चैप्टर 2 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 2 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel, Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas
Chapter 2 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel
पूर्णिया जिले में ऐसे बहुत-से गाँव और कस्बे हैं, जो आज भी अपने नामों पर नीलहे साहबों का बोझ ढो रहे हैं। वीरान जंगलों और मैदानों में नील कोठी के खंडहर राही बटोहियों को आज भी नीलयुग की भूली हुई कहानियाँ याद दिला देते हैं।…गौना करके नई दुलहिन के साथ घर लौटता हुआ नौजवान अपने गाड़ीवान से कहता है-“जरा यहाँ गाड़ी धीरे-धीरे हाँकना, कनिया (दुलहिन) साहेब की कोठी देखेगी।…यही है मकै साहब की कोठी।…वहाँ है नील महने का हौज !”
नई दुलहिन ओहार के पर्दे को हटाकर, घूँघट को जरा पीछे खिसकाकर झाँकती है-झरबेर के घने जंगलों के बीच ईंट-पत्थरों का ढेर ! कोठी कहाँ है ?
दूल्हे का चेहरा गर्व से भर जाता है-अर्थात् हमारे गाँव के पास साहेब की कोठी थी; यहाँ साहेब-मेम रहते थे।
गंगा-स्नान करके लौटते हुए, तीर्थयात्रियों की बैलगाड़ियाँ यहाँ कुछ देर रुक जाती हैं। गाड़ियों से युवतियाँ और बच्चे निकलकर, डरते-डरते, खंडहरों के पास जाते हैं। बूढ़ियाँ जंगलों में जंगली जड़ी-बूटी खोजती हैं।…
ऐसा ही एक गाँव है मेरीगंज। रौतहट स्टेशन से सात कोस पूरब, बूढ़ी कोशी को पार करके जाना होता है। बूढ़ी कोशी के किनारे-किनारे बहुत दूर तक ताड़ और खजूर के पेड़ों से भरा हुआ जंगल है। इस अंचल के लोग इसे ‘नवाबी तड़वन्ना’ कहते हैं। किस नवाब ने इस ताड़ के वन को लगाया था, कहना कठिन है, लेकिन वैशाख से लेकर आषाढ़ तक आस-पास के हलवाहे-चरवाहे भी इस वन में नवाबी करते हैं। तीन आने लबनी ताड़ी, रोक साला मोटरगाड़ी ! अर्थात् ताड़ी के नशे में आदमी मोटरगाड़ी को भी सस्ता समझता है। तड़वन्ना के बाद ही एक बड़ा मैदान है, जो नेपाल की तराई से शुरू होकर गंगा जी के किनारे खत्म हुआ है। लाखों एकड़ जमीन ! वंध्या धरती का विशाल अंचल। इसमें दूब भी नहीं पनपती है। बीच-बीच में बालूचर और कहीं-कहीं बेर की झाड़ियाँ। कोस-भर मैदान पार करने के बाद, पूरब की ओर काला जंगल दिखाई पड़ता है; वही है मेरीगंज कोठी।
आज से करीब पैंतीस साल पहले, जिस दिन डब्लू. जी. मार्टिन ने इस गाँव में कोठी की नींव डाली, आस-पास के गाँवों में ढोल बजवाकर ऐलान कर दिया-आज से इस गाँव का नाम हुआ मेरीगंज। मेरी मार्टिन की नई दुलहिन थी जो कलकत्ता में रहती थी। कहा जाता है कि एक बार एक किसान के मुँह से गलती से इस गाँव का पुराना नाम निकल गया था। बस, और जाता कहाँ है ? साहब ने पचास कोड़े लगाए थे, गिनकर।
इस गाँव का पुराना नाम अब किसी को याद नहीं अथवा आज भी नाम लेने में एक अज्ञात आशंका होती है। कौन जाने ! गाँव का नाम बदलकर, रौतहट स्टेशन से मेरीगंज तक डिस्ट्रिक्ट बोर्ड से सड़क बनवाकर और गाँव में पोस्ट आफिस खुलवाने के बाद मार्टिन साहब अपनी नवविवाहिता मेम मेरी को लाने के लिए कलकत्ता गए। गाँव की सबसे बूढ़ी भैरो की माँ यदि आज रहती तो सुना देती-अहा हा ! परी की तरह थी साहेब की मेम, इन्द्रासन की परी की तरह।
लेकिन मार्टिन साहब का आयोजन अधूरा साबित हुआ। मेरीगंज पहुँचने के ठीक एक सप्ताह बाद ही जब मेरी को ‘जड़ैया’ ने धर दबाया तो मार्टिन ने महसूस किया कि पोस्ट आफिस से पहले यहाँ एक डिस्पेंसरी खुलवाना जरूरी था। कुनैन की टिकिया से जब तीसरे दिन भी मेरी का बुखार नहीं उतरा तो मार्टिन ने अपने घोड़े को रौतहट की ओर दौड़ाया। रौतहट स्टेशन पहुंचने पर मालूम हुआ कि पूर्णिया जानेवाली गाड़ी दस मिनट पहले चली गई थी। मार्टिन ने बगैर कुछ सोचे घोड़े को पूर्णिया की ओर मोड़ दिया। रौतहट से पूर्णिया बारह कोस है। मेरीगंज में किसी से पूछिए, वह आपको मार्टिन के पंखराज घोड़े की यह कहानी विस्तारपूर्वक सुना देगा…जिस समय मार्टिन पुरैनिया के सिविलसर्जन के बँगले पर पहुंचा, पुरैनिया टीशन पर गाड़ी पहुँची भी नहीं थी।
किन्तु मार्टिन का पंखराज घोड़ा और सिविलसर्जन साहब की हवागाड़ी जब तक मेरीगंज पहुँचे, मेरी को मलेरिया निगल चुका था।…ट्यूबवेल के पास गढ़े में घुसकर, घुँघराले रेशमी बालों वाले सिर पर कीचड़ थोपते-थोपते मेरी मर गई थी।
मेरी की लाश को दफनाने के बाद ही मार्टिन पूर्णिया गया, सिविलसर्जन, डिस्ट्रिक्ट मैजिस्ट्रेट, डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन और हेल्थ आफिसर से मिला; एक छोटी-सी डिस्पेंसरी की मंजूरी के लिए जमीन-आसमान एक करता रहा। डिस्पेंसरी के लिए अपनी जमीन रजिस्ट्री कर दी। अधिकारियों ने आश्वासन दिलाया-अगले साल जरूर डिस्पेंसरी खुल जाएगी। ठीक इसी समय जर्मनी के वैज्ञानिकों ने एक चुटकी में नीलयुग का अन्त कर दिया। कोयले से नील बनाने की वैज्ञानिक विधि का प्रयोग सफल हुआ और नीलहे साहबों की कोठियों की दीवारें अरराकर गिर पड़ीं। साहबों ने कोठियाँ बेचकर जमींदारियाँ खरीदनी शुरू की। बहुतों ने व्यापार आरम्भ किया। मार्टिन की दुनिया तो पहले ही उजड़ चुकी थी, दिमाग भी बिगड़ गया। बगल में रद्दी कागजों का पुलिन्दा दबाए हुए पगला मार्टिन दिन-भर पूर्णिया कचहरी में चक्कर काटता फिरता था, हर मिलनेवाले से कहता था, “गवर्नमेंट ने एक डिस्पेंसरी का हुक्म दे दिया है; अगले साल खुल जाएगा।” कहते हैं कि पटना और दिल्ली की दौड़-धूप के बाद एक बार वह बहुत उदास होकर मेरीगंज लौटा; मेरी की कब्र पर लेटकर सारा दिन रोता रहा-‘डार्लिंग ! डाक्टर नहीं आएगा। इसके बाद उसका पागलपन इतना बढ़ गया कि अधिकारियों ने उसे काँके (राँची स्थित पागलखाना) भेज दिया और काँके के पागलखाने में ही उसकी मृत्यु हो गई।
कोठी के बगीचे में, अंग्रेजी फूलों के जंगल में आज भी मेरी की कब्र मौजूद है। कोठी की इमारत ढह गई है, नील के हौज टूट-फूट गए हैं; पीपल, बबूल तथा अन्य जंगली पेड़ों का एक घना जंगल तैयार हो गया है। लोग उधर दिन में भी नहीं जाते। कलमी आम का बाग तहसीलदार साहब ने बन्दोबस्त में ले लिया है, इसलिए आम का बाग साफ-सुथरा है। किन्तु, कोठी के जंगल में तो दिन में भी सियार बोलता है। लोग उसे भुतहा जंगल कहते हैं। ततमाटोले का नन्दलाल एक बार ईंट लाने गया; ईंट के हाथ लगाते ही खत्म हो गया था। जंगल से एक प्रेतनी निकली और नन्दलाल को कोड़े से पीटने लगी-साँप के कोड़े से। नन्दलाल वहीं ढेर हो गया। बगुले की तरह उजली प्रेतनी !
मेरीगंज एक बड़ा गाँव है; बारहो बरन के लोग रहते हैं। गाँव के पूरब एक धारा है जिसे कमला नदी कहते हैं। बरसात में कमला भर जाती है, बाकी मौसम में बड़े-बड़े गढ़ों में पानी जमा रहता है-मछलियों और कमल के फूलों से भरे हुए गढ़े ! पौष पूर्णिमा के दिन इन्हीं गढ़ों में कोशी-स्नान के लिए सुबह से शाम तक भीड़ लगी रहती है। रौतहट स्टेशन से हलवाई और परचून की दुकानें आती हैं। कमला मैया के महातम के बारे में गाँव के लोग तरह-तरह की कहानियाँ कहते हैं।…गाँव में किसी के यहाँ शादी-ब्याह या श्राद्ध का भोज हो, गृहपति स्नान करके, गले में कपड़े का खूँट डालकर, कमला मैया को पान-सुपारी से निमन्त्रित करता था। इसके बाद पानी में हिलोरें उठने लगती थीं, ठीक जैसे नील के हौज में नील मथा जा रहा हो। फिर किनारे पर चाँदी के थालों, कटोरों और गिलासों का ढेर लग जाता था। गृहपति सभी बर्तनों को गिनकर ले जाता था और भोज समाप्त होते ही कमला मैया को लौटा आता था। लेकिन सभी की नीयत एक जैसी नहीं होती। एक बार एक गृहपति ने कुछ थालियाँ और कटोरे चुरा रखे। बस, उसी दिन से मैया ने बर्तनदान बन्द कर दिया और उस गृहपति का तो वंश ही खत्म हो गया-एकदम निर्मूल ! उस बिगड़ी नीयतवाले गृहपति के बारे में गाँव में दो रायें हैं-राजपूतटोली के लोगों का कहना है, वह कायस्थटोली का गृहपति था; कायस्थटोलीवाले कहते हैं, वह राजपूत था।
राजपूतों और कायस्थों में पुश्तैनी मन-मुटाव और झगड़े होते आए हैं। ब्राह्मणों की संख्या कम है, इसलिए वे हमेशा तीसरी शक्ति का कर्तव्य पूरा करते रहे हैं। अभी कुछ दिनों से यादवों के दल ने भी जोर पकड़ा है। जनेऊ लेने के बाद भी राजपूतों ने यदुवंशी क्षत्रिय को मान्यता नहीं दी। इसके विपरीत समय-समय पर यदुवंशियों के क्षत्रित्व को वे व्यंगविद्रूप के बाणों से उभारते रहे। एक बार यदुवंशियों ने खुली चुनौती दे दी। बात तूल पकड़ने लगी थी। दोनों ओर से लोग लगे हुए थे। यदुवंशियों को कायस्थटोली के मुखिया तहसीलदार विश्वनाथप्रसाद मल्लिक ने विश्वास दिलाया, मामले-मुकदमे की पूरी पैरवी करेंगे। जमींदारी कचहरी के वकील बसन्तोबाबू कर रहे थे, “यादवों को सरकार ने राजपूत मान लिया है। इसका मुकदमा तो धूमधाम से चलेगा। खुद वकील साहब कह रहे थे।”
राजपूतों को ब्राह्मणटोली के पंडितों ने समझाया-“जब-जब धर्म की हानि हुई है, राजपूतों ने ही उनकी रक्षा की है। घोर कलिकाल उपस्थित है; राजपूत अपनी वीरता से धर्म को बचा लें।”…लेकिन बात बढ़ी नहीं। न जाने कैसे यह धर्मयुद्ध रुक गया। ब्राह्मणटोली के बूढ़े ज्योतिषी जी आज भी कहते हैं- “यह राजपूतों के चुप रहने का फल है कि आज चारों ओर, हर जाति के लोग गले में जनेऊ लटकाए फिर रहे हैं।-भूमफोड़ क्षत्री तो कभी नहीं सुना था।…शिव हो ! शिव हो !”
अब गाँव में तीन प्रमुख दल हैं, कायस्थ, राजपूत और यादव। ब्राह्मण लोग अभी भी तृतीय शक्ति हैं। गाँव के अन्य जाति के लोग भी सुविधानुसार इन्हीं तीनों दलों में बँटे हुए हैं।
कायस्थटोली के मुखिया विश्वनाथप्रसाद मल्लिक, राज पारबंगा के तहसीलदार हैं। तहसीलदारी उनके खानदान में तीन पुस्त से चली आ रही है। इसी के बल पर तहसीलदार साहब आज एक हजार बीघे जमीन के एक बड़े काश्तकार हैं। कायस्थटोली को गाँव की अन्य जाति के लोग मालिकटोला कहते हैं। राजपूतटोली के लोग कहते हैं कैथटोली।
ठाकुर रामकिरपालसिंघ राजपूतटोली के मुखिया हैं। इनके दादा महारानी चम्पावती की स्टेट के सिपाही थे और विश्वनाथप्रसाद के दादा तहसीलदार। कहते हैं कि जब महारानी चम्पावती और राज पारबंगा में दीवानी मुकदमा चल रहा था तो विश्वनाथप्रसाद के दादा राज पारबंगा स्टेट की ओर मिल गए थे। स्टेटवालों को महारानी के सारे गुप्त कागजात हाथ लग गए और महारानी मुकदमे में हार गई। काशी जाने से पहले महारानी ने रामकिरपालसिंघ के नाम अपनी बची हुई तीन सौ बीघे जमीन की लिखा-पढ़ी कर दी थी। रामकिरपालसिंघ कहते हैं कि उनके दादा ने महारानी को एक बार डकैतों के हाथ से अकेले ही बचाया था, इसी के इनाम में महारानी ने दानपत्तर लिख दिया था।…कायस्थटोली के लोग राजपूतटोली को ‘सिपैहियाटोली’ कहते हैं।
यादवों का दल नया है। इनके मुखिया खेलावन यादव को दस बरस पहले तक लोगों ने भैंस चराते देखा है। दूध-घी की बिक्री से जमाए हुए पैसे की बात जब चारों ओर बुरी तरह फैल गई तो खेलावन को बड़ी चिन्ता हुई। महीनों तहसीलदार के यहाँ दौड़ते रहे, सर्किल मैनेजर को डाली चढ़ाई, सिपाहियों को दूध-घी पिलाया और अन्त में कमला के किनारे पचास बीघे जमीन की बन्दोबस्ती हो सकी। अब तो डेढ़ सौ बीघे की जोत है। बड़ा बेटा सकलदीप अररिया बैरगाछी में, नाना के घर पर रहकर, हाईस्कूल में पढ़ता है। खेलावनसिंह यादव को लोग नया मातबर कहते हैं। लेकिन यादव क्षत्रियटोली को अब ‘गुअरटोली’ कहने की हिम्मत कोई नहीं करता। यादवटोली में बारहो मास शाम को अखाड़ा जमता है। चार बजे दिन से ही शोभन मोची ढोल पीटता रहता है-ढाक ढिन्ना, ढाक ढिन्ना ! ढोल के हर ताल पर यादवटोली के बूढ़े-बच्चे-जवान डंड-बैठक और पहलवानी के पैंतरे सीखते हैं।
सारे मेरीगंज में दस आदमी पढ़े-लिखे हैं-पढ़े-लिखे का मतलब हुआ अपना दस्तखत करने से लेकर तहसीलदारी करने तक की पढ़ाई। नए पढ़नेवालों की संख्या है पन्द्रह। गाँव की मुख्य पैदावार है धान, पाट और खेसारी। रब्बी की फसल भी कभी-कभी अच्छी हो जाती है।
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