चैप्टर 18 तितली जयशंकर प्रसाद का उपन्यास | Chapter 18 Titli Jaishankar Prasad Novel In Hindi

चैप्टर 18 तितली जयशंकर प्रसाद का उपन्यास | Chapter 18 Titli Jaishankar Prasad Novel In Hindi

Chapter 18 Titli Jaishankar Prasad Novel In Hindi

Chapter 18 Titli Jaishankar Prasad Novel In Hindi

निर्धन किसानों में किसी ने पुरानी चादर को पीले रंग से रंग लिया, तो किसी की पगड़ी ही बचे हुए फीके रंग से रंगी है। आज बसंत-पंचमी है न ! सबके पास कोई न कोई पीला कपड़ा है। दरिद्रता में भी पर्व और उत्‍सव तो मनाए ही जाएंगे। महंगू महतो के अलाव के पास भी ग्रमीणों का एक ऐसा ही झुंड बैठा है। जौ की कच्‍ची बालों को भूनकर गुड़ मिलाकर लोग ‘नवान’ कर रहे हैं, चिल ठंडी नहीं होने पाती। एक लड़का, जिसका कंठ सुरीला था, बसंत गा रहा था –

मदमाती कोयलिया डार-डार

दुखी हो या दरिद्र, प्रकृति ने अपनी प्रेरणा से सबके मन में उत्‍साह भर दिया था। उत्‍सव मनाने के लिए, भीतर की उदासी ने ही मानो एक नया रूप धारण कर लिया था। पश्चिमी पवन के पके हुए खेतों पर से सर्राटा भरता और उन्‍हें रौंदता हुआ चल रहा था। बूढ़े महंगू के मन में भी गुद-गुदी लगी। उसने कहा-दुलरवा, ढोल ले आ, दूसरी जगह तो सुनता हूँ कि तू बजाता है, अपने घर काज-त्‍योहार के दिन बजाने में लजाता है क्‍या रे ?

दुलारे धीरे-से उठकर घर में गया। ढोल और मंजीरा लाया। गाना जमने लगा। सब लोग अपने को भूलकर उस सरल विनोद में निमग्‍न हो रहे थे।

तहसीलदार ने उसी समय आकर कहा-महंगू !

सभा विश्रृंखल हो गई। गाना-बजाना रुक गया। उस निर्दय यमदूत के समान तहसीलदार से सभी कांपते थे। फिर छावनी पर उसे न बुलाकर स्‍वयं महंगू के यहाँ उनके अलाव पर खड़ा था। लोग भयभीत हो गए। भीतर से जो स्त्रियां झांक रही थीं उनके मुँह छिप गए। लड़के इधर-उधर हुए, बस जैसे आतंक में त्रस्‍त !

महंगू ने कहा-सरकार ने बुलाया है क्‍या ?

बेचारा बूढा घबरा गया था।

सरकार को बुलाना होता तो जमादार आता। महंगू ! में क्‍यों आता हूँ जानते हो ! तुम्‍हारी भलाई के लिए तुम्‍हें समझाने आया हूँ।

तुम्‍हारे यहाँ मलिया रहती है न। तुम जानते हो कि वह बीबी-रानी छोटी सरकार का काम करती थी। वह आज कितने दिनों से नहीं जाती। उसको उकसाकर बिगाड़ना तो नहीं चाहिए। डांटकर तुम कह देते कि ‘जा, काम कर’ तो क्‍या वह न जाती ?

मैं कैसे कह देता तहसीलदार साहब। कोई मजूरी करता है तो पेट भरने के लिए, अपनी इज्‍जत देने के लिए नहीं। हम लोगों के लिए दूसरा उपाय ही क्‍या है। चुपचाप घर भी न बैठे रहें।

देखो महंगू, ये सब बातें मुँह से न निकालनी चाहिए। तुम जानते हो कि…

मैं जानता हूँ कि नहीं, इससे क्‍या ? वह जाय तो आप लिवा जाइए। मजूरी ही तो करेगी। आपके यहाँ छोड़कर मधुबन बाबू के यहाँ काम करने में कुछ पैसा बढ़ तो जायगा नहीं। हाँ, वहाँ तो उसका बोझ लेकर शहर भी जानापड़ता है। आपके यहाँ करे तो मेरा क्‍या ? पर हाँ, जमींदार मां-बाप हैं। उनके यहाँ ऐसा …

मधुबन बाबू। हूँ, कल का छोकरा ! अभी तो सीधी तरह धोती भी नहीं पहन सकता था। ‘बाबा’ तो सिखाकर चला गया। उसका मन बहक गया है। उसको भी ठीक करना होगा। अब मैं समझ गया। महंगू ! मेरा नाम तुम भी भूल गए हो न ?

अच्‍छा, आपसे जो बने, की लीजिएगा। मैंने क्‍या किसी की चोरी की है या कहीं डाका डाला है ? मुझे क्‍यों धमकाते हैं ?

महंगू भी अपने अलाव के सामने आवेश में क्‍यों न आता ? उसके सामने उसकी बखारे भरी थीं। कुंडों में गुड़ था। लड़के पोते सब काम में लगे थे। अपमान सहने के लिए उसके पास किसी तरह की दुर्बलता न थी। पुकारते ही दस लाठियां निकाल सकती थीं। तहसीलदार ने समझ-बूझकर धीरे-से प्रस्‍थान किया।

महंगू जब आपे में आया तो उसको भय लगा। वह लड़कों को गाने-बजाने के लिए कहकर बनजरिया की ओर चला। उस समय तितली बैठी हुई चावल बिन रही थी, और मधुबन गले में कुरता डाल चुका था कहीं बाहर जाने के लिए। मलिया, एक डाली मटर की फलियां, एक कद्दू और कुछ आलू लिए हुए मधुबन के खेत से आ रही थी। महंगू ने जाते ही कहा-मधुबन बाबू ! मलिया को बुलाने के लिए छावनी से तहसीलदार साहब आए थे। वहाँ उसे न जाने से उपद्रव मचेगा।

तो उसको मना कौन करता है, जाती क्‍यों नहीं ?- कहकर मधुबन ने जाने के लिए पैर बढ़ाया ही था कि तितली ने कहा- वाह, मलिया क्‍या वहाँ मरने जाएगी !

क्‍यों जब उसको छावनी के काम करने के लिए, फिर से रख लेने के लिए, बुलावा आ रहा है, तब जाने में क्‍या अड़चन है ? रुकते हुए मधुबन ने पूछा।

बुलावा आ रहा है, न्‍योता आ रहा है। सब तो है, पर यह भी जानते हो कि वह क्‍यों वहाँ से काम छोड़ आई है ? वहाँ जाएगी अपनी इज्‍जत देने ? न जाने कहाँ का शराबी उनका दामाद आया है। उसने तो गांव भर को ही अपनी ससुराल समझ रखा है। कोई भलामानस अपनी बहू-बेटी छावनी में भेजेगा क्‍यों ?

महंगू ने कहा-हाँ बेटी, कह रही हो। पर हम लोग जमींदार से टक्‍कर ले सकें, इतना तो बल नहीं। मलिया अब मेरे यहाँ रहेगी तो तहसीलदार मेरे साथ कोई-न-कोई झगड़ा-झंझट खड़ा करेगा। सुना है कि कुंवर साहब तो अब यहाँ रहते नहीं। आज-कल औरतों का दरबार है। उसी के हाथ में सब-कुछ है।

मधुबन चुप था। तितली ने कहा-तो उसे यहीं रहने न दो, देखा जाएगा। महंगू ने वरदान पाया। वह चला गया।

मलिया दूर खड़ी सब सुन रही थी। उसकी आंखों से आंसू निकल रहा था। तितली ने कहा-रोती क्‍यों है रे, यहीं रह, कोई डर नहीं, तुझे क्‍या कोई खा जाएगा ? जा-जा देख, ईंधन की लकड़ी सुखाने के लिए डाल दी गई है, उठा ला।

मलिया आंचल से आंसू पोंछती हुई चली गई। उसका चाचा भी मर गया था। अब उसका रक्षक कोई न था। तितली ने पूछा-अब रुके क्‍यों खड़े हो ? नील-कोठी जाना था न ?

जाना तो था। जाऊंगा भी। पर यह तो बताओ, तुमने यह क्‍या झंझट मोल ली। हम लोग अपने पैर खड़े होकर अपनी ही रक्षा कर लें यही बहुत है। अब तो बाबाजी की छाया भी हम लोगों पर नहीं है। राजो बुरा मानती ही है। मैंने शेरकोट जाना छोड़ दिया। अभी संसार में हम लोगों को धीरे-धीरे घुसना है। तुम जानती हो कि तहसीलदार मुझसे तो बुरा मानता ही है।

तो तुम डर रहे हो !

डर नहीं रहा हूँ। पर क्‍या आगा-पीछा भी नहीं सोचना चाहिए। बाबाजी तो काशी चले गए संन्‍यासी होने, विश्राम लेने। ठीक ही था। उन्‍होंने अपना काम-काज का भार उतार फेंका। पर यदि मैं भूलता नहीं हूँ तो उन्‍होंने जाने के समय हम लोगों को जो उपदेश दिया था उसका तात्‍पर्य यही था कि मनुष्‍य के जान-बूझकर उपद्रव मोल न लेना चाहिए। विनय और कष्ट सहन करने का अभ्‍यास रखते हुए भी अपने को किसी से छोटा न समझना चाहिए, और बड़ा बनने का घमंड भी अच्‍छा नहीं होता। हम लोग अपने कामों से ही भगवान को शीघ्र कष्‍ट पहुंचाने और उन्‍हें पुकारने लगते हैं।

बस करो। मैं जानती हूँ कि बाबाजी इस समय होते तो क्‍या करते और मैं वही कर रही हूँ जो करना चाहिए। मलिया अनाथ है। उसकी रक्षा करना अपराध नहीं। तुम कहाँ जा रहे हो ?

जाने को तो मैं इस समय छावनी पर ही था, क्‍योंकि सुना है, वहाँ एक पहलवान आया है, उसकी कुश्‍ती होने वाली है, गाना-बजाना भी होगा। पर अब मैं वहाँ न जाऊंगा, नील-कोठी जा रहा हूँ।

जल्‍द आना, दंगल देख आओ। खा-पीकर नील-कोठी चले जाना। आज बसंत-पंचमी की छुट्टी नहीं है क्‍या? -तितली ने कहा।

अच्‍छा जाता हूँ-कहता हुआ अन्‍यमनस्‍क भाव से मधुबन बन‍जरिया के बाहर निकला। सामने ही रामजस दिखाई पड़ा। उसने कहा-मधुबन भइया, कुश्‍ती देखने न चलोगे ?

अकेले तो जाने की इच्‍छा नहीं थी, पर जब तुम भी आ गए तो उधर ही चलूंगा।

भइया ! लंगोट ले लूं।

अरे क्‍या मैं कुश्‍ती लडूंगा ? दुत !

कौन जाने कोई ललकार ही बैठे।

इस समय मेरा मन कुश्‍ती लड़ने लायक नहीं।

वाह भइया, यह भी एक ही रही। मन लड़ता है कि हाथ-पैर। मैं देख आया हूँ उस पहलवान को। हाथ मिलाते ही न पटका आपने तो जो कहिए मैं हारता हूँ।

मधुबन अब कुश्‍ती नहीं लड़ सकता रामजस ! अब उसे अपनी रोटी-दाल से लड़ना है।

तो भी लंगोट लेते चलने में कोई …

अरे तो क्‍या मैं लंगोट घर छोड़ आया हूँ। चल भी हंसते हुए मधुबन ने रामजस को एक धक्‍का दिया, जिसमें यौवन के बल का उत्‍साह था। रामजस गिरते-गिरते बचा।

दोनों छावनी की ओर चले।

छावनी में भीड़ थी। अखाड़ा बना हुआ था। चारों ओर जनसमूह खड़ा और बैठा था। कुरसी पर बाबू श्‍यामलाल और उसके इष्‍ट-मित्र बैठे थे। उनका साथी पहलवान लुंगी बांधे अपनी चौड़ी छाती खोले हुए खड़ा था। अभी तक उसने लड़ने के लिए कोई भी प्रस्‍तुत न था। पास के बांव के दो-चार वेश्‍याएं भी आम के बौर हाथ में लिए, गुलाल का टीका लगाए, वहाँ बैठी थीं-छावनी में वसंत गाने के लिए आई थीं। यही पुराना व्‍यवहार था। परंतु इंद्रदेव होते तो बात दूसरी थी। तहसीलदार ने श्‍यामलाल बाबू का आतिथ्‍य करने के लिए उनसे जो कुछ हो सका था, आमोद-प्रमोद का सामान इकट्ठा कर लिया था। सवेरे ही सकबी केसरिया बूटी छनी थी। श्‍यामलाल देहाती सुख में प्रसन्‍न दिखाई देते थे। उन्‍हें इस बात का गर्व था कि उनके साथी पहलवान से लड़ने के लिए अभी तक कोई खड़ा नहीं हुआ। उन्होंने मूंछ मरोरते हुए कहा- रामसिंह, तुमसे यहाँ कौन लड़ेगा जी। यहीं अपने नत्‍थू से जोर करके दिखा दो! सब लोग आए हुए हैं।

अच्‍छा सरकार! – कहकर रामसिंह ने साथी नत्‍थू को बुलाया। दोनों अपने दांव-पेंच दिखाने लगे।

रामजस ने कहा – क्‍यों भइया, यह हम लोगों को उल्‍लू बनाकर चला जाएगा?

मधुबन धीरे-से हुंकार कर उठा। रामजस उस हुंकार से परिचित था। उसने युवकों की-सी चपलता से आगे बढ़कर कहा- सरकार! हम लोग देहाती ठहरे; पहलवानी क्‍या जानें! पर नत्‍थू से लड़ने को तो मैं तैयार हूँ।

सब लोग चौंककर रामजस को देखने लगे। दांव-पेंच बंद करके रामसिंह ने भी रामजस को देखा। वह हंस पड़ा।

जाओ, खेत में कुदाल चलाओ लड़के ! रामसिंह ने व्‍यंग्‍य से कहा।

मधुबन से अब न रहा गया। उसने कहा – पहलवान साहब, खेतों का अन्‍न खाकर ही तुम कुश्‍ती लड़ते हो।

पसेरी भर अन्‍न खाकर कुश्‍ती नहीं लड़ी जाती भाई ! सरकार लोगों के साथ माल चबाकर यह कसाले का काम किया जाता है। दूसरे पूत से हाथ मिलाना, हाड़-से हाड़ लड़ाना, दिल्‍लगी नहीं है।

मैं तो इसे ऐसा ही समझता हूँ।

तो फिर आ जा न मेरे यार ! तू भी यह दिल्‍लगी देख !

रामसिंह के इतना कहते ही मधुबन सचमुच कुरता उतार, धोती फेंककर अखाड़े में कूद पड़ा। सुंदरियां उस देहाती युवक के शरीर को सस्‍पृह देखने लगीं। गांव के लोगों में उत्‍साह-सा फैल गया। सब लोग उत्‍सुकता से देखने लगे ! और तहसीलदार तो अपनी गोल-गोल आंखों में प्रसन्‍नता छिपा ही न सकता था। उसने मन में सोचा-आज बच्‍चू की मस्‍ती उतर जाएगी।

रामसिंह और मधुबन में पैतरे, दांव-पेंच और निकस-पैठ इतनी विचित्रता से होने लगी कि लोगों के मुँह से अनायास ही ‘वाह-वाह’ निकल पड़ता। रामसिंह मधुबन को नीचे ले आया। वह घिस्‍सा देकर चित करना ही चाहता था कि मधुबन ने उसका हाथ दबाकर ऐसा धड़ उड़ाया कि रामसिंह की छाती पर बैठ गया। हल्‍ला मच गया। देहातियों ने उछलकर मधुबन को कंधे पर बिठा लिया।

श्‍यामलाल का मुँह तो उतर गया, पर उन्‍होंने अपनी उंगली से अंगूठी निकालकर, मधुबन को देने के लिए बढ़ाई। मधुबन ने कहा – मैं इनाम क्‍या करूंगा – मेरा तो यह व्‍यवसाय नहीं है। आप लोगों की कृपा ही बहुत है।

श्‍यामलाल कट गए। उन्‍हें हताश होते देखकर एक वैश्‍या ने उठकर कहा – मधुबन बाबू ! आपने उचित नहीं किया। बाबूजी तो हम लोगों के घर आए हैं, इनका सत्‍कार तो हमीं लोगों को करना चाहिए। बड़े भाग्य से इस देहात में आ गए हैं न !

श्‍यामलाल जब उसकी चंचलता पर हंस रहे थे, तब उस युवती मैना ने धीरे से अपने हाथ का बौर मधुबन की ओर बढ़ाया, और सचमुच मधुबन ने उसे ले लिया। यही उसका विजय चिन्‍ह था।

तहसीलदार जल उठा। वह झुंझला उठा था, कि एक देहाती युवक बाबू साहब को प्रसन्‍न करने के लिए क्‍यों नहीं पटका गया। उसे अपने प्रबंध की यह त्रुटि बहुत खली। छावनी के आंगन में भीड़ बढ़ रही थी। उसने कड़ककर कहा – अब चुपचाप सब लोग बैठ जायं। कुश्‍ती हो चुकी है। कुछ गाना-बजाना भी होगा।

श्‍यामलाल को यह अच्‍छा तो नहीं लगता था, क्‍योंकि उनका पहलवान पिट गया था; पर शिष्‍टाचार और जनसमूह के दबाव से वह बैठे रहे। अनवरी बगल में बैठी हुई उन पर शासन कर रही थी। माधुरी भीतर चिक में उदास भाव से यह सब उपद्रव देख रही थी। श्‍यामदुलारी एक ओर प्रसन्‍न हो रही थीं, दूसरी ओर सोचती थीं। – इंद्रदेव यहाँ क्‍यों नहीं है।

जब मैना गाने लगी तो वहाँ मधुबन और रामजस दोनों ही न थे। सुखदेव चौबे तो न जाने क्‍यों मधुबन की जीत और उसके बल को देखकर कांप गए। उसका भी मन गाने-बजाने में न लगा। उन्‍होंने धीरे से तहसीलदार के कान में कहा – मधुबन को अगर तुम नहीं दबाते, तो तुम्‍हारी तहसीलदारी हो चुकी। देखा न !

गंभीर भाव से सिर हिलाकर तहसीलदार ने कहा – हूँ।

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