चैप्टर 20 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 20 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 20 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 20 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 20 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

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मल्ल दम्पती : वैशाली की नगरवधू

वसन्त की मस्ती वातावरण में भर रही थी। शाल वृक्षों पर लदे सफेद फूलों की सुगन्ध वन को सुरभित कर रही थी। एक तरुण और एक तरुणी अश्व पर सवार उस सुरभित वायु का आनन्द लेते, धीरे-धीरे बातें करते चले जा रहे थे। तरुणी का घुटने तक लटकने वाला अन्तर्वासक हवा में फड़फड़ा रहा था और उसके कुंचित, काली नागिन-से उन्मुक्त केश नागिन की भांति हवा में लहरा रहे थे। तरुण ने अपने घोड़े की रास खींचते हुए और अपने सुन्दर दांतों की छटा दिखाते हुए कहा—”वाह क्या बढ़िया आखेट है। वह देखो, पुष्करिणी के तीर पर वह सूअर अपनी थूथन कीचड़ में गड़ा-गड़ाकर क्या मज़े में मोथे की जड़ खा रहा है।”

“तो मैं अपना बाण सीधा करूं प्रिय?”

“ठहरो प्रिये, वह देखो, एक और मोटा वराह इधर ही को आ रहा है, हृदय पर बाण-संधान करना।”

तरुणी ने बाण धनुष पर चढ़ाकर अश्व को घुमाया।

तरुण ने भी फुर्ती से बाण को धनुष पर चढ़ा लिया। फिर उसने तरुणी के बराबर अश्व लाकर कहा—”सावधान रहना, यदि लक्ष्यच्युत हुआ तो पशु सीधा अश्व पर आएगा। हां, अब बाण छोड़ो।”

तरुणी ने कान तक खींचकर बाण छोड़ दिया। बाण सन्न से जाकर वराह की पसलियों में अटक गया। पशु ने वेदना से चीत्कर किया और क्रुद्ध हो घुर्र-घुर्र शब्द करता हुआ सीधा तरुणी के अश्व पर टूटा।

तरुण ने भी इसी बीच तानकर एक बाण चलाया, वह उसकी आंख फोड़ता हुआ गर्दन के पार निकल गया, पशु भूमि पर गिरकर छटपटाने लगा।

तरुणी ही-ही करके हंसने लगी। तरुण घोड़े से उतर पड़ा। वह पशु को खींचकर एक वृक्ष के नीचे ले गया। तरुणी ने भी घोड़े से उतर दोनों घोड़ों को बाग-डोर से बांध दिया। फिर तरुण ने पशु की खाल निकाली, मांस-खण्ड किए, तरुणी सूखी लकड़ियां बीन लाई और फिर उन्होंने मांस-खण्ड भून-भूनकर खाना प्रारम्भ किया।

तरुणी ने सुराचषक तरुण के मुंह लगाते हुए कहा-“प्रिय, कितना स्वाद है इसमें, कहो तो?”

“निस्संदेह, विशेषतः इसलिए कि इसमें हमारी स्वतन्त्रता भी समावेशित है।”

“यही तो, परन्तु प्रिय, कुशीनारा छोड़ते मेरी छाती फटती है। क्या कुशीनारा को बंधुल मल्ल की आवश्यकता ही नहीं है?”

“नहीं है प्रिये मल्लिके, तभी तो जब मैंने स्नातक होकर तक्षशिला को छोड़ा था, तो गुरुपद ने कहा था—यह आयुष्मान् जा रहा है, समस्त हस्तलाघव और राजकौशल सीखकर, मल्लों के गौरव की वृद्धि करने। और मेरा हस्तलाघव क्या कुशीनारा ने चार साल में देखा नहीं? गणपति ने इन चार वर्षों में जो गुरुतर राजकाज मुझे सौंपा, मैंने उसे सम्यक् पूर्ण किया, परन्तु गणसंस्था का मुझ पर सन्देह बना ही रहा प्रिये, मल्लों का सन्निपात जब जब हुआ, गणसदस्यों ने ईर्ष्यावश बाधा दी और मुझे उपसेनापति का पद भी मल्लों ने नहीं दिया। सदैव काली छन्द-शलाकाओं का ही बाहुल्य रहा सन्निपात में।”

मल्लिका ने सुराचषक भरा और कुरकुरा मांस-खण्ड भूनकर उसे पति को देते हुए कहा—”प्रिय, जाने दो, अमर्ष करने से क्या होगा! परन्तु कुशीनारा अपनी जन्मभूमि है।”

“जन्मभूमि? अपनी मां है, उसी से मेरा शरीर बना है। परन्तु कुशीनारा में तो मैं अब नहीं रहूंगा प्रिये, मेरी तो यहां आवश्यकता ही नहीं है। कितने ही सम्भ्रांत मल्ल मुझसे डाह करते हैं, क्योंकि उन्होंने मुझे सर्वप्रिय होते देखा है।”

“परन्तु इससे तो उन्हें प्रसन्न होना चाहिए था, उन पर तुम्हारे सभी अलौकिक गुण प्रकट हैं, क्या और भी किसी मल्ल ने तक्षशिला में इतना सम्मान पाया है?”

“नहीं,” बन्धुल ने प्याला खाली करके एक ओर रख दिया और उदास दृष्टि से वह मल्लिका की ओर देखकर बोला—”मैंने इच्छा की थी, कि मल्लों को मगध की लोलुप दृष्टि से अभय करूंगा, परन्तु अब नहीं।”

“तो फिर प्रिय, रज्जुले की श्रावस्ती ही क्यों–लिच्छवियों की वैशाली क्यों नहीं? महाली लिच्छवि तो तुम्हारा परम मित्र है, तक्षशिला में वह तुम्हारा सहपाठी भी रहा है। वह उस दिन आया था तो तुम्हारे गुणों का बखान करते थकता न था। सुना है, वह वैशाली के नगर-द्वार रक्षकों का अध्यक्ष है।”

“जानता हूं प्रिये, परन्तु महाली तो सदैव ही बन्धुल की कृपा का भिखारी रहा है, आज बन्धुल अपनी लाज खोलकर उसके पास नहीं जाएगा। फिर लिच्छवियों का गण आज अम्बपाली के स्त्रैण युवकों का गण है, वहां सुरासुन्दरी ही प्रधान हैं, उसका संगठन भी नष्ट हो रहा है, उसका विनाश होगा प्रिये!”

“ऐसा न कहो प्रिय, यहां रज्जुलों के बीच हमारे जो दो-चार छोटे-छोटे गण हैं, उनमें वैशाली के लिच्छवियों ही का गण समृद्ध है।”

“परन्तु स्थायी नहीं प्रिये, इससे तो श्रावस्ती ही ठीक है। कोसल के राजा प्रसेनजित् के बहुत लेख आ चुके हैं। वह हमारा आदर करेगा। हम दस वर्ष तक्षशिला में साथ-साथ पढ़े हैं! वह मेरे गुणों और शक्ति को जानता है और उसे मेरी आवश्यकता है।”

“किन्तु प्रिय, तुम्हीं ने तो कहा—”मल्लों ने तुम्हारे गुणों से ईर्ष्या की है, तुम वहां भी क्या ईर्ष्या से बचे रहोगे? गुणी और सर्वप्रिय होना जैसा अभ्युदय का कारण है, वैसा ही ईर्ष्या का भी। फिर, वह पराया जनपद, वह भी रज्जुलों का, जहां हम गणपद के स्वतन्त्र जनों की थोड़ी भी आस्था नहीं है।”

“तुम्हारा कहना यथार्थ है। ईर्ष्या होगी तो फिर यह खड्ग तो है पर अभी श्रावस्ती ही चलना श्रेयस्कर है। कोसलपति पांच महाराज्यों का अधिपति है। वह मूर्ख, आलसी और कामुक है। शत्रुओं से घिरा है। उसे एक विश्वस्त और वीर सेनापति की आवश्यकता है। आशा है, वह हमारा समादर करेगा।”

“ऐसा ही सही प्रिय, बहुत विलम्ब हुआ, बहुत सुस्ता लिए, अब चलें।”

दोनों ने अपने-अपने अश्व संभाले और आगे बढ़े। सूर्य ढलने लगा। दोनों यात्रियों की पीठ पर उसकी पीली धूप पड़ रही थी। मल्लिका ने कहा—”रात्रि कहां व्यतीत होगी, प्रिय?”

“ब्राह्मणों के मल्लिग्राम में, वहां मेरे मित्र सांकृत्य ब्राह्मण हैं, जो मल्ल जनपद में ख्यातिप्राप्त योद्धा हैं। वे हमारा सत्कार करेंगे। वह सामने अचिरावती की श्वेत धार दीख रही है प्रिये, उसी के तट पर उन सघन वृक्षों के झुरमुट के पीछे मल्लिग्राम है। घोड़े को बढ़ाओ, हम एक मुहूर्त में वहां पहुंच जाते हैं।”

दोनों ने अपने-अपने अश्व फेंके। असील जानवर अपने-अपने अधिरोहियों का संकेत पा हवा में तैरने लगे। सान्ध्य समीर और कोमल होकर उनकी पीठ पर थपकियां दे रहा था।

ग्राम सामने आ गया। अचिरावती की श्वेत धारा रजत-सिकताकणों में मन्द प्रवाह से बह रही थी। अश्वारोहियों ने अपने-अपने घोड़ों की लगाम ढीली की। अश्व तृप्त होकर शीतल जल पीने लगे।

एक तरुणी मशक पीठ पर लिए नदी-तीर पर आई। उसके पिंगल केश हवा में लहरा रहे थे। कन्धों पर होकर श्वेत ऊनी कम्बल वक्ष ढांप रहा था। कमर में लाल दुकूल था। यात्रियों को देखकर तरुणी ने कहा—

“कहां से आ रहे हो प्रिय अतिथियो!”

“कुशीनारा से।”

“जहां बन्धुल मल्ल रहते हैं?”

“मैं बन्धुल मल्ल हूं।”

“तुम? तो ये श्रीमती मल्लिका हैं, स्वागत बहिन, मैं सांकृत्य गौतम की पुत्री हूं।”

“तू लोमड़ी गोपा है?” बन्धुल हंसते हुए घोड़े से उतर पड़े।”

“मैं जल भर लूं तब चलें, पिता घर पर ही हैं, देखकर प्रसन्न होंगे।”

“तू अश्व को थाम, मैं जल भरता हूं।”

“ऐसा ही सही।” गोपा ने मशक बन्धुल को दे दी। बन्धुल ने मशक भरकर कन्धे पर रखी। गोपा घोड़े की रास थामे पैदल चली। मल्लिका अश्व पर सवार रही।

“आज किधर भूल पड़े बन्धुल?”

“भूल नहीं पड़ा, इच्छा से आया हूं।”

“बहुत दिन बाद!”

“सचमुच, तब तू बहुत छोटी थी।”

“पर मैं तुम्हें याद करती थी बन्धुल! देवी मल्लिका, अब कितने दिन मेरे पास रहेगी?”

“आज रात-भर गोपा, तुझे सोने न दूंगी, खूब गप्पें होंगी। क्यों?”

“मित्र गौतम करते क्या हैं?”

“वही सूत्र रचते हैं। हंसी आती है बन्धुल, सूत्र में एक मात्रा कर पाते हैं तो खूब हंसते हैं।”

“और अहल्या रोकती नहीं?”

“मां की वे परवाह कहां करते हैं? मैं ही उन्हें समय पर स्नान-आह्निक कराती हूं। वह सामने घर आ गया। पिताजी द्वार पर खड़े हैं।…पिताजी, देखो तो, मैं किसे ले आई हूं!”

बन्धुल को देखकर गौतम सांकृत्य बाहर आकर बोले—”अरे मित्र बन्धुल, स्वस्ति, स्वस्ति!”

“स्वस्ति मित्र गौतम, कहो न्यायदर्शन पूरा हुआ या नहीं?”

“अभी नहीं मित्र, इस धूर्त बोधायन को मैं कहता हूं, मसल डालूंगा। मैंने धर्मसूत्र रचे हैं बन्धुल!”

“सच, तो मित्र गौतम सांकृत्य योद्धा, दार्शनिक और धर्माचार्य हैं!”

“ये दुष्ट द्रविड़ कुछ करने दें तब न? अनार्य संस्कृति को आर्य संस्कृति में घुसेड़ रहे हैं। उधर यह ज्ञातिपुत्र महावीर, परन्तु अरे मल्लिकादेवी का स्वागत करना तो मैं भूल ही गया।”

“घर में स्वागत कैसा मित्र, फिर गोपा ने नदी-तीर पर ही यह शिष्टाचार पूरा कर दिया।”

“बहुत याद करती है गोपा तुम्हें बन्धुल! तुम्हारे उस आखेट की उसे याद है, जब उस गवय को एक ही बाण से तुमने मारा था। किन्तु हां, बेटी गोपा, जैमिनी कहां गया?”

“समिधा लाने गया था, वह आ रहा है।”

“जैमिनी, ये हमारे मित्र मल्ल बन्धुल आए हैं, मल्लिका भी है, एक वत्सतरी को लाकर काट तो मेरे द्वार पर वत्स, इन सम्मान्य अतिथियों के सम्मान में। क्यों मित्र, कोमल वत्सतरी का मांस, ओदन और मधु कैसा रहेगा?”

“बहुत बढ़िया, मित्र गौतम!”

“तो बेटी गोपा, देवी मल्लिका को भीतर ले जा और बन्धुल के लिए अर्घ्यपाद्य ला। क्यों मित्र, यहीं देवद्रुम की छाया में बैठा जाए?”

“यहीं अच्छा है। मित्र गौतम, बोधायन की क्या बात कह रहे थे?”

“कह रहा था, किन्तु ठहरो। गोपा, थोड़ा शूकर-मार्दव आग पर भून ला और पुरानी मैरेय भर ला, बन्धुल थका हुआ है।”

“आग तैयार है, मैं अभी भून लाती हूं। सोमक के हाथ मैरेय भेज रही हूं।”

“बैठ मित्र, हां, बोधायन नास्तिक कहता है—स्त्री के साथ अथवा यज्ञोपवीत बिना किए बालकों के साथ भोजन करने में दोष नहीं है, बासी खाना भी बुरा नहीं है और मामा फूफू की कन्या से विवाह भी विहित है। वह भारत के तीन खण्ड करता है और गंगा-यमुना के मध्य देश को सर्वोत्तम कहता है। वह भारत के आरट्ट, दक्षिण के कारस्कर, उत्पल के पुण्ड्र तथा बंग, कलिंग के सौवीरों को प्रायश्चित्त-विधान कहता है।”

“परन्तु मित्र गौतम, ऐसा दीखता है कि तुम्हारा न्यायदर्शन अब धरा रह जाएगा।”

“ऐसा क्यों मित्र!”

“तुमने क्या शाक्यपुत्र गौतम का नाम नहीं सुना?”

“सुना क्यों नहीं, वह क्या आजकल काशी में है?”

“नहीं, राजगृह गया है, परन्तु उसका धर्म आग की भांति फैल रहा है। उसके आगे तेरा धर्मसूत्र और न्यायदर्शन कुछ न कर पाएगा।”

“देखा जाएगा मित्र। ले मैरेय पी, ला गोपा, गर्म-गर्म भुने-कुरकुरे मांस-खण्ड दे। कह, कैसे हैं मित्र!”

“बड़े स्वादिष्ट, मुझे नमक के साथ भुने-कुरकुरे मांस में बहुत स्वाद आता है।”

“तो यथेच्छा खा मित्र!”

“खूब खा रहा हूं। परन्तु मित्र गौतम, तुम जो ब्राह्मणों को अन्य जातियों से उत्कर्ष देते हो, यह ठीक नहीं है।”

“वाह, ठीक क्यों नहीं है? देखते नहीं, इन रज्जुलों ने ब्रह्मवाद को लेकर परिषद् प्रारम्भ की है और उसमें वे गुरुपद धारण किए बैठे हैं। वे ब्राह्मणों को हीन बनाना चाहते हैं। देखा नहीं, उस अश्वपति कैकेय ने मेरे साथ कैसा नीच व्यवहार किया था। मेरे पुत्र ही के सामने मेरा अपमान किया और मुझे समित्पाणि होकर उसके आगे जाना पड़ा। उसने गर्व से कहा—”बैठ गौतम, ब्राह्मणों में सबसे प्रथम मैं तुझे यह ब्रह्मविद्या बताता हूं, आज से प्रथम किसी ब्राह्मण को यह विद्या नहीं आती थी।”

“फिर वह गुह्य विद्या तो तुम सीख आए मित्र?”

“खाक सीख आया। अरे कुछ विद्या भी हो! छल है छल। कोरा पाखण्ड! यज्ञ के ब्रह्मा को बना दिया ब्रह्म! पहले ब्रह्मा को लूट के माल में काफी हिस्सा देना पड़ता था, उनके अधीन रहना पड़ता था, उनके द्वारा यज्ञ-अनुष्ठान कराकर महाराज और सम्राट् की उपाधि ली जाती थी। पर अब तो वे ब्रह्म को जान गए, ब्रह्मज्ञानी हो गए। अरे मित्र बन्धुल, इस ब्रह्म के ढकोसले को मैं अच्छी तरह समझ गया हूं।”

“तो मुझे भी तो समझा मित्र गौतम!”

“सीधी बात है मित्र, यज्ञों में देवताओं के नाम पर गन्ध-शाली का भात, वत्सतरी का मांस और कौशेय, दास-दासी, हिरण्य-सुवर्ण, वडवा रथ दिया जाता था और समझा जाता था—यह देवता की कृपा से है; पर तुम जानते हो मित्र, ये भाग्यहीन देवता भी पूरे ढकोसले ही थे। इनमें से किसी एक को भी आज तक किसी ने देखा नहीं। अब लोग यह सन्देह न करेंगे कि ये देवता सचमुच हैं भी या नहीं? बस, इन सबों ने बैठे-ठाले ब्रह्म की कल्पना कर ली। उसे देखने की कोई इच्छा ही नहीं कर सकता। वह आकाश की भांति देखने-सुनने का विषय ही नहीं।”

गौतम खूब ठठाकर हंसने लगे। बन्धुल ने भी हंसकर कहा—”तो इसी में आरुणि जैसे ब्राह्मण भी भटक गए।”

“यही तो मज़ा है और उस याज्ञवल्क्य को देखो, इन विदेहों के पीछे कैसे गुड़ का चिऊंटा बनकर चिपटा है पट्ठा, उनके ब्रह्म की ऐसी गम्भीर व्याख्या करता है मित्र, कि देखकर हंसी आती है।”

“तो तुम हंसा करो गौतम। क्योंकि तुम मूर्ख हो मित्र, ऐसा न करे तो वह सहस्र स्वर्ण कार्षापण और सहस्र गौ कहां से पाए! तू भी यदि उनकी हां में हां मिलाए तो कदाचित् अहल्या कौशेय पहने।”

उसकी मुझे आवश्यकता नहीं मित्र! यह रज्जुलों के कौशल हैं, राजभोग को भोगने के लिए यह आवश्यक है, कि जो सन्देह करे उसकी बुद्धि को कुण्ठित कर दिया जाए; कुछ को उत्तम आहार खाने को, उत्तम प्रासाद रहने को और सुन्दरी दासियां भोगने को दे दी जाएं। वे उन्हीं का गीत गाएंगे।”

“सच कहते हो मित्र गौतम।”

“अरे मैंने वे नियम बनाए हैं मित्र, कि तू भी क्या कहेगा। यदि शूद्र किसी द्विज को गाली दे या मारे तो उसका वही अंग काट डाला जाए, उसने वेदपाठ सुना हो तो कान में टीन या शीशा पिघलाकर भर दिया जाए। वेद पढ़ा हो तो उसकी जीभ काटकर टुकड़े कर दिए जाएं।”

“अरे वाह मित्र गौतम, अनर्थ किया तूने। बेचारे शूद्रों और…”

“तो और उपाय ही क्या है? भाई देखते नहीं, ब्राह्मणों का कैसा ह्रास हो रहा है।”

“अच्छा फिर, देखूं कब तक तेरा सूत्र सम्पूर्ण होगा। अभी तो विश्राम करना चाहिए।”

“तो विश्राम कर मित्र, शय्या तैयार है।”

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