चैप्टर 2 कांच की चूड़ियाँ उपन्यास गुलशन नंदा

Chapter 2 Kanch Ki Chudiyan Novel By Gulshan Nanda

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दूसरे दिन बंसी काका हफ्तावारी बांटने के लिए तैयार बैठा था। उसके सामने मजदूरों की लंबी पंक्ति लगी थी। लक्ष्मी मिलने के विचार से ही उनका रक्त प्रवाह बढ़ गया था। उनके कुम्हलाये हुए चेहरे पर लालिमा सी उभर आई थी। उत्साह भरे मन अधीर हुए बंसी को देख रहे थे और वह घबराहट से अपनी जेबों और पास रखी सब चीजों को टटोला जा रहा था।

“क्या बात है बंसी काका?” सामने खड़े एक मजदूर ने उसकी बौखलाहट का अनुमान लगाते हुए पूछा।

“न जाने एनक कहां भूल आया हूँ।”

“तो क्या हुआ काका? नोट को उंगलियों से गिनते हैं, आँखों से नहीं। हाथ तो नहीं भूल आए।”

इस पर एक जोरदार ठहाका लगा और बंसी लज्जित होकर फिर चीजों को उलटने पलटने लगा।

तभी उसके सामने रखे रजिस्टर पर एक कोमल हाथ बढ़ा और एनक रख कर लौट गया। बंसी ने दृष्टि उठाई। गंगा – उसकी बेटी थी। वह हड़बड़ा कर बोला, “तू यहाँ क्या कर रही है?”

“घर पर ऐनक जो छोड़ आए थे बापू।” गंगा ने भोलेपन से उत्तर दिया और फिर क्षण भर रुक कर बापू के माथे पर आए हुए बल को देखते हुए बोली, “सोचा हफ्तावारी बंटनी है, कहीं कोई भूल न हो जाए।”

“अच्छा अच्छा! चल भाग यहाँ से।” बंसी ने झुंझलाकर कहा और दृष्टि घुमाकर आसपास खड़े मजदूरों की वासनामय भूखी दृष्टि को देखा। गंगा का इस समय यहाँ आना उसे अच्छा न लगा। गंगा बापू के आशय को भांप गई और हड़बड़ाकर पीछे हटते हुए मंगलू से टकरा गई, जो बंसी के पास बैठा गन्ना चूस रहा था। गंगा इस हड़बड़ाहट में बिना मुड़ के देखे तेजी से भाग गई। जिससे वातावरण एक बार फिर मजदूरों की हँसी से गूंज उठा। यह हँसी बंसी के कानों में पिघले हुए शीशे के समान उतर गई।

गंगा उसकी बेटी थी – युवा और अविवाहित। लोग उसकी गरीबी पर हँसस रहे थे, उसकी विवशता का उपहास कर रहे थे। उसने कड़कते स्वर में सामने खड़े मजदूरों का नाम पुकारा और नोट गिनने लगा। मजदूरों की हँसी रुक गई। गंगा की पायल की ध्वनि नोटों की सरसराहट में मिल गई। मंगलू की भूखी दृष्टि अभी तक गंगा को निहार रही थी, जो दूर गाँव की पहाड़ी पगडंडी पर हिरनी की तरह भागी जा रही थी। वह गन्ना चूसना भूल गया था। किंतु गन्ने का रस अभी तक उसके होठों पर चिपक रहा था। अब इस रस में मिठास के अतिरिक्त गंगा के यौवन रस का भी आनंद था। देखते ही देखते गंगा पहाड़ियों में खो गई। मंगल को एक धक्का सा लगा। उसने जोर से गन्ने को दांतों से काटा और बंसी से बोला, “बंसी काका!”

“क्या है रे मंगलू!” बंसी ने पंक्ति में खड़े अगले व्यक्ति को बढ़ने का संकेत करते हुए पूछा।

“अरे! तेरी बिटिया तो सावन की घटा के समान देखते ही देखते जवान हो गई है, कुछ सोचा भी है?”

“क्या?”

“जल्दी इसकी शादी कर दे। जवानी किसी आपत्ति से कम नहीं काका!”

“मंगलू..” कर्कश आवाज से बंसी ने मंगलू की हँसी बंद कर दी। क्रोध से उसका वृद्ध शरीर कांप उठा। आँखों में लहू उतर आया। इसी दशा में अपना काम छोड़ क्षण भर वह मंगलू की ओर देखता रहा और फिर बोला, “खबरदार जो फिर इस जबान पर मेरी बेटी का नाम लाया।”

मंगलू तो चुप हो गया, किंतु वह बूढ़ा मजदूर जो बंसी के रजिस्टर पर अंगूठा लगा रहा था, मुस्कुराते बोला, “बंसी इसमें बुरा मानने की क्या बात है? मंगल झूठ थोड़े ही कहता है। चंचल जवानी और पानी की फुहार भला कहे से रूकती है।”

बंसी से को उत्तर न बन पाया। वह सिर झुका कर फिर नोट गिनने लगा। उंगलियाँ मशीन की भांति नोटों की गड्डी पर चल रही थी, किंतु उसका मस्तिष्क कहीं और था। वह सोचने लगा, मंगलू ठीक ही कहता है। वास्तव में गंगा अब जवान हो गई है। तभी तो कल तक उसे बेटी और बहन की दृष्टि से देखने वालों के मन में खोट उतर आया है। मंगल को सबके सामने उसे यह कहते हुए तनिक भी संकोच न हुआ और सत्य में संकोच क्या? यह लोग उसकी विवशता को क्या जाने? क्या वह पिता नहीं? उसे अपनी लाज और बेटी के भविष्य का ध्यान नहीं? ब्याह के लिए धन चाहिए और उसके पास फूटी कौड़ी न बचती थी। अस्सी रुपये चीज ही क्या है। पेट भर रोटी चलती नहीं इसमें…

गंगा बूढ़े पिता की चिंताओं से दूर थी। यौवन ने उसके शरीर को तो नया रूप दे दिया था, किंतु भोले हृदय का बचपना ज्यों का त्यों था। कहीं चलते चलते किसी लड़की की चुटकी ले ली, किसी को धक्का देकर मटकी फोड़ दी, किसी बड़ी बूढ़ी को मुंह चिढ़ा दिया, किसी की मुर्गियों को दरबे से निकाल कर भगा दिया, हर समय चंचलता हर बात में शरारत। होठों पर मुस्कान आँखों में बिजलियाँ लिए वह गाँव के लोगों के हृदय का केंद्र और बूढ़े गुड़ियों की आलोचना का पात्र बनी हुई थी। से उसकी एक ही सखी की थी – रूपा, जिसे देखे बिना उसे क्षण भर चैन न आता। दोनों घंटों बैठकर बातें किया करती। इस समय भी पिता को ऐनक देने के पश्चात वह रूपा की ही कोई खोज में गाँव के ढलान पर दौड़ी जा रही थी।

उछल ती फांदती वह एकाएक झरने के पास जाकर रुक गई और चांदी के समान झर-झर झरते पानी को देखने लगी। थोड़ी दूर पर खड़ी ढलान से झाल के रूप में गिरकर यह झटना नदी का रूप धारण कर लेता था। न जाने झरने में कैसा जादू था, जो गंगा को आकर्षित कर लेता और वह अनायास इसके समीप आकर थम जाती और बड़ी देर तक खोई इसे देखती रहती है। झाल से पानी सफेद मोतियों के समान नीचे गिरता और तुरंत ही नदी उसे स्नेह से अपने आंचल में समेट लेती। गंगा को इस देश से एक अलौकिक आनंद प्राप्त होता। उसे लगता मानो वह स्वयं एक नदी है, जो अपने हृदय में खुशियों का संचय कर रही हो। छोटी छोटी अनेकों खुशियाँ झर-झर आती है और वह उन्हें समेट लेती।

नीचे घाटी में बलखाती हुई यह नदी और हरे-भरे लहलहाते हुए खेत देकर गंगा का मन गदगद हो उठता और इस सौंदर्य रस में खोई वह एक छोटी सी वनदेवी प्रतीत होती। बड़ी देर तक वह इन दृश्यों से विभोर होती रही और फिर किसी को निकट न पाकर झाल के नीचे आ खड़ी हुई। निर्मल और शीतल जल मोतियों और फूलों की बौछार के समान उसके कोमल शरीर से टकराता और उसमें एक नव उल्लास का संचार कर जाता। इस स्पर्श से वह ऐसे झूम उठती, जैसे फूलों की शाखा को बसंत की समीर छेड़ जाए। दूर पके खेतों में लड़के-लड़कियाँ कई प्रकार की आवाज़ें निकाल कर पक्षियों को उड़ा रहे थे। गंगा को इन बेसुरी आवाज़ों पर हँसी आ गई।

नहाकर गुनगुनाती हुई गंगाजल झाल के नीचे से निकली और हिरनी के समान उछल ती फांदती उस खेत में पहुँची, जहाँ छोटी-छोटी लड़कियाँ गुलेल से चिड़िया उड़ा रही थी। गुलेल से पक्षी उड़ाने का खेल उसे बहुत भला लगता था। उसने एक लड़की के हाथ से गुलेल छीन ली और इधर-उधर घूम कर पक्षियों को उड़ाने लगी। उसे चिड़ियों को मार गिराने का तनिक भी चाव न था, न उस इस बात से कोई संबंध था कि वह फसल को कितनी हानि पहुँचाती हैं। हाँ उसे उनका एक स्थान से दूसरे स्थान पर उड़कर जाते हुए देखना बड़ा सुंदर लगता था। गुलेल से पत्थर फेंकने के इस खेल में उसे बड़ा मजा आ रहा था।

एकाएक एक अनजान चीख सुनकर वह चौंक उठी। उसकी प्रसन्नता क्षण भर में काफूर हो गई और गुलेल अनायास उसके हाथ से छूटकर जमीन पर गिर गई। गुलेल से फेंका हुआ पत्थर एक अजनबी युवक के माथे पर जा लगा था और माथे को हाथ से सहलाता वह उसके सामने खड़ा था।

गंगा बर्फ हो गई। उसके पांव धरती में जमकर रह गए। वह सोच भी न सकी कि क्षण भर में यह क्या हो गया। अजनबी युवक माथे पर हाथ रखे गंगा के सामने आ खड़ा हुआ और एकटक उसे देखे जा रहा था। माथे से बहे लहू से उसकी उंगलियाँ सनी हुई थी। इससे पूर्व कि वह व्यक्ति उसे कुछ कहता, गंगा ने स्वयं साहस बटोर कर पूछा, “तुम कौन हो?”

युवक बिना उत्तर दिए घाव पल हथेली धरे उसे देखता रहा। गंगा एकाएक पलटी और तेजी से भाग खड़ी हुई।

“ठहरो रुको!” युवक ने उसे रोकना चाहा, किंतु गंगा ने मुड़कर देखना भी उचित न समझा और यह जा वह जा। पथरीली पगडंडियों पर भागती हुई दूर जान निकली, उसने एक बार भी पलटकर न देखा।

हांफते हुए वह घर के आंगन में आई और कोने में रखे हुए मटके से जल का गिलास भरकर एक ही सांस में गटागट पी गई। डर और भागदौड़ से उसका गलत सूख गया था। उसने अपने धड़कते पर दिल पर हाथ रखा और शरत तथा मंजू को देखने को लगी, जो ईटों के घरों को बनाते बनाते रुक गए थे और आश्चर्य से अपनी दीदी को देख रहे थे।

“यह एक टक घूर कर क्या देख रहे हो?” उसने दोनों की ओर देखते हुए पूछा।

“अपनी दीदी को।” दोनों एक साथ बोले।

“क्यों, दीदी को पहली बार देखा है क्या?”

“दीदी को तो नहीं दीदी की प्यास को।” मंजू जगत से बोली। न जाने क्यों मंजू की बात सुनकर उसका हृदय फिर तेजी से धड़कने लगा। सोचकर वह फिर द्वार की ओर पलटी और रूपा के घर की ओर भाग गई।

रूपा उसकी सबसे घनिष्ठ रखी थी। दोनों एक दूसरे के मन का भेद जानती थीं। दोनों में कुछ न छिपा था। रूपा का पिता यद्यपि गंगा की पिता से बढ़कर धनवान था, तथापि रूपा और गंगा में समानता थी। मन के मिलन में धन बाधा नहीं होता। बचपन में ही दोनों इकट्ठी खेली और अब एक साथ ही यौवन के द्वार पर पहुँची थीं।

जब गंगा रूपा के यहाँ पहुँची, तो वह बरामदे में लटके पिंजरे में बंद चकोर को बाजरा डाल रही थी। गंगा को देखते ही उसकी ओर लपकी और उसे खींचती हुई अपने कमरे में ले गई।

“अरी बता तो क्या हुआ?” रूपा ने पलंग पर गिर कर उसे दोनों हाथों से खींचते हुए पूछा।

“गजब हो गया रूपा?”

“क्या?”

“गहरी चोट लगी है।” गंगा हांफते हुए बोली।

“कहां?”

“माथे पर!”

“तू तो बड़ी चंगी है।’ रूपा ने उसके माथे को छूते हुए कहा और फिर से से पांव तक उसे निहारने लगी।

“अरी, मेरे सिर पर नहीं, उसके माथे पर।”

“किसके?” रूपा ने विस्मय प्रकट करते हुए पूछा।

गंगा ने कांपती दृष्टि से आसपास देखा और फिर रूपा के पास मुँह ले जाकर धीमे स्वर में पूरी घटना का वर्णन कर दिया। उसे डर था कि उसके बापू को इसका ज्ञान हो गया, तो वह अवश्य उसे पीटेंगे। किंतु इसमें उसका अपना क्या दोष था, यह घटना तो अकस्मात ही हो गई थी।

“कौन था वह?” उसकी कहानी सुनकर रूपा ने पूछा।

“मैंने उसे पहली बार ही गाँव में देखा है।”

“और उसने?”

“वह भला मुझे कैसे जाने गा।”

“तब तेरे प्राण क्यों निकले जा रहे हैं। वह तुझे नहीं जानता। तू उसे नहीं पहचानती। फिर भला तेरे बापू तक यह बात कैसे पहुँचेगी?”

“हाय रे दैया!” एकाएक गंगा कलेजे पर हाथ रखते हुए भोलेपन से बोली, “हाँ रूपा! ऐसा तो मैंने सोचा ही नहीं था।” रूपा उसके भोलेपन पर हँसने लगी।

आंगन में किसी के आने की आहट हुई और दोनों सखियां चौकन्नी हो गई। अभी वह संभल भी न पाई थी कि किसी पुरुष ने रूपा का नाम लेकर पुकारा और फिर दूसरे ही क्षण आने वाला व्यक्ति उनके सामने था।

“यह क्या हुआ मोहन भैया?” तुरंत रूपा के मुँह से निकला। नवागंतुक को देख गंगा के तो पांव तले की धरती खिसक गई। उसके माथे पर जमा हुआ लहू ताज़े घाव को स्पष्ट कर रहा था। रूपा ने दोनों को अर्थ पूर्ण दृष्टि से देखा और मोहन को पलंग पर बिठाकर प्रश्न को दोहराया, “क्या हुआ?”

“तुम्हारे गाँव की एक अल्हड़ छोकरी ने सिर फोड़ दिया है।” मोहन ने छिपी दृष्टि से गंगा की ओर देखा।

“तो तुमने अवश्य उसे छेड़ा होगा।”

अभी यह शब्द रूपा के होठों पर ही थे कि उसकी माँ भीतर आई और बेटे का घाव देखते हुए बोली, “किसकी आँख फूट गई थी, जो मेरे दुलारे का सिर फोड़ दिया?”

काकी की उस बात से गंगा जैसे बर्फ में दब गई। उसकी आँखों के सम्मुख अंधकार सा छाने लगा।

“मेरी थी काकी।अचानक उसके पत्थर के सामने आ गया। उस बेचारी का क्या दोष?” मोहन ने मुस्कुराते हुए उत्तर दिया।

“तू नहीं जानता इन गाँव की छोकरियों को। जरा सुंदर मुखड़ा देखा कि नजर लगा दी।” काकी ने ध्यान पूर्वक मोहन के घाव को देखा और फिर रूपा को संबोधित करते हुए बोली, “अरे खड़ी खड़ी क्या देख रही है? जल्दी से हल्दी चूना गर्म करके ले आ। अभी जानकी के घर जा कर बैठी ही थी कि यह सूचना मिली। अधिक लहू तो नहीं बहा बेटा?”

“नहीं काकी!”

“अरे तू जा गंगा। उस मूर्ख से तो कुछ नहीं होने का।” रूपा की माँ ने गंगा को संबोधित किया।

काकी की बात सुनकर गंगा चुपके से बाहर खिसक गई। मोहन छिपी दृष्टि से उसे जाते देखता रहा और उसके दृष्टि से ओझल होते ही पूछने लगा, “यह गंगा कौन है काकी?”

“हमारे पड़ोस में रहती है। बड़ी भली लड़की है। रूपा और इसका दिन रात का साथ है।”

गंगा ने जाते-जाते रुक कर द्वार की ओट से काकी की बात सुनी और फिर लजा कर रूपा के पास रसोई में चली गई। रूपा मलमल में हल्दी और चूना बांध रही थी। गंगा ने उसके हाथ से पोटली छीन ली और बाहर जाने लगी।

“अब समझी, किस चोट पर तुम्हारे कलेजे में पीड़ा उठ रही है।“ रूपा ने मुस्कुरा कर उसकी ओर देखते हुए कहा।

‘हट नटखट है तू!” यह कहकर गंगा वापस वहीं लौट आई, जहाँ काकी और मोहन खड़े थे। काकी ने उसे मोहन का परिचय कराया –

“यह है मोहन, मेरा भतीजा! कल ही शहर से आया है।” गंगा ने हल्दी चूने की पोटली काकी को थमा दिया और बाहर जाने लगी। काकी ने पोटली उसे लौटा दी और वही ठहरने का संकेत करते हुए बोली, “इतना काम और कर दे। इसे धीरे से घाव पर लगा दे। मैं इसके लिए गर्म-गर्म दूध ले आऊं।”

काकी चली गई और गंगा अवाक मूर्तिवत वहीं खड़ी रही। उसके पांव मानो धरती में गड़ गए थे। वह मोहन के समीप आने से कतरा रही थी। झेंपते हुए झुकी दृष्टि से उसने मोहन को देखा, जो बिस्तर पर लेटा एक टक उसे ही ताके जा रहा था। अधिक समय तक यह स्थिति उसके लिए असहनीय हो गई और वह धीरे-धीरे उठाकर उसकी चारपाई के पास आकर खड़ी हो गई। मोहन उसे एकटक घूरे जा रहा था। गंगा ने कांपते हाथों से गर्म पोटली उसके माथे पर लगा दी।

“धीरे…ज़रा…धीरे।” गर्मी की जलन से मोहन चिल्लाया। गंगा ने पोटली उठा ली और फिर कुछ ठहर कर हौले हौले सेंक करने लगे।

“बड़ी आकस्मिक घटना है। स्वयं घाव दिया और स्वयं ही इलाज करने लगी।” मोहन ने आँखें मिलाते हुए धीरे से कहा।

गंगा झेंप गई। उसका मन चाहा, वहाँ से भाग जाये। किंतु इस स्थिति में यह कैसे संभव था? उसे चुप रखने का एक ही उपाय था। उसने जलती हुई हल्दी चूने की पोटली दबाकर उसके माथे पर जमा दी। मोहन ने आँखें बंद कर ली और जलन की पीड़ा से अपने होंठ काटने लगा।

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