चैप्टर 2 चट्टानों में आग ~ इब्ने सफ़ी का हिंदी जासूसी उपन्यास

Chapter 2 Chattanon Mein Aag Ibne Safi Novel In Hindi

Chapter 2 Chattanon Mein Aag Ibne Safi Novel In Hindi

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कर्नल ज़रगाम के दोनों भतीजे अनवर और आरिफ़ रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के आने का इंतज़ार कर रहे थे। गुप्तचर विभाग के सुपरिटेंडेंट कैप्टन फैयाज़ ने उनके चाचा के कहने पर एक आदमी भेजा था, जिसे लेने के लिए वे स्टेशन आए थे। गाड़ी एक घंटा लेट थी।

उन दोनों ने भी कैप्टन फैयाज़ का तार देखा था और आने वाले के बारे में सोच रहे थे।

यह दोनों जवान, सुंदर, स्मार्ट, पढ़े लिखे थे। अनवर आरिफ़ से सिर्फ दो साल बड़ा था। इसलिए उनमें दोस्ती की सी बेतकल्लुफी थी और आरिफ़ अनवर को उसके नाम से पुकारा करता था।

“कैप्टन फ़ैयाज़ का तार कितना अजीब था।” आरिफ़ ने कहा।

“इस कमबख्त ट्रेन को भी आज ही लेट होना था।” अनवर बड़बड़ाया।

“आखिर वह किस किस्म का आदमी होगा।” आरिफ़ ने कहा।

“उंह खैर छोड़ो! होगा कोई चिड़चिड़ा बद्दिमाग…”  अनवर बोला, “कर्नल साहब खामख़ा खुद भी बोर होते हैं और दूसरों को भी बोर करते हैं।”

“यह तो तुम्हारी ज्यादती है।” आरिफ़ ने कहा, “इस हालात में तुम भी वही करते, जो वह कर रहे हैं।”

“अरे छोड़ो कहना के हालात और कैसे हालत? सब उनका वहम है। मैं अक्सर सोचता हूँ कि उन जैसे वहमी आदमी को एक पूरी बटालियन की कमांड  कैसे सौंप दी गई। आखिर घर में बिल्लियाँ रोयेंगी, तो खानदान पर कोई न कोई आफ़त ज़रूर आयेगी। उल्लू की आवाज सुनकर दम निकल जायेगा। अगर खाना खाते वक्त किसी ने पेट में छुरी और कांटे को क्रॉस करके रख दिया, तो बदशगुनी! सुबह ही सुबह अगर कोई काना आदमी दिखाई देगा, तो मुसीबत!”

“इस मामले में तो मुझे उनसे हमदर्दी है।” आरिफ़ ने कहा।

“मुझे ताव आता है।” अनवर भन्ना कर बोला।

“पुराने आदमियों को माफ़ करना ही पड़ता है।”

“ये पुराने आदमी हैं।” अनवर ने झल्लाकर कहा, “मुझे तो उनकी बात में पुरानापन नहीं नज़र आता, सिवाय पुराने ख़यालात के।”

“यही सही! बहरहाल, वो पिछले दौर की विरासत है।”

तेज किस्म की घंटी की आवाज से वे चौंक पड़े। यह ट्रेन के आने का इशारा था। यह एक छोटा सा पहाड़ स्टेशन था। यहाँ मुसाफिरों को होशियार करने के लिए घंटी बजाई जाती थी। पूरे प्लेटफार्म पर आठ या दस आदमी नज़र आ रहे थे। उनमें नीली वर्दी वाले खलासी भी थे, जो इतनी शान से अकड़-अकड़ कर चलते थे जैसे भी स्टेशन मास्टर से भी कोई बड़ी चीज हों। खाना बेचने वाले वालों ने अपना जालीदार लकड़ी का संदूक, जिसके अंदर एक लालटेन जल रही थी, मोढ़े से उठा कर कंधे पर रख लिया। पान, बीड़ी, सिगरेट बेचने वाले लड़कों ने, जो अभी मुँह से तबला बजा-बजाकर एक अश्लील सा गीत गा रहा था, अपनी ट्रे उठा कर गर्दन में लटका ली।

ट्रेन आहिस्ता-आहिस्ता रेंगती हुई आकर प्लेटफार्म से लग गई।

अनवर और आरिफ़ गेट पर खड़े रहे।

पूरी ट्रेन से सिर्फ तीन आदमी उतरे। दो बूढ़े देहाती और एक जवान आदमी, जिसके जिस्म पर खाकी गैबरडीन का सूट था। बायें कंधे पर गिलाफ़ में बंद की हुई बंदूक लटक रही थी और दाहिने हाथ में बड़ा सा सूटकेस था।

ज्यादा मुमकिन यही था कि इसी आदमी के लिए नंबर और आरिफ़ यहाँ आए थे।

वे दोनों उसकी तरफ बढ़े।

“क्या आपको कैप्टन फैयाज़ ने भेजा है?” अनवर ने उससे पूछा।

“अगर मैं खुद नहीं आना चाहता, तो उसके फरिश्ते भी नहीं भेज सकते थे।” मुसाफिर ने मुस्कुराकर कहा।

“जी हाँ, ठीक है!” अनवर जल्दी से बोला।

“क्या ठीक है?” मुसाफिर पलकें झपकाने लगा।

अनवर बौखला गया, “वही जो आप कह रहे हैं।”

“ओह!” मुसाफिर इस तरह कहा, जैसे वह पहले कुछ और समझा हो।

आरिफ अनवर ने अर्थ पूर्ण नज़रों से एक-दूसरे को देखा।

“हम आपको लेने के लिए आए हैं।” आरिफ़ ने कहा।

“तो ले चलिए ना!’ मुसाफिर ने सूटकेस प्लेटफार्म पर रखकर उस पर बैठते हुए कहा।

अनवर ने कुली को आवाज दी।

“क्या?” मुसाफिर हैरत से कहा, “यह एक कुली मुझे सूटकेस समेत उठा सकेगा।”

पहले दोनों बौखलाए, फिर हँसने लगे।

“जी नहीं!” अनवर ने शरारती अंदाज़ में कहा, “आप ज़रा खड़े हो जाइए।”

मुसाफिर खड़ा हो गया। अनवर ने कुली को सूटकेस उठाने का इशारा करते हुए मुसाफिर का हाथ पकड़ लिया, “यूं चलिए।“

“लाहौल विला कूवत! मुसाफिर गर्दन छोटा कर बोला, “मैं कुछ और समझा था।”

उसने अनवर और आरिफ़ को संबोधित करके कहा, “शायद तार का मज़मून तुम्हारी समझ में आ गया होगा।”

आरिफ हँसने लगा। लेकिन मुसाफिर इतनी संजीदगी से चलता रहा, जैसे उसे इस बात से कोई सरोकार ही न हो। मैं बाहर आकर कार में बैठ गए। पिछली सीट पर अनवर मुसाफिर के साथ था और आरिफ़ कार ड्राइव कर रहा था।

अनवर ने आरिफ़ को संबोधित करके कहा, “क्या कर्नल साहब और कैप्टन फ़ैयाज़ में कोई मज़ाक का रिश्ता भी है।”

आरिफ़ ने फिर कहकहा लगाया। वे दोनों सोच रहे थे कि इस मूर्ख मुसाफिर के साथ वक्त अच्छा गुजरेगा।

“जनाब का इस्मे शरीफ़!” अचानक अनवर ने मुसाफिर से पूछा।

“कलियर शरीफ़!” मुसाफिर ने बड़ी संजीदगी से जवाब दिया।

दोनों हँस पड़े।

“हाय! इसमें हँसने की क्या बात है?” मुसाफिर बोला।

“मैंने आपका नाम पूछा था।” अनवर ने कहा।

“अली इमरान। एमएससी, पीएचडी!”

“एमएससी. पीएचडी!” आरिफ़ हँस पड़ा।

“आप ऐसे क्यों?” इमरान ने पूछा।

“मैं दूसरी बात पर हँसा था।” आरिफ़ जल्दी से बोला।

“अच्छ, तो अब मुझे तीसरी बात पर हँसने की इज़ाजत दीजिए।” इमरान ने कहा और बेवकूफों की तरह हँसने लगा।

वे दोनों और जोर से हँसे। इमरान ने उनसे भी तेज कहकहा लगाया और थोड़ी ही देर बाद अनवर और आरिफ़ ने महसूस किया, जैसे वह खुद ही बेवकूफ बन गए हैं।

कार पहाड़ी रास्तों में चक्कर काटती आगे बढ़ रही थी।

थोड़ी देर के लिए खामोशी हो गई। इमरान ने उन दोनों के नाम पूछे थे।

अनवर सोच रहा था कि खासा मज़ा रहेगा। कर्नल साहब की झल्लाहट देखने लायक होगी। यह बेवकूफ आदमी उनका जीना हराम कर देगा और वे पागलों की तरह सिर पीटते फिरेंगे।

अनवर ठीक है सोच रहा था। कर्नल था भी झल्ले मिजाज़ का आदमी। अगर उसे कोई बात दोबारा दोहरा नहीं पड़ती, तो उसका पारा चढ़ जाता था। उनका इमरान जैसे आदमी के साथ क्या होगा।

आधे घंटे में कार ने कर्नल की कोठी तक का सफर तय कर लिया। कर्नल अब भी बेचैनी से उसी कमरे में टहल रहा था और सोफिया भी वहीं मौजूद थीं।

कर्नल ने इमरान को ऊपर से नीचे तक तौलने वाली नज़रों से देखा। फिर मुस्कुरा कर बोला –

“कैप्टन फैयाज़ तो अच्छे हैं?”

“अजी तौबा कीजिए। निहायत नामाकूल आदमी है।” इमरान ने सोफे पर बैठते हुए कहा। उसने कंधे से बंदूक उतारकर सोफे के हत्थे से लटका दी।

“क्यों नामाकूल क्यों?” कर्नल ने हैरत से कहा।

“बस यूं ही!” इमरान संजीदगी से बोला, “मेरा ख़याल है कि नामाकूलित की कोई वजह नहीं होती।”

“खूब!” कर्नल उसे घूरने लगा, “आपकी तारीफ!”

“अजी..ही…ही…ही, अब अपने मुँह से अपनी तारीफ क्या करूं।” इमरान शर्माकर बोला।

अनवर किसी तरह जब्त न कर सका। उसे हँसी आ गई और उसके फूटते ही आरिफ़ भी हँसने लगा।

“यह क्या बदतमीजी है।” कर्नल उनकी तरफ मुड़ा।

दोनों यकायक खामोश होकर बगले झांकने लगे। सोफिया अजीब नजरों से इमरान को देख रही थी।

“मैंने आपका नाम पूछा था।” कर्नल ने खंखारकर कर कहा।

“कब!”

“अभी!” कर्नल के मुँह से बेसाख्ता निकला और वे दोनों भाई अपने मुँह में रुमाल ठूंसते हुए बाहर निकल गए।

“इन दोनों की शामत आ गई है।” कर्नल ने गुस्साई आवाज में कहा और वह भी तेजी से कमरे से निकल गया। ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे वह उन दोनों को दौड़ कर मारेगा।

इमरान बेवकूफों की तरह बैठा रहा। बिल्कुल ऐसे ही निर्विकार भाव से, जैसे उसने कुछ देखा सुना ही न हो। सोफिया कमरे ही में रह गई और उसकी आँखों में शरारती चमक लहराने लगी थी।

“आपने अपना नाम नहीं बताया।” सोफिया बोली।

इस पर इमरान ने अपना नाम डिग्रियों समेत दोहरा दिया। सोफिया के अंदाज़ से ऐसा मालूम हो रहा था, जैसे उसे इस पर यकीन न आया हो।

“क्या आपको अपने यहाँ आने का मकसद मालूम है?” सोफिया ने पूछा।

“मकसद!” इमरान चौंककर बोला, “जी हाँ! मकसद मुझे मालूम है, इसलिए मैं अपनी एयरगन साथ लाया हूँ।”

“एयरगन!” सोफिया ने हैरत से दोहराया।

“जी हाँ!” इमरान ने संजीदगी से कहा, “मैं हाथ से मक्खियाँ नहीं मारता।”

कर्नल, जो पिछले दरवाजे में खड़ा उनकी गुफ्तगू सुन रहा था, झल्लाकर आगे बढ़ा।

“मैं नहीं समझ सकता कि फैयाज़ ने बेहूदगी क्यों की है?” उसने सख्त लहजे में कहा और इमरान को खड़ा घूरता रहा।

“देखिए…हैं ना…नामाकूल आदमी। मैंने तो पहले ही कहा था।” इमरान चहककर बोला।

“आप कल पहली गाड़ी से वापस जायेंगे।” कर्नल ने कहा।

“नहीं!” इमरान ने संजीदगी से कहा, “मैं एक हफ्ते का प्रोग्राम बना कर आया हूँ।”

“जी नहीं, शुक्रिया!” कर्नल खिन्न होकर बोला, “मैं आधा मुआवजा देकर आपको विदा करने पर तैयार हूँ। आधा मुआवजा कितना होगा?”

“यह तो मक्खियों की तादाद पर है।” इमरान ने सिर हिलाकर कहा, “वैसे एक घंटे में डेढ़ दर्जन मक्खियाँ मारता हूँ और…”

“बस बस!” कर्नल हाथ उठाकर बोला, “मेरे पास बेकार बातों के लिए वक्त नहीं!”

“डैडी प्लीज!” सोफिया ने जल्दी से कहा, “क्या आपको तार का मज़मून याद नहीं।”

“हूं!” कर्नल कुछ सोचने लगा। उसकी नज़रें इमरान के चेहरे पर थी, जो मूर्खों की तरह बैठा पलकें झपका रहा था।

“हूं! तुम ठीक कहती हो।” कर्नल बोला। अब उसकी नज़रें इमरान के चेहरे से हटकर उसकी बंदूक पर जम गई।

उसने आगे बढ़कर बंदूक उठा ली और फिर उसे गिलाफ़ से निकालते ही बुरी तरह बिफर गया।

“क्या बेहूदगी है?” वह हलक फाड़ कर चीखा, “यह तो सचमुच एयरगन है।”

इमरान के इत्मीनान न में ज़र्रा बराबर भी फर्क नहीं आया।

उसने सिर हिलाकर कहा, “मैं कभी झूठ नहीं बोलता।”

कर्नल का पारा इतना चढ़ा है कि उसकी लड़की उसे धकेलती हुई कमरे के बाहर निकाल ले गई। कर्नल सोफिया के अलावा और किसी को खातिर में न लाता था। अगर उसकी बजाय किसी दूसरे ने यह हरकत की होती, तो वह उसका गला घोंट देता। उनके जाते ही इमरान इस तरह मुस्कुराने लगा, जैसे यह बड़ी सुखद घटना हो।

थोड़ी देर बाद सोफिया वापस आई और उसने इमरान से दूसरे कमरे में चलने को कहा।

इमरान खामोशी से उठकर उसके साथ हो लिया। सोफिया ने भी इसके अलावा और कोई बात नहीं की। शायद वह कमरे पहले ही से इमरान के लिए तैयार रखा गया था।

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