चैप्टर 18 हृदयहारिणी किशोरी लाल गोस्वामी का उपन्यास | Chapter 18 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas

चैप्टर 18 हृदयहारिणी किशोरी लाल गोस्वामी का उपन्यास | Chapter 18 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas

Chapter 18 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas

Chapter 18 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas

अठारहवां परिच्छेद : विवाह

“विवाहान्न पर सौख्यम् ।”

पलासी की लड़ाई से निपट कर नरेन्द्रसिंह ने पहिले बड़े धूमधाम से पिता का वार्षिक श्राद्ध किया और यह श्राद्ध वङ्गदेश में ऐसा हुआ कि जिसकी गाथा आज भी स्त्रियां ग्राम्य गीतों में गाया करती हैं! इसके पश्चात लवङ्गलता का विवाह हुआ, दिनाजपुर से बड़े धूमधाम से बारात आई, और नरेन्द्र सिंह ने मदनमोहन के कर में स्वयं कन्यासम्प्रदान किया।

जिस समय दुलह-बहू-दोनों कोहबर में गए, उस समय कुसुम की विचित्र छेड़छाड़ ने खूब ही रंग जमाया!

अंत में उसने मुस्कुराकर मदनमोहन से कहा,-“बबुआजी! लोग बेटी दामाद को जहांतक बनता है, देते ही हैं, किन्तु मैं तुमसे इस अवसर पर कुछ मांगती हूँ! क्या मैं यह आशा कर सकती हूं कि तुम मुझे इस समय एक अदनी सी चीज़ के देने में आनाकानी न करोगे!”

मदन०,-[लज्जित हो] “आप यह क्या कह रही हैं!”

कुसुम,-“तो क्या तुम नाहीं करते हो!”

मदन०,-“जी नहीं, आप मुझे क्या आज्ञा करती हैं!”

कुसुम,-“तो पहिले तुम यह प्रतिज्ञा करो कि जो कुछ मैं चाहूंगी, उसे तुम अवश्य पूरा करोगे!”

मदन०,-“मैं शपथपूर्वक कहता हूं कि आप जो आज्ञा करेंगी, प्राण रहते उसे कभी न टालूंगा।”

कुसुम,-“शाबाश! चिरंजीवी होवो! अच्छा तो सुनो-मैं यही तुमसे चाहती हूं कि तुम दोनों बराबर साल में दो चार महीने यहां आकर रहा करना, जिसमें मेरा हिया ठंढा हो! सो भी इस तरह कि तीन चार महीने पीछे आए और महीना बीस दिन रह गए।

मदन०,-“आपकी इस आज्ञा को मैं बड़े सन्मान के साथ सिर चढ़ाता हूं।”

कुसुम,-“ईश्वर करे, यह जोड़ी जुग जुग जीए; दूधन नहाय, पूतन फले!”

इसके पश्चात लवंगलता रीतभांत पूरी करने के लिये ससुरार गई और पंद्रह दिन के भीतर ही मदनमोहन के साथ उसे नरेन्द्र ने माधवसिंह को भेजकर बुला लिया।

आज कुसुम का ब्याह है! श्रीकृष्णनगर के प्रतापशाली महाराज धनेश्वरसिंह की एकमात्र पुत्री कुसुम का आज शुभविवाह है। जिसने राजकन्या होकर भी दुर्दिन के पाले पड़, बाल्यजीवन के बहुत से दिन बड़े दुःख के साथ व्यतीत किए थे, उसी चिरदुःखिनी राजकुमारी कसुमकमारी का आज रंगपुर के महाराज नरेन्द्रसिंह के साथ परिणय है! आज चंपा के आनंद का वारापार नहीं है, क्योंकि उसने आज कसुम की मां और सास-दोनों का आसन ग्रहण किया हैऔर उसके लिये ऐसा क्यों न होता, जबकि उसने घोर दुर्दिन के समय में भी कुसुम या उसकी माता को नहीं छोड़ा था और जहांतक चाहिए, हाड़ मास गलाकर भरपूर उन दोनों की सेवा भी की थी; किन्तु इस आनन्द के समय भी उसकी आखें रह रह कर भर आती थीं; और उनका भरना केवल इसीलिये था कि, ‘आज कुसुम के इस अलौकिक सुख के देखने के लिये उसकी माता कमलादेवी जीवित न थीं।’ कुसुम भी रह रह कर आज मां के न रहने से रो उठती थी, पर चंपा और लवङ्गलता उसके जी को तरह तरह की बातों में भरमाकर उसे उदास होने से रोकने का भरपूर प्रयत्न करती थीं।

शुभ मुहूर्त में नरेन्द्रसिंह ने शास्त्रानुसार कुसुम का पाणिग्रहण किया और मंत्री माधवसिंह ने कन्या सम्प्रदान किया। यद्यपि कुसुम की पैतृक सम्पत्ति उसे मिल चुकी थी, यहांतक कि उसकी माता कीमामी ‘बिमला’ की जागीर भी उसे मिल गईथी, इसलिये नरेन्द्र ने उसे बहुत समझाया कि,-‘वह कृष्णनगर अपने पिता के घर, अथवा मुर्शिदाबाद अपनी नानी के घर पहिले से चली जाय और बारात वहीं पर जाय, तथा ब्याह हो।’ किन्तु माता के न रहने से कुसुम ने कहीं का जाना स्वीकार न किया, इसलिये घर के घर ही में उसकी इच्छा के अनुसार बिना विशेष आडंबर के नरेन्द्र ने उसका पाणिग्रहण किया।

बारात इत्यादि का विशेष झमेला तो न हुआ, किन्तु महफ़िल और ज्योनार बड़े धूमधाम से हुई और उस उत्सव में, लौर्ड क्लाइव, मिष्टर वाट्स आदि बड़े बड़े अंग्रेज़ सौदागर और नाममात्र के नवाब मीरजाफरखां भी निमन्त्रित होकर पधारे थे, जिनकी पहुनाई का सारा भार राजा मदनमोहन के जिम्मे था और उन्होंने उस काम को बड़ी उत्तमता के साथ पूरा किया और हंसी खुशी सब निमन्त्रित व्यक्ति अपने अपने घर गए।

इस उत्सव के आनंद में कुसुम ने विशेष कर नरेन्द्र ने चंपा को बहुत कुछ देना चाहा था, पर उसने कुसुम के साथ अपनी जिन्दगी बिता देने के अलावे और कुछ भी न चाहा और न लिया। यहांतक कि कुसुम ने, जो एक दिन उसे अपने गले से मोतियों का कंठा उतार कर देदिया था, आज चंपा ने सास के दर्जे से उसे कुसुम को मुंह दिखाई में पहिरा दिया।

सबसे बढ़कर इस महोत्सव में एक विचित्र घटना हुई, जिससे कुसुम नरेन्द्र को साक्षात देवता से भी बढ़कर समझने और भक्ति करने लगी। वह बात यह है कि विवाह के एक दिन पहिले, नरेन्द्र कुसम का हाथ पकड़े हुए उसे एक कमरे में ले गए, जहां पर बडे हिफ़ाज़त के साथ वे सब टोपियां शीशे की इलामारियों में सजी हुई थीं, जिन्हें नरेन्द्र ने बातें बनाकर उससे बनवाई थी, और कपड़े के अलावे प्रत्येक टोपी की सिलाई के पांच रुपए दिए थे। यह रहस्य आज तक कुसुम से छिपा हुआ था, सो आज अपने हाथ को सौं हुई सब टोपियों को एक जगह हिफ़ाज़त के साथ रक्खी देखकर वह बहुत ही चकित हुई, किन्तु फिर तो नरेन्द्र की कार्रवाई का हाल वह तुरंत समझगई और आंखों में आंसू भर उन के पैरों पर गिरने लगी। नरेन्द्र ने उसे रोककर गले लगा लिया और उस (कुसुम) ने आंसू टपकाते टपकाते कहा,-

“प्यारे! तुम देवता हो! सच मुच तुम प्रत्यक्ष देवता हो!!! अहा! इस दुःखिनी को तुम उसी समय से इतना चाहने लग गए थे! हाय! मैंने तुम्हारे ऐसे उन्नत हृदय का ऐसा अपूर्व परिचय अब तक नहीं पाया था!”

नरेन्द्र,-“प्यारी! सुनो तो सही, तुम-जैसी नारीरत्न के लिये जो कुछ किया जाय, थोड़ा होगा। प्रिये! सुगंधित कुसुम सिर चढ़ाने के योग्य होता है, न कि वह अनादर के साथ पैरों से ठुकराया जाय!”

कुसुम,-“सचमुच आज मैं धन्य हुई! भला, तो इन टोपियों का अब क्या किया जायगा!!!”

नरेन्द्र,-“जो तुम कहो?”

कुसुम,-“जैसा तुम्हें रुचे, सो करो।

नरेन्द्र -“मेरी तो इच्छा यह है कि ये टोपियां आज मेरे राज्य के मंत्री आदि प्रधान प्रधान कर्मचारियों को इसलिये बांटी जायं कि वे विवाह के उत्सव पर इन्हें पहिरें और फिर बराबरं वे लोग इसी टोपी को पहिर कर दरबार के समय राजसभा में आया करें। फिर जब जिनकी टोपी मैली होजायगी, उन्हें इन टोपियों में से नई टोपी दो जायगी; और मैं भी आज से इन्हीं टोपियों में की टोपी पहिरकर राजसभा में बैठा करूंगा।”

इस बात का उत्तर कुसुम ने तो कुछ भी न दिया, किन्तु उस की कृतज्ञ आंखों ने मोतियों का उपहार देकर अवश्य देदिया!

आखिर, टोपियां बांटी गई और सन्न राजकर्मचारियों ने बड़े आदर के साथ उसे पहिरा। उन टोपियों में इतनी विशेषता अवश्य को गई थी कि मन्त्री आदि जितने प्रधान-प्रधान कर्मचारियों को जो टोपियां दी गई थीं, उन टोपियों में पदाधिकारी को पद-मर्यादा के अनुसार मूल्यवान रत्न टांक दिए गए थे और वहुमूल्य हीरा नरेन्द्र ने अपनी टोपी में लगवाया था।

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