चैप्टर 2 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 2 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online

चैप्टर 2 नीलकंठ गुलशन नंदा का उपन्यास | Chapter 2 Neelkanth Gulshan Nanda Novel In Hindi Read Online, Neelkanth Gulshan Nanda Ka Upanyas 

Chapter 2 Neelkanth Gulshan Nanda

Chapter 2 Neelkanth Gulshan Nanda

रेनु डाकिए के हाथ से तार का लिफाफा लेकर ब़ाग प्लेटफार्म की ओर दौड़ी, जहाँ रायसाहब, मालकिन और संध्या बैठे शाम की चाय पी रहे थे। रेनु के हाथ में लिफाफा देखकर संध्या ने पूछा, ‘कौन आया है?’

‘पोस्टमैन-पापा का तार आया है।’ लिफाफा पापा के हाथ में थमाते हुए रेनु एक ही सांस में सब कह गई।

सबकी दृष्टि रायसाहब के मुख पर जम गई, जो तार देखकर पीला पड़ गया था। तार पकड़ते ही उनके मुख पर प्रसन्नता की लहर दौड़ गई और साथ ही सबकी रुकी सांसें चलने लगी। मालकिन ने झट पूछा-

‘किसका है?’

‘बेला का-कल शाम की गाड़ी से आ रही है।’ तार संध्या के हाथ में देते हुए रायसाहब ने प्लेट से एक लड्डू उठाकर मुँह में डाल लिया। रेनु तो सुनकर नाचने ही लगी-‘कल मेरी दीदी आएगी’ और यह खबर सुनाने पड़ोस में चली गई।

बेला संध्या से छोटी तथा रेनु से बड़ी थी। रायसाहब जी दिल्ली से बंबई स्थानांतरित हुए तो उन्हें बेला को विवश होकर होस्टल में छोड़ना पड़ा। बी.ए. का अंतिम वर्ष था और बंबई विश्वविद्यालय की पढ़ाई दिल्ली से बिलकुल भिन्न थी। कल वह परीक्षा समाप्त होने के पश्चात् पहली बार बंबई आ रही थी।

सायंकाल जब आनंद उसके यहाँ आया तो रेनु ने सर्वप्रथम उसे यही समाचार सुनाया।

आनंद ने बातों-ही-बातों में संध्या से पूछा-‘कैसी है तुम्हारी बहन?’

‘जैसे हमारी नई गाड़ी!’ संध्या ने दबी मुस्कान में उत्तर दिया।

‘वाह, यह गाड़ी व बेला की तुलना अनोखी है।’

‘तो देख लेना-जैसे हमारी गाड़ी लेटेस्ट मॉडल की है, वैसे ही मेरी बहन फैशन में तो सारे कॉलेज में प्रथम है।’

‘तब तो परीक्षा में भी ‘प्रथम’ आएगी।’

आनंद की बात सुनकर संध्या की हँसी छूट गई। आनंद ने धीमे स्वर में कहा-‘जान पड़ता है कि बेला से तुम्हें कुछ डर है?’

‘भला वह क्यूँ?’

‘इसलिए कि उसके उपहास में तुम्हें आनंद आता है।’

‘मैं तो आपके कहने के ढंग पर हंस पड़ी-वरना आप ही कहें, क्या कोई अपनी बहन से ईर्ष्या करता है और फिर वह भी छोटी बहन से!’

‘कल कौन-सा दूर है…! सब प्रकट हो जाएगा और हाँ, तुम तो स्टेशन जाओगी ना?’

‘और आप भी’ – रेनु यह कहते हुए उनकी ओर बढ़ी, जो शायद खड़ी उनकी बातें सुन रही थी। दोनों ने मुड़कर उसे देखा। दोनों को अपनी ओर अपलक यूं देखते हुए रेनु फिर बोली-

‘हाँ, आपको भी जाना होगा-पापा कह रहे हैं-हमारी बेला नई गाड़ी में घर आएगी।’

‘तो मेरा इसमें क्या काम है?’ आनंद रेनु की चुटकी लेते हुए बोला।

‘ड्राइवर के बिना गाड़ी कैसे चलेगी?’ यह कहते हुए रेनु भाग गई।

‘चल, नटखट कहीं की’, कहकर संध्या ने उसे पकड़ने का विफल प्रयास किया और दोनों हँस पड़े।

फिर दूसरी शाम संध्या और आनंद को ही स्टेशन जाना पड़ा। रायसाहब ऑफिस में काम की अधिकता के कारण समय पर न पहुँच सके और मालकिन वैसे ही स्टेशन जाने से कतराती थीं।

स्टेशन पर पहुँचकर आनंद ने मोटर की चाबी निकालते हुए पूछा-‘परंतु संध्या-!’

‘हूँ।’

‘जब बेला पूछेगी कि मैं कौन हूँ तो क्या कहोगी।’

‘हमारा ड्राइवर’, संध्या होंठों पर एक चपल मुस्कान लाते हुए बोली।

‘सुंदर! कुछ समय हास-परिहास ही रहेगा’, शीघ्रता से दोनों ‘पूछताछ कार्यालय’ की खिड़की पर पहुँचे और आनंद ने दिल्ली एक्सप्रेस के आने का समय पूछा।

‘वह तो आ चुकी।’

‘कब?’

‘अभी-अभी।’

संध्या तीव्रता से भीतर भागी। आनंद रुककर भीतर से निकलने वाले यात्रियों को ध्यानपूर्वक देखने लगा। आने वाली हर युवती उसे बेला ही जान पड़ती, परंतु उनके संग किसी को देखकर हर बार उसे अपना अनुमान बदलना पड़ता। इतने में उसकी दृष्टि दूर प्लेटफॉर्म पर खड़ी संध्या पर पड़ी, जो कुली से सामान उठवा रही थी। पास ही पीठ किए एक लड़की सलवार-कमीज पहने उससे बातें कर रही थी।

‘तो बेला आ गई’ आनंद के शरीर में सिहरन-सी दौड़ गई। वह धीरे-धीरे पाँव बढ़ाता कार की ओर बढ़ा। इस विचार से कि बेला उसे ड्राइवर समझेगी, उसके माथे पर श्वेत बिंदु झलक उठे। अभी वह सोच ही रहा था कि किसी की आहट ने उसे चौंका दिया। वे दोनों निकट आ पहुँची थीं। बेला से आँखें चार होते ही वह स्तब्ध-सा रह गया।

आधुनिक फैशन की युवती-अलौकिक सौंदर्य, जिसकी एक दृष्टि ही देखने वालों को बेसुध बनाने के लिए पर्याप्त हो। बेला का अछूता माधुर्य एक ही झलक में बिजली की भांति चकाचौंध-सा कर गया।

दोनों ने एक-दूसरे को देखा और क्षण भर के लिए देखते ही रह गए। कुली ने सामान मोटर के पीछे रखा। बेला और संध्या मुस्कुराती हुईं पीछे की सीट पर बैठ गईं। बेला तो इस गाड़ी को देखकर फूली न समा रही थी। जब गाड़ी पार्किंग स्टैंड से उतरकर पक्की सड़क पर आई तो बेला ने धीमे स्वर में पूछा-

‘परंतु दीदी! ये कौन हैं?’

‘ओह हमारा ड्राइवर!’

‘क्या कहा, ड्राइवर?’ आश्चर्य से बेला उसे देखते हुए बोली।

‘हाँ! इसमें आश्चर्य की कौन सी बात है?’

‘कुछ नहीं, यूं ही।’ बेला खिलखिलाकर हँसने लगी और फिर हँसते हुए बोली-‘दीदी, पापा ने गाड़ी तो गाड़ी, ड्राइवर भी लेटेस्ट मॉडल का रखा है।’

संध्या उसकी यह बात सुन तनिक घबरा-सी गई। कहीं आनंद बुरा न मान जाए-कहीं इस उपहास का-बेला फिर कहने लगी-

‘और हाँ दीदी, यह ड्राइवर कुछ अनाड़ी-सा ज्ञात होता है, देखो न भय से उसका पसीना छूट रहा है।’

‘यह क्या कह रही हो?’

‘हाँ-, सामने दर्पण में देखकर-‘रंग पीला और माथे पर पसीना।’

संध्या ने सामने लगे दर्पण में देखा, आनंद की दशा सच ही ऐसी थी। उसी क्षण आनंद ने रूमाल से पसीना पोंछ लिया।

गाड़ी रुकते ही बेला बाहर निकली। मम्मी, पापा और रेनु पहले से ही उसके आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। बेला भागकर पापा से लिपट गई। उन्हें छोड़ जैसे ही वह मम्मी से गले मिल रही थी उसने संध्या तथा आनंद को गाड़ी से अपना सूटकेस उतारते देखा। बेला झट से बोली-

‘दीदी! रहने दो, ड्राइवर स्वयं ही रख लेगा!’

‘ड्राइवर…!’ आश्चर्य से रायसाहब के मुख से निकला।

‘मेरा आशय’ बेला कहते-कहते रुक गई। संध्या उसे मौन रहने का संकेत कर रही थी। समय की कठिनाई का अनुमान लगाकर वह उसकी बात काटते हुए बोली-

‘पापा, बेला शायद इससे अनजान है कि अभी तक हमारे पास ड्राइवर नहीं है।’

‘इसलिए आज आनंद साहब को कष्ट उठाना पड़ा।’ रायसाहब कृतज्ञतापूर्वक आनंद की ओर देखकर बोले।

‘आप तो मुझे लज्जित कर रहे हैं। भला, यह भी कोई बड़ा कार्य था।’

‘ओह! आप मिस्टर आनंद!’ विस्फारित नेत्रों से देखते हुए बेला ने आश्चर्य से कहा।

‘क्या, संध्या ने इनके विषय में तुमसे कुछ नहीं कहा। यह मिस्टर आनंद हैं, जनरल मोटर कंपनी के सेल्स मैनेजर और यह गाड़ी भी इनकी ही पसंद की है।’

‘ओह! नमस्ते! दीदी ने तो मुझे कुछ और ही बताया था।’

इस बात पर सब हँस दिए। बेला और आनंद संध्या की ठिठोली पर और रायसाहब और मालकिन इस बात पर कि बेचारी कहती भी तो क्या? आनंद मेरा कौन है? दृष्टि नीचे किए संध्या झेंपकर भीतर चली गई और चाय का प्रबंध करने लगी। पापा ने बेला को मुँह-हाथ धोकर निबटने को कहा और स्वयं चाय की मेज पर आए। आनंद ने गाड़ी गैरेज में खड़ी करने की अनुमति लेकर उसे गैरेज में बंद कर दिया।

जब उसने गैरेज से निकलकर बैठक में प्रवेश किया तो सामने खड़ी बेला उसे देख मुस्कराकर बोली-

‘आप बुरा तो नहीं मान गए?’

‘किस बात का?’ आनंद ने उसी भाव में कहा।

‘मेरी अशिष्टता का।’

‘इसमें आपका क्या दोष’, आनंद बात पूरी करते हुए बोला-‘यह शरारत तो संध्या की थी।’

इस पर दोनों मुस्करा दिए।

बेला अपने सूटकेस को खोलने का बार-बार प्रयत्न कर रही थी। आनंद ने उसे प्रत्येक बार विफल होते देखकर आगे बढ़ एक ही झटके में ताला खोल दिया। बेला ने मुस्कराकर उसे धन्यवाद दिया।

‘आप दिल्ली में किस कॉलेज में पढ़ती थीं?’

‘लेडी इरविन, और होस्टल में रहती थी।’

‘ओह! तो आपको होस्टल का जीवन कैसे लगा?’

‘जी! वह जीवन ही कुछ और है।’ बेला यह कहते हुए उन दिनों की स्मृति ताजा हो आई। आनंद उसकी पतली-पतली उंगलियों को देख रहा था, जो सूटकेस में से एक हल्के रंग की साड़ी खींच रही थीं।

खोई-सी दशा में जैसे ही बेला ने साड़ी खींची, कुछ पत्र-पत्रिकाएँ बाहर आ गिरीं। इससे पहले कि बेला उन्हें उठाती, आनंद ने उन्हें उठा लिया और उनके नाम पढ़ने लगा। फिल्म इंडिया, फैशन एंड ब्यूटी और फोटो प्ले, खूब रुचि पाई है।

‘छोड़िए! पापा चाय के लिए आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।’ बेला ने पत्रिकाएँ अपने हाथ में लेते हुए कहा। आनंद मुस्कराते हुए उठा और लंबे-लंबे डग भरता हुआ खाने वाले कमरे की ओर बढ़ गया।

बेला उसे जाते हुए देखती रही। आनंद, उसके मधुर सपनों की व्याख्या, उसके अंधेरे आकाश में चमकता हुआ तारा, वह सहसा गंभीर हो गई। कहीं मुझसे पहले दीदी ने तो इनके मन में स्थान नहीं पा लिया, परंतु दीदी तो लज्जा और संकोच की प्रतिमा है।

‘तुम अभी तक यहीं हो?’-संध्या के स्वर ने उसे चौंका दिया।

‘अभी आई दीदी! तुम चाय लो।’ बाथरूम की ओर जाते हुए बेला बोली।

चाय पीते समय मेज पर बैठे बेला और आनंद की दृष्टि बार-बार मिल जाती। आनंद रोमांचित हो उठता और बेला मुस्करा देती। जब भी वह छिपी दृष्टि से संध्या को देखता कि कहीं वह यह सब देख तो नहीं रही तो वहाँ भी होंठों पर मुस्कान ही पाता।

दोनों बहनों के होंठों पर मुस्कान खेल रही थी। अंतर केवल इतना था कि एक की मुस्कान चंचल थी बिजली की भांति कौंधने वाली, दूसरी सौम्य और शांत फूलों पर फैली ज्योत्सना की भांति। आनंद बैठा मन-ही-मन दोनों की तुलना कर रहा था। बेला की आँखों में मादकता और संध्या के नयनों में संकोच-कितनी भिन्नता थी दोनों में-एक में ज्वाला थी और दूसरी ओस। एक ओर उठती घटाएँ और दूसरी ओर रिमझिम फुहार-एक गरजता झरना थी और दूसरी शांत निर्मल स्रोत। कल्पना के सागर में डूबा आनंद यह भी भूल गया कि वह सबके साथ बैठा चाय पी रहा है। जबकि दृष्टि उसी पर लगी हुई थी। रायसाहब मौन तोड़ते हुए बोले-

‘संध्या!’

‘हाँ पापा!’

सब रायसाहब की ओर देखने लगे।

‘आनंद की चाय का प्याला खाली हो गया है और तुम्हें ज्ञात भी नहीं।’

‘ओह!’ संध्या लजा गई।

आनंद अभी कुछ कह भी न पाया था कि संध्या ने केतली की ओर हाथ बढ़ाया। बेला ने उसे रोक दिया और केतली स्वयं उठाते हुए बोली-

‘संध्या के हाथों की बनी चाय तो बहुत पी चुके। यदि अनुचित न हो तो यह प्याला मैं बना दूँ।’

‘क्यों नहीं, क्यों नहीं!’ सबने एक साथ कहा।

बेला जब चाय डाल रही थी आनंद की दृष्टि बार-बार बेला पर जा पड़ती। गर्म चाय से निकलता हुआ धुआं बेला के केशों में ऐसे विलीन हो रहा था, जैसे श्वेत बदली काली घटाओं में समा रही हो।

आनंद के चले जाने के उपरांत दोनों बहनें अपने कमरे में चली आईं। यात्रा की थकान के कारण बेला तो कंबल ओढ़कर लेट गई, किंतु संध्या उसके समीप ही बैठकर स्वेटर बुनने लगी।

‘दीदी!’ बेला ने करवट लेकर पुकारा।

‘हाँ, बेला?’

‘आनंद साहब क्या यहाँ प्रतिदिन आते हैं?’

‘नहीं तो।’

‘सप्ताह में एक-दो बार?’

‘नहीं तो, वह तो यहीं रहते हैं।’

‘कहां?’ बेला विस्मय से कुछ उठते हुए बोली।

‘इस घर के प्रत्येक व्यक्ति के मन में।’

‘हट जाओ।’ वह एक दीर्घ निःश्वास लेते हुए फिर लेट गई।

‘मैं झूठ थोड़े ही कह रही हूँ, तुम्हीं कहो क्या तुम्हारे मन को नहीं भाए।’

‘मन भाए?’ बेला ने यह कह लाज से मुँह सिरहाने में छिपा लिया। दो क्षण मौन के पश्चात् बोली-

‘नहीं।’

‘वह क्यों?’

‘रुचि अपनी-अपनी।’

बेला ने कंबल ओढ़ लिया और अंधेरे में मुँह छिपा कल्पना में आनंद के चित्र बनाने लगी। आनंद से हुई भेंट ने उसके मन में हलचल मचा दी थी। चुपचाप पास लेटी बेला को देखकर संध्या सोचने लगी कि बेला ने झूठ कहा था। यदि उसे आनंद भाया नहीं होता तो वह उसके विषय में पूछती ही क्यों। संभव है मम्मी ने बेला को आते ही सब कुछ बता दिया हो और वह केवल उसे छेड़ने को कह रही हो। इस विचार से संध्या मन-ही-मन मुस्करा उठी। करती भी क्या, व्यक्ति का जीवन बालू की अट्टालिका और आशा पर ही तो निर्भर है।

अगले दिन सायंकाल बेला बाथरूम में खड़ी नल पर हाथ धो रही थी कि अकस्मात् उसकी दृष्टि बाहर फाटक पर पड़ी, जिसे आनंद भीतर से बंद कर रहा था। उसे देखते ही उसके होंठों पर की गंभीरता मुस्कान में परिवर्तित हो गई और वह शीघ्र हाथों से साबुन उतारने लगी। सहसा उसके हाथ रुक गए और वह उन्हें नल के नीचे ही रखे बाहर की ओर देखने लगी। संध्या आनंद का अभिवादन कर रही थी। आनंद ने उसकी चुटकी ली और दोनों मुस्कराते हुए भीतर आ गए। बेला ने अनुभव किया कि किसी अज्ञात भावना ने उस पर अधिकार कर लिया है। सहसा उसे विचार आया, क्या दीदी और आनंद को एक साथ देखकर वह ईर्ष्या करने लगी है। यह विचार आते ही वह मुस्करा दी।

यदि दीदी उससे ऐसे संबंध रख सकती है तो भला उसे कौन रोकेगा। मुझे देखकर भी तो आनंद के होंठों पर मुस्कराहट आ जाती है और फिर मैं दीदी से अधिक सुंदर भी हूँ। यदि दीदी उसके मन पर अधिकार कर सकती है, तो क्या मैं उसके मन में प्रेम की आग नहीं लगा सकती। ऐसे ही विचित्र और गलत विचार बार-बार बेला के मस्तिष्क में चक्कर काटते। दीदी को आनंद के समीप देखकर उसका मन भी आनंद से खेलने को चाहता। वह भी चाहती कि कॉलेज की मीठी बातें सुनाकर उसके साथ हँसे। परंतु क्या दीदी उसे इसका अवसर देंगी भी? यह विचार आते ही वह सोच में पड़ गई।

ज्यों ही वह अपने कमरे की ओर जाने को मुड़ी, आनंद के शब्दों ने उसके पाँव रोक दिए। ‘हैलो बेबी!’ आनंद ने बेला को देखकर मुस्कराते हुए कहा।

‘हैलो मिस्टर ड्राइवर!’ बेला ने अंतिम शब्द पर दबाव देते हुए उत्तर दिया।

‘बेला!’ संध्या ने एक कड़ी दृष्टि से बेला को देखते हुए कहा।

‘दीदी, यह तो मैं हँसी में कह रही थी।’ बेला झट से बोली।

‘हँसी नहीं, यह अशिष्टता है। बड़ों को सदैव आदर से संबोधित करते हैं।’

‘ओह! अब समझी।’ जब संध्या दूसरे कमरे में चली गई तो बेला ने लंबी साँस खींची और तिरछी दृष्टि आनंद पर डालते हुए उसके पास आकर बोली-‘बालकों की भूल तो बड़े सदा क्षमा कर देते हैं।’

‘भूल-कैसी भूल!’ आनंद घबराहट में बोला।

‘आप क्यों काँपने लगे-भूल तो मुझसे हुई है।’

‘कौन-सी?’ आनंद ने अपनी घबराहट मुस्कान में छिपाते हुए कहा।

‘आपको ड्राइवर जो कह दिया।’

‘ओह! इसमें क्या हुआ! जैसे बेबी-वैसे ड्राइवर।’

‘दीदी को तो न जाने क्यों मेरी बात भाती ही नहीं।’

‘दीदी जो ठहरीं-बड़े छोटों को डाँटने-डपटने का अधिकार रखते ही हैं।’

इस पर दोनों हँस दिए। बेला हँसी रोकते हुए बोली-

‘चलिए, अब आप तो यहीं जमकर रह गए।’

‘ओह, मैं तो भूल ही गया-हमें विलम्ब हो रहा है।’

‘कहाँ के लिए?’

‘मैं और संध्या थियेटर जा रहे हैं।’

‘यदि बुरा न समझें तो मैं भी चलूँ।’

‘तुम! हाँ-हाँ, किंतु पापा से पूछ लो।’

‘आप घबराइए नहीं-मैं अनुमति ले लूंगी।’ बेला उछलती हुई बाहर जाने को बढ़ी, परंतु एकाएक ही रुक गई। वह चंचल भाव में बोली-‘मैं आपके संग चलूँ-यह आप मन से कह रहे हैं क्या?’

‘हाँ तो-भला तुम्हें संग ले जाने को किसका मन न चाहेगा।’

बेला अपनी प्रशंसा सुनकर फूली न समाई और सीढ़ियाँ चढ़ती हुई अपने कमरे की ओर भागी। वहाँ संध्या पहले से तैयारी में लगी थी। बेला ने भी झट अलमारी खोली और कोई अच्छी-सी साड़ी टटोलने लगी। संध्या ने आश्चर्य से पूछा-

‘बेला कहाँ की तैयारी है?’

‘थियेटर, आनंद संग ले जा रहे हैं। क्यों दीदी, चलूँ मैं भी?’

‘नहीं।’

‘क्यों?’

‘पापा तुम्हें जाने न देंगे।’

‘तो क्या तुम चोरी से जा रही हो?’

‘कुछ ऐसा ही समझ लो।’

‘वाह! तुम्हारे संग कौन जा रहा है-मैं तो आनंद…’ बेला कहते-कहते रुक गई। संध्या जा चुकी थी। बेला ने शीघ्र नई साड़ी पहनी और बालों में रिबन लगा नीचे उतर आई।

आनंद और संध्या रायसाहब के पास खड़े कदाचित जाने की अनुमति ले रहे थे। बेला भी उनके पास जा खड़ी हुई और प्रार्थना भरे स्वर में बोली-‘मैं भी जाऊँ पापा।’

‘नहीं!’ रायसाहब ने तनिक कठोर स्वर में कहा। बेला ने आशापूर्ण दृष्टि में आनंद की ओर देखा, जो उससे आँखें न मिला सका और रायसाहब से बोला-

‘जाने दीजिए-टिकट तो मिल ही जाएगा।’

‘नहीं, ऐसी कोई बात नहीं। आप जाइए, इसे अध्ययन करना है, इन बातों के लिए बड़ा समय पड़ा है।’

रायसाहब का यह दृढ़ निश्चय देखकर दोनों चुपचाप चले गए। बेला जल-भुनकर रह गई।

अपने कमरे में लौटकर उसने क्रोध में कपड़े बदले और पुस्तक ले बिस्तर पर बैठ गई। खाने के लिए नौकर बुलाने आया तो उसे डांटकर भगा दिया। बेटी को मनाने जब मम्मी आईं तो किवाड़ बंद कर दिया और जब पापा का स्वर सुनाई दिया तो बत्ती बुझाकर लेट गई। पापा ने एक-दो बार पुकारा, किंतु वह मौन रही। जब सब हारकर चले गए तो अंधेरे में लेटी बेला कल्पना में आनंद के चित्र बनाने लगी। उन सुनहरे सपनों में खोई बेला की न जाने कब आँख लग गई।

बाहर किसी धमाके से उसकी नींद खुल गई। अंधेरे में घूमती हुई उसकी दृष्टि जब एकाएक सामने दूसरे पलंग पर पड़ी तो उसने उसे खाली पाया-‘तो क्या संध्या अभी तक नहीं लौटी? किंतु वह भीतर आती ही कैसे? किवाड़ तो अंदर से बंद था।’ बेला ने उसी क्षण हाथ बढ़ाया और बत्ती जला दी। कमरे में और कोई न था।

घड़ी रात के ग्यारह बजा रही थी। बेला पलंग से उठी। उसने द्वार खोल बाहर झांका। पापा के कमरे से छन के आते हुए उजाले से उसने अनुमान लगाया कि वह अभी सोए नहीं।

धीरे-से दबे पाँव वह सीढ़ियाँ उतर गई और बाथरूम की ओर चल दी। जैसे ही उसने बत्ती जलाने को हाथ बढ़ाया, वह सिहर उठी। उसकी दृष्टि द्वार के शीशों से बाग में छिपे सीमेंट की बेंच पर पड़ी। आनंद व संध्या एक-दूसरे के आलिंगन में बंधे थे। छिटकी चाँदनी में दो यौवन को यूँ मदमातें देख बेला को रोमांच हो आया और कुछ ही क्षणों में ज्वाला भड़कने लगी। आखिर दीदी को इतनी स्वतंत्रता क्यों? तो क्या दीदी आनंद से प्रेम करती हैं? और मेरा उसके साथ जाना उनकी स्वतंत्रता में बाधा थी। सबको तो शिक्षा देती हैं, किंतु स्वयं तो-’

और न जाने यूं ही कितने प्रश्न उसके मस्तिष्क में मंडराने लगे। किंतु प्रत्येक प्रश्न उसके हृदय-पटल पर द्वेष की एक गहरी रेखा अंकित कर गया।

जैसे ही आनंद ने संध्या के होंठों को छुआ, बेला के शरीर में फुरेरी-सी दौड़ गई और उसने आँखें बंद कर लीं। उसने भी अपने होंठों पर जलते अंगारे अनुभव किए। कुछ समय पश्चात् जब उसने अपनी आँखें खोलीं तो देखा कि वह दोनों बेंच छोड़कर द्वार की ओर बढ़े जा रहे थे। बेला दबे पाँव अंधेरे में छिप गई।

‘तो अब जाऊँ क्या?’ आनंद ने संध्या का हाथ छोड़ते हुए कहा।

‘मन तो नहीं चाहता, परंतु…’

‘परंतु आपका जाना ही उचित है।’ आनंद बात पूरी करते हुए बोला।

दोनों की एक हल्की-सी हँसी इस सन्नाटे में गूँज गई। दो विवश हृदयों का विवश-संसार, कितना उल्लास है इसमें। मन में इन्हीं विचारों को लिए संध्या भीतर गई।

आनंद शीघ्रता से पाँव बढ़ाता अपनी कार की ओर लपका। आज वह अति प्रसन्न था। गाड़ी में बैठते ही उसने सीट पर रखे फूल को उठाया जो कुछ समय पूर्व संध्या के बालों में था। उसने फूल को सूंघते हुए गाड़ी स्टार्ट कर दी।

कुछ समय पश्चात् उसे कार में लगे दर्पण में किसी लड़की की छाया दृष्टिगोचर हुई। गाड़ी में छाया देखकर तुरंत ही चौंककर उसने गाड़ी को ब्रेक लगा दी और विस्मयपूर्वक दर्पण की छाया को देखने लगा। आनंद ने झट से भीतर उजाला किया और मुड़कर पिछली सीट पर देखा, बेला उसे देख मुस्करा रही थी। आनंद आश्चर्यचकित उसे देख ही रहा था कि वह बोल उठी-

‘चकित क्यों हैं? मैं हूँ बेला।’

‘परंतु यहाँ कैसे-कब?’

‘सोचा थियेटर तो संग में ले नहीं गए, कार में तो ले ही चलेंगे।’

‘बावली तो नहीं हो गई-इतनी रात गए कोई देख लेगा तो।’

‘तो क्या? बेला अथवा संध्या में कोई अंतर नहीं।’

‘ओह! अब समझा।’

‘क्या?’

‘दीदी तुम्हें थियेटर नहीं ले गईं ना, इसी से तुम रूठी हुई हो।’

‘नहीं तो-यह अनुमान आपने कैसे लगाया।’

‘मेरी आशय है उसकी इच्छा! तुम्हारी ही दीदी है, इसमें मेरा क्या दोष।’

आनंद के इस उत्तर पर बेला हँसने लगी और बोली-

‘आप इतने चिंतित क्यों हैं-मैंने कोई उलाहना तो नहीं दिया।’

‘तो फिर।’

‘अपना अधिकार-बड़ों के पश्चात् छोटे।’

‘कैसे? मैं समझा नहीं।’

‘अब मेरी बारी है घूमने की।’

‘बेला! देखो बालपन मत करो-आधी रात को घूमना ठीक नहीं है। जाओ घर-वचन देता हूँ, कल अवश्य ले चलूँगा।’

‘तो वचन देते हैं आप?’

‘हाँ भई-अब देर न करो, गाड़ी से उतरो।’

‘तो आपको मेरी बात भी माननी होगी।’

‘क्या?’

बेला मुस्कराई और अगली सीट पर आ गई। अभी आनंद असमंजस में ही था कि उसने अपनी बांहें उसके गले में डाल दीं।

‘एक बार मुझे भी बाहुपाश में ऐसे ही बांध लो जैसे दीदी को।’

‘बेला! सुध खो बैठी हो क्या?’

‘नहीं! बल्कि आपको सुध में लाना चाहती हूँ।’

आनंद उलझन में पड़ गया कि क्या करे। फिर बोला-

‘यदि मैं तुम्हारी यह प्रार्थना न मानूँ तो…’

‘तो मुझे रैन गाड़ी में बितानी होगी।’

‘तो मुझे जाकर रायसाहब को सूचित करना पड़ेगा।’

‘आप अवश्य जा सकते हैं।’ बेला ने उद्दण्डता से उत्तर दिया।

आनंद उसकी यह हठ और चंचलता देखकर असमंजस में पड़ गया। अंत में हारकर उसे यह विलक्षण अनुरोध स्वीकार करना ही पड़ा। कुछ क्षणों के लिए वे एक-दूसरे में लीन हो गए। तीव्रता से चलता श्वास और धधकता हुआ शरीर-जब वे अलग हुए तो आनंद ने यूँ अनुभव किया कि मानो कोई एक झटके से उसे स्वर्ग से नरक में फेंक गया हो। जब वह कुछ संभला तो बेला मोटर के नीचे खड़ी उन्मादपूर्ण नयनों से उसकी ओर देख रही थी।

‘एक बात पूछूँ?’ बेला ने चंचलता से पूछा।

‘हूँ।’

‘वह थियेटर अच्छा था अथवा यह नाटक।’

‘वह थियेटर।’ आनंद ने धीरे से कहा और मोटर स्टार्ट कर दी। चलते-चलते उसने बेला की ओर देखा। वह क्रोध में लाल हो रही थी। वह कुछ दूर तक दर्पण में उसे देखता रहा।

बेला अपने छोटे से नाटक की सराहना न पाकर चुपचाप उदास खड़ी थी।

आनंद ने सोचा-जीवन के किसी मोड़ पर कभी-कभार ऐसी घटनाओं का सामना करना ही पड़ता है-उसकी हँसी छूट गई।

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