-अच्छा, तो कल आना, और दो-चार थान ऊंचे दामों के कपड़े भी लेते आना। याद रखना, विदेशी चीज न हो, नहीं तो फटकार पड़ेगी। सच्चा देशी माल हो। विदेशी चीजों के नाम से चिढ़ती हैं।

बजाज चला गया। मुंशीजी झिनकू से बोले-देखा, बात करने की तमीज नहीं और चले हैं सौदा बेचने।

झिनकू-भैया, भिड़ा देना बेचारे को। जो उसकी तकदीर में होगा, वह मिल ही जाएगा। सेंतमेंत में जस मिले, तो लेने में क्या हर्ज है?

मुंशीजी-अच्छा, जरा ठेका संभालो, कुछ भगवान् का भजन हो जाए । यह बनिया न जाने कहाँ से कूद पड़ा। यह कहकर मुंशीजी ने मीरा का यह पद गाना शुरू किया-

राम की दिवानी, मेरा दर्द न जाने कोइ।

घायल की गति घायल जानै, जो कोई घायल होइ,

शेषनाग पै सेज पिया की, केहि विधि मिलनो होइ।

राम की दिवानी……

दरद की मारी बन-बन डोलूं, बैद मिला नहिं कोइ,

‘मीरा’ की प्रभु पीर मिटेगी, बैद संवलिया होइ।

राम की दिवानी…..

झिनकू-वाह भैया, वाह ! चोला मस्त कर दिया। तुम्हारा गला तो दिन-दिन निखरता जाता है।

मुंशीजी-गाना ऐसा होना चाहिए कि दिल पर असर पड़े। यह नहीं कि तुम तो ‘तूम ताना’ का तार बांध दो और सुनने वाले तुम्हारा मुंह ताकते रहें। जिस गाने से मन में भक्ति, वैराग्य प्रेम और आनंद की तरंगें न उठे, वह गाना नहीं है।

झिनकू-अच्छा, अब की मैं भी कोई ऐसी ही चीज सुनाता हूँ मगर मजा जब है कि हारमोनियम तुम्हारे हाथ में हो।

मुंशीजी सितार, सारंगी, सरोद, इसराज सब कुछ बजा लेते थे, पर हारमोनियम पर तो कमाल ही करते थे। हारमोनियम में सितार की गतों को बजाना उन्हीं का काम था। बाजा लेकर बैठ गए और झिनकू ने मधुर स्वरों से यह असावरी गानी शुरू की।

बसी जिय में तिरछी मुसकान।

कल न परत घड़ि, पल, छिन, निसि दिन रहत उन्हीं का ध्यान,

भृकुटि धनु-सी देख सखी री, नयना बान समान।

झिनकू संगीत का आचार्य था, जाति का कथक, अच्छे-अच्छे उस्तादों की आंखें देखे हुए, आवाज इस बुढ़ापे में भी ऐसी रसीली कि दिल पर चोट करे, इस पर उनका भाव बताना, जो कथकों की खास सिफत है, और भी गजब ढाता था, लेकिन मुंशी वज्रधर की अब राज-दरबार में रसाई हो गई थी, उन्हें अब झिनकू को शिक्षा देने का अधिकार हो गया था। हारमोनियम बजाते-बजाते नाक सिकोड़कर बोले-ऊंह, क्या बिगाड़ देते हो, बेताल हुए जाते हो। हां, अब ठीक है।

यह कहकर आपने झिनकू के साथ स्वर मिलाकर गाया-

बसी जिय में तिरछी मुसकान।

कल न परत घड़ि, पल, छिन, निसि दिन रहत उन्हीं का ध्यान;

भृकुटि धनु-सी देख सखी री, नयना बान समान।

इतने में एक युवक कोट-पतलून पहने, ऐनक लगाए, मूंछ मुड़ाए, बाल संवारे आकर बैठ गया। मुंशीजी ने पूछा-तुम कौन हो, भाई? मुझसे कुछ काम है?

युवक-मैंने सुना है कि जगदीशपुर में किसी एकाउंटेंट की जगह खाली है, आप सिफारिश कर दें, तो शायद वह जगह मुझे मिल जाए । मैं भी कायस्थ हूँ, और बिरादरी के नाते आपके ऊपर मेरा बहुत बड़ा हक है। मेरे पिताजी कुछ दिनों आपकी मातहती में काम कर चुके हैं। आपको मुंशी सुखवासीलाल का नाम तो याद होगा।

मुंशीजी-तो आप बिरादरी और दोस्ती के नाते नौकरी चाहते हैं, अपनी लियाकत के नाते नहीं. यह मेरे अख्तियार के बाहर है। मैं न दीवान हूँ, न मुहाफिज, न मुंसरिम। उन लोगों के पास जाइए।

युवक-जनाब, आप सब कुछ हैं। मैं तो आपको अपना मुरब्बी समझता हूँ।

मुंशी-कहाँ तक पढ़ा है आपने?

युवक-पढ़ा तो बी. ए. तक है; पर पास न कर सका।

मुंशी-कोई हरज नहीं। आपको बाजार के सौदे पटाने का कुछ तजरबा है? अगर आपसे कहा जाए कि जाकर दस हजार की इमारती लकड़ी लाइए, तो आप किफायत से लाएंगे।

युवक-जी, मैंने तो कभी लकड़ी खरीदी नहीं।

मुंशी-न सही, आप कुश्ती लड़ना जानते हैं? कुछ बिनवट-पटे के हाथ सीखे हैं? कौन जाने कभी आपको राजा साहब के साथ सफर करना पड़े और कोई ऐसा मौका आ जाए कि आपको उनकी रक्षा करनी पड़े!

यूवक-कुश्ती लड़ना तो नहीं जानता, हां फुटबाल, हॉकी बगैरह खूब खेल सकता हूँ।

मुंशी-कुछ गाना-बजाना जानते हो? शायद राजा साहब को सफर में कुछ गाना सुनने का जी चाहे, तो उन्हें खुश कर सकोगे?

युवक-जी नहीं, मैं मुसाहब नहीं होना चाहता, मैं तो एकाउंटेंट की जगह चाहता हूँ।

मुंशी-यह तो आप पहले ही कह चुके। मैं यह जानना चाहता हूँ कि आप हिसाब-किताब के सिवा और क्या कर सकते हैं? आप तैरना जानते हैं?

युवक-तैर सकता हूँ, पर बहुत कम।

मुंशी-आप रईसों के दिलबहलाब के लिए किस्से-कहानियां, चुटकुले-लतीफे कह सकते हैं?

युवक-(हंसकर) आप तो मेरे साथ मजाक कर रहे हैं।

मुंशी-जी नहीं, मजाक नहीं कर रहा हूँ, आपकी लियाकत का इम्तहान ले रहा हूँ। तो आप सिर्फ हिसाब करना जानते हैं और शायद अंग्रेजी बोल और लिख लेते होंगे। मैं ऐसे आदमी की सिफारिश नहीं करता। आपकी उम्र होगी कोई चौबीस साल की। इतने दिनों में आपने सिर्फ हिसाब लगाना सीखा। हमारे यहां तो कितने ही आदमी छ: महीने में ऐसे अच्छे मुनीम हो गए हैं कि बड़ी-बड़ी दुकानें संभाल सकते हैं। आपके लिए यहां जगह नहीं है।

युवक चला गया, तो झिनकू ने कहा-भैया, तुमने बेचारे को बहुत बनाया। मारे शरम के कट गया होगा। कुछ उसके साहबी ठाट की परवाह न की।

मुंशी-उसका साहबी ठाट देखकर ही तो मेरे बदन में आग लग गई। आता तो आपको कुछ नहीं; पर ठाट ऐसा बनाया है, मानो खास विलायत से चले आ रहे हैं। मुझ पर बचा रोब जमाने चले थे। चार हरफ अंग्रेजी पढ़ ली, तो समझ गए कि अब हम फाजिल हो गए। पूछो, जब आप बाजार से धेले का सौदा नहीं ला सकते, तो आप हिसाब-किताब क्या करेंगे।

यही बातें हो रही थीं कि रानी मनोरमा की मोटर आकर द्वार पर खड़ी हो गई। मुंशीजी नंगे सिर, नंगे पांव दौड़े। जरा भी ठोकर खा जाते, तो फिर उठने का नाम न लेते।

मनोरमा ने हाथ उठाकर कहा-दौडिए नहीं, मैं आप ही के पास आई हूँ कहीं भागी नहीं जा रही हूँ। इस वक्त क्या हो रहा है?

मुंशी-कुछ नहीं हुजूर, कुछ ईश्वर का भजन कर रहा हूँ।

मनोरमा-बहुत अच्छी बात है, ईश्वर को जरूर मिलाए रहिए, वक्त पर बहुत काम आते हैं; कम से कम दुःख-दर्द में उनके नाम से कुछ सहारा तो हो ही जाता है। मैं आपको इस वक्त एक बड़ी खुशखबरी सुनाने आई हूँ। बाबूजी कल यहां आ जाएंगे।

मुंशी-क्या, लल्लू?

मनोरमा-जी हां, सरकार ने उनकी मीयाद घटा दी है।

इतना सुनना था कि मुंशीजी बेतहाशा दौड़े और घर में जाकर हांफते हुए निर्मला से बोले-सुनती हो, लल्लू कल आएंगे। मनोरमा रानी दरवाजे पर खड़ी हैं।

यह कहकर उल्टे पांव फिर द्वार पर आ पहुंचे।

मनोरमा-अम्मांजी क्या कर रही हैं, उनसे मिलने चलूं?

निर्मला बैठी आटा गूंथ रही थीं। रसोई में केवल एक मिट्टी के तेल की कुप्पी जल रही थी, बाकी सारा घर अंधेरा पड़ा था। मुंशीजी सदा लुटाऊ थे, जो कुछ पाते थे, बाहर ही बाहर उड़ा देते थे। घर की दशा ज्यों-की-त्यों थी। निर्मला को रोने-धोने से फुर्सत ही न मिलती थी कि घर की कुछ फिक्र करती। अब मुंशीजी बड़े असमंजस में पड़े। अगर पहले से मालूम होता कि रानीजी का शुभागमन होगा, तो कुछ तैयारी कर रखते। कम-से-कम घर की सफाई तो करवा देते, दो-चार लालटेने मांग-जांचकर जला रखते; पर अब क्या हो सकता था?

मनोरमा ने उनके जवाब का इंतजार न किया। तुरंत मोटर से उतर पड़ी और दीवानखाने में आकर खड़ी हो गई। मुंशीजी बदहवास अंदर गए और निर्मला से बोले-बाहर निकल आओ, हाथवाथ धो डालो। रानीजी आ रही हैं। यह दुर्दशा देखेंगी, तो क्या कहेंगी। तब तक आटा लेकर क्या बैठ गई! कोई काम वक्त से नहीं करतीं। बुढ़िया हो गईं, मगर अभी तमीज न आई।

निर्मला चटपट बाहर निकली। मुंशीजी उसके हाथ धुलाने लगे। मंगला चारपाई बिछाने लगी। मनोरमा बरोठे में आकर रुक गई। इतना अंधेरा था कि वह आगे कदम न रख सकी। मरदाने कमरे में एक दीवारगीर जल रही थी। झिनकू उतावली में उसे उतारने लगे, तो वह जमीन पर गिर पड़ी। यहां भी अंधेरा हो गया। मुंशीजी हाथ में कुप्पी लेकर द्वार की ओर चले, तो चारपाई की ठोकर लगी। कुप्पी हाथ से छूट पड़ी, आशा का दीपक भी बुझ गया। खड़े-खड़े तकदीर को कोसने लगे-रोज-रोज लालटेन आती है और रोज तोड़कर फेंक दी जाती है। कुछ नहीं तो दस लालटेनें ला चुका हूँगा, पर एक का भी पता नहीं मालूम होता है। किसी कुली का घर है, उसके भाग्य की भांति अंधेरा। ‘राक्षस के घर ब्याही जोय, भून-भान कलेवा होय।’ किसी चीज की हिफाजत करनी तो आती ही नहीं।

मुंशीजी तो अपनी मुसीबत का रोना रो रहे थे, झिनकू दौड़कर अपने घर से लालटेन लाया, और मनोरमा घर में दाखिल हुई! निर्मला आंखों में प्रेम की नदी भरे, सिर झुकाए खड़ी थी। जी चाहता था, इनके पैरों के नीचे आंखें बिछा दूं। मेरे धन्य भाग!

एकाएक मनोरमा ने झुककर निर्मला के पैरों पर शीश झुका दिया और पुलकित कंठ से बोली-माताजी, धन्य भाग कि आपके दर्शन हुए। जीवन सफल हो गया। निर्मला सारा शिष्टाचार भूल गई, बस, खड़ी रोती रही। मनोरमा के शील और विनय ने शिष्टाचार को तृण की भांति मातृस्नेह की तरंग में बहा दिया।

इतने में मंगला आकर खड़ी हो गई। मनोरमा ने उसे गले से लगा लिया और स्नेह-कोमल स्वर में बोली-आज तुम्हें अपने साथ ले चलूंगी, दो-चार दिन तुम्हें मेरे साथ रहना पड़ेगा। हम दोनों साथ-साथ खेलेंगी। अकेले पड़े-पड़े मेरा जी घबराता है। तुमसे मिलने की मेरी बड़ी इच्छा थी।

निर्मला-मनोरमा, तुमने हमें धरती से उठाकर आकाश पर पहुंचा दिया। तुम्हारे शील-स्वभाव का कहाँ तक बखान करूं!

मनोरमा-माता के मुख से ये शब्द सुनकर मेरा हृदय गर्व से फूला नहीं समाता। मैं बचपन ही से मात-स्नेह से वंचित हो गई, पर आज मुझे ऐसा ज्ञात हो रहा है कि अपनी जननी के चरणों को स्पर्श कर रही हूँ। मुझे आज्ञा दीजिए कि जब कभी जी घबराए तो आकर आपके स्नेह-कोमल चरणों में आश्रय लिया करूं। कल बाबूजी आ जाएंगे। अवकाश मिला तो मैं भी आऊंगी, पर मैं किसी कारण से न आ सकू, तो आप कह दीजिएगा कि किसी बात की चिंता न करें, मेरे हृदय में उनके प्रति अब भी वही श्रद्धा और अनुराग है। ईश्वर ने चाहा तो मैं शीध्र ही उनके लिए रियासत में कोई स्थान निकालूंगी। बड़ी दिल्लगी हुई। कई दिन हुए लखनऊ के एक ताल्लुकेदार ने गवर्नर की दावत की थी। मैं भी राजा साहब के साथ दावत में गई थी। गवर्नर साहब शतरंज खेल रहे थे। मुझसे भी खेलने के लिए आग्रह किया। मुझे शतरंज खेलना तो आता नहीं, पर उनके आग्रह से बैठ गई। ऐसा संयोग हुआ कि मैंने ताबड़तोड़ उनको दो मातें दीं। तब आप झल्लाकर बोले-अबकी कुछ बाजी लगाकर खेलेंगे। क्या बदती हो? मैंने कहा-इसका निश्चय बाजी पूरी होने के बाद होगा। तीसरी बाजी शुरू हुई। अबकी वह खूब संभलकर खेल रहे थे और मेरे कई मुहरे पीट लिए। मैंने समझा, अबकी मात हुई, लेकिन सहसा मुझे ऐसी चाल सूझ गई कि हाथ से जाती बाजी लौट पड़ी। मैं तो समझती हूँ, ईश्वर ने मेरी सहायता की। फिर तो उन्होंने लाख-लाख सिर पटका, उनके सारे मित्र जोर मारते रहे, पर मात न रोक सके। सारे मुहरे धरे ही रह गए। मैंने हंसकर कहा-बाजी मेरी हुई, अब जो कुछ मैं मांगू, वह आपको देना पड़ेगा।

उन्हें क्या खबर थी कि मैं क्या मांगूंगी, हंसकर बोले-हां-हां, कब फिरता हूँ!

मैंने तीन वचन लेकर कहा-आप मेरे मास्टर साहब को बेकसूर जेल में डाले हुए हैं, उन्हें छोड़ दीजिए।

यह सुनकर सभी सन्नाटे में आ गए, मगर कौल हार चुके थे और स्त्रियों के सामने ये सब जरा सज्जनता का स्वांग भरते हैं, मजबूर होकर गवर्नर साहब को वादा करना पड़ा, पर बार-बार पछताते थे और कहते थे, आपकी जिम्मेदारी पर छोड़ रहा हूँ। खैर, मुझे कल मालूम हुआ कि रिहाई का हुक्म हो गया है, और मुझे आशा है कि कल किसी वक्त वह यहां आ जाएंगे।

निर्मला-आपने बड़ी दया की, नहीं तो मैं रोते-रोते मर जाती।

मनोरमा रोने की क्या बात थी? माताओं को चाहिए कि अपने पुत्रों को साहसी और वीर बनाएं। एक तो यहां लोग यों ही डरपोक होते हैं, उस पर घर वालों का प्रेम उनकी रही-सही हिम्मत भी हर लेता है। तो क्यों बहिन, मेरे यहां चलती हो ! मगर नहीं, कल तो बाबूजी आएंगे, मैं किसी दूसरे दिन तुम्हारे लिए सवारी भेजूंगी।

निर्मला-जब आपकी इच्छा होगी। तभी भेज दूंगी।

मनोरमा-तुम क्यों नहीं बोलतीं, बहिन? समझती होगी कि यह रानी हैं, बड़ी बुद्धिमान और तेजस्वी होंगी। पहले रानी देवप्रिया को देखकर मैं भी यही सोचा करती थी, पर अब मालूम हुआ कि ऐश्वर्य से न बुद्धि बढ़ती है, न तेज। रानी और बांदी में कोई अंतर नहीं होता।

यह कहकर उसने मंगला के गले में बांहे डाल दी और प्रेम से सने हुए शब्दों में बोली-देख लेना; हम-तुम कैसे मजे से गाती-बजाती हैं। बोलो, आओगी न?

मंगला ने माता की ओर देखा और इशारा पाकर बोली-जब आपकी इतनी कपा है, तो क्यों न आऊंगी?

मनोरमा-कृपा और दया की बात करने के लिए मैं तुम्हें नहीं बुला रही हूँ। ऐसी बातें सनते-सुनते ऊब गई हूँ। सहेलियों की भांति गाने-बजाने, हंसने-बोलने के लिए बुलाती हूँ। वहां सारा घर आदमियों से भरा हुआ है, पर एक भी ऐसा नहीं, जिसके साथ बैठकर एक घडी हंसं-बोलूँ।

यह कहते-कहते उसने अपने गले से मोतियों का हार निकालकर मंगला के गले में डाल दिया और मुस्कराकर बोली-देखो अम्मांजी, यह हार इसे अच्छा लगता है न?

मुंशीजी बोले-ले, मंगला, तूने तो पहली ही मुलाकात में मोतियों का हार मार लिया, और लोग मुंह ही ताकते रह गए।

मनोरमा-माता-पिता लड़कियों को देते हैं, मुझे तो आपसे मिलना चाहिए। मंगला तो मेरी छोटी बहिन है। जी चाहता है, इसी वक्त लेती चलूं। इसकी सूरत तो बाबूजी से बिलकुल मिलती है, मरदों के कपड़े पहना दिए जाएं तो, तो पहचानना मुश्किल हो जाये। चलो मंगला, कल हम दोनों आ जाएंगी!

निर्मला-कल ही लेती जाइएगा।

मनोरमा-मैं समझ गई। आप सोचती होंगी, ये कपड़े पहने क्या जाएगी। तो क्या वहां किसी बेगाने घर जा रही है? क्या वहां साड़ियां न मिलेंगी?

उसने मंगला का हाथ पकड़ लिया और उसे लिए द्वार की ओर चली। मंगला हिचकिचा रही थी, पर कुछ कह न सकती थी।

जब मोटर चली गई तो निर्मला ने कहा-साक्षात् देवी है।

मुंशी-लल्लू पर इतना प्रेम करती है कि वह चाहता, तो इससे विवाह कर लेता। धर्म ही खोना था तो कुछ स्वार्थ से खोता। मीठा हो, तो जूठा भी अच्छा, नहीं तो कहाँ जाकर गिरा उस कंगली पर जिसके मां-बाप का भी पता नहीं।

निर्मला-(व्यंग्य से) वाह-वाह ! क्या लाख रुपए की बात कही है। ऐसी बहू घर में आ जाए, लाला, तो एक दिन न चले। फूल सूंघने में ही अच्छा लगता है, खाने में नहीं! गरीबों का निर्वाह गरीबों ही में होता है।

मुंशी-प्रेम बड़ों-बड़ों का सिर नीचा कर देता है।

निर्मला-न जी जलाओ। बे-बात की बात करते हो। तुम्हारे लल्लू ऐसे ही तो बड़े खूबसूरत हैं। सिर में एक बाल न रहता। ऐसी औरतों को प्रसन्न रखने के लिए धन चाहिए। प्रभुता पर मरने वाली औरत है।

दस बज रहे थे। मुंशीजी भोजन करने बैठे। मारे खुशी के फूले न समाते थे। लल्लू को रियासत में कोई अच्छी जगह मिल जाएगी, फिर पांचों अंगुली घी में हैं। अब मुसीबत के दिन गए। मारे खुशी के खाया भी नहीं गया। जल्दी से दो-चार कौर खाकर बाहर भागे और अपने इष्ट-मित्रों से चक्रधर के स्वागत के विषय में आधी रात तक बातें करते रहे। निश्चय किया गया कि प्रात:काल शहर में नोटिस बांटी जाए और सेवा समिति के सेवक स्टेशन पर बैंड बजाते हुए उनका स्वागत करें।

लेकिन निर्मला उदास थी। मनोरमा से उसे न जाने क्यों एक प्रकार का भय हो रहा था।

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