चैप्टर 18 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 18 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
Chapter 18 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
Table of Contents
प्रभावती, धीरे-धीरे, सँभलती हुई चली। हृदय को भरकर लहराते हुए नए उच्छ्वास पुलकित कर राजकुमार की ओर प्रेरित कर रहे हैं। उत्सुकता शीघ्रता कर रही है, पर धैर्य और बोध बाँध रहे हैं। आनन्द को चरणों की गति से निकलने की बाधा मिली, तो दृष्टि से छलकने लगा। वहाँ के समस्त दृश्य रँगे हुए, जैसे राजकुमार की तरह आदर देने को खड़े हैं। एकान्त में देह से लिपटते हुए हवा के झोंके प्राणों को उभाड़ते हुए, दबाव को दूर करते हुए, पहले से ही प्रिय का मधुर सन्देश कह रहे हैं।
प्रभावती चलती गई, उस भवन के पीछे से बगल में आई, बगल से सामने। सामने मन्द-क्षेप सोपान पर चढ़ने लगी। निराभरण, भाव-भारा, दोलितान्तः करण। खम्भों की आड़ से प्रकाश की ओर बढ़ती गई, खम्भों की तीन कतारें पारकर एक बगल से देखा-राजकुमार मुद्रित-नयन पड़े हुए हैं। उनके पार्श्व में एक दूसरे आसन पर एक सुन्दरी बैठी हुई है। मुख राजकुमार की ओर, पीठ सोपानों की तरफ। सुगन्ध दीपक की कई शिखाएँ जल रही है, तरुणी कुछ देखने में तन्मय है।
प्रभा धीरे-धीरे एक बगल हटती गई, वहाँ से सुन्दरी का दक्षिण पार्श्व अच्छी तरह दिखने लगा। प्रभा ने अनुमान किया-‘यह दीदी यमुना की छोटी बहन रत्नावली होगी। वेश-भूषणों से राजकुमारी लगती है।’ स्तब्ध खड़ी रही।
भिखारी से खरीदी मोतियों की माला पहने हुए सुन्दरी हृदय पर रहनेवाला उसी का क्षुद्र हीरक-पान पूरे आश्चर्य से देख रही थी। उसके दूसरी ओर ‘देव’ लिखा था। ये कुमार देव थे, यह सुन्दरी मालूम कर चुकी थी। यह माला कुमार ‘देव’ की है, यह अब मालूम हुआ। यमुना की घटना से प्रेमवैचित्र्य में पड़कर कुमारी एक कवयित्री की तरह उस देश के अज्ञात युवक को भी प्यार करती थी, राजकुमार को एकाएक प्राप्त कर उसने अपना सौभाग्य ही माना था। आज माला देखकर ऐसा मालूम हुआ, जैसे देवता पहले से प्रसन्न होकर हृदय में आ विराजे हों। भरकर हृदय के अन्तःपुर से निकली और कुमार को देखने लगी।
एकाएक कुमार ने भी पलकें खोलीं, दृष्टि कुमारी की माला पर गई। समझकर जैसे उसने कहा, “यह माला आपकी है। मैंने एक भिक्षुक से खरीदी है।”
राजकुमार ने मन्द स्वर से कहा, “मैंने एक दूसरी माला के लिए, बदले में यह माला दी थी।” कहकर प्रभावतीवाली माला की लड़ी पकड़कर उठाई। झुककर रत्नावली पान पढ़ने लगी। ‘प्रभावती’ लिखा था।
एक बार सारा संसार रहस्यमय मालूम दिया। जिसने उसके हृदय को इतने स्वप्नों से रँगा था, इच्छा प्राप्ति का इतना बड़ा विश्वसनीय प्रमाण दिया था, उसी ने एकाएक साबित कर दिया कि वह सोची हुई सारी कविता, वह पाया हुआ समस्त प्रमाण झूठा था, यमुना का घटनाक्रम उसके जीवन का घटनाक्रम नहीं बन सकता। यमुना को जहाँ सफलता मिली, उसे वहाँ पूरी असफलता हुई। कुमारी स्तब्ध बैठी सोचती रही। वह प्रभावती की जगह ले, कितना पतन उसके स्त्रीत्व का साबित होगा!- वह देवी यमुना की बहन कहलाने योग्य न रहेगी! छिः छिः!!
प्रभा के लिए राजकुमार के अकृत्रिम भाव का इससे अधिक पुष्ट और क्या प्रमाण होगा? प्रभा का सारा आनन्द सरोवर की लहरों की तरह हृदय के तटों में बंधा रहा। इससे अधिक सुख परिणीता के लिए क्या होगा?”
रत्नावली निश्चय के साथ गम्भीर हो गई। जीवन का जो उपाय एक को उठाता है, वह दूसरे को गिरा देता है; कमल सूर्य को पाकर खिलता है, पर वह नियम जूही के लिए नहीं। जूही रात्रि के अन्धकार में हँसती है।
राजकुमार शून्य दृष्टि से रत्नावली को देख रहे थे।
एक ही क्षण में जैसे रत्नावली की कुमारी सुलभ भावनाएँ बदल गई। स्थिर सहृदय कंठ से पूछा, “कुमार, आप क्यों कैद किए गए, अभी तक मैंने आपसे नहीं पूछा, आपकी हालत अच्छी नहीं थी, इसलिए।”
“प्रभावती मुझे चाहती थी। पर उनके पिता बलवन्त से उन्हें ब्याहना चाहते थे।” कुमार धीरे-धीरे कह रहे थे। रत्नावली ने पूछा, “भाईसाहब तो कई विवाह कर चुके हैं। फिर भी इन्हीं से आग्रह क्यों?”
“राजनैतिक कारण कह सकते हैं।” कहकर कुमार चुप हो गए।
“फिर?” साग्रह राजकुमार को देखती हुई रत्नावली ने पूछा।
“फिर विवाह की रात नाव पर मैं कैद हुआ। यमुना देवी वहीं प्रभावती के पास थीं। हमारी नाव जा रही थी, बलवन्त की नाव, जिस पर महेश्वरसिंह भी थे, आ रही थी। पिता के सम्मान के विचार से प्रभावती गंगा में कूद गई। अपशब्द कहने पर बलवन्त पर क्रोध से यमुना देवी ने भाला चला दिया। वे बच गए, पर एक सिपाही घायल हो गया। सम्भव, काम आ गया हो। फिर प्रभावती की रक्षा के विचार से वे भी गंगा में कूद गईं। वार मुझ पर हुए। मैं घायल हो गया। फिर नहीं मालूम”” राजकुमार धीरे-धीरे कहते हुए चुप हो गए। रत्नावली चित्रार्पित-जैसी स्थिर बैठी इस प्रसंग पर सोचती रही। अपने पर बड़ी ग्लानि हुई।
कुछ काल बाद, राजकुमार की शान्ति में विघ्न न हो, इस विचार से, परिचारिकाओं को भेज देने के लिए उठी। रात अधिक हो चुकी थी, इसका भी ख्याल था और भावी कार्यक्रम की रचना का भी।
रत्नावली ने उठते ही प्रभावती जल्द-जल्द सोपान से नीचे उतरकर एक बगल खड़ी हो गई। रत्नावली धीरे-धीरे उतर रही थी। सामने छायाकार अज्ञात किसी को देखकर चौंकी। चांदनी निकल आई थी। रत्नावली चोर के भय से त्रस्त न हो, इस विचार से प्रभा चाँदनी में आकर खड़ी हो गई।
“कौन हो?” रत्नावली ने पूछा।
“इधर आओ, शब्द न करो, यमुना देवी ने सम्वाद भेजा है।”
देवी यमुना को इस समय सहायता की जरूरत होगी, यह कल्पना कर रत्नावली बढ़ गई। पास जाकर देखा, स्त्री है। फिर पूछा, “तुम कौन हो?”
“मैं यमुना की दासी हूँ।”
“तुम्हारा नाम?”
“आभा।”
“आभा?”
“जी।”
“प्रभावती को तुम जानती हो?”
“जानती हूँ।”
“इस समय वे कहाँ हैं?”
“कान्यकुब्ज में।”
“तुम आईं किस तरह?”
“दीवार के ऊपर से, रस्सी की सीढ़ी से होकर।”
“सिपाही ने नहीं देखा?”
“देखा है, पर देवी यमुना के नाम से आने दिया।”
“यहाँ किससे तुम्हारा काम है?”
“आपसे।”
“या राजकुमार से?”
“आपसे न मिलती तो राजकुमार से होता।”
“क्यों?”
“इसलिए कि लाचारी होती। कुमार के घाव भर रहे हैं। यमुना देवी और प्रभावती के जीवित रहने का सम्वाद हर्ष का कारण होता, घावों को क्षति पहुँचती है।
“क्या काम है?”
“महेश्वरसिंह स्वार्थवश बलवन्त से प्रभावती का विवाह करना चाहते थे। लालगढ़ के महेन्द्रपाल से पहले का वैमनस्य आपको मालूम है। बलवन्त के कहने से महेश्वरसिंह ने यह प्रमाण दिया है कि जबरन कुमार देव ने प्रभावती का हरण किया, जब वे नाव में विहार कर रही थीं। ऐसा खासतौर से बलवन्त को नीचा दिखाने के लिए किया। प्रभावती का विवाह बलवन्त से हो रहा है, यह प्रसिद्धि फैल चुकी थी। महेन्द्रपाल कैद कर लिए गए हैं। उपयुक्त प्रमाण न पहुँचे तो जल्द उनके शिरश्छेद की आज्ञा निकलेगी। सम्भव, किला भी जब्त किया जाए।”
‘”हाँ, यह तो ठीक है।” सोचती हुई रत्नावली बोली, “कुमार देव के स्वास्थ्य पर इसका भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।”
“जी।”
“अच्छा, आओ, मेरे साथ रहो।”
‘”जी नहीं, मुझे आज ही यहाँ से जाना है।”
“तुमसे वहाँ कहाँ मुलाकात हो सकती है। मैं दीदी को एक बार देखना चाहती हूँ।”
“स्थान का निश्चय नहीं। इसलिए ठीक तौर से नहीं कह सकती। उनसे आपका सम्वाद कह सकती हूँ।”
स्थिर दृष्टि से प्रभा को देखती हुई-“तुम उनके पास से आई हो, इसका क्या प्रमाण है?” कुछ तेज गले से राजकुमारी ने पूछा।
तत्काल प्रभा अँगूठी निकालकर दिखाती हुई बोली, “यह, प्रभावती को मिली कुमार की अंगूठी देते हुए उन्होंने कहा था, पहचान के लिए यह काफी है।”
हाथ में लेकर चाँदनी में चमकते अक्षर पढ़कर, स्थिर भाव से देती हुई रत्नावली बोली, “हाँ, ठीक है। पर, तुम्हारी दृष्टि और जवान दासी की नहीं जान पड़ती।”
प्रभावती चौंकी। सँभलकर बोली, “मुझे उन्हीं से शिक्षा मिली है।”
“क्या गंगा पार करते समय वे कोई दासी भी ले गई थीं?”
“नहीं, बाद को मिली।”
“अच्छा!” साँस छोड़कर रत्नावली बोली, “मेरा प्रणाम कहना, और कहना, चिन्ता न करें।”
चलकर प्रभा ने देखा, जिस सीढ़ी से वह उतरी थी, वह नहीं है। दीवार इतनी ऊँची है कि वह चढ़ नहीं सकती। चारों ओर घूमकर, देखकर, लौट आई।
कुछ देर तक खड़ी सोचती रही। किधर से निकले, कुछ समझ न सकी। राजकुमार के पास उन्हीं के हित के विचार से नहीं जाना चाहती। उनकी हालत भी अभी तक ऐसी नहीं हुई कि वे खुद इस विपत्ति में कुछ प्रतिकार कर सकें। अन्त में निश्चय किया कि रात का संकेत-चिह्न मालूम ही है, कुमार के मकान के सामने से जो रास्ता गया है, उसी से बाहर निकलेगी, पकड़ गई तो जो होगा, होगा। चल दी। रात का तीसरा पहर था। कई जगह सिपाहियों ने टोका। पर ‘रत्नावली की दासी और वज्र’ सुनकर सबने छोड़ दिया। ईश्वरेच्छा से वह रास्ता सरायन के घाटवाले फाटक की ओर गया था। फाटक से बाहर निकलकर घाट के बाई ओर से अपने स्थान की तरफ चली। सरायन का किनारा देखे रही। बढ़ती हुई अपनी जगह पर आई। देखा, सिर्फ उसी का घोड़ा बँधा है। बड़ा आश्चर्य हुआ। दीदी प्राण रहते छोड़ जानेवाली न थीं। निश्चय किया, कोई बड़ी घटना हुई है। पर मालूम करने का उपाय न था। थक गई थी। पलकें मुँदी आ रही थीं। आशा थी कि दीदी कहीं गई होंगी तो सुबह तक लौट आएँगी। प्रतीक्षा करनी चाहिए। इसी विचार से हरित तृण-संकुल तट पर धीरे से लेट रही। आँख लग गई।
क्रमश:
Prev | Next | All Chapters
अप्सरा सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास
नारी सिया रामशरण गुप्त का उपन्यास
प्रेमाश्रम मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास
अदल बदल आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास