चैप्टर 2 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 2 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

चैप्टर 2 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 2 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi

Chapter 2 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi

Chapter 2 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi

गंगा के उत्तर तट पर दलमऊ2 महानगर धवल धामों के मसृण दलवाले विशाल पुष्पा-जैसा खिला हुआ है। ऊपर वासन्त् की दिगन्तव्यापिनी ज्योत्स्ना प्लावित हो रही है, वैभव के समय साक्षात् लक्ष्मी की स्नेह-दृष्टि जैसी। माता की गोद पर शिशु जैसा शहर सुख की मृदुल छाँह में बाँहें खोले ऊर्ध्व दृग हो रहा है। कलकल-हासिनी स्वच्छ जलवाहिनी जाहृवी एक ध्वनि के अनेक अर्थो की ओर इंगित करती हुई तरंगित हो रही हैं। इस अर्थ-गौरव को न समझनेवाले साधारण पुरूषों के चरणों पर चढ़ी पुष्पांजलि जैसे अनेक घाट मुक्त हो रहा हैं। अनेक भावों से क्षुब्ध जीवन के प्रवाह में ऐसी ही बहती रहने की मधुर इच्छा लिए हिलते-हलके हृदयवाली तरूणी कुमारियाँ, प्रवास-पति की प्रिय- मिलनातुरा युवतियाँ, पति-युक्ता-मुक्ता कामिनियाँ और अनुकरणशीला बालिकाएँ घी के दीपक जला-जलाकर गंगा-वृक्ष पर प्रवाहित कर रही हैं। नगर के अगणित मन्दिरों से सान्ध्य आरती के मृदंग, मुरज, मंजारादि दूर प्रान्त तक के हृदय को ध्वनित कर रहा है। व्यवसाय, देव-दर्शन और स्वास्थ्य-लाभादि अनेक कारणों से आई हुई नावें आरोहियों को लिए सन्ध्या की इस अपार शान्ति में लीन हैं। पश्चिम और विशाल दुर्ग नगर की रक्षा का भार लिए सक्षम सेनापति जैसा खड़ा है। वहाँ से दूर तक फैली गंगा की विपुल नील शोभा पार्थिव ऐश्वर्य के प्रिय जड़जाल से जैसे चिरकाल के लिए प्राणों को बाँध लेती है।

शिकार को लिए श्रमित अश्व की मन्दल गति से राजकुमार दुर्ग के दार के भीतर गई। सेवक, देर के कारण विचार में पड़े, देखकर प्रसन्न हो गए। एक ने लगाम थाम ली। प्रभा महल की ओर चल दी।

नीलिम के हृदय में अंकुरित प्रेम का पूर्ण चन्द्र जिस दृष्टि से अपने विश्व को देखता है, प्रभा की वही दृष्टि पारिपार्श्विक दृश्यों पर पड़ रही है। स्पर्श से एक जादू जग रहा है। प्रभा के प्राणों की कली दल-दल और रंग-रंग से भरकर, पूरी उभरकर खुल चुकी है, जिसके पास भी उसकी सुगन्ध पहुँची, समझकर उसी ने मालूम कर लिया, फिर पास की दूसरी डालों में खिली कलियों के लिए समझना क्या? वे मौन भले रहें -दूसरी बातों में बहला दें- कली के पवन -स्पर्श का प्रसंग न छेड़ें, पर वे जानती हैं। उमड़ती हुई ज्वार को देखकर हर एक समझदार कह देगा कि वह चन्द्रचुम्बित हो रही है। वहाँ ऐसी कई सखियाँ थीं। प्रभा की प्रसन्नता से ऐसा ही निश्चय उन्हें हुआ; पर सभ्यता के विचार से मौन कुमारी प्रणय का परिचय उन्होंने नहीं पूछना चाहा। वे नगर के प्रतिष्ठित घरों की युवतियाँ थीं जो स्नेहालाप तथा कला-चर्चा के लिए सन्ध्या-समय आया करती थीं। डेढ़-दो घंटे रहकर चली जाया करती थीं। आँखों की स्निग्ध ज्योति से बहलाकर संयत सभ्य कठं से प्रभा ने कहा, “आपलोग मुझे आज क्षमा करें, आज मैं शिकार के पीछे बहुत थक चुकी हूँ।”

उनमें एक चपला साहित्यिका ने हँसकर पूछा, “तो क्या शिकार हाथ नहीं आया?”

भरकर, वैसे ही जल्द हँसती हुई प्रभा बोली, “आया है, पर बड़े परिश्रम के बाद,” कहकर नहाने के लिए चली गई।

बातों में एक दूसरी को चढ़ाती- उतारती, छोड़ती-बाँधती मुक्ति की ज्योतिस्वरूपा देवियाँ अपने-अपने गृह की ओर चलीं।

एक दासी ने प्रभा के अस्त्र खोलकर वस्त्र बदलवा दिया। उसे यमुना को बुला देने की आज्ञा देकर प्रभा स्नान-कक्ष को गई।

यमुना प्रभा की अन्तरंग सखी है। दासी होकर भी उसके पूरे मन पर अधिकार कर लिया है, इसका कारण प्यार है। उम्र में वह प्रभा से कई साल बड़ी है, पर स्नेह और सहानुभूति में बिलकुल बराबर। स्वभाव आकाश की चिडि़या का जैसा है, जिसने प्रभा के रंगों में अपने को बहा दिया है, कलरव और आनन्द जिसके अस्तित्व को पूर्ण किए हुए हैं।

खबर पा यमुना प्रभा के पास आई। उसके खुले आनन्द का पूरा वेग लगते ही प्रभा की पलकें झुक गई, हृदय की बात कहते हृदय संकुचित होने लगा, भीतर की प्रिय छवि को निकालते अंग बाधक हो गए। यमुना के लिए इतना इशारा काफी था। हँसकर बोली, “आज आपकी तबियत अच्छी नहीं मालूम देती। गूँजती मक्खी जैसे फूल के लिए उड़ी पर फूल न मिलने पर उदास लौट आई।”

प्रभा मुस्कुनराई। बोली, “और तुम्हारे गालों में तीन पंजे कसे, तब बेचारी को कुछ रस मिला।”

“होगा” यमुना बोली, “कि फूल पर बैठने की वजह गूँज बन्द हो रही है।”

प्रभा पुलकित हो गई। फिर अज्ञात कहीं के संकोच ने जैसे दबा लिया। बदलकर बोली, “वह गाना, उस दिन नया सीखकर सुनाया था, आज फिर सुना, यमुना!”

प्रभा हृदय न खोल सकी। कितनी लाज लगती है? कैसे कहे कि ऐसा- ऐसा हुआ, उन्हें ले आ, कोई कष्टि न हो। कहने में बड़ा स्वार्थ है, उन्हें प्रतीक्षा करते देर हो रही है – शंका भी है, पर कह नहीं सकती।

इतिहास न मालूम हो सका, पर आकार और इंगितों से उसका तत्त्व-रूप यमुना समझ गई। स्वामिनी सखी के संकोच से हर्षित हुई; पर दूसरे ही क्षण अपने अतीत और वर्तमान के चित्रों में तन्मय हो गई, उनकी स्मृति, दुख की रूखी छाया की तरह, उसके देह और प्राणी को निश्चेष्ट, जड़ीभूत करने लगी। उसी दुख के स्वर में फूटकर वह उसी के आदेश में जैसे गाने लगी :

“दुख के दिन नयन नवाय रहौं।

बेमन मन को समुझाय कहौं।।

को जानति, जागति पीर कौन,

सखि, इहि समीर में बहति मौन,

राजा की कन्या रहति भौन,

दासी बनि, गुनि गुन, दुसह सहौं।।

बीते बहु दिन जब लगी अगिनि ,

धनि, जागि बनी जीवन-जोगिनि;

री रहति तहूँ पिय-धन सो गिनि,

तिय-तन निसिदिन तिन तोरि दहौं।।”

गाने की करूण ध्वनि प्रभा की रग-रग को सजग करने लगी। दु:ख की ही शक्ति सुख के पर्दे के पार जा सकती है। वहाँ धनी और निर्धन, राजकुमारी और सेविका का भाव नहीं, वहाँ हृदय हृदय से बातें करता है। प्रभा की उच्चता उस गाने के भाव में बहकर उसी प्रवाह की जल-समता में आ गई। हृदय भेद खोलकर हृदय से बराबर हो जाने को उतावला हो चला, दु:ख के जो घात संगीत के भीतर से मिले थे, उन्होंने दु:ख की भेदात्मिका रूकावटों को तोड़ दिया। प्रभावती उठकर यमुना के गले लिपट गई। सखी को पास बैठाकर स्नेह-स्वर से प्रेम की कथा सुनाने लगी।

सुनकर यमुना चपल पुतलियों से देखती हुई स्निग्ध किरणों से प्रभा को नहलाकर बोली, “राजकुमार को प्रतीक्षा करते देर हो गई। मैं उन्हें अच्छी जगह छोड़कर अभी आती हूँ , आगे के प्रबन्ध करूँगी; तब तक वे कुछ आराम कर लेंगे।”

प्रभा की दृष्टि में कुमारी उत्कंठा लिखी रह गई।

बातचीत के अनुसार आवश्यक चीजें यमुना ने ले लीं।

क्रमश: 

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