चैप्टर 2 परिणीता : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 2 Parineeta Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 2 Parineeta Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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काफ़ी लंबे अर्से से श्याम बाजार के किसी अमीर घराने के साथ शेखर के विवाह की बातचीत चल रही है। उस दिन जब वे लोग देखने आये, तो उन लोगों ने अगले माघ का कोई शुभ दिन तय करने का प्रस्ताव दिया। लेकिन शेखर की माँ ने इंकार कर दिया। उन्होंने महरी के जरिये मर्दाने में यह कहला भेजा कि लड़का जब ख़ुद लड़की देखकर पसंद कर आये, तभी यह विवाह संभव है।

नवीन राय की नज़र सिर्फ दौलत पर थी। गृहिणी की इस टाल-मटोल से वे नाराज़ हो उठे।

‘‘यह कैसी बात ? लड़की को देखी-भाली है। बातचीत पक्की हो जाने दो। उसके बाद सगाई के दिन अच्छी तरह देख लेना।’’

लेकिन, गृहिणी राजी नहीं हुईं। उन्होंने पक्की बातचीत करने से मना कर दिया। उस जिन नवीन राय इस कदर नाराज़ हुए कि खाना भी काफ़ी देर से खाया और दोपहर को वे बाहर वाले कमरे में ही सोये।

शेखरनाथ ईषत् शौकीन तबीयत का शख्स था। वह तीसरी मंजिल के जिस कमरे में रहता था, वह काफ़ी सजा हुआ था।

करीब पाँच-छः दिन बाद एक दिन दोपहर को जब वह अपने कमरे के बड़े-से आईने के सामने खड़ा-खड़ा लड़की देखने जाने के लिए तैयार हो रहा था, ललिता कमरे में दाखिल हुई।

कुछेक पल उसकी तरफ खामोश निगाहों से देखते हुए, उसने कहा, ‘‘सुनो, ज़रा अच्छी तरह सजा-वजा तो दो, ताकि बीवी पसंद कर ले।’’

ललिता हँस पड़ी, ‘‘अभी तो मेरे पास वक्त नहीं है, शेखर दा, मैं रुपये लेने आई हूँ।’’

इतना कहकर उसने तकिये के नीचे दबी चाबी निकाली और अलमारी खोलकर दराज से कुछ रुपये निकालकर गिने। रुपये आँचल में बांधकर उसने स्वगत ही कहा, ‘‘ज़रूरत के वक्त रुपये ले तो जाती हूँ, मगर इतना सब शोध कैसे होगा ?’’

शेखर ने ब्रश फेरकर एक तरफ के बाल बड़े जतन से ऊँचे किए और पलटकर ललिता की ओर मुखातिब हुआ, ‘‘शोध होगा नहीं, हो रहा है।’’

ललिता को उसकी बात समझ में नहीं आई। उसकी आँखें शेखर के चेहरे पर गड़ी रही।

‘‘यूं देख क्या रही हो ? समझ में नहीं आया ?’’

‘‘ना!’’ ललिता ने इंकार में सिर हिला दिया।

‘‘ज़रा और बड़ी हो जाओ, तब समझ जाओगी।’’ इतना कहकर, शेखर ने जूते पहने और कमरे से बाहर निकल गया।

रात को शेखर काउच पर चुपचाप लेटा हुआ था। अचानक उसकी माँ कमरे में दाखिल हुई। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। माँ तख़त पर बैठ गईं।

‘‘लड़की देखी ? कैसी है, रे ?’’

‘‘अच्छी !’’ माँ के चेहरे की तरफ देखते हुए शेखर ने जवाब दिया।

शेखर की माँ ! नाम भुवनेश्वरी ! उम्र लगभग पचास के करीब आ पहुँची थी, लेकिन तन-बदन इतना कसा हुआ ! इतना खूबसूरत कि वे पैंतीस-छत्तीस से ज्यादा की नहीं लगती थीं। ऊपर से उनके ऊपर आवरण के अंदर जो मातृ-हृदय मौजूद था, वह और भी ज्यादा नया और कोमल था। वे गाँव देहात की औरत। वे गाँव-देहात में पैदा हुईं ! वहीं पली-बढ़ी़-बड़ी हुईं, लेकिन शहर में भी कभी किसी दिन भी बेमेल नहीं नज़र आईं। जैसे उन्होंने शहर की चुस्ती-फुर्ती, जीवंतता और आचार-व्यवहार उन्मुक्त भाव से ग्रहण कर लिया, उसी तरह अपनी जन्मभूमि की निबिड़ निस्तब्धता और माधुर्य भी उन्होंने नहीं खोया। यह माँ शेखर के लिए कितना विराट गर्व थी, यह बात उसकी माँ भी नहीं जानती थी। ईश्वर ने शेखर को काफ़ी कुछ दिया था-अनन्य सेहत, रूप, ऐश्वर्य, बुद्धि-लेकिन, ऐसी माँ की संतान हो पाने का सौभाग्य को वह समूचे तन-मन से ऊपर वाले का सबसे बड़ा दान मानता था।

‘‘अच्छी, कहकर तू चुप क्यों हो गया ?’’ माँ ने पूछा।

शेखर ने दुबारा हँसकर सिर झुका लिया, ‘‘तुमने जो पूछा, वही तो बताया।’’

माँ भी हँस पड़ी, ‘‘कहाँ बताया ? रंग कैसा है, गोरा ? किसके जैसी है ? हमारी ललिता जैसी ?’’

शेखर ने सिर उठाकर जवाब दिया, ‘‘ललिता तो काली है माँ, उससे तो गोरी है।’’

‘‘चेहरा-मोहरा, आँखें कैसी हैं ?’’

‘‘वह भी बुरी नहीं।’’

‘तो घर के कर्ता से कह दूं ?’’

इस बार शेखर खामोश रहा। कुछेक पल बेटे का चेहरा पढ़ते हुए माँ ने अचानक सवाल किया, ‘‘हाँ रे, लड़की पढ़ी-लिखी कितनी है ?’’

‘‘वह तो मैंने नहीं पूछा, माँ !’’

माँ एकदम से ताज्जुब में पड़ गईं, ‘‘यह कैसी बात है रे ? जो आजकल तुम लोगों के लिए सबसे ज्यादा ज़रूरी है, वही बात पूछकर नहीं आया ?’’

शेखर हँस पड़ा, ‘‘नहीं माँ, यह बात तो मुझे याद ही नहीं रही।’’

बेटे की बात सुनकर अब वे बाकायदा विस्मित हो उठी और कुछेक पल उनकी निगाहें बेटे के चेहरे पर गड़ी रहीं।

अचानक वे हँस पड़ीं, ‘‘यानी तू वहाँ ब्याह नहीं करेगा ?’’

शेखर जाने क्या तो कहने जा रहा था, अचानक ललिता को कमरे में दाखिल होते देखकर वह खामोश हो गया।

ललिता धीमे कदमों से भुवनेश्वरी के पीछे आ खड़ी हुई।

भुवनेश्वरी ने बायें हाथ से उसे खींचकर अपने सामने कर लिया, ‘‘क्या बात है, बिटिया ?’’

ललिता ने फुसफुसाकर जवाब दिया, ‘‘कुछ नहीं, माँ ?’’

वह पहले उन्हें ‘मौसी’ बुलाया करती थी, लेकिन उन्होंने उसे बरजते हुए कहा, ‘‘मैं तुम्हारी मौसी नहीं, माँ हूँ।’’

बस, उसी दिन से वह उन्हें ‘माँ’ बुलाने लगी।

भुवनेश्वरी ने उसे और करीब खींचकर, उसे दुलारते हुए पूछा, ‘‘कुछ नहीं ? तो तू मुझे सिर्फ एक बार देखने आई है ?’’ ललिता खामोश रही।

‘‘देखने आई है कि वह खाना कब पकायेगी ?’’ शेखर एकदम से बोल उठा।

‘‘क्यों ? पकायेगी क्यों ?’’

शेखर ने विस्मित मुद्रा में पलटकर सवाल किया, ‘‘तो उन लोगों का खाना और कौन पकायेगा ? उस दिन उसके मामा ने भी तो यही कहा कि पकाने-परोसने का काम ललिता ही करेगी।’’

माँ हँस पड़ीं, ‘‘उसके मामा की क्या बात है ? कुछ कहना था, सो कहकर छुट्टी पा ली। उसकी तो अभी शादी नहीं हुई, उसके हाथ का खायेगा कौन ? मैंने अपने पंडित जी को भेज दिया है, वे ही पकायेंगे। हमारा खाना बड़ी बहूरानी बना रही है। आजकल दोपहर को मैं वहीं चली जाती हूँ।’’ शेखर समझ गया, उस दुःखी परिवार की जिम्मेदारी माँ ने अपने ऊपर ले ली है। उसने राहत की साँस ली और खामोश हो रहा।

करीब महीना भर गुज़र गया।

एक शाम, शेखर अपने कमरे के कोच पर लेटा-लेटा कोई अंग्रेजी उपन्यास पढ़ रहा था। उस उपन्यास में वह खा़सा मगन हो गया था, तभी ललिता उसके कमरे में दाखिल हुई।

उसने तकिये के नीचे से चाबी निकाली और खट्-खुट् की आवाज के साथ, वह अलमारी का दराज़ खोलने लगी।

किताब से सिर उठाये बिना ही शेखर ने पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’

‘‘रुपये निकाल रही हूँ।’’

शेखर ने हुंकारी भरी और पढ़ने में ध्यानमग्न हो गया।

ललिता ने आँचल में रुपये गंठियाकर उठ खड़ी हुई।

आज वह काफ़ी सज-धजकर आई थी। वह चाहती थी, शेखर एक बार उसे देख ले।

‘‘दस रुपये लिए हैं, शेखर दा।’’

‘‘अच्छा !’’ शेखर ने जवाब तो दिया, मगर उसकी तरफ देखा नहीं।

निरुपाय ललिता इधर-उधर की चीजें उलटने-पलटने लगी; झूठमूठ ही देर तक रुकी रही, लेकिन जब कोई नतीजा नहीं निकला, तो धीमे कदमों से कमरे से बाहर निकल गई। लेकिन यूं चले जाने से ही तो नहीं चलता। उसे दुबारा लौटकर दरवाजे पर खड़े होना पड़ा। आज वे लोग थियेटर जा रही थीं।

शेखर की अनुमति बिना वह कहीं नहीं जा सकती, यह बात वह जानती थी। किसी ने उसे शेखर से अनुमति लेने को नहीं कहा, या वह क्यों, किसलिए….ये सब ख़यालल, उसके मन में कभी नहीं जगे। लेकिन इंसान मात्र में एक सहज-स्वाभाविक बुद्धि मौजूद है, उसी बुद्धि ने उसे सिखाया था कि भले और कोई मनमानी कर सकता है, जहाँ चाहे जा सकता है, मगर वह ऐसा नहीं कर सकती। इसके लिए वह आजाद भी नहीं है। मामा-मामी की अनुमति ही उसके लिए यथेष्ट नहीं है।

दरवाजे की आड़ में खड़ी-खड़ी उसने कहा, ‘‘हम लोग नाटक देखने जा रही हैं।’’

उसकी मृदु आवाज शेखर के कानों तक नहीं पहुँची।

ललिता ने ज़रा और तेज आवाज में कहा, ‘‘सब लोग मेरे इंतज़ार में खड़े हैं।’’

इस बार शेखर के कानों तक उसकी आवाज पहुँच गई।

उसने किताब एक ओर रखते हुए पूछा, ‘‘क्या बात है ?’’

ललिता ने ईषत् तमककर जवाब दिया, ‘‘इतनी देर बाद, मेरी आवाज कानों तक पहुँची ? हम लोग थियेटर जा रहे हैं।’’

‘‘हम लोग कौन ?’’ शेखर ने पूछा।

‘‘मैं, अन्नाकाली, चारुबाला का भाई, चारुबाला, उसके मामा…’’

‘‘यह मामा कौन है ?’’ शेखर ने पूछा।

ललिता बोली, “उनका नाम गिरीन्द्र बाबू है। 5-6 दिन हुए, अपने घर मुंगेर से यहाँ आये हैं। यहीं कलकत्ते में रह कर बी० ए० में पढ़ेंगे। बड़े अच्छे आदमी हैं।“

शेखर बीच ही में कह उठा, “वाह! नाम, पता, पेशा, सब मालूम कर लिया तुमने तो! देख पड़ता है, इतने ही में खूब हेलमेल हो गया है। इसीलिए चार-पाँच दिन से तुम गायब रहती हो। जान पड़ता है, ताश खेला करती हो?”

अचानक शेखर के बात करने का ढंग बदला हुआ देखकर ललिता डर गई। उसे खयाल भी न था कि इस तरह का प्रश्न उठ सकता है। वह चुप हो रही।

शेखर ने फिर पूछा, “इधर कई दिन से ताश का खेल होता था – क्यों?

ललिता ने संकुचित होकर धीरे से अपनी लाचारी जताते हुए संकोच के स्वर में कहा, “चारु के कहने….”

”चारु के कहने से? क्या कहने से?” कहते हुए शेखर ने एक बार सिर उठाकर ललिता की ओर देखा। फिर कहा, “एक दम कपड़े-लत्ते से लैस होकर आई हो। अच्छा, जाओ।“

लेकिन ललिता नहीं गई। वहीं चुपचाप खड़ी ही रही।

चारुबाला का घर ललिता के घर के पास ही है। चारु उसकी बहनेली है। दोनों हमजोली हैं। चारु के चरवाले ब्रह्मसमाजी हैं। इस गिरीन्द्र के अलावा चारु के घर के सभी आदमी शेखर के परिचित हैं। 5-7 साल हुए, गिरीन्द्र कुछ दिन के लिए एक बार यहाँ आया था। अब तक वह बांकीपुर में पढ़ता था। कलकत्ते आने का न प्रयोजन ही हुआ और न वह आया ही। इसी कारण शेखर उसे जानता-पहचानता न था।

ललिता को फिर भी खड़े देखकर ”बेकार क्यों खड़ी हो, जाओ” कहकर शेखर ने फिर किताब खोल ली, और पढ़ना शुरू कर दिया।

पाँच मिनट के लगभग चुप रहने के बाद ललिता ने फिर धीरे से पूछा, “जाऊं?”

”जाने ही को तो कह चुका हूँ ललिता।”

शेखर का रंग-ढंग देखकर ललिता के मन से थियेटर देखने का उत्साह उड़ गया, लेकिन बात ऐसी थी कि गये बिना भी न बनता था।

तय यह हुआ था कि आधा खर्च चारु का मामा देगा, और आधा ललिता देगी।

चारु के घर में सब लोग उसी की अपेक्षा कर रहे होंगे। देर होने के कारण ऊब रहे होंगे। जितनी देर हो रही है, उतनी ही उन लोगों की बेचैनी बढ़ रही है, यह दृश्य कल्पना के द्वारा ललिता की आँखों के आगे नाचने लगा। किन्तु बचने का कोई उपाय भी उसे नहीं सूझ पड़ता था। और भी 2-3 मिनट तक चुप रहने के बाद फिर उसने कहा, “बस, सिर्फ आज ही के दिन जाना चाहती हूँ, जाऊं?”

शेखर ने किताब को एक तरफ फेंक दिया, और धमकाकर कहा, “ दिक् मत करो ललिता, जाने की इच्छा हो तो जाओ। अब अपना भला-बुरा समझने लायक हो चुकी हो।“

सुनते ही ललिता चौंक उठी। ललिता को अक्सर शेखर झिड़कता, डांटता और धमकाता था। आज कुछ पहला ही मौका न था। सुनने और सहने का अभ्यास अवश्य था, लेकिन इधर दो तीन साल से ऐसी कड़ी झिड़की या झड़प झेलने की नौबत नहीं आई थी। उधर साथी सब राह देख रहे हैं, इधर वह खुद भी पहन-ओढ़कर तैयार खड़ी है। सिर्फ रुपये लेने के लिए आना ही आफत हो गया! अब उन सब साथियों से जाकर वह क्या कहेगी?

कहीं जाने-आने के लिए ललिता को आज तक शेखर की ओर से पूरी स्वतन्त्रता प्राप्त थी, वह कभी रोक-टोक नहीं करता था। इसी धारणा के बल पर वह आज भी एकदम सज-धजकर शेखर के पास केवल रुपये भर लेने आई थी।

इस समय उसकी वह स्वाधीनता ही केवल ऐसे रूढ़ भाव सें खर्च नहीं हो गई, बल्कि जिस लिए स्वाधीनता कुण्ठित हुई वह कारण कितनी बड़ी लज्जा की बात है, यह आज अपनी इस तेरह वर्ष की अवस्था में पहली ही बार अनुभव करके वह भीतर ही भीतर जैसे कटी जा रही थी। अभिमान से आँखों में आँसू भरकर वह और भी पाँच मिनट के लगभग खड़ी रही। इसके बाद अपने घर जाकर ललिता ने दासी के जरिये अन्नाकाली को बुलवाकर उसके हाथ में दस रुपये देकर कहा, “काली, आज तुम सब जाकर देख आओ। मेरी तबियत बहुत खराब हो गई है; चारु से जाकर कह दे, मैं आज न जा सकूंगी।“

अन्नाकाली ने पूछा, “कैसी तबियत है? क्या हुआ?”

ललिता ने कहा, “सिर में दर्द है, जी मतला रहा है, तबियत बहुत ही खराब हो रही है।“

इतना कहकर वह करवट बदलकर लेट रही। इसके बाद चारु ने आकर बड़ी खुशामद की, जोर-जबरदस्ती भी की, मामी से सिफारिश कराई, किन्तु किसी तरह ललिता को उठ कर चलने के लिए राजी न कर पायी। अन्नाकाली दस रुपये पा गई थी, इसलिए वह जाने को चटपटा रही थी। कहीं इस गड़बड़ मेँ पड़कर जाना न हो सके, इस भय से उसने चारु को आड़ में ले जाकर रुपये दिखाकर कहा, “ दीदी की तबियत अच्छी नहीं है, वे न जायेंगी तो क्या हर्ज़ है चारु दीदी? उन्होंने मुझे रुपये दे दिये हैं, यह देखो। आओ, हम लोग चलें।“

चारु ने समझ लिया, अन्नाकाली अवस्था में छोटी है तो क्या हुआ, बुद्धि उसमें किसी से कम नहीं है। वह राजी हो गई, और अन्नाकाली को लेकर चली गई।

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