चैप्टर 17 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 17 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 17 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 17 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 17 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 17 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

 आर्या मातंगी : वैशाली की नगरवधू

नगर के बाहर एक बहुत पुराना सूना मठ था। यह मठ गोविन्द स्वामी के मठ के नाम से प्रसिद्ध था। गोविन्द स्वामी अब नहीं हैं, केवल उनकी गद्दी है। राजगृह के आबालवृद्ध उस गद्दी की आज भी पूजा करते हैं। गोविन्द स्वामी वेदपाठी ब्राह्मण थे और उनके तप और दिव्य ज्ञान की बहुत गाथाएं राजगृह में प्रसिद्ध हैं। यह मठ बहुत विस्तार में था। कहते हैं कि जब राजगृह विद्यापीठ की स्थापना नहीं हुई थी तब इसी मठ में रहकर देश-देश के वटुक षडंग वेद का अध्ययन करते थे। यह भी कहा जाता है कि वर्तमान सम्राट् बिम्बसार के पिता को इन्हीं गोविन्द स्वामी ने अश्वमेध यज्ञ कराकर सम्राट् की उपाधि दी थी। यह भी कहा जाता है कि राजगृह का शिशुनाग-वंश असुरों का है। उन्हें आर्य धर्म में गोविन्द स्वामी ही ने प्रतिष्ठित किया और सर्वप्रथम ‘सम्राटोऽयमिति सम्राटोऽयमिति’ घोषित करके शिशुनागवंशी राजा को देवपद दिया। तभी से मगध के सम्राट् को ‘देव’ कहकर पुकारते हैं। सम्राट् के पिता गोविन्द स्वामी की बहुत पूजा, अर्चना तथा सम्मान करते थे। वे सदैव पांव–प्यादे उनसे मिलने जाते थे। उन्हीं के जीवन–काल में गोविन्द स्वामी की मृत्यु हुई। उस समय उन्होंने एक अबोध आठ वर्ष की बालिका अपने पीछे छोड़ी। उसे सम्राट् के हाथ में सौंपकर कहा था-‘सम्राट् इसकी रक्षा का भार लें’ और सम्राट् ने कहा था—’मेरे पुत्र बिम्बसार के बाद यही कन्या मेरी पुत्री है। राजपुत्री की भांति ही उसका लालन-पालन होगा।’ परन्तु गोविन्द स्वामी ने कहा—’नहीं, नहीं सम्राट्! मातंगी का लालन-पालन ब्राह्मण-कन्या की ही भांति होना चाहिए और उसकी शिक्षा भी उसी प्रकार होनी चाहिए।’ गोविन्द स्वामी की इस पुत्री के अतिरिक्त उनका एक शिष्य ब्राह्मण कुमार था। वह किसका पुत्र था, यह कोई नहीं जानता। सभी जानते थे कि गोविन्द स्वामी के किसी अतिप्रिय स्वजन का वह बालक है। गोविन्द स्वामी के पास वह बहुत छोटी अवस्था से था। उसका नाम वर्षकार था। वर्षकार और मातंगी साथ-ही-साथ बाल्यकाल में रहे। गोविन्द स्वामी ने बालक वर्षकार को भी, जो उस समय 11 वर्ष का था, सम्राट् को सौंपकर कहा—”यह मेरे एक अतिप्रिय आत्मीय का पुत्र है, इसके लक्षण राजपुरुषों के हैं और एक दिन यह बालक तुम्हारे साम्राज्य का कर्णधार होगा। इसकी शिक्षा-दीक्षा, देखभाल सावधानी से करना और इसे मगध का महामात्य बनाना।” परन्तु गोविन्द स्वामी ने अत्यन्त सतर्कता से सम्राट् से वचन ले लिया था कि वर्षकार और मातंगी दोनों ही अन्ततः इस मठ में उस समय तक रहें, जब तक दोनों का विवाह उपयुक्त समय पर उपयुक्त पात्रों से न हो जाए। सम्राट् के सन्देह करने पर गोविन्द स्वामी ने यह भी कह दिया था कि मातंगी के साथ कदापि वर्षकार का विवाह नहीं हो सकता। परन्तु मातंगी का विवाह उसके वयस्क होने पर उसकी स्वीकृति से ही किया जाना चाहिए।

गोविन्द स्वामी मर गए और सम्राट् ने भृत्यों और उपाध्यायों की व्यवस्था करके वर्षकार और मातंगी की शिक्षा का प्रबन्ध कर दिया। इस बालक वर्षकार के सम्बन्ध में केवल एक पागल अपवाद करता सुना गया था। वह कभी राजगृह में दिखाई दे जाता और पुकार-पुकारकर कहता—”देखो-देखो, इस पाखण्डी गोविन्द स्वामी को—इस बालक का मुंह इससे कितना मिलता है!” इसके बाद वह उन्मुक्त हास करता कहीं को भाग जाता था। गोविन्द स्वामी इस पागल से बहुत डरते थे। वह राजगृह में आया है, यह सुनकर वे बहुधा विचलित हो जाते थे। बहुत लोग सन्देह करने लगे थे कि हो न हो इस पागल से इस बालक का कुछ सम्बन्ध अवश्य है। एक बार तो यह अपवाद इस प्रकार स्पष्ट हो गया कि इसी पागल की परिणीता पत्नी से गोविन्द स्वामी ने जार करके यह पुत्र उत्पन्न किया है। इस पर क्रुद्ध होकर उसने पत्नी को मार डाला है और स्वयं पागल हो गया है। जो हो, सत्य बात कोई नहीं जानता था। मरने के समय गोविन्द स्वामी ने मातंगी से वर्षकार के विवाह का निषेध किया—इससे लोगों में शंका और घर कर गई। परन्तु गोविन्द स्वामी ने सम्राट से अति गोपनीय रीति से यह बात कही थी, इसी से वह बालक-बालिका दोनों ने सुनी भी नहीं। वही आठ वर्ष की बालिका मातंगी और ग्यारह वर्ष का बालक वर्षकार बाल-लीला समाप्त कर किशोर हुए और यौवन के प्रांगण में आ पहुंचे। युवक वर्षकार की तीक्ष्ण बुद्धि, प्रबल धारणा और बलिष्ठ देह, शस्त्र और शास्त्र में उसकी एकनिष्ठ सत्ता देख सभी उसका आदर करते थे। सम्राट् उसे पुत्रवत् समझते और राजवर्गी लोग उसकी अभ्यर्थना करते। युवराज बिम्बसार उसके अन्तरंग मित्र हो गए थे। दोनों बहुधा अश्व पर आखेट के लिए जाते, तथा भांति-भांति की क्रीड़ा करते। परन्तु उधर भीतर-ही-भीतर अनंग रंग जमा रहा था। देवी मातंगी का यौवन विकास पा रहा था और दोनों बालसखा परस्पर दूसरे ही भाव से एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो रहे थे। यह देखकर सम्राट की चिन्ता बढ़ गई। परन्तु उन्होंने युवक-युवती से कुछ कहना ठीक नहीं समझा। केवल वर्षकार को राजकाज सीखने के बहाने मठ से हटाकर राजमहालय में बुलाकर रख लिया। वर्षकार महालय में रहने लगे, परन्तु इससे दोनों ही प्राणी वियोग-विदग्ध रहने लगे। देवी मातंगी का रूप-यौवन असाधारण था। निराभरणा तापसी के वेश में उसका शरीर तप्त कांचन की भांति दमकता था। युवराज बिम्बसार भी उस पर मन-ही-मन विमोहित हो, मठ में अधिक आने-जाने लगे थे। परन्तु शीघ्र ही वर्षकार ने ये आंखें ताड़ लीं और एक बार उन्होंने खड्ग नंगा करके कहा—”वयस्य युवराज, मगध का सम्पूर्ण साम्राज्य तुम्हारा है, केवल मातंगी मेरी है, इस पर दृष्टि मत देना। नहीं तो मेरे-तुम्हारे बीच यह खड्ग है।” बिम्बसार ने हंसकर और मित्र का हाथ पकड़कर कहा—”नहीं मित्र, मातंगी तुम्हारी ही रहे। चिन्ता न करो।” पीछे जब वर्षकार को सम्राट ने राजमहालय में बुलाकर रखा, तो युवराज को मातंगी के एकान्त साहचर्य का अधिक अवसर मिल गया। उनके ही अनुग्रह से वर्षकार भी अत्यन्त गुप्त भाव से मातंगी से मिलते रहते थे।

अकस्मात् मातंगी ने देखा कि वह गर्भवती है। वह अत्यन्त भयभीत हो गई। परन्तु गर्भ युवराज और वर्षकार दोनों में से किसके औरस से था, मातंगी ने यह भेद दोनों पर प्रकट नहीं किया। वर्षकार और युवराज दोनों ने मिलकर इस अवस्था को सम्राट् से छिपा लिया और जब शिशु का जन्म हुआ तो वर्षकार ने उसे हठ करके दासी द्वारा कूड़े के ढेर पर फेंक आने को कहा। उसे सन्देह था कि वह उसका पुत्र नहीं है। मातंगी ने बहुत निषेध किया, रोई-पीटी, पर वर्षकार ने एक न सुनी। दासी एक सूप में नवजात शिशु को लेकर कूड़े पर फेंक आई। दैवयोग से उधर ही से राजगृह के महावैज्ञानिक सिद्ध शाम्बव्य काश्यप जा रहे थे। घूरे पर लाल वस्त्र में लपेटी कोई वस्तु पड़ी देखकर और उस पर कौओं को मंडराता देख, उनके मन में यह जानने की जिज्ञासा हुई कि यह क्या है। निकट जाकर देखा, एक सद्यःजात शिशु मुंह में अंगूठा डालकर चूस रहा है, निकट ही स्वर्ण दम्म से भरी एक चमड़े की थैली भी पड़ी है। आचार्य ने शिशु को उठा लिया और उत्तरीय से ढांपकर अपने मठ में ले आए तथा लालन-पालन करने लगे। उन्हें शीघ्र ही यह भी पता लग गया कि वह आर्या मातंगी का पुत्र है। उन्होंने उन पर और युवराज पर यह बात प्रकट भी कर दी। युवराज भयभीत हुए, परन्तु आचार्य ने आश्वासन दिलाया कि चिन्ता न करो। वे यह भेद न खोलेंगे। बालक का भी अनिष्ट न होगा। युवराज बिम्बसार ने आचार्य को बहुत-सा स्वर्ण देकर सन्तुष्ट कर दिया। परन्तु वर्षकार के इस ईर्ष्यापूर्ण क्रूर कृत्य से मातंगी का हृदय फट गया। उसकी कोमल भावनाओं पर बड़ा आघात हुआ और वह एकान्त में उदासीन भाव से रहने लगी। युवराज भी वर्षकार से भयभीत रहने लगे, क्योंकि उसे युवराज पर अब पूरा सन्देह था। इसी बीच सम्राट् की मृत्यु हो गई। मरने के समय उन्होंने युवराज बिम्बसार और वर्षकार को मृत्युशैया के निकट बुलाकर दो बातें कहीं। एक यह कि वर्षकार बिम्बसार के महामात्य होंगे। दूसरे अपने राज्य के तीसरे वर्ष बिम्बसार देवी मातंगी का उनकी पसन्द के वर से विवाह करके उन्हें आजीविका को अस्सी ग्राम दे दें। साथ ही एक पत्र गुप्तभाव से युवराज को देकर कहा—इसे तुम राज्यारोहण के तीन वर्ष बाद खोलना। तब मातंगी का विवाह करना।

सम्राट् मर गए। बिम्बसार सम्राट् और वर्षकार उनके महामात्य हुए। वर्षकार अब खुल्लमखुल्ला मठ में जाकर देवी मातंगी से मिलने लगे। मातंगी ने वर्षकार से विवाह करने का आग्रह किया। परन्तु वर्षकार ने कहा—”स्वर्गीय सम्राट् ने हमारे पूज्य पिता गोविन्द स्वामी के आदेश से यह व्यवस्था की है, कि सम्राट् बिम्बसार अपने राज्यारोहण के तीसरे वर्ष विवाह-व्यवस्था करेंगे।” मातंगी मन मारकर रहने लगी। परन्तु उसका चित्त उचाट रहने लगा। तीन वर्ष बीत गए और अपने राज्यारोहण की तीसरी वर्षगांठ के दिन सम्राट ने वह गुप्त पत्र खोला। उसमें लिखा था कि मातंगी वर्षकार की भगिनी है, उन दोनों का परस्पर विवाह नहीं हो सकता। किन्तु मातंगी की सहमति से सम्राट् उपयुक्त पात्र से उसका विवाह कर दें और अस्सी ग्राम उसकी आजीविका को दे दें।

वर्षकार और बिम्बसार दोनों ही भीत-चकित रह गए। भय का सबसे बड़ा कारण यह था कि मातंगी इस समय फिर गर्भवती थी और यह स्पष्ट था कि यह गर्भ वर्षकार का था। अतः इस दारुण और हृदयविदारक समाचार को उसे सुनाना सम्राट ने ठीक नहीं समझा और उन्हें समझा-बुझाकर जलवायु परिवर्तन के लिए वैशाली भेज दिया। कुछ दिन बाद एक कन्या को गुप्त रूप से जन्म देकर और स्वस्थ होकर मातंगी राजगृह में आईं और तभी उन्हें सत्य बात का पता चला। सुनकर वे एकबारगी ही विक्षिप्त हो गईं। उन्होंने मठ के सभी राजसेवकों को पृथक् कर दिया और कठोर एकान्तवास ग्रहण किया। वर्षकार का मठ में आना निषिद्ध करार दे दिया गया। सम्राट् बिम्बसार से भी मिलने से उन्होंने इन्कार कर दिया तथा अपने विवाह से भी। तब से किसी ने भी देवी मातंगी के दर्शन नहीं किए, किसी ने भी उन्हें नहीं देखा, तथापि उनका नाम अब भी राजगृह में आर्या मातंगी के नाम से घर-घर सम्मान के साथ लिया जाता था। वे एक पूर्ण ब्रह्मचारिणी तपस्विनी प्रसिद्ध थीं।

वर्षकार ने भी ग्लानि के मारे विवाह नहीं किया। आज आर्य वर्षकार की आयु साठ वर्ष की हो गई, तथा देवी मातंगी भी पचास को पार कर चुकीं। वर्षकार का तेज-प्रताप दिगन्त में व्याप्त हो गया। वे मगध के प्रतापी महामात्य और विश्व के अप्रतिम राजनीति विशारद प्रसिद्ध हुए। साथ ही किसी ने उनके अखण्ड ब्रह्मचर्य पर भी सन्देह नहीं किया। देवी मातंगी के साथ उनके तथा सम्राट् के सम्बन्ध की बात तथा उनके एक पुत्र और एक पुत्री की गुप्त जन्मकथा आचार्य शाम्बव्य काश्यप को छोड़कर और कोई जानता भी नहीं। सोमप्रभ मातंगी के गर्भ से जन्मे अवैध पुत्र हैं, यह बात आचार्य काश्यप, सम्राट् और स्वयं वे ही जानते हैं। परन्तु वे सम्राट् के पुत्र हैं, या वर्षकार के, यह केवल मातंगी ही जानती है : मातंगी की पुत्री कौन है, कहां है, यह बात एकमात्र आर्य वर्षकार ही जानते हैं, दूसरे नहीं। आर्य वर्षकार ने देवी मातंगी से एक बार मिलने का बहुत अनुनय-विनय किया था, परन्तु मातंगी ने भेंट करना स्वीकार नहीं किया। लाचार वर्षकार मन मारकर बैठे रहे। जो ग्राम देवी मातंगी को राज्य से दिए गए थे, उनकी आय सार्वजनिक कार्यों में खर्च करने की उन्होंने व्यवस्था की और स्वयं अत्यन्त निरीह भाव से रहने लगीं।

सोमप्रभ ज्यों ही मठ के द्वार को पार कर भीतर जाने लगे, वहां का सुनसानपन और निर्जन भाव देखकर उनका मन कैसा कुछ होने लगा। जैसे शताब्दियों से यहां कोई नहीं रहा है। वे लता-गुल्मों-भरी टेढ़ी-तिरछी वीथियों को पारकर अन्ततः एक पुष्करिणी के किनारे पहुंचे। पुष्करिणी में शतदल कमल खिला था, उसकी भीनी सुगन्ध वहां व्याप्त हो रही थी। पुष्करिणी के किनारे पर सघन वृक्षों की छाया थी, उसी शीतल छाया में क्षण—भर सोमप्रभ चुपचाप खड़े रहे। वे सोच रहे थे, किसलिए आर्या मातंगी के पास भेजा है।

एकाएक पीछे से पद-शब्द सुनकर वे चमक उठे, उन्होंने देखा, एक वृद्धा स्त्री जल का घड़ा लिए आ रही है। उसने युवक को देखकर आश्चर्यचकित होकर कहा—”तुम कौन हो और यहां कैसे चले आए? क्या तुम नहीं जानते, आर्या मातंगी की आज्ञा से यहां किसी भी मनुष्य का आना निषिद्ध है?”

“जानता हूं भद्रे, परन्तु मैं इच्छापूर्वक ही आया हूं। मैं आर्या मातंगी के दर्शन किया चाहता हूं।”

“यह सम्भव नहीं, आर्या किसी को दर्शन नहीं देतीं।”

“परन्तु भद्रे, मैं आचार्यपाद काश्यप की आज्ञा से आया हूं, मेरा नाम सोमप्रभ है।”

दासी ने अवाक् होकर क्षण-भर युवक को देखा, फिर उसने भयभीत दृष्टि से युवक को देखकर कहा—”आचार्य काश्यप ने! तब ठहरो भद्र, मैं देवी से जाकर निवेदन कर दूं।” वह बिना उत्तर की प्रतीक्षा किए ही चली गई।

सोमप्रभ एक शिलाखण्ड पर बैठकर कुछ सोचने लगे—वे सोच रहे थे यह कैसा रहस्य है!

कुछ क्षणों बाद ही दासी ने आकर कहा—”आर्या तुमसे भेंट करेंगी, मेरे साथ आओ।” सोमप्रभ धीरे-धीरे वृद्धा के पीछे-पीछे चले। सामने एक स्वच्छ छोटा-सा कुटीर था, उसी में एक चटाई पर आर्या मातंगी अधोमुखी बैठी थीं। पद-शब्द सुनते ही उन्होंने आंखें उठाकर देखा, उनके होंठ कम्पित हुए, उन्होंने दोनों हाथों से आंखों की धुंध पोंछी, फिर अस्फुट स्वर से आप-ही-आप कहा—”कौन तुम, सोम…वही हो, वही, पहचानती हूं मेरे बच्चे!” और वे उसी प्रकार युवक की ओर दौड़ीं जैसे गाय बछड़े की ओर दौड़ती है। उन्होंने युवक को छाती से लगा लिया। उनकी आंखों से अविरल अश्रुधारा बह चली।

सोमप्रभ हतप्रभ होकर विमूढ़ हो गए। एक अचिन्तनीय आनन्द ने उनके नेत्रों को भी प्लावित कर दिया। उन्होंने प्रकृतिस्थ होकर कहा—

“आर्या मातंगी, अकिञ्चन सोम आपका अभिवादन करता है।”

“नहीं, नहीं, आर्या मातंगी नहीं, मां कहो वत्स!”

सोमप्रभ ने अटकते हुए कहा—”किन्तु आर्ये.”

“मां कहो वत्स, मां कहो!”

“आर्ये, हतभाग्य सोम अज्ञात-कुलशील अज्ञातकुलगोत्र है। कल्याणी मातंगी उसे इतना गौरव क्यों दे रही हैं?”

“मां कहो प्रिय, मां कहो। जीवन के इस छोर से उस छोर तक मैं यह शब्द सुनने को तरस रही हूं।” मातंगी के स्वर, भावभंगिमा और करुण वाणी से विवश हो अनायास ही बरबस सोम के मुंह से निकल गया—”मां…”

“आप्यायित हो गई मैं, मरकर जी गई मैं, वत्स सोम, अभी और कुछ देर हृदय से लगे रहो। अरे, मैंने 24 वर्ष तुम्हारी प्रतीक्षा की है भद्र!”

“किन्तु आर्ये…?”

“मैं कौन हूं, यही जानना चाहते हो। बच्चे, मैं अभागिनी तुम्हारी मां हूं।”

“आप आर्ये मातंगी! देवपूजित द्विज गोविन्द स्वामी की महाभागा पुत्री देवी मातंगी मुझ भाग्यहीन की मां हैं?”

“निश्चय वत्स, यह ध्रुव सत्य है। क्या आचार्य ने कहा नहीं?”

“नहीं, उन्होंने केवल इतना ही कहा था कि देवी के दर्शन करना अवश्य।”

“अभी मुहूर्त भर पूर्व उन्होंने मुझे संदेश भेजा था, कि तुम्हारा पुत्र आया है। वह तुमसे मिलने आ रहा है। सो सोम, तनिक तुम्हें देखूं। मेरे सामने खड़े तो हो जाओ प्रिय!”

और मातंगी अबोध बालक के समान सोम के सम्पूर्ण शरीर पर हाथ फेरने लगीं।

सोम ने धीरे-धीरे झुककर मस्तक मां के चरणों में टेककर कहा—

“मां, आज मैं सनाथ हुआ। परन्तु मुझे अधिक समय नहीं है, मुझे एक दुरूह यात्रा करनी है। इतना बता दो मेरे पिता कौन हैं?”

“पिता?” मातंगी के होंठ भय से सफेद हो गए और उनका चेहरा पत्थर की भांति भावहीन हो गया। उन्होंने डूबती वाणी से कहा—”पुत्र, उनका नाम लेना निषिद्ध है।”

“क्यों मां?”

“क्या तुमने मेरे आजन्म एकान्तवास को नहीं सुना?”

“सुन चुका हूं आर्ये?”

“तो बस, यही यथेष्ट है।”

“मैं क्या उनके विषय में कुछ भी नहीं जान सकता?”

“क्या जानना चाहते हो वत्स?”

“उनकी पद–मर्यादा।”

“वे विश्वविश्रुत विभूति के अधिकारी हैं।”

“जीवित हैं?”

“हां!”

“तो अभी यही यथेष्ट है, मां, शेष सब मैं अपने कौशल से जान लूंगा।”

“परन्तु पुत्र, मेरा आदेश मानना। इधर उद्योग मत करना, इससे तुम्हारा अनिष्ट होगा।”

“माता की जैसी आज्ञा, पर अब मैं जाऊंगा आर्ये!”

“क्या इतनी जल्दी भद्र, अभी तो मैंने तुम्हें देखा भी नहीं।”

“शीघ्र ही मैं लौटूंगा आर्ये!”

“अभी कुछ दिन रहो पुत्र!”

“नहीं रह सकता, आदेश है।”

“किसका भद्र?”

“आर्य वर्षकार का।”

मातंगी चौंककर दो कदम हट गईं। उसने कहा—”अच्छा, अच्छा, समझी! आर्य यहां तक पहुंच चुके?”

“आर्ये, आज प्रातः ही मुझे उनका दर्शनलाभ हुआ।”

“अब कहां जा रहे हो भद्र?”

“चम्पा।”

“एकाकी ही?”

“नहीं, भगिनी भी है मां, आप तो जानती हैं, मेरी एक भगिनी भी है।”

मातंगी ने कांपकर कहा—”किसने कहा भद्र?”

“आचार्यपाद ने।”

“कौन है वह।”

“कुण्डनी।”

“कुण्डनी! सर्वनाश। तुम उसके साथ जा रहे हो पुत्र? ऐसा नहीं हो सकेगा।”

“क्यों मां, क्या बात है?”

“नहीं, वह मैं नहीं कह सकूंगी, कहते ही शिरच्छेद होगा। किसने तुझे कुण्डनी के साथ जाने को कहा?”

“आर्य वर्षकार ने।”

“इन्कार कर दो। कह दो, देवी मातंगी की आज्ञा है।”

“आपकी आज्ञा क्या मगध महामात्य वर्षकार सुनेंगे?”

“उन्हें सुननी होगी। नहीं तो मैं स्वयं आज 28 वर्ष बाद पुष्करिणी के उस पार…”

“देवी मातंगी!” सामने से किसी ने पुकारा। दोनों ने देखा, आचार्य काश्यप हैं। उन्होंने कहा—”कोई भय नहीं है, देवी मातंगी! उसे जाने दो।”

“तुमने आचार्य, उसे कुण्डनी के सुपुर्द किया है?”

“नहीं मातंगी आर्ये, कुण्डनी राजकार्य से केवल उसकी सुरक्षा में चम्पा जा रही है।”

“सोम क्या जानता है कि कुण्डनी कौन है?”

“वह जानता है कि वह उसकी भगिनी है।”

“यह क्या यथेष्ट है?”

“है, आप निश्चिन्त रहिए।” फिर उन्होंने घूमकर कहा—”जाओ सोम, विलम्ब मत करो।”

आर्या ने आकुल नेत्रों से पुत्र को देखकर कहा—

“एक क्षण ठहरो, क्या तुमने महामात्य से कुछ प्रतिज्ञा भी की है?”

“की है, आर्ये!”

“कैसी?”

“एकनिष्ठ रहने की।”

“किसके प्रति?”

“साम्राज्य के।”

“और?”

“मगध महामात्य के?”

“और?”

“और किसी के प्रति नहीं।”

“और किसी के प्रति नहीं?”

“नहीं।”

आर्या के नेत्रों में भय की भावना दौड़ गई, उनके होंठ कांपे। आचार्य के रूखे होंठों पर मुस्कान फैल गई, उन्होंने आगे बढ़कर कहा—”बस, अब और अधिक नहीं, देवी मातंगी किसी अनिष्ट की आशंका न करें। जाओ तुम सोमभद्र।”

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