चैप्टर 2 गाइड आर. के. नारायण का उपन्यास| Chapter 2 The Guide R. K. Narayan Novel In Hindi

चैप्टर 2 गाइड आर. के. नारायण का उपन्यास| Chapter 2 The Guide R. K. Narayan Novel In Hindi, Guide Upanyas, English Novel In Hindi 

Chapter 2 The Guide R. K. Narayan Novel 

Chapter 2 The Guide R. K. Narayan Novel 

उस अजनबी का आना राजू को अच्छा ही लगा-उस जगह की निबिड़ एकान्तता कुछ तो दूर हुई थी इससे। अजनबी श्रद्धापूर्वक उसके चेहरे की ओर टकटकी बांधे खड़ा था। राजू को इससे कुतूहल भी हुआ और संकोच भी। खामोशी तोड़ने के लिए उसने कहा, “अगर चाहते हो, तो बैठ जाओ।” अजनबी ने कृतज्ञतापूर्वक सिर हिलाकर इस सुझाव को स्वीकार किया और अपने पाँव और मुँह धोने के लिए घाट की सीढ़ियों से उतरकर नीचे नदी तक गया। फिर कंधे पर रखे एक पीले, चारखाने तौलिये से हाथ-मुँह पोंछता हुआ ऊपर आया और उस पटिया से दो कदम नीचे बैठ गया, जहाँ रामू टांग पर टांग रखे इस मुद्रा में बैठा था, जैसे वह किसी प्राचीन मंदिर के निकट राजसिंहासन पर बैठा हो । नदी की धारा पर छत्र की तरह छाई पेड़ों की शाखें उन चिड़ियों और बंदरों की कूद फांद से पत्तियों में सरसराहट पैदा करती हुई कांप उठती थीं, जो उनपर रैनबसेरा करने के लिए उपयुक्त जगह तलाश कर रहे थे। जिधर से नदी का प्रवाह था, वहाँ पहाड़ी के पीछे सूरज डूब रहा था। राजू इंतज़ार करता रहा कि अजनबी कुछ बोलेगा। वह शिष्टाचारवश खुद बात शुरू नहीं करना चाहता था ।

आखिरकार राजू ने पूछा, “तुम कहाँ के रहने वाले हो?” उसे डर था कि कहीं अजनबी भी मुड़कर यही प्रश्न न पूछ बैठे ।

अजनबी ने उत्तर दिया, “मैं मंगल का रहने वाला हूँ… ।”

“मंगल कहाँ है?”

अजनबी ने बाँह हिलाकर नदी के ऊँचे कगार के पार की ओर इशारा किया। “यहाँ से ज़्यादा दूर नहीं है,” उसने कहा। फिर अजनबी ने अपने बारे में और भी बातें बताईं। “मेरी बेटी नज़दीक ही रहती है। मैं उससे मिलने गया था। अब मैं घर वापस जा रहा हूँ। खाने के बाद ही मैं उसके यहाँ से चल पड़ा था। उसने तो रात के खाने तक रुकने के लिए बड़ी मिन्नत की, लेकिन मैंने इंकार कर दिया। रुक जाने का मतलब होता कि मैं कहीं आधी रात को लौटकर घर पहुँचता। मैं किसी चीज़ से डरता नहीं, लेकिन जिस वक्त आदमी को बिस्तर में सोना चाहिए, वह पैदल चलने में क्यों गुजारे?

“तुम बहुत समझदार हो।” राजू ने कहा ।

वे दोनों कुछ देर तक बदरों की चीं-चीं सुनते रहे, फिर उस अजनबी को जैसे कुछ ख्याल आ गया और वह बोला, “मेरी बेटी मेरी अपनी बहन के लड़के से ब्याही गई है, इसलिए कोई परेशानी की बात नहीं है। मैं अक्सर अपनी बहन से मिलने जाता हूँ और इस बहाने अपनी बेटी से भी मिल लेता हूँ। कोई बुरा नहीं मानता।”

“आखिर कोई बुरा भी क्यों मानेगा, जब तुम अपनी ही बेटी से मिलने जाते हो ?”

“अपने दामाद के यहाँ बार-बार जाना अच्छा नहीं माना जाता।” ग्रामीण अजनबी ने बताया ।

राजू को यह ऊटपटांग चर्चा अच्छी लग रही थी। एक दिन से ज़्यादा हुआ, वह इस जगह एकदम अकेला पड़ा था। फिर से इंसान की आवाज़ सुनना उसे सुखकर लग रहा था। इसके बाद ग्रामीण अजनबी फिर बड़ी श्रद्धा से उसके मुँह की ओर एकटक निहारने लगा। राजू ने विचारपूर्ण मुद्रा में अपनी ठुड्डी सहलाकर देखी कि कहीं अचानक वहाँ एक पैगम्बरी दाढ़ी तो नहीं उग आई । लेकिन ठुड्डी अभी भी चिकनी थी। उसने अभी दो दिन पहले ही हजामत करवाई थी और अपने जेल जीवन के कड़े परिश्रम की कमाई में से उसके लिए पैसे दिए थे।

बातूनी हज्जाम ने, उस्तरे की तेज धार से साबुन की झाग छीलते हुए पूछा था, “अभी जेल से छूटकर आ रहे हो, क्यों?” राजू ने अपनी आँखें घुमाईं और चुप रहा। वह इस प्रश्न से चिढ़ गया, लेकिन उसने उस आदमी पर अपना भाव जाहिर नहीं होने दिया, जिसके हाथ में उस्तरा था।

“अभी छूटकर आ रहे हो?” हज्जाम ने फिर प्रश्न दुहराया ।

राजू ने सोचा कि ऐसे आदमी पर गुस्सा करने से कोई लाभ नहीं होगा, क्योंकि हज्जाम अपने तजुर्बे से बोल रहा था । फिर भी राजू ने पूछा, “तुम कैसे जानते हो?”

“मैं बीस साल से यहाँ हजामत कर रहा हूँ। तुमने देखा नहीं कि जेल के फाटक से निकलकर यह पहली दुकान है? कामयाबी का नुस्खा यह है कि सही जगह पर दुकानदारी की जाए। लेकिन इससे और लोगों की ईर्ष्या जाग उठती है और आदमी उनकी आँखों का काँटा बन जाता है!” उसने उस्तरा घुमाकर ईर्ष्यालु हज्जामों की फौज को जैसे खदेड़ते हुए कहा।

“क्या तुम अंदर जाकर कैदियों की हजामत नहीं करते?”

“नहीं, जब तक वे छूटकर बाहर नहीं आते तब तक नहीं । अंदर के लिए मेरे भाई बेटे की ड्यूटी लगी है। मैं उससे मुकाबला नहीं करना चाहता, न मैं रोज़ जेल के फाटक के भीतर दाखिल ही होना चाहता हूँ ।”

“बुरी जगह तो नहीं है।” राजू ने साबुन की झाग के बीच से कहा ।

“तो फिर अंदर चले जाओ” हज्जाम ने कहा और पूछा, “क्या मामला था? पुलिस ने क्या कहा?”

“इसकी चर्चा मत करो।” राजू ने तपाक से कहा और बाकी हजामत के दौरान एक गंभीर चुप्पी साध कर बैठा रहा। लेकिन हज्जाम इतनी आसानी से दबने वाला नहीं था। गुंडे-बदमाशों से ज़िन्दगी भर उसका सम्पर्क होता रहा था, जिसने उसे भी सख्त बना दिया था। “अठारह महीने या चौबीस? मैं दावे से कह सकता हूँ कि इनमें से कोई न कोई तो है ही ।”

राजू के दिल में उस आदमी के लिए आदर का भाव उमड़ पड़ा। वह सचमुच उस्ताद था। उसपर नाराज़ होने से कोई फायदा नहीं था,”तुम इतने अक्लमंद और जानकार हो। फिर सवाल क्यों पूछते थे?”

हज्जाम इस तारीफ से बहुत प्रसन्न हुआ। उसकी उंगलियाँ एक क्षण के लिए ठहर गईं और उसने आगे को झुककर राजू के चेहरे का सामना करते हुए कहा, “सिर्फ तुम्हारे मुँह से सुनने के लिए। तुम्हारे चेहरे पर साफ लिखा है कि तुम दो साला कैदी हो, जिसका मतलब यह है कि तुम हत्यारे नहीं हो। “

“तुम यह कैसे कह सकते हो?”

“क्यों, अगर तुम सात साल काट के आए होते, तो तुम्हारी शक्ल ही दूसरी हो जाती। कत्ल अगर साबित न हो तो, जानते हो, सिर्फ सात साल की सजा होती है ।”

“अच्छा तो मैंने और क्या-क्या नहीं किया?” राजू ने पूछा।

“तुमने कोई बड़ा गबन भी नहीं किया, शायद थोड़ी रकम ही गायब की हो।”

“और क्या?”

“तुमने न औरत भगाई है, न किसी औरत के साथ बलात्कार ही किया है, और न किसी के घर को आग लगाई है।”

“तुम यह क्यों नहीं बताते कि किस खास जुर्म में मुझे दो साल की सज़ा मिली थी? अगर ठीक बूझ दोगे, तो मैं चार आने इनाम दूँगा ।”

“बूझ-बुझौवल खेलने का वक्त नहीं है मेरे पास।” हज्जाम ने कहा और पूछा, “तुम अब क्या करोगे?”

“मुझे नहीं मालूम। कहीं तो जाऊँगा ही, शायद,” राजू ने सोचते हुए कहा।

“अगर तुम लौटकर अपने जेल के साथियों के पास जाना चाहते हो, तो फिर बाज़ार में जाकर किसी की जेब क्यों नहीं काटते, या किसी घर के खुले दरवाज़े में घुसकर कोई रद्दी – सद्दी चीज़ ही क्यों नहीं उठाकर चलते बनते, जिससे लोग शोर मचाकर पुलिस को बुला लें? फिर तो तुम जहाँ जाना चाहते हो, वहाँ पहुँचाने का जिम्मा पुलिस पर रहेगा ।”

“बुरी जगह तो नहीं है।” राजू ने जेल की चारदीवारी की ओर सर हिलाकर इशारा करते हुए कहा, “वहाँ लोग दोस्ताना ढंग से पेश आते हैं- लेकिन पाँच बजे तड़के जगाए जाने से मुझे सख्त नफरत है।”

“हाँ, वह ऐसा वक्त होता है, जब शायद चोर रात की कारगुजारी के बाद सोने के लिए घर वापस आता है।” हज्जाम ने संकेत से लांछन लगाया, “अच्छा, अब उठो, हजामत हो गई।” उसने उस्तरा रखते हुए कहा, “अब तो तुम एक महाराजा दिखाई देते हो।” हज्जाम ने कुर्सी से ज़रा हटकर उसका निरीक्षण करते हुए कहा ।

निचली सीढ़ी पर बैठा ग्रामीण अजनबी सर उठाकर राजू के चेहरे की ओर इस श्रद्धाभाव से देख रहा था कि राजू को यह बात खटकने लगी, “तुम मेरी ओर ऐसे क्यों देख रहे हो?” उसने जल्दी से पूछा।

अजनबी ने उत्तर दिया, “मैं नहीं जानता। मैं आपको नाराज़ नहीं करना चाहता, स्वामी।”

राजू सच-सच कह देना चाहता था, मैं यहाँ पर इसलिए हूँ क्योंकि मेरे पास जाने के लिए कोई जगह नहीं है। मैं उन लोगों से दूर रहना चाहता हूँ, जो मुझे पहचानते हैं।’ लेकिन वह हिचकिचाया, सोचता रहा कि इस बात को कैसे कहा जाए। उसे लगा कि उसने अगर ‘जेल’ का नाम भी लिया, तो उस अजनबी की हार्दिक भावनाओं को गहरी ठेस लगेगी। उसने फिर कोशिश करनी चाही, ‘मैं उतना बड़ा आदमी नहीं हूँ, जितना तुम सोचते हो। मैं दरअसल बहुत मामूली आदमी हूँ।’ लेकिन वह अभी शब्दों के लिए मन को टटोल ही रहा था कि अजनबी बोला, “मेरे सामने एक सवाल है, स्वामी।”

“मुझे बताओ क्या सवाल है।” राजू ने दूसरों की मदद करने की अपनी पुरानी आदत से लाचार होकर पूछा। यात्री आपस में एक-दूसरे से उसकी सिफारिश करते हुए एक बार ज़रूर कहते थे, “अगर राजू तुम्हारा गाइड हुआ, तो तुम सब कुछ जान जाओगे। वह न सिर्फ तुमको हर दर्शनीय स्थान दिखा देगा, बल्कि और सब बातों में भी तुम्हारी मदद करेगा।”

दूसरे लोगों के काम और मतलब की बातों में अपने को फँसा लेना उसका जैसे स्वभाव बन गया था। ‘नहीं तो’, राजू ने सोचा, ‘मैं भी हज़ारों और लोगों की तरह नार्मल आदमी होता, जिनकी ज़िन्दगी में फालतू चिंताएं नहीं होतीm

‘रोज़ी न होती, तो मेरी जिन्दगी में ये मुसीबतें कभी शुरू न होतीं (जैसा कि राजू ने इस अजनबी को, जिसका नाम वेलान था, बाद में अपनी कहानी सुनाते हुए बताया)। वह अपने को रोज़ी कहकर क्यों पुकारती थी? वह विदेशी नहीं थी। वह तो खालिस हिन्दुस्तानी थी, जिस पर देवी, मीना, ललिता या वे हज़ारों नाम जो हमारे देश में चलते हैं, खूब फबते। लेकिन उसने अपने लिए रोजी नाम ही चुना। यह नाम सुनकर यह मत सोचना कि वह स्कर्ट पहनती थी या उसने मेमों की तरह बाल कटा रखे थे। वह एक नर्तकी थी और हमारे देश की परम्परावादी नर्तकियों की तरह ही दिखती थी। वह चटकीले रंगों की सुनहरी गोटा लगी साड़ियाँ पहनती थी, अपने घुंघराले बालों की वेणियाँ गूंथकर उनमें फूल-मालाएं बाँधती थी, कानों में हीरे की ईयरिंग और गले में सोने का हार पहनती थी। मैंने पहली बार मौका पाते ही उससे कहा था कि वह कितनी महान नर्तकी है और वह किस तरह हमारी सांस्कृतिक परम्परा को आगे ले जा रही है, और यह सुनकर वह प्रसन्न हुई थी।

‘तब से हज़ारों लोगों ने उससे यह बात कही होगी, लेकिन इस पंक्ति में मैं सबसे पहला आदमी था। हर कोई प्रशंसा के शब्द सुनना पसंद करता है, और नर्तक – नर्तकी तो शायद सबसे ज्यादा। वे शायद हर घंटे बाद यह सुनना पसंद करते हैं कि उनके अंग ताल और लय पर कैसे थिरकते हैं। मुझे जब भी अकेले में, उसके पति की नज़रों से बचाकर उसके कान में फुसफुसाकर कुछ कहने का मौका मिलता था, मैं उसकी कला की खुले दिल से तारीफ करता था। ओह, उसका पति भी कैसा आदमी था। मैंने आज तक अपनी ज़िन्दगी में उससे ज़्यादा विचित्र आदमी नहीं देखा। अपने को रोज़ी के नाम से पुकारने की बजाय यह ज़्यादा संगत होता, अगर वह अपने पति को मार्कोपोलो कहकर पुकारती। उसका लिबास ऐसे आदमी जैसा था, जो फौरन किसी सुदूर अभियान पर जा रहा हो। उसका मोटा रंगीन चश्मा, मोटा जैकेट, मोटा टोप, जिस पर हमेशा एक हरा, चमकीला वाटर प्रूफ खोल चढ़ा रहता था—इन सबसे लैस उसकी शक्ल एक अंतरिक्ष यात्री जैसी लगती थी। बेशक मुझे यह बिल्कुल नहीं मालूम कि असली मार्कोपोलो की शक्ल कैसी थी, लेकिन पहली बार उस पर नज़र पड़ते ही मेरी इच्छा उसको मार्को कह कर पुकारने की हुई थी और तब से और किसी नाम के साथ मैं उसका संबंध नहीं जोड़ सका हूँ ।

‘उस दिन जब पहली बार रेलवे स्टेशन पर मेरी नज़र उस पर पड़ी, तो उसी क्षण मैं समझ गया कि मुझे ज़िन्दगी भर के लिए एक ग्राहक मिल गया है। एक गाइड, आखिरकार, ज़िन्दगी-भर ऐसे आदमी के सम्पर्क में आने की ही तलाश में रहता है, जो हमेशा एक स्थायी पर्यटक के लिबास में रहना पसन्द करता हो ।

‘तुम शायद जानना चाहो कि मैंने क्यों और कब गाइड का पेशा अख्तियार किया। मेरे गाइड बनने का तो वही कारण था, जिस कारण से कोई सिगनलर, कुली या गार्ड बनता है । मेरे भाग्य में यही लिखा था। रेलवे से संबंध रखने वाली इन मिसालों पर हँसने की ज़रूरत नहीं है। बहुत बचपन में ही रेलवे मेरे रक्त में घुलमिल गई थी। ज़बर्दस्त आवाज़ें करते हुए और धुआँ उगलते हुए इंजन मेरी चेतना को जैसे इन्द्रजाल में बांध लेते थे। रेलवे प्लेटफार्म पर घूमने में मुझे सुख मिलता था और स्टेशन मास्टर और कुलियों की संगत में उठना-बैठना जैसे सबसे शानदार चीज़ थी और उनकी रेलवे-संबंधी बातचीत सबसे ज्यादा बुद्धिमानीपूर्ण लगती थी। मैं उनके बीच ही बड़ा हुआ था। हमारा छोटा-सा मकान मालगुड़ी स्टेशन के ऐन सामने था। मेरे बाप ने जब खुद अपने हाथों से यह मकान बनाया था, उस वक्त तक वहाँ ट्रेन चलने की किसी ने कल्पना भी नहीं की थी । मेरे बाप ने यह जगह इसलिए पसन्द की थी, क्योंकि एक तो यह कस्बे से बाहर थी, दूसरे इसकी कीमत सस्ती थी। उन्होंने खुद नींवें खोदी थीं, कुएं से पानी भरकर मिट्टी का गारा तैयार किया था और दीवारें चिनी थीं और उनपर ताड़ के पत्तों का छप्पर डाला था। उन्होंने उसके गिर्द पपीते के पेड़ लगाए थे, जिनमें खूब पपीते लगते थे। इन पपीतों को तोड़कर और उनकी फांकें काटकर वे बेचते थे – एक-एक पपीते से उन्हें करीब आठ आने की आमदनी हो जाती थी, वे कुशलतापूर्वक उन्हें छीलकर उनकी फांकें काटते थे। मेरे बाप के पास तख्तों और टाट से बनी एक छोटी-सी दुकान थी और सारे दिन उस पर बैठे वे पिपरमिंट, फल, तमाखू, पान, भुने हुए चने (जिन्हें वे बांस की एक नली में भरकर नापते थे) और दूसरी कई चीजें बेचते रहते थे, जिनकी मांग ट्रंक रोड पर चलने वाले राहगीर किया करते थे । यह ‘झोंपड़ी वाली दुकान’ के नाम से मशहूर थी। उनकी दुकान के आगे हर वक्त किसानों और बैलगाड़ियों के हाँकने वालों की भीड़ जमा रहती थी । सचमुच वे बड़े व्यस्त आदमी थे। दोपहर का खाना खाने के लिए जाने से पहले वे मुझे बुलाते थे और रोज़ नियमपूर्वक एक ही आदेश देते। कहते, “राजू, आकर मेरी जगह बैठो। देखो, ख्याल रखना कि जो भी चीज़ ग्राहक को दो, उसके पैसे न भूल जाओ। खाने की कोई चीज़ खुद मत खा लेना, ये सब चीजें बिक्री के लिए हैं। अगर किसी चीज़ के दाम के बारे में कोई शक हो, तो आवाज़ देकर मुझे बुला लेना ।” और जब ग्राहक आता, तो मैं चिल्लाकर पूछता, “बापू, हरी पिपरमिंट आने की कितनी?” “तीन,” मेरे बाप घर के भीतर से कौर चबाते हुए चिल्लाकर जवाब देते। “लेकिन अगर पौने आने की खरीद रहा हो तो उसे … ।” वे रियायत के बतौर कोई मुश्किल-सा अनुपात बताते, जो मेरी समझ में कभी न आता। मैं ग्राहक से मिन्नत करके सिर्फ आधा आना ही लेता और उसे तीन पिपरमिण्ट पकड़ा देता। अगर संयोगवश बोतल में से चार हरी पिपरमिण्ट निकल आती, तो हिसाब की पेचीदगियों से बचने के लिए मैं उसे फौरन निगल जाता।

‘पड़ौस का कोई सनकी मुर्गा बांग देकर सुबह होने की घोषणा करता – जब शायद उसे लगता कि हम लोग काफी वक्त सो लिए हैं। वह इतने ज़ोर की बांग लगाता कि मेरे बाप बिस्तर से उछलकर खड़े हो जाते और मुझे भी जगा देते ।

‘मैं कुएँ पर जाकर स्नान करता, माथे पर पवित्र भस्म मलता, फिर दीवार पर टंगी देवताओं की तस्वीर के आगे कुछ देर तक हाथ जोड़कर ऊँचे स्वर में प्रार्थना के गीत गाता। मेरे पूजा के अभिनय को कुछ देर तक देखने के बाद मेरे बाप भैंस दुहने के लिए चुपके से पिछवाड़े के आँगन में चले जाते। फिर जब वे दूध की बाल्टी लेकर लौटते, तो हमेशा कहते, “आज इस भैंस को कुछ हो गया है। आधा भी दूध नहीं दिया।” और मेरी माँ रोज़ एक ही उत्तर देती, “हाँ, हाँ, मुझे मालूम है, इसका दिमाग खराब हो गया है। मुझे मालूम है, क्या करने से यह दूध उतारेगी।” दूध की बाल्टी लेकर रसोई की ओर जाते हुए वे एक रहस्यमय, डरावना संकेत करती। फिर एक क्षण में ही मेरे लिए गरम दूध का कटोरा लेकर वे रसोई से बाहर आतीं।

‘एक पुराने, जंग लगे टीन में बढ़िया किस्म की चीनी थी, जो मेरी पहुँच से दूर रसोई की धुआंरी दीवार से लगे लकड़ी के एक टांड़ पर रखा रहता था । मेरा ख्याल है कि ज्यों-ज्यों मेरी उमर बढ़ती जाती थी, टीन की जगह भी बदलकर ऊँची होती जाती थी, क्योंकि मुझे याद है कि बचपन में बड़ों की मदद के बिना मैं कभी उस कम्बख्त जंग लगे टीन तक नहीं पहुँच सका था। जब आसमान सुबह के सूरज की रोशनी से प्रकाशमान हो उठता था, मेरे बाप बाहर चबूतरे पर मेरा इंतजार करते थे। वहाँ वे एक पतली टहनी लेकर बैठते थे। उन दिनों बाल-मनोविज्ञान की आधुनिक धारणायें अज्ञात थीं। शिक्षक के हाथ में बेंत या छड़ी की अनिवार्यता में सभी का विश्वास था। “पिटाई के बिना बच्चा कभी सीख – पढ़ नहीं सकता,” मेरे बाप अक्सर पुराने ज्ञानियों की यह उक्ति दुहराते। उन्होंने मुझे की वर्णमाला सिखाई। वे मेरी स्लेट पर दोनों ओर वर्णमाला के अक्षर लिख देते। फिर मैं उनकी आकृतियों पर तब तक लगातार पेन्सिल घुमाता रहता, जब तक उनकी शक्लें विकृत होकर पहचान में आने लायक न रह जातीं। बीच-बीच में मेरे बाप मेरे हाथ से स्लेट छीनकर देखते और फिर मेरी ओर क्रोध से घूरते हुए कहते, “क्या लीपा-पोती की है ! तुम अगर वर्णमाला के पवित्र अक्षरों की शक्लें इस तरह बिगाड़ोगे, तो ज़िन्दगी में कभी तरक्की नहीं कर सकोगे।” इसके बाद वे गीले तौलिये से स्लेट साफ करते, दोबारा अक्षरों को लिखते और स्लेट मेरे हाथ में देते हुए आदेश करते, “याद रखो, इस बार फिर तुमने इन अक्षरों को बिगाड़ा, तो मुझे गुस्सा आ जाएगा। जैसे मैंने लिखा है, ठीक उसी तरह उनपर पेन्सिल फेरो और उनपर अपने चील – गोड़े मत खींचना, समझे?” यह कहकर वे मारने की मुद्रा में मेरी आँखों के आगे टहनी को जोर से लपलपाते। मैं विनीत स्वर में कहता, “अच्छा, बापू!” और फिर लिखना शुरू करता। उस वक्त की तस्वीर आज भी मेरी आँखों में खिंचा है कि मैं अपनी जीभ बाहर निकालकर और अपने सर को एक ओर से मोड़कर किस तरह अपने नन्हे शरीर का सारा बोझ पेन्सिल पर डाल देता था – किस तरह अक्षरों की विचित्र रेखाकृतियों पर उसे ज़ोर से ठेलते हुए स्लेट से कैसी चीत्कारें-सी उठी थीं, जिन्हें सुनकर मेरे बाप डाँट लगाते थे, “पेन्सिल से ये बेहूदी आवाज़ें मत निकालो! तुम्हें हो क्या गया है?” इसके बाद गणित का नम्बर आता। दो और दो = चार, चार और तीन कुछ और। किसी बड़ी संख्या को छोटी संख्या से गुणा करो, छोटी संख्या को बड़ी संख्या से गुणा करो। हे ईश्वर, इन संख्याओं से तो मेरा सर ही चकरा जाता था। जिस समय बाहर खुले आसमान के नीचे सुबह की ठंडी हवा में चिड़ियाँ फुदकती और चहकती फिरती थीं, मैं बैठा अपने भाग्य को कोसता रहता था, जिसने मुझे अपने बाप की संगत में पढ़ाई का अभ्यास करने के लिए नजरबंद कर दिया था। कभी-कभी जैसे मेरी मौन प्रार्थना के फलस्वरूप तड़के ही कोई ग्राहक दरवाज़े पर दिखाई दे जाता था और उस दिन मेरी पढ़ाई अचानक बीच में ही खत्म हो जाती थी। मेरे बाप यह कहते हुए उठकर चल देते, “सुबह के वक्त एक गधे को पढ़ाकर विद्वान बनाने से तो मेरे पास और दूसरे बेहतर काम है ।”

‘हालाँकि ऐसे दिनों में भी मुझे लगता था कि मेरी पढ़ाई अनन्त काल तक चलती रही है, लेकिन मेरी माँ मुझे देखते ही कहतीं, “अच्छा तो आज इतनी जल्दी छुट्टी हो गई ! ताज्जुब है कि आधे घंटे में तुमने क्या सीखा होगा।” मैं उनसे कहता, “माँ, मैं बाहर जाकर खेलूंगा। तुम्हें ज़रा भी तंग नहीं करूंगा। लेकिन मेहरबानी करके आज दोबारा मुझे पढ़ाई पर मत बैठाना।” और मैं सड़क के पार इमली के पेड़ की छांह में खेलने के लिए भाग जाता। यह एक प्राचीन पेड़ था, खूब फैला हुआ और घनी पत्तियों से लदा, जिनके बीच बन्दर और चिड़ियों का बसेरा था और जहाँ बन्दर हर वक्त किलकारियाँ मारते और चिड़ियाँ चहकती और कच्ची इमलियाँ कुतरती थीं। वहाँ सूअर और उनके बच्चे कहीं से आकर ज़मीन पर पड़ी पत्तियों की मोटी तह को अपनी थूथनी से कुरेदते थे और मैं सारे दिन खेलता था। मेरा ख्याल है कि मैं उन दिनों कल्पना करता था कि ये सूअर मेरे किसी खेल में शामिल हैं और मैं उनकी पीठ पर सवार होकर कहीं जा रहा हूँ। सड़क से गुज़रते हुए मेरे बाप के ग्राहक मुझे अक्सर प्यार से बुलाते। मेरे पास संगमरमर की बटियाँ, ढलकाने के लिए लोहे का चक्कर और रबड़ की एक गेंद थी, जिनसे मैं खेला करता था। मुझे न तो यह होश रहता था कि कब दोपहर हुई और कब शाम और न इस बात का कि मेरे गिर्द क्या हो रहा है। मैं अपने खेल में भूला रहता था ।

‘कभी-कभी दुकान के लिए सामान सौदा खरीदने के लिए शहर जाते वक्त मेरे बाप मुझे भी अपने साथ ले जाते थे। वे सड़क पर जाती हुई किसी बैलगाड़ी को आवाज़ देकर रोक लेते। मैं तब तक याचना भरी दृष्टि से उनको देखता रहता ( मुझे सिखाया गया था कि मैं खुद कभी साथ जाने की माँग नहीं करूँ ) जब तक वे आदेश न देते, “बैलगाड़ी में चढ़ जाओ, नन्हें।” उनका वाक्य पूरा होने से पहले ही मैं उछलकर चढ़ जाता। बैल के गले की घंटियाँ बज उठतीं और गाड़ी के पहिये ऊबड़-खाबड़ सड़क की धूल उड़ाते और चूं-चर-मरर करते हुए बढ़ते। मैं गाड़ी के डंडों को पकड़कर लटक जाता था और मेरी हड्डियाँ काँपने लगती थीं, फिर भी मुझे गाड़ी में भरे भूसे की गंध और रास्ते के दृश्य बहुत पसन्द आते थे। आदमियों और गाड़ियों से, सूअरों और लड़कों से भरे चारों ओर के इस दृश्य ने मेरा दिल मोह लिया था।

‘बाज़ार में मेरे पिता अपने एक परिचित दुकानदार के सामने लकड़ी के एक तख्त पर मुझे बैठाकर खुद खरीदारी करने चले जाते थे। मेरी जेबें तले हुए काजुओं और मिठाइयों से भरी रहती थीं। उन्हें खाते-खाते मैं बाज़ार में खरीद-फरोख्त करते, बहसें करते, हँसते, गालियाँ बकते और चिल्लाते हुए लोगों को देखा करता था। मुझे याद है कि अक्सर एक सवाल मुझे परेशान किया करता था, ‘बापू आप तो खुद एक दुकानदार हैं, फिर आप क्यों दूसरी दुकानों पर खरीदारी करने के लिए जाते हैं?’ मुझे इस सवाल का कभी कोई जवाब न मिला। तीसरे पहर की चिलचिलाती धूप में बाज़ार के अविरल कलरव से मेरी चेतना सुन्न हो जाती थी। मटमैली धूप से मेरी आँखें चौंधिया जाती थीं और मैं उस अपरिचित स्थान की दीवार का सहारा लेकर सो जाता था, जहाँ मेरे पिता मुझे छोड़ जाते थे।’

“श्रीमान, मेरी एक समस्या है।” वेलान ने कहा।

राजू ने सिर हिलाकर कहा, “हर आदमी की कोई न कोई समस्या होती है।” अचानक उसके मन में पैगम्बरियत उमड़ पड़ी। जब से वेलान आकर उसके सामने बैठा टकटकी लगाकर उसकी तरफ देखने लगा था, उसे अपने महत्व का आभास होने लगा था। उसे लगा जैसे वह कोई अभिनेता हो, जिसे हमेशा सही वाक्य बोलना चाहिए। इस प्रसंग में सही वाक्य यह था, “अगर तुम मुझे कोई ऐसा इन्सान दिखा दो, जिसके सामने कोई समस्या नहीं है तो मैं तुम्हें सम्पूर्ण संसार के दर्शन करा सकता हूँ। जानते हो महान बुद्ध ने क्या कहा था?”

वेलान सरककर नज़दीक आ गया। “एक बार एक औरत अपने बच्चे की लाश को सीने से लगाए हुए विलाप करती हुई बुद्ध महाराज के पास पहुँची। बुद्ध ने कहा, ‘जाओ, जाकर यह मालूम करो, क्या शहर में कोई ऐसा घर भी है, जहाँ मौत नहीं आई। उस घर से मुट्ठी भर सरसों लाकर मुझे दो, तब मैं तुम्हें मौत पर काबू पाना सिखा दूँगा।”

वेलान ने जीभ तालू से सटाकर ‘च्चि ! च्चि !’ की आवाज़ की और पूछा, “और मरे हुए बच्चे का क्या हुआ श्रीमान ?”

“माँ को मजबूर होकर बच्चा दफनाना पड़ा और क्या !” राजू ने जवाब दिया, हालाँकि मन ही मन उसे इस तुलना पर सन्देह हो रहा था, “अगर तुम मुझे एक भी ऐसा घर दिखा सको जहाँ लोग समस्याओं से मुक्त हो चुके हों, तो मैं तुम्हें सारे संसार की सभी समस्याओं से छुटकारा पाना सिखा दूँगा।”

वेलान इस भारी-भरकम वक्तव्य से प्रभावित हुआ। उसने झुककर प्रणाम करते हुए कहा, “श्रीमान, मैंने आपको अपना नाम नहीं बताया। मैं वेलान हूँ। मेरे पिता ने अपनी ज़िन्दगी में तीन शादियाँ की थीं। मैं उनकी पहली पत्नी का सबसे बड़ा लड़का हूँ। उनकी तीसरी पत्नी की सबसे छोटी लड़की भी हमारे साथ ही रहती है। गृहस्वामी होने के नाते मैंने घर में उसे हर सुख-सुविधा दे रखी है। एक लड़की को जितने भी गहनों और कपड़ों की ज़रूरत हो सकती है, मैं उसे खरीदकर देता हूँ लेकिन…” वेलान अन्तिम आश्चर्यपूर्ण वाक्य कहने से पहले ही रुक गया।

राजू ने उसकी बात पूरी की, “लेकिन लड़की कृतघ्न है।”

“बिलकुल ठीक, श्रीमान, ” वेलान बोला ।

“और तुमने उसके लिए जो लड़का ढूँढ़ा है, वह भी उसे पसन्द नहीं है?”

“बिलकुल सच है श्रीमान!” वेलान ने चकित स्वर में कहा । “मेरे चचेरे भाई का बेटा बड़ा अच्छा लड़का है। शादी की तारीख भी पक्की हो गई थी, लेकिन जानते हैं श्रीमान, लड़की ने क्या किया?”

“भाग गई। तुम उसे वापस कैसे लाए?” राजू ने पूछा ।

रात होने तक वह नदी का प्रवाह देखता रहा । बीच-बीच में पीपल और बरगद के पेड़ों की सरसराहट प्रचण्ड और भयानक हो उठती थी। आसमान साफ था। राजू को और कोई काम नहीं था, इसलिए उसने तारे गिनने शुरू कर दिए। वह मन ही मन कहने लगा, ‘मैंने मानव-जाति की जो गहरी सेवा की है, उसका पुरस्कार मुझे ज़रूर मिलेगा। लोग कहेंगे- यह है वह आदमी जिसे आकाश के तारों की सही संख्या मालूम है। अगर नक्षत्रों के कारण कोई आफत उठ खड़ी हो, तो जाकर उसी से सलाह लो। वही रात के आसमान के बारे में तुम्हारा पथ-प्रदर्शक बन सकता है।’ फिर वह अपने-आपसे कहने लगा, ‘बेहतर होगा अगर मैं एक कोने से गिनती शुरू करूँ और आसमान को टुकड़ों में बाँटकर सारे तारों को गिन डालूँ। मध्य आकाश से क्षितिज की ओर जाने का कोई फायदा नहीं, बल्कि क्षितिज से मध्य आकाश की ओर गिनना चाहिए।’ वह एक सिद्धान्त का प्रतिपादन करने जा रहा था। उसने बायीं तरफ दूर नदी पार खजूर के पेड़ों पर खिंची क्षितिज रेखा से गिनती शुरू की । एक-दो-पचपन अचानक उसे एहसास हुआ कि गहरा देखने पर तारों का एक और पुंज दिखाई देने लगता है। वह गिनती भूल गया और वह आँकड़ों के जाल में उलझ गया। उसे थक महसूस होने लगी और वह खुले आसमान तले एक पत्थर की सिल पर पैर फैलाकर सो गया।

आठ बजे सुबह की धूप उसके चेहरे पर चमक रही थी। राजू की आँखें खुलीं तो उसने देखा घाट की निचली सीढ़ी पर वेलान आदरपूर्वक खड़ा था । वेलान ने कहा, “मैं अपनी बहन को ले आया हूँ।” और उसने चौदह साल की एक लड़की को धकेलकर आगे कर दिया जिसने कसकर बालों को चोटियों में बाँध रखा था और गहने पहने थे। वेलान ने बताया, “ये गहने मैंने अपने पैसों से खरीदकर इसे दिए हैं, आखिरकार यह मेरी बहन है।” राजू आँखें मलता हुआ उठ बैठा। इतने सवेरे वह सांसारिक मामलों को सुलझाने की ज़िम्मेदारी लेने के लिए तैयार नहीं था। वह तत्काल एकान्त जाकर नित्यकर्म से निबटना चाहता था। उसने वेलान और उसकी बहन से कहा, “तुम लोग वहाँ जाकर मेरा इंतज़ार करो ।”

बाद में राजू ने देखा कि वे लोग पुराने खम्भोंवाले हॉल में उसकी प्रतीक्षा कर रहे थे। राजू एक चबूतरे पर बैठ गया । वेलान ने उसके सामने केलों, खीरों, गन्ने के टुकड़ों, तले हुए काजुओं से भरी एक टोकरी और दूध से भरा एक ताम्बे का बर्तन रख दिया ।

राजू ने पूछा, “यह किसलिए है?”

“श्रीमान, अगर आप यह भेंट स्वीकार कर लें तो हमें बहुत खुशी होगी।”

राजू बैठा टोकरी की तरफ ताकता रहा। इस भेंट से उसे अप्रसन्नता नहीं हुई । अब वह कोई भी चीज़ खा सकता था और हज़म कर सकता था। उसने खाने-पीने के मामले में नखरा न करना सीख लिया था । अतीत के दिनों में वह कहता, ‘यह कौन खाएगा, मुझे सुबह के वक्त सबसे पहले इडली और कॉफी चाहिए- ये चीजें बाद में चबाने के लिए ठीक हैं। लेकिन जेल की ज़िन्दगी ने उसे किसी वक्त कोई भी चीज़ खा सकने की आदत सिखा दी थी। कभी-कभी उसका कोई कैदी साथी किसी वार्डर की कृपा से छः दिन की बासी गोश्त की कचौड़ी छिपाकर ले आता, जिसके तेल में से खटाई की बू आती । राजू को भी उसमें से हिस्सा मिलता। एक बार राजू ने तड़के तीन बजे उठकर बासी कचौड़ी खाई थी, ताकि दूसरे साथी उठकर हिस्सा न माँगने लगें। अब उसे जो चीज़ मिल जाती थी, वह खा लेता था। उसने पूछा, “आप मेरे लिए इतना कुछ क्यों कर रहे हैं?”

“ये चीजें हमारे अपने खेतों की हैं, आपको भेंट देकर हमें गर्व का अनुभव हो रहा है ।”

राजू को और ज्यादा सवाल पूछने की ज़रूरत नहीं पड़ी। ऐसे मौकों पर अनुभव द्वारा वह पूरी तरह से काबू पाना सीख गया था। वह महसूस कर रहा था कि यह भक्ति-भाव अवश्यम्भावी ही था। क्षण भर के लिए वह उस भेंट को देखता रहा फिर टोकरी उठाकर मन्दिर के भीतर चला गया। दोनों जनें उसके पीछे-पीछे चले गए। राज़ू अँधेरे में आले में बनी एक मूर्ति के सामने जाकर रुक गया। यह चार बाँहों वाले एक लम्बे देवता की मूर्ति थी जिसके एक हाथ में चक्र था और दूसरे हाथ में राजदण्ड था । मूर्ति का सिर बड़े सुन्दर ढंग से तराशा गया था, लेकिन एक शताब्दी से किसी ने इस मूर्ति की तरफ ध्यान नहीं दिया था। राजू ने धार्मिक भाव से टोकरी में रखी भेंट मूर्ति के चरणों में रखकर कहा, “यह इस देवता की पहली भेंट है। देवता को पहले भोग लगाकर हम लोग बचा खुचा खा लेंगे। जानते हो, ईश्वर को भेंट चढ़ाने के बाद खाने की चीजें कम होने की बजाय कितनी बढ़ती हैं? तुम्हें वह कहानी याद है न ।”

राजू ने प्राचीन काल के देवक नामक व्यक्ति की कथा सुनाई, जो प्रतिदिन मन्दिर के फाटक पर भीख माँगा करता था और अपनी कमाई को खर्च करने से पहले देवता के चरणों में रख देता था। कथा पूरी करने से पहले राजू को एहसास हो गया कि न उसे कथा याद आ रही है न कथा का उद्देश्य ही याद आ रहा है। वह खामोश हो गया । वेलान धैर्य से कथा जारी रहने की प्रतीक्षा करने लगा। वह आदर्श चेला था। अधूरी नसीहत या कथा से उसके दिमाग में कोई परेशानी नहीं होती थी। वह इन बातों को जीवन के विधान का अंग समझता था। जब राजू पीठ मोड़कर शान से घाट की सीढ़ियों की तरफ जाने लगा तो वेलान और उसकी बहन भी उसके पीछे-पीछे चल पड़े।

‘बरसों पहले मेरी माँ ने जो कहानी मुझे सुनाई थी, वह मुझे कैसे याद आ सकती है? हर रोज रात को बापू दुकान बंद करके जब घर लौटते थे तो हम उनका इंतज़ार किया करते थे और माँ हमें कोई न कोई कहानी सुनाया करती थीं। बापू की दुकान आ रात तक खुली रहती थी। रोज़ शाम को सुदूर गाँवों से बैलगाड़ियों के लम्बे काफिले आया करते थे। इन गाड़ियों में नारियल, चावल और मण्डी में बिकने के लिए किस्म-किस्म का माल भरा रहता था । इमली के पेड़ तले गाड़ियों को खड़ा करके बैलों की गर्दनों पर से जुआ उतार दिया जाता था और गाड़ीवान दो या तीन-तीन करके गपशप करने, खाना खाने और बीड़ी पीने के लिए हमारी दुकान में चले जाते थे। मेरे बापू को उन लोगों से अनाज के दामों, वर्षा, फसलों और नहरों की हालत के बारे में बातें करने में कितना मज़ा आता था। वे लोग पुरानी मुकद्दमेबाजियों का ज़िक्र भी किया करते थे। उनकी बातचीत में बार-बार मजिस्ट्रेटों का, हलफनामों का, गवाहों का, अपीलों का ज़िक्र आता था, बीच-बीच में हँसी-ठहाकों की आवाजें आती थीं। कानून के किसी हास्यास्पद नुक्ते या खामी की स्मृति उन्हें गुदगुदा देती थी। मेरे पिता इन लोगों की सोहबत में खाना-पीना और सोना तक भूल जाते थे । मेरी माँ कई बार मुझे यह देखने के लिए दुकान में भेजती थीं कि पिता को घर आने के लिए राजी किया जा सकता है या नहीं। वे बड़े गर्ममिजाज आदमी थे और अगर उनकी बातों में कोई दखल देता तो वे क्या कर बैठते इसका कोई ठिकाना नहीं था । इसलिए मेरी माँ मुझे समझा-बुझाकर भेजतीं कि मैं जाकर उनका मूड देखूं और फिर शिष्ट स्वर में उनसे कहूँ कि वे घर आकर खाना खा लें। मैं दुकान की दहलीज पर खड़ा खाँसता- खखारता रहता, ताकि बापू की नज़र मुझपर पड़ जाए, लेकिन वे बातचीत में इतने बेसुध रहते कि उन्हें मेरी तरफ आँख उठाकर देखने की फुर्सत भी न मिलती। मैं भी उनकी बातचीत में खो जाता, हालाँकि बातचीत का एक भी शब्द मेरे पल्ले नहीं पड़ता था। थोड़ी देर बाद रात के सन्नाटे में मेरी माँ की मुलायम आवाज़ सुनाई देती थी, “राजू ! राजू!” और मेरे पिता बातों के बीच सिर उठाकर मेरी तरफ देखते और कहते, “जाकर अपनी माँ से कह दो, वे मेरा इन्तज़ार न करें। कटोरे में मुट्ठी भर चावल और रायता रख दें। नींबू के अचार का एक ही टुकड़ा रखें। मैं देर से लौटूंगा।” हफ्ते में पाँच दिनों तक यही फार्मूला चलता था और वे हमेशा साथ में यह वाक्य जोड़ देते थे, “आज रात सचमुच मुझे भूख नहीं है।” और मेरा ख्याल है, इसके बाद वे साथियों से स्वास्थ्य की समस्याओं पर चर्चा छेड़ देते थे । लेकिन मैं वहाँ रुके बगैर फौरन घर की तरफ चल देता। दुकान की रोशनी और हमारे घर की दहलीज़ में रखी हुई लालटेन की मद्धम लौ के बीच सिर्फ दस गज का फासला था, लेकिन वहाँ से गुज़रते वक्त मेरा शरीर ठण्डे पसीने से तर हो जाता था। मुझे लगता कि जंगली जानवर और भूत-प्रेत अंधेरे से निकलकर मुझपर टूट पड़ेंगे। मेरी माँ दहलीज़ के पास आकर कहतीं, “उन्हें भूख नहीं है न? अब उन्हें रात-भर गाँव के लोगों के साथ बैठकर गपबाज़ी करने का बहाना मिल गया। आकर वे मुश्किल से एक घण्टा सोएंगे और किसी बेवकूफ मुर्गे की बांग के साथ ही उठ जाएँगे। उनकी सेहत इसी तरह चौपट हो जाएगी।” मैं माँ के पीछे-पीछे रसोई में चला जाता। वह फर्श पर अपनी और मेरी थाली पास-पास रखकर पतीले में से चावल परोस देतीं और हम दीवार में एक कील से टंगी ढिबरी की धुआँ-भरी रोशनी में बैठकर खाना खत्म करते। माँ सामने वाली कोठरी में मेरे लिए एक चटाई बिछा देतीं, जिस पर लेटकर मैं सो जाता। वे मेरे सिरहाने बैठकर पिता का इन्तज़ार करती रहतीं। माँ के सामीप्य में मुझे एक अवर्णनीय सुख की अनुभूति होती । मैं उस सामीप्य का लाभ उठाने के लिए झूठमूठ शिकायत करता, “मेरे बालों में कोई चीज़ चल रही है । ” माँ मेरे बालों में उंगलियाँ फेरतीं और गर्दन खुजलातीं । मैं फिर हुक्म जारी करता, “कोई कहानी सुनाओ।” माँ फौरन कहानी शुरू कर देतीं, “बहुत दिन पुरानी बात है, देवक नाम का एक आदमी था…” रोज़ रात को यह नाम सुनने में आता था । देवक हीरो या सन्त किस्म का आदमी था। उसके कारनामों की भूमिका समाप्त होने से पहले ही मुझे नींद आ जाती।’

“राजू घाट की सीढ़ी पर बैठकर सुबह की धूप में चमचमाती हुई नदी की धार को देखने लगा। हवा की ठंडक ने उसके मन में एकान्त पाने की इच्छा जगा दी। वेलान अपनी बहन के साथ धैर्यपूर्वक निचली सीढ़ी पर बैठा था- दोनों जने डाक्टर के कमरे में बैठे प्रतीक्षाकुल मरीजों की तरह मालूम हो रहे थे। राजू के मन को अनेक व्यक्तिगत समस्याएँ परेशान कर रही थीं। अचानक यह सोचकर कि वेलान उस पर अपनी ज़िम्मेदारियाँ थोप रहा है, उसने साफ-साफ कह दिया “वेलान, मैं तुम्हारी समस्याओं के बारे में नहीं सोचना चाहता – इस वक्त समय नहीं है।”

“क्या मैं इसका कारण जान सकता हूँ?” वेलान ने विनीत स्वर में पूछा ।

“बस कह जो दिया” राजू ने निश्चयात्मक स्वर में कहा ।

“श्रीमान, मैं फिर कब आपको कष्ट दूँ?”

“राजू ने शान से जवाब दिया, “जब उसका समय आए।” बात समय की सीमा से निकलकर अनन्त में विलीन हो गई । वेलान ने इस फैसले को स्वीकार कर लिया और जाने के लिए उठ खड़ा हुआ। राजू को उसपर तरस आया । वह खाद्य सामग्री के लिए कृतज्ञ था, इसलिए उसने वेलान को सन्तुष्ट करने के लिए पूछा, “तुम अपनी जिस बहन का ज़िक्र कर रहे थे, क्या यह वही लड़की है ?”

“हाँ श्रीमान, वही लड़की है।”

“मैं तुम्हारी समस्या को समझता हूँ, लेकिन उस पर और विचार करना चाहता हूँ। हम ज़बर्दस्ती कोई समाधान नहीं निकाल सकते। हर समस्या अपना पूरा वक्त लेती है, समझे।”

“जी श्रीमान, जी श्रीमान,” वेलान ने उंगलियों से अपना मस्तक छूकर कहा, “यहाँ जो लिखा है वही होगा । हम लोग उसे रोक भी कैसे सकते हैं?”

“हम किस्मत को बदल तो नहीं सकते, लेकिन समझ ज़रूर सकते हैं,” राजू ने शान से कहा । “और ठीक से समझने के लिए समय की ज़रूरत है।” राजू को लगा जैसे उसके पंख उग आए हैं और थोड़ी देर बाद उसे महसूस हुआ कि जैसे वह हवा में उड़कर प्राचीन मन्दिर के कलश पर जा बैठेगा, उसे किसी बात पर हैरानी नहीं हो रही थी। अचानक उसके मन में यह सवाल उठा, ‘मैंने कैद काटी है या मेरा पुनर्जन्म हुआ है?’ वेलान की उद्विग्नता शान्त हो गई और अपने गुरु के मुख से इतनी सारी बातें सुनकर उसे मन ही मन गर्व महसूस होने लगा। उसने अर्थपूर्ण दृष्टि से अपनी जटिल बहन की तरफ देखा। बहन ने शर्म से सिर झुका लिया। राजू टकटकी वाँधे लड़की की तरफ देखता हुआ बोला, “जो होना है, वह होकर रहेगा, धरती या आकाश की कोई शक्ति उसे रोक नहीं सकती जैसे कोई इस नदी का रुख नहीं बदल सकता।”

“दोनों जने नदी की तरफ देखने लगे, मानो उसी में उनकी समस्याओं का समाधान निहित हो और फिर वहाँ से जाने लगे। राजू ने उन्हें नदी पार करके दूसरे किनारे पर चढ़ते हुए देखा। जल्दी ही वे आँखों से ओझल हो गए ।

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