चैप्टर 2 दो बहनें रबींद्रनाथ टैगोर का उपन्यास | Chapter 2 Do Behnein Rabindranath Tagore Novel In Hindi  Read Online

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Chapter 2 Do Behnein Rabindranath Tagore

Chapter 2 Do Behnein Rabindranath Tagore

नीरद

जिस समय इस परिवार की समृद्धि बैंक में जमा किए हुए रुपयों पर सवार होकर छः अंकों की संख्या की ओर दौड़ चली थी, उसी समय शर्मिला को किसी दुर्बोध्य व्याधि ने धर दबाया, उठने-बैटने की शक्ति भी न रही। यह बता देने को ज़रूरत है कि इस बात को लेकर मग़ज़ खपाने की क्या ज़रूरत पड़ गई।

राजाराम बाबू शर्मिला के पिता थे। बैरीशाल ज़िले की ओर और गंगा के मुहाने पर उनकी कई बड़ी जमींदारियाँ थीं। इसके सिवा शालीमार के घाटवाले जहाज़ बनाने के रोजगार में भी उनका शेयर था। उनका जन्म पुराने ज़माने की सीमा पर और इस काल के ही हुआ था। कुश्ती में, शिकार में, लाठी चलाने में उस्ताद थे। पखावज बजाने में उनका नाम था। मर्चेन्ट आफ़ वेनिस, जुलियस सीज़र और हैमलेट से दो चार पन्ना कंठस्थ बोल जा सकते थे। मेकाले की अंग्रेज़ी उनका आदर्श थी। बर्क की वाग्मिता पर मुग्ध थे। बँगला में उनकी श्रद्धा मेघनादवध काव्य तक ही सीमित थी। अधेड़ अवस्था में शराब तथा अन्य निषिद्ध भोज्य वस्तुओं को आधुनिक चित्तोत्कर्ष का आवश्यक अंग मानते थे। आख़िरी उम्र में छोड़ दिया था। पहनावा उनका जतन से सँवारा हुआ होता। मुख-श्री सुन्दर और गम्भीर थी। देह लंबी और मज़बूत, मिज़ाज मजलिसी। याचक के आग्रह पर ना नहीं कर सकते थे। पूजा-पाठ में कोई निष्ठा नहीं था, फिर भी घर पर उसका आयोजन बड़े समारोह के साथ होता। इस समारोह के द्वारा ही वंशगत मर्यादा प्रकट होती, पूजा तो स्त्रियों और दूसरे लोगों के लिये थी। चाहते तो अनायास ही राजा की उपाधि पा सकते; उसके प्रति उदासीनता का कारण पूछने पर राजाराम हँसकर कहते, “पिता की दी हुई राजा की उपाधि तो भोग ही रहा हूँ, इसपर दूसरी उपाधि बैठाने से उसका सम्मान कम हो जायगा’। गवर्नमेण्ट हाउस की विशेष ड्योढ़ी में उनका स-सम्मान प्रवेश था। अंग्रेज अफ़सरान उनके घर पर चिर-प्रचलित जगद्धात्री पूजा के समय शैम्पेन का प्रसाद ख़ासी मात्रा में अंतरस्थ करते थे।

शर्मिला के विवाह के बाद उनके पत्नी-हीन घर में बड़ा लड़का हेमन्त और छोटी लड़की ऊर्मिमाला रह गई। लड़के को अध्यापक लोग दीप्तिमान कहा करते थे—अर्थात् जिसे अंग्रेजी़ में ब्रीलियेन्ट कहते हैं। चेहरा पीछे फिरकर देखने लायक़ था। ऐसा विषय नहीं था, जिसमें उसकी विद्या परीक्षामापक यंत्र के सबसे ऊँचेवाले मार्के तक नहीं पहुँची हो। इसके सिवा ऐसे लक्षण काफ़ी प्रबल थे कि व्यायाम के उत्कर्ष में वह बाप के नाम की लाज बचाएगा। कहना व्यर्थ है कि उसके चारों और उत्कंठित कन्या-मंडली की कक्ष-परिक्रमा तेजी से चल रही थी, किन्तु तब भी उसका मन विवाह की और उदासीन ही शा। तात्कालिक लक्ष्य यूरोपीय विश्वविद्यालय की उपाधि प्राप्त करना ही था। इसी उद्देश्य को सामने रखकर उसने फ्रेंच और जर्मन सीखना शुरू किया था।

और कुछ करने को न होने से, अनावश्यक होने पर भी, जब उसने कानून पढ़ना शुरू किया। उसी समय हेमन्त के अन्त्र (आँत) में अथवा शरीर के किसी और यन्त्र में न जाने कौन-सा ऐसा विकार उत्पन्न हुआ कि उसका पता डाक्टरों को चल ही नहीं सका। वह गोपनचारी रोग उस मज़बूत शरीर में इस प्रकार घर कर गया मानो किसी प्रबल दुर्ग का आश्रय लिए हो। उसे खोज निकालना जितना कठिन हुआ, उतना ही उस पर आक्रमण करना भी। उन दिनों के एक अंग्रेज़ डाक्टर पर राजाराम की अविचिलित आस्था थी। अस्त्र-चिकित्सा में उनके हाथों यश भी था। इसी डाकर ने रोगी के शरीर में खोज खोज शुरू की। अस्त्र व्यवहार के अभ्यास-वश उन्होंने अनुमान किया कि देह के दुर्गम अन्तराल में कहीं विपत्ति जड़ जमाकर बैठी है, उसे उखाड़ फेंकना चाहिए। अस्त्र-चिकित्सा के कौशल की सहायता से स्तर भेद करने के बाद जो स्थान अनावृत हुआ, यहाँ कल्पित शत्रु भी नहीं मिला और उसके अत्याचार का चिह्न भी नहीं। भूल सुधारने का उपाय ही नहीं रहा, लड़का चल बसा। पिता के मन में जो विषम दुःख हुआ वह किसी प्रकार शान्त होना नहीं चाहता। मृत्यु ने उनको उतना कष्ट नहीं दिया, परन्तु एक ऐसी सजीव, सुन्दर और बलिष्ठ देह के चीर-फाड़ की स्मृति ने उनके मन को दिनरात काले हिंस्र पक्षी की तरह अपने तीक्ष्ण नखों से जकड़ रखा। मर्मशोषण करके उसने उन्हें मृत्यु की ओर खींच लिया।

हेमन्त का पहले का सहपाठी नया पास डाक्टर नीरद मुखर्जी उसकी शुश्रूषा में लगा था। वह बराबर ज़ोर देकर ही कहता आ रहा था कि ग़लती हो रही है। उसने ख़ुद बीमारी का एक निदान किया था और किसी सूखी जगह में आबहवा बदलने का परामर्श दिया था, किन्तु राजाराम के मन में अपने पैतृक युग का संस्कार अटल था। वे जानते थे कि यमराज के साथ दुःसाध्य लड़ाई छिड़ जाने पर उसका उपयुक्त प्रतिद्वन्द्वी एकमात्र अंग्रेज़ डाक्टर ही हो सकता है। किन्तु इस मामले में नीरद पर उनके स्नेह और श्रद्धा की मात्रा ज़रूरत से ज्यादा बढ़ गई। उनकी छोटी कन्या ऊर्मि के मन में अचानक यह बात उदय हुई कि इस आदमी की प्रतिमा असामान्य है। पिता से बोली, देखा बाबू जी, थोड़ी उम्र में भी अपने ऊपर कितना विश्वास है और इतने बड़े नामवर विलायती डाक्टर के विरुद्ध अपने मत को निःसंशय घोषित कर सकने का कैसा असंकुचित साहस है!

पिता ने कहा, “डाक्टरी विद्या केवल शास्त्र पढ़ने से नहीं आती। किसी-किसी में उसका दुर्लभ दैवसंस्कार पाया जाता है। नीरद में ऐसा ही देख रहा हूँ।”

इनकी भक्ति एक छोटे प्रमाण से शुरू हुई थी—शोक का आघात पाकर और परिताप की वेदना लेकर। इसके बाद किसी और सुबूत का इन्तेज़ार न करके वह अपने आप बढ़ चली।

राजाराम ने एकदिन लड़का से कहा, “देख ऊर्मि, ऐसा लगता है कि हेमन्त मुझे बराबर बुला रहा है। कह रहा है, मनुष्य का रोग-कष्ट दूर करो। मैंने निश्चय किया है, उसके नाम से एक अस्पताल खोलूँगा।”

ऊर्मि अपने स्वभावसिद्ध उत्साह से उच्छसित होकर बोली, “बहुत अच्छा होगा। मुझे यूरोप भेज देना ताकि वहाँ से डाक्टरी सीखकर मैं अस्पताल का भार सँभाल सकूँ।”

बात राजाराम के जी को पट गई, बोले, “वह अस्पताल होगा देवोत्तर सम्पत्ति और तू होगी उसको सेवायत। हेमन्त बड़ा दुःख पा गया है। तुझे वह बहुत प्यार करता था, तेरे इस पुण्य कार्य से यह परलोक में शान्ति पायगा। तूने उसकी रोग-शय्या पर दिनरात उसकी सेवा की है, वही सेवा तेरे हाथों और भी बड़ी हो उठेगी।” ख़ान्दानी घर की लड़की डाक्टरी करेगी यह भी वृद्ध के मन में कुछ बेखाप-सा नहीं लगा। उन्होंने अपने मर्मस्थल में अनुभव किया कि रोग के हाथ से आदमी को बचाना कितनी बड़ी बात है। उनका लड़का नहीं बच सका किन्तु दूसरों के लड़के अगर बच जायँ तो जैसे उसकी क्षति-पूर्ति हो जायगी और उनका अपना शोक हल्का हो जायगा। लड़की से बोले, “यहाँ की यूनिवर्सिटी में विज्ञान की पढ़ाई पहले ख़त्म हो जाय, फिर इसके बाद यूरोप में।”

अब से राजाराम के मन में एक बात चक्कर काटने लगी–उसी नीरद की बात। लड़का क्या है सोने का टुकड़ा है। जितना ही देखो उतना ही सुन्दर लगता है। डाक्टरी पास कर ली है सही, किन्तु परीक्षा के दुर्गम बयावान को पार करके डाक्टरी-विद्या के सात समुद्रों में दिनरात तैर रहा है। उम्र कच्ची है, फिर भी आमोद-प्रमोद आदि से उसका मन बिल्कुल चञ्चल नहीं होता। हाल में जितने भी आविष्कार हुए हैं उन्हींकी उलट-पलटकर आलोचना करता है, जाँच करता है और नुक़सान पहुँचाता है अपनी कीर्ति के प्रसार को। जिन लोगों की जम गई है उनके प्रति उसकी अत्यन्त अवज्ञा है। कहा करता है, ‘मूर्ख व्यक्ति उन्नति प्राप्त करते हैं और योग्य व्यक्ति गौरव।’ यह बात किसी पुस्तक से उसने संग्रह की है।

आख़िरकार एक दिन राजाराम ने ऊर्मि से कहा, “मैंने सोचकर देखा, हमारे अस्पताल में तू यदि नीरद की संगिनी होकर काम करे तभी यह काम संपूर्ण होगा और मैं भी निश्चिन्त हो सकूँगा। उसके समान लड़का मैं और पाऊँगा कहाँ?

राजाराम और चाहे जो कर सकते हों हेमन्त का मत अग्राह्य नहीं कर सकते। वह कहा करता, लड़की की पसन्द की उपेक्षा करके माँ-बाप की पसन्द से विवाह करना बर्बरता है। राजाराम ने एक बार तर्क किया था कि विवाह का मामला केवल व्यक्तिगत नहीं, उसके साथ संसार भी जड़ित है, इसीलिये विवाह सिर्फ़ इच्छा-द्वारा नहीं बल्कि अभिज्ञता-द्वारा चालित होना चाहिए। वे तर्क चाहे जैसा करें और उनकी रुचि चाहे जैसी रही हो, हेमन्त पर उनका स्नेह इतना गम्भीर था कि उसकी इच्छा ही इस परिवार में विजयी हुई।

इस घर में नीरद मुखुज्जे का आना जाना होता था। हेमन्त ने उसका नाम दिया था आउल अर्थात् उल्लू। अर्थ पूछने पर यह बताता कि यह आदमी पौराणिक अर्थात् माइथालौजिकल है। उसकी उम्र नहीं है, है केवल विद्या, इसीलिये मैं उसे मिनर्वा का वाहन कहता हूँ। नीरद इनके घर बीच-बीच में चाय पीने आया करता। हेमन्त के साथ खूब बहस करता। मन ही मन ऊर्मि को भी निश्चय ही लक्ष्य करता, किन्तु व्यवहार में नहीं। इसका कारण यह है कि इस मामले का यथोचित व्यवहार ही उसके स्वभाव में नहीं है। वह बहस कर सकता है लेकिन बात-चीत करना नहीं जानता। यौवन का उत्ताप यदि उसमें रहा भी हो तो उसका प्रकाश नहीं था, इसीलिये जिन नौजवानों में यौवन पूरी तरह प्रकाशमान होता, उनके प्रति अवज्ञा प्रकट करके ही वह सन्तोष पाता। इन्हीं सब कारणों से कोई भी उसे ऊर्मि के उम्मीदवारों की श्रेणी में गिनने का साहस नहीं करता था। फिर भी ऊपर से दीखने-वाली यह निरासक्ति ही वर्तमान कारण से युक्त होकर उसपर ऊर्मि की श्रद्धा को सम्भ्रम की सीमा में खींच ले गई। राजाराम ने जब स्पष्ट रूप से ही कहा कि यदि लड़की के मन में कोई द्विधा न हो तो नीरद के साथ ही विवाह होने से उन्हें प्रसन्नता होगी, तब लड़की ने अनुकूल इङ्गित से ही सिर हिलाया। केवल इसके साथ इतना और जना दिया कि इस देश की और विलायत की पढ़ाई ख़त्म कर चुकने के बाद ही विवाह होगा। पिता ने कहा,यही ठीक है। किन्तु परस्पर को सम्मति से सम्बन्ध पक्का हो जाने के बाद स्पष्ट ही और कोई चिन्ता नहीं रह जाती।

उधर नीरद की सम्मति पाने में देर नहीं लगी, यद्यपि उसकी भावभङ्गी से यही प्रकट हुआ कि विवाह का सम्बन्ध वैज्ञानिक के लिये एक बड़ा भारी त्याग है—प्रायः आत्मघात के आसपास का। शायद इसी दुर्योग को किसी प्रकार शमन करने के उपाय-स्वरूप यही शर्त तय पाई गई कि सब बातों में नीरद ऊर्मि की रहनुमाई करेगा अर्थात् अपनी भावी पत्नी के रूप में उसे धीरे-धीरे अपने ही हाथों तैयार कर लेगा। यह भी होगा वैज्ञानिक ढँग से, दृढ़-नियन्त्रित नियमों के अनुसार,लैबोरेटरी की अभ्रान्त प्रक्रिया के समान।

नीरद ने ऊर्मि से कहा, “पशु-पक्षी प्रकृति के कारखाने से बने-बनाए माल की तरह तैयार निकलते हैं लेकिन मनुष्य कच्चा माल है, उसे तैयार करने का भार स्वयं मनुष्य पर ही है।”

ऊर्मि ने नम्रता के साथ कहा, “अच्छी बात है, परीक्षा कीजिए, बाधा नहीं पाएँगे।”

नीरद ने कहा, “तुममें नाना प्रकार की शक्तियाँ हैं। उन्हें बाँधना होगा तुम्हारे जीवन के एकमात्र लक्ष्य के चारों ओर। तभी तुम्हारा जीवन सार्थक होगा। किसी अभिप्राय के आकर्षण से विक्षिप्त को संक्षिप्त करना पड़ेगा, वह कसा जायगा, डायनेमिक होगा, तभी उस एकत्व को मारल आर्गेनिज्म कहा जा सकेगा।”

ऊर्मि ने पुलकित होकर सोचा, अनेक युवक तो उनके घर चाय की टेबुल पर उपस्थित हुए हैं, टेनिस कोर्ट में आए हैं परन्तु सोचने के लायक़ बात उन्होंने कभी नहीं कही, दूसरा कोई कहे भी तो जमुहाने लगते हैं। असल में किसी भी बात को अत्यन्त गम्भीर भाव से कहने का एक अपना ढँग है नीरद के पास। वह जो भी कहता, उसीमें ऊर्मि को एक आश्चर्यजनक तात्पर्य मालूम होता, वह उसे अत्यधिक इन्टेलेक्चुअल जान पड़ता।

राजाराम ने अपने बड़े दामाद को भी बुलाया। बीच-बीच में निमन्त्रण का बहाना बनाकर एक-दूसरे से अच्छी तरह परिचय करा देने की चेष्टा की। शशांक ने शर्मिला से कहा, “इस लड़के के पेट की दाढ़ी असहाय है। वह समझता है हम सब लोग उसके विद्यार्थी हैं। सो भी आगे बैठने वाले नहीं, आख़िरी बेंच के आख़िरी कोनेवाले।”

शर्मिला ने हँसकर कहा, “यह तुम्हारी जेलेसी है। क्यों, मुझे तो यह बहुत अच्छा लगता है।”

शशांक ने कहा, “छोटी बहन के साथ स्थान-परिवर्तन करने का विचार कैसा है?”

शर्मिला बोली, “तब तो तुम शायद शान्ति की साँस लोगे, मेरी बात और है।”

शशांक के प्रति नीरद का भ्रातृभाव भी कुछ बढ़ा हुआ नहीं लगता। शशांक मन ही मन कहता, ‘यह तो मजदूर आदमी है, इसे वैज्ञानिक कौन कहे! हाथ तो हैं लेकिन दिमाग कहाँ!”

शशांक नीरद को लक्ष्य करके साली से मज़ाक करता, “अब पुराना नाम बदलने का मौक़ा आ गया।”

“अंग्रेज़ी मत से?”

“नहीं विशुद्ध संस्कृत मत से।”

“जरा सुनूँ तो सही नया नाम।”

“विद्युत्-लता। नीरद को पसन्द होगा। लैबोरेटरी में इस चीज़ के साथ उसका परिचय हुआ है, इस बार घर में बँधी मिलेगी।”

मन ही मन कहता, ‘सचमुच ही यह नाम इसे फबेगा।’ जी के भीतर ही भीतर जैसे कोई कुरेद उठता: ‘हाय रे, इतने बड़े घमंडी के हाथ में ऐसी लड़की पड़ेगी!’—कहना कठिन है कि किसके हाथों पड़ने से शशांक की रुचि को सन्तोष और सान्त्वना मिलती।

थोड़े ही दिनों में राजाराम की मृत्यु हो गई। ऊर्मि के भावी स्वत्वाधिकारी—नीरदनाथ––ने एकाग्र मन से उसको नये सिरे से गढ़ने का भार सँभाला।

ऊर्मिमाला देखने में जितनी अच्छी है, दिखती उससे भी कहीं अच्छी है। उसके चंचल शरीर में मन की उज्ज्वलता झिलमिलाया करती है। उसकी उत्सुकता सब विषयों में है। सायंस में जितना उसका मन लगता है, साहित्य में उससे ज्यादा ही लगता है, कम नहीं। मैदान में फुटबाल का खेल देखने में उसका आग्रह असीम है। सिनेमा देखने को भी वह बुरा नहीं समझती। प्रेसिडेन्सी कालेज में विदेश से कोई फ़िज़िक्स का व्याख्याता आया है तो वह वहाँ भी हाज़िर है। रेडियो सुनने के लिये कान खड़े रखती है। ख़ूब संभव है, सुनकर कह उठे, छि:, लेकिन कौतूहल भी कम नहीं है। बारात के आगे आगे बजते हुए बाजों के साथ वर निकल जाता तो दौड़कर बरामदे में आ खड़ी होती। चिड़ियाख़ाने में बार-बार सैर करने जाती, आनन्द भी पाती, विशेषकर बंदरों के पिंजड़ों के पास खड़े होने में तो उसकी ख़ुशी का ठिकाना ही नहीं रहता। पिता जब मछली पकड़ने जाते तो बंसी लेकर वह भी बग़ल में बैठ जाती। टेनिस खेलती,और बैड्मिंटन में तो उस्ताद थी। यह सब उसने अपने बड़े भैया से सीखा था। पतली तो यह संचारिणी लता के समान थी, हवा लगी नहीं कि झूम उठी। साज-सिंगार सहज और परिपाटीयुक्त। वह जानती है कि किस प्रकार साड़ी को इधर-उधर थोड़ा खींच-खाँचकर घुमा-फिराकर ढीला या चुस्त करके शरीर की शोभा बढ़ाई जा सकती है और फिर भी उसका रहस्य भेद नहीं किया जा सकता। गाना अच्छा नहीं जानती लेकिन सितार बजाती है। यह संगीत देखने की चीज़ है या सुनने की,कौन बताए! ऐसा लगता कि उसकी चंचल अँगुलियाँ कोलाहल कर रही हैं। उसे बोलने के विषय की कभी कमी नहीं होती, हँसने के लिये उचित कारण का इंतज़ार नहीं करना पड़ता। साथ देने की उसकी क्षमता अजस्त्र थी, जहाँ रहती वहाँ के अन्तराल को अकेली हो भर रखती। सिर्फ नीरद के पास वह कुछ और ही हो जाती है। मानों पालवाली नाव के लिये हवा की गति ही बंद हो गई हो और वह रस्सी के खिंचाव से नम्र मंथर गति से चलने लगी हो। सभी लोग कहते, ऊर्मि का स्वभाव उसके भाई के समान ही प्राण से परिपूर्ण है। ऊर्मि जानती है, उसके भाई ने ही उसके मन को मुक्ति दी है। हेमन्त कहा करता, ‘हमारे घर अलग-अलग साँचों के समान होते हैं। मिट्टी के मनुष्य ढालना ही उनका काम है। तभी तो इतने दिनों से विदेशी बाजीगर इतनी सरलता से तेतीस करोड़ पुतलियों को नचाए जा रहा है।’ वह कहता, ‘जब समय आएगा तो मैं इस सामाजिक मूर्तिपूजा को तोड़ने के लिये कालापाहाड़-जैसा आचरण करूगा।’ उसे समय नहीं मिला, लेकिन ऊर्मि के मन को वह ख़ूब सजीव बनाकर छोड़ गया ।

कठिनाइयाँ खड़ी हो गई। नीरद की कार्यप्रणाली अत्यन्त विधिवत् थी। उसने ऊर्मि के लिये पढ़ाई का क्रम बाँध दिया। उपदेश देते हुए कहा, “देखो ऊर्मि, रास्ता चलते-चलते मन को केवल छलका डालोगी तो रास्ते के अंत में जब पहुँचोगी, तो घड़े में बच ही क्या रहेगा!”

कभी कहता, “तुम तितली की तरह चंचल होकर घूमती-फिरती हो, संग्रह कुछ भी नहीं करतीं। होना पड़ेगा मधुमक्खी की तरह। प्रत्येक मुहूर्त का हिसाब रखना पड़ेगा। जीवन कोई विलासिता तो है नहीं।”

हाल ही में नीरद ने इम्पीरियल लायब्ररी से मँगाकर शिक्षातत्व पर लिखी हुई कुछ पुस्तकें पढ़नी शुरू की हैं। उनमें ऐसी ही सब बातें लिखी हैं। उसकी भाषा पुस्तकी भाषा है, क्योंकि उसके पास अपनी कोई सहज भाषा नहीं है। ऊर्मि को अपने अपराधी होने में कोई सन्देह नहीं रहा। व्रत उसका महान् है और फिर भी बात-बात में मन इधर-उधर खिसक पड़ता है। वह अपने-आपको बराबर धिक्कार दिया करती है। सामने ही दृष्टान्त है नीरद का; कैसी आश्चर्य दृढ़ता है, कैसा एकाग्र लक्ष्य है, सब प्रकार के आमोद और आहादों के प्रति कैसी कठोर विरोधिता है! ऊर्मि की टेबुल पर यदि वह कहानी किंवा किसी हल्के साहित्य की पुस्तक देखता है तो तुरन्त उसे ज़प्त कर लेता है। एक दिन सायंकाल ऊर्मि की देखरेख करने के लिये आया तो सुना कि वह अंग्रेजी नाट्यशाला में शालीवैन के मिकाडो आपेरा का सायंकालिक अभिनय देखने गई है। जब उसका भाई जाता था तो ऐसा सुअवसर प्रायः ही हाथ से निकल नहीं पाता था। उस दिन नीरद ने उसका यथोचित तिरस्कार किया। अत्यन्त गंभीर से अंग्रेज़ी भाषा में कहा था,’देखो तुम अपने बड़े भैया की मृत्यु को अपना सारा जीवन देकर सार्थक करने का भार ले चुकी हो। इसी बीच क्या तुम उसे भूलने लगीं?’

सुनकर ऊर्मि को बड़ा कष्ट हुआ। सोचने लगी, ‘इस आदमी की अन्तदृर्ष्टि कितनी असाधारण है। सचमुच ही तो मेरी शोक-स्मृति की प्रबलता कम होती आ रही है–मैं स्वयं यह समझ नहीं सकी। धिक्कार है। इतनी चपलता है मेरे चरित्र में!’ वह सावधान होने लगी। कपड़ों से शोभा का आभास तक दूर कर दिया। साड़ी मोटी हुई। उसके सभी रंग दूर हो गए। आलमारी में जमे रहने पर भी चाकलेट खाने के लोभ को उसने छोड़ दिया। अपने मुँहज़ोर मन को ख़ूब कसकर संकीर्ण सीमा में बाँधने लगी, शुष्क कर्तव्य के खूँटे के साथ। दीदी ने तिरस्कार किया। शशांक ने नीरद को लक्ष्य करके जिन विशेषणों की झड़ी लगा दी, उनकी भाषा शब्दकोष के बाहर को उग्र परदेसी थी। सुश्राव्य तो ज़रा भी नहीं थी।

एक जगह नीरद के साथ शशांक का मेल है। शशांक का गाली देने का आवेग जब तीव्र हो उठता है, तो उसकी भाषा अंग्रेजी हो जाती है। उधर नीरद के उपदेश का विषय जब अत्यन्त उच्च श्रणी का होता है, तो अंग्रेज़ी ही उसका वाहन बनती है। नीरद को सबसे ख़राब तब लगता है, जब निमन्त्रण-आमन्त्रण में ऊर्मि अपनी दीदी के यहाँ जाती है। केवल जाती ही नहीं, जाने के लिये बहुत आग्रह प्रकट करती है। उसके साथ उर्मि का जो आत्मीय सम्बन्ध है, वह नीरद के साथवाले सम्बन्ध को खण्डित करता है।

नीरद ने मुख गम्भीर करके एक दिन ऊर्मि से कहा, ‘देखो ऊर्मि, कुछ बुरा न मानना। क्या करूँ बताओ, तुम्हारा दायित्व मुझ पर है इसीलिये कर्तव्य समझकर अप्रिय बात कहनी पड़ती है। मैं तुम्हें सावधान किए देता हूँ, शशांक बाबू के घरवालों के साथ सब समय तुम्हारा मिलना-जुलना तुम्हारे चरित्र-गठन के लिये अस्वास्थ्यकर है। आत्मीयता के मोह से तुम अंधी हो गई हो, लेकिन मैं दुर्गति की सारी सम्भावनाएँ स्पष्ट देख रहा हूँ।’

ऊर्मि की चरित्र नामक जो वस्तु है, कम-से-कम उसकी पहली बन्धकी दलील नीरद के सन्दूक में ही बन्द है, उस चरित्र में यदि कहीं कुछ हेरफेर हो तो नुक़सान नीरद का ही है। निषेध का फल यह हुआ कि भवानीपुर की ओर ऊर्मि का आना-जाना कम हो गया। ऊर्मि का यह आत्मशासन एक बड़े ऋण-शोध के समान है। उसके जीवन का दायित्व लेकर नीरद ने जो हमेशा के लिये अपनी साधना को भाराक्रान्त कर लिया है, उससे बढ़कर विज्ञान-तपस्वी के लिये आत्म-अपव्यय और क्या हो सकता है!

नाना आकर्षणों से मन को खींच लेने का दुःख अब एक प्रकार से ऊर्मि को सह गया है, तो भी रह-रहकर एक वेदना मन में दुर्वार हो उठती है: उसे चंचलता कहकर वह सम्पूर्ण रूप से दबा नहीं सकती। नीरद केवल उसकी परिचालना ही करता है, किन्तु एक क्षण के लिये भी उसकी साधना क्यों नहीं करता। इस साधना के लिये उसका मन राह देखता रहता है,-इस साधना के अभाव में ही उसका हृदय पूर्ण विकास की ओर नहीं पहुँच पाता। उसका समस्त कर्तव्य निर्जीव और नीरस हो जाता है। किसी-किसी दिन अचानक मालूम होता है कि नीरद की आँख में एक प्रकार का आवेश आया है, मानों अब देर नहीं है, प्राण का गंभीरतम रहस्य अभी निकल पड़ेगा। किन्तु अन्तर्यामी जानते हैं कि उस गभीर की वेदना यदि कहीं हो भी तो उसकी भाषा नीरद की जानी हुई नहीं है। कह नहीं पाता इसीलिये कहने की इच्छा को वह दोष देता है। अपने विचलित चित्त को गूँगा रखकर ही वह जो लौट आता है इसीको अपनी शक्ति का परिचय समझकर गर्व करता है। कहता है, ‘सेन्टिमेन्टैलिटी की ओर जाना हमारा कर्तव्य नहीं है।’ ऊर्मि को उस दिन रोने की इच्छा होती है किन्तु उसकी भी दशा ऐसी है कि वह भी भक्तिपूर्वक समझती है, इसीको वीरत्व कहते हैं। अपने दुर्बल मन को निष्ठुर भाव से चोट पहुँचाती रहती है। वह जितनी भी कोशिश क्यों न करे बीच-बीच में यह बात उसे साफ़ झलक जाती है कि एक दिन प्रबल शोक के कारण जो कठिन कर्तव्य उसने अपनी इच्छा से ग्रहण किया था, समय पाकर जब वही इच्छा दुर्बल हो आई है तो उसने दूसरे की इच्छा को ही कसकर पकड़ लिया है।

नीरद उससे साफ़-साफ ही कहता, “देखो ऊर्मि, साधारण स्त्रियाँ पुरुषों से जिस प्रकार की खुशामदें पीने की आशा रखती हैं, मुझसे उन्हें पाने की कोई सम्भावना नहीं है, यह जान रखो। मैं तुम्हें जो दूँगा वह इन गढ़ी हुई बातों की अपेक्षा सत्य होगा, बहुत मूल्यवान् होगा।” ऊर्मि सिर झुकाकर चुप हो रहती। मन ही मन सोचती, इनसे क्या कोई भी बात छिपी नहीं रहेगी।

वह किसी भी तरह मन को बाँध न पाती। छत पर अकेली घूमने जाती। अपराह्न का प्रकाश धूसर हो आता। शहर के ऊँचे नीचे नाना आकारों के घरों की चूड़ाएँ पार करके सूर्य अस्त हो जाता,—दूर गंगा के घाट पर जहाज़ों के मस्तूल के उस ओर। नाना रङ्ग के लम्बे लम्बे मेघों की रेखा दिन की अन्तिम सीमा पर बेड़ा बाँध देती। धीरे-धीरे बेड़ा भी लुप्त हो जाता। चाँद निकल आता गिरजा-घर के शिखर के ऊपर; झुटपुटे प्रकाश में शहर सपने की भाँति हो जाता–मानों कोई अलौकिक मायापुरी हो। मन में सवाल उठता, सचमुच ही क्या जीवन इतना अविचलित कठिन है? और क्या वह इतना हो कृपण है जो न छुट्टी ही देगा और न रस ही। अचानक मन बिगड़ उठता, शरारत करने की इच्छा हो आती, जी में आता चिल्लाकर कह दे,’मैं कुछ नहीं मानती!’

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