चैप्टर 20 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 20 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel, Chapter 20 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas
Chapter 20 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu
कमली डाक्टर को पत्र लिखती है-
“प्राणनाथ !…तुम कल नहीं आए। क्यों नहीं आए ? सुना कि रात में…।”
कमली डाक्टर को रोज पत्र लिखती है। लिखकर पाँच-सात बार पढ़ती है, फिर फाड़ डालती है। उसकी अलमारी के एक कोने में फाड़ी हुई चिट्ठियों का ढेर लग गया है। पत्र लिखने और लिखकर पढ़ने के बाद उसको बड़ी शान्ति मिलती है। जी बड़ा हल्का मालूम होता है, और नींद भी अच्छी आती है।
…सुना कि रात में तुम गेहुँअन साँप से बाल-बाल बच गए। भगवान को इसके लिए लाख-लाख धन्यवाद !”
रात में डाक्टर गेहुँअन साँप से बाल-बाल बच गए। गेहुँअन नहीं, घोड़-करैत। गेहुँअन और करैत का दोगला। घोड़े से ज्यादा तेज भाग सकता है। घोड़-करैत का काटा हुआ आदमी ओझा-गुणी का मुँह नहीं देख सकता। आधी रात को खरगोश और चूहे अपने-अपने पिंजड़ों में घबराकर दौड़-भाग करने लगे। डाक्टर साहब ने प्यारू को पुकारा, लेकिन प्यारू की नींद नहीं टूटी। जानवरों के कमरे का दरवाजा खोलकर टार्च देते ही डाक्टर तड़पकर पीछे हट गए-साँप ठीक किवाड़ के पास ही अपनी पूँछ पर सारे धड़ को खड़ा किए फुफकार रहा था। तब तक प्यारू भी जग चुका था। उठते ही उसने बाएँ हाथ से ही ऐसी लाठी चलाई कि साँप वहीं ढेर हो गया। अढ़ाई हाथ का साँप ! डाइन का मन्तर अढ़ाई अक्षरों का होता है और डाइन का भेजा हुआ साँप अढ़ाई हाथ का !
सुबह को जिसने यह बात सुनी, बस एक ही राय कायम की-यह तो पहले से ही मालूम था। डाक्टरबाबू को इतना समझाया-बुझाया कि पारबती की माँ से इतना हेल-मेल नहीं बढ़ावें। नहीं माने, अब समझें। वह राच्छसनी किसी को छोड़ेगी ? जिसको प्यार किया, उसको जरूर खाएगी। डाक्टर बेचारा भी क्या करे ! वह अपने मन से तो कुछ नहीं करता। उस पर तो पारबती की माँ ने जादू कर दिया है। वह अपने बस में नहीं। मुफ्त में बेचारे की जान चली जाएगी एक दिन। च्: च्:।
कमली को डाइन, भूत और डाकिन पर विश्वास नहीं। तहसीलदार साहब भी इसे मूर्खता समझते हैं। कालीचरन तो आदमी से बढ़कर बलवान किसी देवता को भी नहीं समझता, फिर डाइन-भूत, ओझा-गुणी किस खेत की मूली हैं। इन्हें छोड़कर गाँव के बाकी सभी लोग डाइन के बारे में एकमत हैं। बालदेव जी ने तो बहुत बार भूत को अपनी आँखों देखा है। भैंस के पीछे-पीछे खैनी-तम्बाकू माँगता है भूत ! डाकिन का पाँव उलटा होता है और वह पेड़ की डाल से लटककर झूलती है। भूत-प्रेत झूठ है? तब कमला किनारे, कोठी के जंगल के पास में रात को जो भक्क-से राकस जल उठता है, दौड़ता है और देखते-ही-देखते एक से दस हो जाता है सो क्या है ?
“डाक्टर साहब अब रोज मौसी के यहाँ जाते हैं। मौसी के यहाँ एक बार बिना गए उनको चैन नहीं,” प्यारू कहता है। कमली सुनती है और हँसती है।
“डाक्टर साहब गनेश को देखने जाते हैं, प्यारू !”
“वह लड़का तो आराम हो गया है। मुटाकर कोल्हू होता जा रहा है। उसको क्या देखने जाते हैं !”
“अच्छा प्यारू, डाक्टर साहब तो मेरे यहाँ भी रोज आते हैं।”
“तुम्हारे यहाँ की बात दूसरी है दीदी !”
“क्यों ? दूसरी बात क्या है ?”
डाक्टर साहब हँसते हुए आते हैं, “अच्छा ! तो प्यारू जी यहाँ दरबार कर रहे हैं। वह बुखारवाला खरगोश कैसे भाग गया ?”
“जी, हम दोपहर का दाना देने गए तो देखा कि पिंजड़ा खाली।”
“सुबह सूई देने के बाद तो मैंने पिंजड़ा बन्द कर दिया था। तुमने पानी पिलाने के बाद पिंजड़ा बन्द नहीं किया होगा। महीने-भर की मेहनत बेकार गई।”
प्यारू को इन चूहों और खरगोशों से बेहद नफरत है।…आदमी के इलाज से जी नहीं भरता है तो जानवरों का इलाज करते हैं ! दिन-भर पिंजड़ों को लेकर पड़े रहते हैं। बुखार देखते हैं, सूई देते हैं और खून लेते हैं। जब से ये जानवर आए हैं, डाक्टर साहब को प्यारू से बात करने की भी छुट्टी नहीं मिलती।…अब भाँगड़टोली के लोगों से कह रहे हैं-“दो-तीन सियार के बच्चों की जरूरत है। उस दिन मदारी से बन्दर माँग रहे थे। अजीब सौख है !”
प्यारू चुपचाप चला जाता है। माँ हँसती हुई आती है, “डाक्टर साहब ! मैंने विषहरी माई को एक जोड़ी कबूतर और दूध-लावा कबूला है !”
“और मैंने भी विषहरी दवा के लिए लिख दिया है।”
“विषहरी दवा ?”
“हाँ, ऐंटिवेनम एक दवा है, साँप के काटे हुए का इलाज होता है ! मैं ऐंटिवेनम से भी ज्यादा प्रभावशाली और सस्ती दवा की खोज करना चाहता हूँ। सुनते हैं, रौतहट स्टेशन के पास सँपेरों का टोला है। साँप पकड़वाकर रखना होगा।”
“तब माटी के महादेव नहीं, असली महादेव हो जाइएगा।” कमली व्यंग करना जानती है।
डाक्टर साहब हँस पड़ते हैं और माँ हँसी को रोकते हुए कमली को डाँटती है, “जो मुँह में आया बोल दिया। जरा भी लाज-लिहाज नहीं। इसके बाप ने तो इसे और भी बतक्कड़ बना दिया है। तुम यहाँ आकर चुप बैठो तो जरा, मैं चाय बना लाऊँ।”
“तहसीलदार साहब कहाँ गए हैं ?” डाक्टर पूछता है।
“कटिहार। सर्किल मैनेजर के कैम्प में गए हैं,” कमली जवाब देती है। आज पहली बार कमली ने डाक्टर को अपने पास अकेला पाया है। वह अपने चेहरे को देख नहीं सकती, लेकिन ऐसा लगता है कि उसका चेहरा धीरे-धीरे लाल होता जा रहा है। आँखों की पलकों पर भारी बोझ लद गए हैं, कान की इयररिंग थरथरा रही है। सारी देह में गुदगुदी लग रही है। देह हलकी लग रही है।…बेहोशी ? वह बेहोश होना नहीं चाहती। नहीं, नहीं ! डा…क्टर !
“कमला !”
“जी!”
“कमला ! इधर देखो कमला !”
“डाक्टर, मुझे बचाओ !”
“कमला, आँखें खोलो !”
कमला ने आँखें खोल दीं। उसका सिर डाक्टर की गोद में है। माँ हाथ में चम्मच लिए खड़ी है, भय से माँ का मुँह पीला हो गया है, लेकिन डाक्टर साहब मुस्करा रहे हैं।
“डाक्टर साहब, इसकी बीमारी का तो टेर-पता ही नहीं चलता है।”
“लेकिन रोग तो धीरे-धीरे घट रहा है। बेहोश हुई, पर पाँच मिनट में ही स्वस्थ भी हो गई। इसी तरह एक दिन जड़ से यह रोग दूर हो जाएगा।…कमला को ही चाय बनाने दीजिए। जाओ कमला !”
कमला उठकर इस तरह दौड़ी मानो कुछ हुआ ही नहीं था। डाक्टर कमला की किताब हाथ में लेकर उलटता है-नल-दमयन्ती ! अस्याधिकारिणी कुमारी कमलादेवी।…दूसरी जगह कुमारी को काट दिया गया है और नाम के अन्त में बनर्जी जोड़ दिया गया है-कमलादेवी बनर्जी। डाक्टर जल्दी से पृष्ठ उलटता है-आर्ट पेपर पर नल-दमयन्ती की तस्वीर। नल के नीचे नीली पेंसिल से लिखा है ‘प्रशान्त’ और दमयन्ती के नीचे लाल पेंसिल से ‘कमला’ । डाक्टर के ललाट पर पसीने की छोटी-छोटी बूंदें चमक उठती हैं। उसे याद आता है, एक बार ममता के साथ बाँकीपुर स्टेशन से लौट रहा था। रिक्शा पर बैठने के समय एक भिखारी ने घेर लिया था-‘जुगल जोड़ी कायम रहे, सुहाग अचल रहे माँ का, बाल-बच्चा बनल रहे ! ममता ने बैग से इकन्नी निकालकर दी थी और डाक्टर की ओर देखकर खिलखिलाकर हँस पड़ी थी; और डाक्टर के ललाट पर इसी तरह पसीने की बूंदें चमक उठी थीं।
“डाक्टर साहब, कमली के लिए एक अच्छा-सा वर ढूंढ़िए न ! आपके देश में…आपके साथी-संगी…” माँ कहते-कहते सिर पर यूँघट सरकाकर चुप हो जाती है। तहसीलदार साहब आ गए। रनजीत के हाथ में एक बड़ी रोहू मछली है।
“यह नजराना कहाँ मिला ?” डाक्टर साहब हँसते हैं।
“पकरिया घाट पर मछुआ लोग आज मछली मार रहे थे,” तहसीलदार साहब ने मोढ़े पर बैठते हुए कहा।
कमला चाय ले आई।
“डाक्टर साहब, आज पाप की गठरी फेंक आया हूँ।” तहसीलदार साहब ने चाय की प्याली में चुस्की लेते हुए कहा।
“मतलब ?”
“यह तहसीलदारी पाप की गठरी ही तो थी। यह नया सर्किल मैनेजर आते ही ‘आग पेशाब’ करने लगा। ‘लाल पताका’ अखबार ने ठीक ही लिखा था, ‘राज पारबंगा के मीरापुर सर्किल का नया मैनेजर नादिरशाह का भतीजा है।’ अब आप ही बताइए डाक्टर साहब, कि जिन रैयतों के यहाँ सिर्फ एक ही साल का बकाया है, उन पर नालिश कैसे किया जाए ? फिर चुपचाप डिग्री जारी करवाकर नीलाम करो और जमीन खास कर लो। इतना बड़ा अन्याय मुझसे तो अब नहीं होगा। जमाना कितना नाजुक है, सो तो समझते हैं नहीं। मैंने साफ इनकार कर दिया तो कड़ककर बोले, ‘नहीं कर सकते तो इस्तीफा दे दो।’ गंगा-स्नान से भी बढ़कर ऐसे पुण्य का अवसर बार-बार नहीं मिलता। तुरन्त इस्तीफा दे दिया। सारी जिन्दगी तो गुलामी करते ही बीत गई।…कमला की माँ, आज मत्स भगवान आए हैं। कमला से कहो, डाक्टर साहब को निमन्त्रण दे दे।”
तहसीलदार साहब की रसिकता ने डाक्टर को एक बार फिर नल-दमयन्ती की याद दिला दी। कमली मुस्करा रही है। माँ कहती है, “बगैर मिर्च-मसाला की मछली कमली ही बना सकती है।”
डाक्टर महसूस करता है, कमला के निमन्त्रण को अस्वीकार करने की हिम्मत उसमें नहीं।…कमला बनर्जी।…कमला की आँखें !
चाँद बयरि भेल बादल, मछली बयरि महाजाल
तिरिया बयरि दुहु लोचन…
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