चैप्टर 19 तितली जयशंकर प्रसाद का उपन्यास | Chapter 19 Titli Jaishankar Prasad Novel In Hindi
Chapter 19 Titli Jaishankar Prasad Novel In Hindi
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धूप निकल आयी है, फिर भी ठंड से लोग ठिठुरे जा रहे हैं। रामजस के साथ जो लड़का दवा लेने के लिए शैला की मेज के पास खड़ा है, उसकी ठुड्ढी कांप रही है। गले के समीप कुर्ता का अंश बहुत-सा फटकर लटक गया है, जिसमें उसके छाती की हड्डियों पर नसें अच्छी तरह दिखायी पड़ती हैं।
शैला ने उसे देखते ही कहा – रामजस ! मैंने तुमको मना किया था। इसे यहाँ क्यों ले आए? खाने के लिए सागूदाना छोड़कर और कुछ न देना ! ठंड बचाना !
मेम साहब, रात को ऐसा पाला पड़ा कि सब मटर झुलस गई। हरी मटर शहर में बेचने के लिए जो ले जाते तो सागूदाना ले आते। अब तो इसी को भूनकर कच्चा-पक्का खाना पड़ेगा। वही इसे भी मिलेगा।
तब तो इसे तुम मार डालोगे !
मरता तो है ही ! फिर क्या किया जाए?
रामजस की इस बेबसी पर शैला कांप उठी। उसने मन में सोचा कि इंद्रदेव से कहकर उसके लिए सागूदाना मंगा दें। सब बातों के लिए इंद्रदेव से कहता देने का अभ्यास पड़ गया थ। फिर उसको स्मरण हो गया कि इंद्रदेव तो यहाँ नहीं हैं। वह दुखी हो गई। उसका हृदय व्यथा से भर गया। इंद्रदेव ही निर्दयता पर-नहीं-नहीं, उनकी विवशता पर-वह व्याकुल हो उठी। रामजस को विदा करते उसने कहा-मधुबन से कह देना, वह तुम्हारे लिए सागूदाना ले आएगा।
यही एक छोटा भाई है मेम साहब ! मां बहुत रोती है।
जाओ रामजस ! भगवान सब अच्छा करेगा।
रामजस तो चला गया। शैला उठकर अपने कमरे में टहलने लगी। उसका मन न लगा। वह टीले से नीचे उतरी; झील के किनारे-किनारे अपनी मानसिक व्यथाओं के बोझ से दबी हुई, धीरे-धीरे चलने लगी। कुछ दूर चलकर जब कच्ची सड़क की ओर फिरी तो उसने देखा कि अरहर और मटर के खेत काले होकर सिकुड़ी हुई पत्तियों में अपनी हरियाली लुटा चुके हैं। अब भी जहाँ सूर्य की किरणें नहीं पहुचती हैं, उन पत्तियों पर नमक की चादर-सी पड़ी है। उसके सामने भरी हुई खेती का शव झुलसा पड़ा है। उसकी प्रसन्नता और साल भी आशाओं पर बज्र की तरह पाला पड़ गया। गृहस्थी के दयनीय और भयानक भविष्य के चित्र उसकी आंखों के सामने, पीछे जमींदार के लगान का कंपा देने वाला भय ! दैव को अत्याचारी समझकर कि जैसे वह संतोष से जीवित है।
क्यों जी? तुम्हारे खेत पर भी पाला पड़ा है?
आप देख तो रही हैं मेम साहब – दुख और क्रोध से किसान ने कहा। उसको यह असमय की सहानुभूति व्यंग्य-सी मालूम पड़ी। उसने समझा मेम साहब तमाशा देखने आई हैं।
शैला जैसे टक्कर खाकर आगे बढ़ गई। उसके मन में रह-रहकर यही बात आती ळै कि इस समय इंद्रदेव यहाँ क्यों नहीं हैं, उपने ऊपर भी रह-रहकर उसे क्रोध आता कि वह इतनी शीतल क्यों हो गई। इंद्रदेव को वह जाने से रोक सकती थी; किंतु अपने रूखे-सूखे व्यवहार से इंद्रदेव के उत्साह को उसी ने नष्ट कर दिया, और अब यह ग्राम सुधार का व्रत एक बोझ की तरह उसे ढोना पड़ रहा है। तब क्या वह इंद्रदेव से प्रेम नहीं करती ! ऐसा तो नहीं; फिर यह संकोच क्यों? वह सोचने लगी- उस दिन इंद्रदेव के मन में एक संदेह उत्पन्न करके मैंने ही यह गुत्थी डाल दी है। तक क्या यह भूल मुझे ही न सुधारनी चाहिए? वसंतपंचमी को माधुरी ने बुलाया था, वहाँ भी न गई। उन लोगों ने भी बुरा मान लिया होगा।
उसने निश्चय किया कि अभी मैं छावनी पर चलूं। वहाँ जाने से इंद्रदेव का भी पता लग जाएगा। यदि उन लोगों की इच्छा हुई तो मैं इंद्रदेव को बुलाने के लिए चली जाऊंगी, और इंद्रदेव से अपनी भूल के लिए क्षमा भी मांग लूंगी।
वह छावनी की ओर मन-ही-मन सोचते हुए घूम पड़ी। कच्चे कुएं के जगत पर सिर पकड़े हुए एक किसान बैठा है। शैला का मन प्रसन्न वातावरण बनाने की कल्पना से उत्साह से भर उठा था। उसने कहा-मधुबन ! तितली से कह देना, आज दोपहर को मैं उसके यहाँ भोजन करूंगी; मैं छावनी से होकर आती हूँ।
मैं भी साथ चलूं-मधुबन ने पूछा।
नहीं, तुम जाकर तितली से कह दो भाई, मैं आती हूँ। – कहकर वह लंबा डेग बढ़ाती हुई चल पड़ी। छावनी पर पहुँचकर उसने देखा, बिलकुल सन्नाटा छाया है। नौकर-चाकर उधर चुपचाप काम कर रहे हैं।
शैला माधुरी के कमरे के पास पहुँचकर बाहर रुक गई। फिर उसने चिक हटा दिया। देखा तो मेज पर सिर रखे हुए माधुरी कुर्सी पर बैठी है- जैसे उसके शरीर में प्राण नहीं !
शैला कुछ देर खड़ी रही। फिर उसने पुकारा-बीबी-रानी !
माधुरी सिसकने लगी। उसने सिर उठाया। शैला ने उसके बालों को धीरे-धीरे सहलाते हुए कहा- क्या है, बीबी-रानी !
माधुरी ने धीरे से सिर उठाया। उसकी आंखें गुड़हल के फूल की तरह लाल हो रही थीं। शैला से आंख मिलाते ही उसके हृदय का बांध टूट गया। आंसू की धारा बहने लगी। शैला की ममता उमड़ आई। वह भी पास बैठ गई !
जी कड़ा करके माधुरी ने कहा- मैं तो सब तरह से लुट गई !
हुआ क्या ? मैं तो इधर बहुत दिनों से यहाँ आई नहीं, मुझे क्या पता। बीबी-रानी ! मुझ पर संदेह न करो। मैं तुम्हारा बुरा नहीं चाहती। मुझसे अपनी बीती साफ-साफ कहो न। मैं भी तुम्हारी भलाई चाहने वाली हूँ बहन !
माधुरी का मन कोमल हो चला ! दुख की सहानभूति हृदय के समीप पहुँचती है। मानवता का यही तो प्रधान उपकरण है। माधुरी ने स्थिर दृष्टि से शैला को देखते हुए कहा – यह सच है मिस शैला, कि मैं तुम्हारे ऊपर अविश्वास करती हूँ। मेरी भूल रही होगी। पर मुझे जो धोखा दिया गया वह अब प्रत्यक्ष हो गया। मैं यह जानती हूँ कि मेरे पति सदाचारी नहीं है, उनका मुझ पर स्नेह भी नहीं, तक भी यह मेरे मान का प्रश्न था और उससे भी मुझे धक्का मिला। मेरा हृदय टूक-टूक हो रहा है। मैंने कृष्णमोहन को लेकर दिन बिताने का निश्चय कर लिया था। मैं तो यह भी नहीं चाहती थी कि वह यहाँ आवें। पर जो होनी थी वह होकर ही रही।
माधुरी को फिर रुलाई आने लगी। वह अपने को सम्हाल रही थी। शैला ने पूछा – तो क्या हुआ, बाबू श्यामलाल चले गए?
हाँ, गए, और अनवरी को लेकर गए। मिस शैला ! वह अपमान मैं सह न सकूंगी। अनवरी ने मुझ पर ऐसा जादू चलाया कि मैं उसका असली रूप इसके पहले समझ ही न सकी।
यह कैसे हुआ ! इसमें सब इंद्रदेव की भूल है। वह यहाँ रहते तो ऐसी घटना न होने पाती। – शैला ने आश्चर्य छिपाते हुए कहा।
उनके रहने न रहने से क्या होता। यह तो होना ही था। हाँ, चले जाने से मेरे-मां के मन में भी यह बात आई कि इंद्रदेव को उन लोगों का आना अच्छा न लगा। परंतु इंद्रदेव को इतना रूखा मैं नहीं समझती। कोई दूसरी ही बात है, जिससे इंद्रदेव को यहाँ से जाना पड़ा। जो स्त्री इतनी निर्लज्ज हो सकती है, इतनी चतुर है, वह क्या नहीं कर सकती ? उसी का कोई चरित्र देखकर चले गए होंगे। सुनिए, वह घटना मैं सुनाती हूँ जो मेरे सामने हुई थी-
उस दिन मां के बहुत बकने पर मैं रात को उन्हें व्यालू कराने के लिए थाली हाथ में लिए, कमरे के पास पहुंची। मुझे ऐसा मालूम हुआ कि भीतर कोई और भी है। मैं रुकी। इतने में सुनायी पड़ा – बस, बस, एक ग्लास मैं पी चुकी और लूंगी तो छिपा न सकूंगी। सारा भंडाफोड़ हो जाएगा।
उन्होंने कहा- मैं भंडाफोड़ होने से नहीं डरता। अनवरी ! मैंने अपने जीवन में तुम्हीं को तो ऐसा पाया है, जिससे मेरे मन की सब बातें मिलती हैं ! मैं किसी की परवाह नहीं करता, मैं किसी का दिया हुआ नहीं खाता, जो डरता रहूँ। तुम यहाँ क्यों पड़ी हो, चलो कलकत्ते में? तुम्हारी डाक्टरी ऐसे चमकेगी कि तुम्हारे नाम का डंका पिट जाएगा। हम लोगों का जीवन बड़े सुख से कटेगा।
लंबी-चौड़ी बातें करने वाले मैंने भी बहुत-से देखे हैं। निबाहना सहज नहीं है बाबू साहब ! अभी बीबी-रानी सुन लें तो आपकी…
चलो, देखा है तुम्हारी बीबी-रानी को। मैं…
मैं अधिक सुन न सकी। मेरा शरीर कांपने लगा। मैंने समझा कि यह मेरी दुर्बलता है। मेरा अधिकार मेरे ही सामने दूसरा ले और मैं प्रतिवाद न करके लौट जाऊं, यह ठीक नहीं। मैं थाली लिए घुस पड़ी। अनवरी अपने को छुपाती हुई उठ खड़ी हुई। उसका मुँह विवर्ण था। शराब की महक से कमरा भर रहा था। उन्होंने अपनी निर्लज्जता को स्पष्ट करते हुए पूछा-क्या है?
भला मैं इसका क्या उत्तर देती ! हाँ, इतना कह दिया कि क्षमा कीजिए, मैं नहीं जानती थी कि मेरे आने से आप लोगों का कष्ट होगा।
यह बड़ी असभ्यता है कि बिना पूछे किसी के एकांत में…
उसकी बात काटकर अनवरी ने कहा – बीबी-रानी ! मैं कलकत्ते में डाक्टरी करने के संबंध में बातें कर रही थी।
यह भी उसका दुस्साहस था ! मैं तो उसका उत्तर नहीं देना चाहती थी परंतु उसकी ढिठाई अपनी सीमा पार कर चुकी थी। मैंने कहा- बड़ी अच्छी बात है, मिस अनवरी ! आप कब जाएंगी।
मैं अधिक कुछ न कह सकी। थाली रखकर लौट आई। दूसरे दिन सवेरे ही अनवरी तो बनारस चली गई और उन्होंने कलकत्ते की तैयारी की ! मां ने बहुत चाहा कि वे रोक लिए जाएं। उन्होंने कहलाया भी, पर मैं इसका विरोध करती रही। मैं फिर सामने आ गई। वह चले गए।
शैला ने सांत्वना देते हुए कहा- जो होना था सो हो गया। अब दुख करने से क्या लाभ?
हम लोगों का भी आज शहर जाना निश्चित है। मां कहती है कि अब यहाँ न रहूँगी। भाई साहब का पता चला है कि बनारस में ही हैं। उन्होंने बैरिस्टरी आरंभ कर दी है। हाँ, कोठी पर वह नहीं रहते, अपने लिए कहीं बंगला ले लिया है।
वह और कुछ कहना चाहती थी कि बीच में किसी ने पुकारा- बीबी-रानी !
क्या है ? – माधुरी ने पूछा।
मां जी आ रही हैं।
आती तो रही, उन्हें उठकर आने की क्या जल्दी पड़ी थी?
श्यामदुलारी भीतर आ गईं। उस वृद्धा स्त्री का मुख गंभीर और दृढ़ता से पूर्ण था। शैला का नमस्कार ग्रहण करते हुए एक कुर्सी पर बैठकर उन्होंने कहा- मिस शैला ! आप अच्छी हैं? बहुत दिनों पर हम लोगों की सुध हुई।
मां जी! क्या करूं, आप ही का काम करती हूँ। जिस दिन से यह सब काम सिर पर आ गया, एक घड़ी की छुट्टी नहीं। आज भी यदि एक घटना न हो जाती तो यहाँ आती या नहीं, इसमें संदेह है। आपके गांव भर में रात को पाला पड़ा। किसान का सर्वनाश हो गया है। कई दवाएं भी नहीं है। तहसीलदार के पास लिख भेजा था। वे आईं नहीं और …
शैला और भी जाने क्या-क्या कह जाती; क्योंकि उसका मन चंचल हो गया था। इस गृहस्थी की विश्रृंखलता के लिए वह अपने को अपराधी समझ रही थी। उसकी बातें उखड़ी-उखड़ी हो रही थीं। किंतु श्यामदुलारी ने बीच में ही रोककर कहा- पाला-पत्थर पड़ने में जमींदार क्या कर सकता है। जिस काम में भगवान का हाथ है, उसमें मनुष्य क्या कर सकता है। मिस शैला, मेरी सारी आशाओं पर भी तो पाला पड़ गया। दोनों लड़के बेकहे हो रहे हैं। हम लोग स्त्री हैं। अबला हैं। आज वह जीते होते तो दो-दो थप्पड़ लगाकर सीधा कर देते। पर हम लोगों के पास कोई अधिकार नहीं। संसार तो रुपए-पैसे के अधिकार तो मानता है। स्त्रियों के स्नेह का अधिकार, रोने-दुलारने का अधिकार, तो मान लेने की वस्तु है न?
अपनी विवशता और क्रोध से श्यामदुलारी की आंखों से आंसू निकल आए। शैला सन्न हो गयी। उसे भी रह-रह कर इंद्रदेव पर क्रोध आता था। पुरुष के प्रति स्त्रियों का हृदय प्राय: विषम और प्रतिकूल रहता है। जब लोग कहते हैं कि वे एक आंख से रोती हैं तो दूसरी से हंसती हैं, तक कोई भूल नहीं करते। हाँ, यह बात दूसरी है कि पुरुषों के इस विचार में व्यंग्यपूर्ण दृष्टिकोण का अंत है।
स्त्रियों को उकी आर्थिक पराधीनता के कारण जब हम स्नेह करने के लिए बाध्य करते हैं, तब उनके मन में विद्रोह की सृष्टि भी स्वाभाविक है ! आज प्रत्येक कुटुंब उनके इस स्नेह और विद्रोह के द्वंद्व से जर्जर है और असंगठित है। हमारा सम्मिलित कुटुंब उनकी इस आर्थिक पराधीनता की अनिवार्य असफलता है। उन्हें चिरकाल से वंचित एक कुटुंब से आर्थिक संगठन को ध्वस्त करने के लिए दिन-रात चुनौती मिलती रहती है। जिस कुल से वे आती हैं , उस पर से ममता हटती नहीं, यहाँ भी अधिकार की कोई संभावना न देखकर, वे सदा घूमने वाली गृहहीन अपराधी जाति की तरह प्रत्येक कौटुंबिक शासन को अव्यवस्थित करने में लग जाती हैं। यह किसका अपराध है ? प्राचीन-काल में स्त्रीधन की कल्पना हुई थी। किंतु आज उसकी जैसे दुर्दशा है, जितने कांड उसके लिए खड़े होते हैं, वे किसी से छिपे नहीं।
श्यामदुलारी का मन आज संपूर्ण विद्रोही हो गया था। लड़के और दामाद की उच्छृखंलता ने उन्हें अपने अधिकार को सजीव करने के लिए उत्तेजिना दी। उन्होंने कहा-मिस शैला ! मैंने निश्चय कर लिया है कि अब किसी को मनाने न जाऊंगी। हाँ, मेरी बेटी का दु:ख से भरा भविष्य है और अपने नाम की जमींदारी माधुरी को देने का निश्चय कर लिया है। तुम क्या कहती हो ? हम लोग तुम्हारी संपत्ति चाहती हैं।
मां जी, आपने ठीक सोचा है। बीबी-रानी को और दूसरा क्या सहारा है। मैं समझती हूँ कि इसमें इंद्रदेव से पूछने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि उसके लिए कोई कमी नहीं। वह स्वयं भी कमा सकते हैं और संपत्ति भी है ही !
माधुरी अवाक् होकर शैला का मुँह देखने लगी। आज स्त्रियां सब एक ओर थीं। पुरुषों की दुष्टता का प्रतिकार करने में सब सहमत थीं। श्यामदुलारी ने शैला का अनुकूल मत जानकर कहा-तो हम लोग आज ही बनारस जाएंगी। वहाँ पहले मैं दान-पत्र की रजिस्ट्री कराऊंगी। तुम भी चलोगे ?
बिला कुछ सोचे हुए शैला ने कहा-चलूंगी।
तो फिर तैयार हो जाओ। नहीं, दो घंटे में उधर ही नील-कोठी पर आकर तुम्हें लेती चलूंगी।
बहुत अच्छा-कहकर शैला उठ खड़ी हुई। वह सीधे बनजरिया की ओर चल पड़ी। मधुबन से कह चुकी थी, तितली उसकी प्रतीक्षा में बैठी होगी।
शैला कुछ प्रसन्न थी। उसने अज्ञात भाव से इंद्रदेव को जो थोड़ा-सा दूर हटाकर श्यामदुलारी और माधुरी को अपने हाथों में पा लिया था, वह एक लाभ-सा उसे उत्साहित कर रहा था। परंतु बीच-बीच में वह अपने हृदय में तर्क भी करती थी- इंद्रदेव को मैं एक बार ही भूल सकूंगी ? अभी-अभी तो मैंने सोचा था कि चलकर इंद्रदेव से क्षमा मांग लूंगी, मना लाऊंगी, फिर यह मेरा भाव कैसा ?
उसे खेद हुआ। और फिर अपनी भूल सुधारते हुए उसने निश्चय किया कि बुरा काम करते भी अच्छा हो सकता है। मैं इसी प्रश्न को लेकर इंद्रदेव से अच्छी तरह बातें कर सकूंगी और सफाई भी दे लूंगी।
वह अपनी धुन में बनजरिया तक पहुँच भी गई, पर उसे मानो ज्ञान नहीं। जब तितली ने पुकारा-वाह बहन ! मैं कब से बैठी हूँ, इस तरह के आने के लिए कहकर भी कोई भूल जाता है- तो वह आपे में आ गई।
मुझे झटपट कुछ लिखा दो। अभी-अभी मुझे शहर जाना है।
वाह रे चटपट ! बैठो भी, अभी हरे चने बनाती हूँ, तब खाना होगा। ठंडा हो जाने से वह अच्छा नहीं लगता। हम लोगों का ऐसा-वैसा भोजन, रूखा-सूखा गरम-गरम ही तो खा सकोगी। चावल और रोटियां भी तैयार हैं ! अभी बन जाता है।
तितली उसे बैठाती हुई, रसोई-घर में चली गई। हरे चनों की छनछनाहट अभी बनजरिया में गूंज रही थी कि मधुबन एक कोमल लौकी लिए हुए आया। वह उसे बैठकर छीलने-बनाने लगा
शैला इस छोटी-सी गृहस्थी में दो प्राणियों को मिलाकर उसकी कमी पूरी करते देखकर चकित हो रही थी। अभी छावनी की दशा देखकर आई थी। वहाँ सब कुछ था, पर सहयोग नहीं। यहाँ कुछ न था, परंतु पूरा सहयोग उस अभाव से मधुर युद्ध करने के लिए प्रस्तुत। शैला ने छेड़ने के लिए कहा-तितली ! मुझे भूख लगी है। तुम अपने पकवान रहने दो, जो बना हो, मुझे लाकर खिला दो।
आई, आई, लो, मेरा हाथ जलने से बचा।
मधुबन ने कहा-तो ले आओ न !
वह भी हंस रहा था।
पहले केले का पत्ता ले आओ। फिर जल्दी करना।
मधुबन केले का पत्ता लेने के लिए बनजरिया की झुरमुट में चला। शैला हंस रही थी। उसके सामने रहे-हरे दोनों में देहाती दही में भींगे हुए बड़े और आलू-मटर की तरकारी रख दी गई। पत्ते लेकर मधुबन के आते ही चावल, रोटी, दाल, हरे चने और लौकी भी सामने आ गई।
शैला खाती भी थी, हंसती भी थी। उसके मन में संतोष-ही-संतोष था। उसके आस-पास एक प्रसन्न वातावरण फैला रहा था, जैसे विरोध का कहीं नाम नहीं। इंद्रदेव ! उस रूठे हुए मन को मना लाने के लिए तो वह जा रही थी।
भोजन कर लेने पर शैला ने हाथ पोंछते हुए मधुबन से कहा-नील कोठी की रखवाली तुम्हारे ऊतपर। मैं दो-चार दिन भी वहाँ ठहर सकती हूँ ! सावधान रहना। किसी से लड़ाई-झगड़ा मत कर बैठना।
वाह ! मैं सबसे लड़ाई ही तो करता फिरता हूँ।
दूर न जाकर घर में तितली ही से, क्यों बहन ! – शैला ने हंसकर कहा।
तितली लज्जा से मुस्कराती हुई बोली- मैं क्या कलकत्ते की पहलवान हूँ बहन !
मधुबन उत्तर न दे सकने से खीझ रहा था। पर वह खीझ बड़ी सुहावनी थी। सहसा उसे एक बात का स्मरण हुआ। उसने कहा-हाँ, एक बात तो कहना मैं भूल ही गया था। मलिया को लेकर वह तहसीलदार बहुत धमका गया है। मेरे सामने फिर आवेगा तो मैं उसके दो-चार बचे हुए दांत भी झाड़ दूंगा। वह बेचारी क्या इस गांव में रहने न पावेगी। और तो किसी से बोलने के लिए मैं शपथ खा सकता हूँ।
मधुबन ! सहनशील होना अच्छी बात है। परंतु अन्याय का विरोध करना उससे भी उत्तम है। तुम कोई उपद्रव न करोगे, इसका तो मुझे विश्वास है। अच्छा तो चलो मेरे साथ, और बहन तितली ! तो मैं जाती हूँ।
तितली ने नमस्कार किया। दोनों चले। अभी बनजरिया से कुछ ही दूर पहुंचे होंगे कि मलिया उधर से आती हुई दिखाई पड़ी। उसकी दयनीय और भयभीत मुखाकृति देखकर शैला को रुक जाना पड़ा। शैला ने उसे पास बुलाकर कहा-मलिया, तू तितली के पास निर्भय होकर रह, किसी बात की चिंता मत कर।
मलिया की आंखों में कृतज्ञता के आंसू भर आए। नील कोठी पर पहुँचकर दो-चार आवश्यक वस्तुएं अपने बेग में रखकर शैला तैयार हो गई। मधुबन को आवश्यक काम समझाकर वह झील की ओर पत्थर पर बैठी हुई, सड़क पर मोटर आने की प्रतीक्षा करने लगी। मधुबन को भूख लगी थी। उसने जाने के लिए पूछा। तितली भी अभी बैठी होगी -यह जानकार शैला को अपनी भूल मालूम हुई। उसने कहा-जाओ, तितली मुझे कोसती होगी।
मधुबन चला गया। तितली की बातें सोचते-सोचते उसकी छोटी-सी सुख से भरी गृहस्थी पर विचार करते-करते, शैला के एकांत मन में नई गुदगुदी होने लगी। वह अपनी बड़ी-सी नील कोठी को व्यर्थ की विडंबना समझकर, उसमें नया प्राण ले आने की मन-ही-मन स्त्री-हृदय के अनुकूल मधुर कल्पना करने लगी।
आज उसे अपनी भूल पग-पग पर मालूम हो रही थी। उसने उत्साह से कहा-अब विलंब नहीं।
दूर से धूल उड़ाती हुई मोटर आ रही थी। ड्राइवर के पास एक पांडेजी बंदूक लिए बैठे थे। पीछे श्यामदुलारी और माधुरी थीं।
टीले के नीचे मोटर रुकी। चमड़े का छोटा-सा बेग हाथ में लिए फुरती से शैला उतरी। वह जाकर माधुरी से सटकर बैठ गई।
माधुरी ने पूछा – और कुछ सामान नहीं क्या ?
नहीं तो।
तो फिर चलना चाहिए।
शैला ने कुछ सोचकर कहा-आपने तहसीलदार को साथ में नहीं लिया। बिना उसके वह काम, जो आप करना चाहती हैं, हो सकेगा ?
क्षण-भर के लिए सन्नाटा रहा। माधुरी कुछ कहना चाहती थी। श्यामदुलारी ने ही कहा-हाँ, यह बात तो मैं भी भूल गई। उसको रहना चाहिए।
तो आप एक चिट लिख दें। मैं यहीं नील-कोठी के चपरासी के पास छोड़ आती हूँ। वह जाकर दे देगा। कल तहसीलदार बनारस पहुंचेगा।
श्यामदुलारी ने माधुरी को नोट-बुक से पन्ना फाड़कर उस पर कुछ लिखकर दे दिया। शैला उसे लेकर ऊपर चली गई।
श्यामदुलारी ने माधुरी को देखकर कहा-हम लोग जितना बुरी शैला को समझती थीं उतनी तो नहीं है, बड़ी अच्छी लड़की है।
माधुरी चुप थी ! वह अब भी शैल को अच्छा स्वीकार करने में हिचकती थी।
शैला ऊपर से आ गई। उसके बैठ जाने पर हार्न देती हुई मोटर चल पड़ी।
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