चैप्टर 17 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 17 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel In Hindi , Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas
Chapter 17 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu
आचारजगुरु कासी जी से आए हैं।
सभी मठ के जमींदार हैं, आचारजगुरु। साथ में तीस मुरती आए हैं-भंडारी, अधिकारी, सेवक, खास, चिलमची, अमीन, मुंशी और गवैया। साधुओं के दल में एक नागा साधू भी है। यद्यपि वह दूसरे मत को माननेवाला मुरती है, फिर भी आचारज जी उसको साथ में रखते हैं। बड़ा करोधी मुरती है। हाथ में छोटा-सा कुल्हाड़ा रखता है। लम्बी दाढ़ी, जटा, सारे देह में भभूत और कमर में सिर्फ चाँदी की सिकड़ी ! नंगा रहता है। महन्थ साहेब के साथ वह जिस मठ पर जाता है, वहाँ के महन्थ और अधिकारी को छट्टी का दूध याद करा देता है। क्या मजाल कि सेवा में किसी किस्म की तरोटी (त्रुटि) हो ! इसीलिए आचारजगुरु उसको साथ में रखते हैं।
नागा बाबा जब गुस्सा होते हैं तो मुँह से अश्लील-से-अश्लील गालियों की झड़ी लग जाती है।…आते ही लछमी दासिन पर बरस पड़े-“तैरी जात को मच्छड़ काटे ! हरामजादी ! रंडी ! तैं समझती क्या है री ! ऐं, दुनियाँ को तैं अन्धा समझती है ? बोल !…लाल मिर्च की बुकनी डाल दूँ। छिनाल ! तैं आचारजगुरु को गाली देती है ? तेरे मुँह में कुल्हाड़े का डंडा डाल दूँ, बोल ! साली, कुत्ती ! साधू का रगत बहाती है और बाबू लोग से मुँह चटवाती है ! हूँ अभी तेरे गाल पर चाँटा; हट जा यहाँ से, कातिक की कुतिया !”
लछमी हाथ जोड़कर बैठी रहती है। नागा साधू की गालियों पर लोग ध्यान नहीं देते, बुरा नहीं मानते। वह तो आशीर्वाद है। वह नागा बाबा का पाँव पकड़कर कहती है, “छिमा कीजिए परभू दासिन का अपराध !”
रामदास की तो खड़ाऊँ से पीटते-पीटते देह की चमड़ी उधेड़ दी है नागा बाबा ने-“सूअर के बच्चे, कुत्ते के पिल्ले ! तैं महन्थ बनेगा रे ! आ इधर ! तुझको खड़ाऊँ से टीका दे दूँ महन्थी का ! तेरी बहान को ! (खटाक्) तेरी माँ को। (खटाक्) घसियारे का बच्चा ! जा लक्कड़ लाकर धूनी में डाल !”
लरसिंघदास खुश है। इसीलिए तो वह अगवानी करने स्टेशन तक गया था। सारी बातें सुनकर आचारज जी भी क्रोध से लाल हो गए थे।…दासिन को मठ से निकालना होगा। नागा बाबा को पाँच-‘भर’ गाँजा दिया है लरसिंघदास ने। अधिकारी जी को एक सौ रुपया कबूला है।…महन्थी तो धरी हुई है। सतगुरु की दया है।
आचारजगुरु ने लछमी से स्पष्ट कह दिया है-“रामदास को महन्थी का टीका नहीं मिल सकता। क्या सबूत है कि वह महन्थ सेवादास का चेला है ? है कहीं लिखा हुआ ? कोई वील है ? पन्थ के नियम के मुताबिक चेलाहीन मठ का महन्थ आचारज ही बहाल कर सकता है। तू मठ पर नहीं रह सकती। सेवादास ने तुझे रखेलिन बनाया था। सेवादास नहीं है, अब तू अपना रास्ता देख।”
“साहेब की जो मरजी !”
साहब की मरजी !…नागा बाबा की जो मरजी !
नागा बाबा रात में उठकर एक बार चारों ओर देखते हैं, फिर लछमी की कोठरी की ओर जाते हैं खाली पैर। खड़ाऊँ तो खट-खट करेगी !
…हरामजादी किवाड़ बन्द करके सोती है। यहाँ कौन सोया है ? वही पिल्ला, रामदसवा !…”अरे उठ, तेरी जात को मच्छड़ काटे। दासिन को जगा। बाबा का गाँजा मारकर सेज पर सोई हुई है। कहाँ है मेरा गाँजा ? जानता नहीं, तीन-‘भर’ रोज की खुराकी है ? कहाँ है ?”
“सरकार ! आधी रात में गाँजा…”
“चुप हरामजादे ! दासिन को जगा।”
“आज्ञा प्रभु !” लछमी किवाड़ खोलकर निकलती है।
“गाँजा कहाँ है ?”
“हाजिर है सरकार !” लछमी एक बड़ी-सी पुड़िया नागा के हाथ में देती है।
…अरे ! हरामजादी के पास इतना गाँजा कहाँ से आया ? पूरा तीन-‘भर’ मालूम होता है।…यह साला रमदसवा, कोढ़ी का बच्चा यहाँ खड़ा होकर क्या करता है ?”
“अबे सूअर के बच्चे, तैं यहाँ खड़ा होकर क्या करता है ?”…खट-खटाक् ! लछमी जल्दी से किवाड़ बन्द कर लेती है।
“अच्छा, कल देखना, तुझे बाल पकड़ मठ से घसीटकर नहीं निकाला तो कसम गुरु मचेन्दरनाथ की!”
लरसिंघदास एकान्त में एक बार लछमी से कहना चाहता है, ‘तुम घबड़ाओ मत लछमी ! महन्थ तो मैं ही बनूँगा। तुम मठ में ही रहोगी। तुमको मठ से कोई निकाल नहीं सकता। तुम निराश मत होओ! लेकिन मौका ही नहीं मिलता है। शायद सुबह ही लछमी कहीं चली न जाए।
आचारजगुरु के जवान अधिकारी को भी रात-भर नींद नहीं आई, “पुरैनियाँ जिला में कम्बल के नीचे भी घुसकर ससुरे मच्छर काटे हैं हो !”
सुबह को लछमी बालदेव जी के पास जाती है। बालदेव जी पुरजी बाँट रहे थे। सारी बातें सुनकर बोले, “कोठारिन जी, आचारजगुरु तो सभी मठ के नेता हैं। वे जो करेंगे, वही होगा। इसमें हम लोग क्या कर सकते हैं ? बड़ा धरम-संकट है ! किसी के धरम में नाक घुसाना अच्छा नहीं है।…तीसरे पहर टीका होगा ? हम आवेंगे।”
लछमी दासिन को बालदेव जी पर पूरा भरोसा था। तहसीलदार साहब घर में नहीं हैं। डाक्टर साहब पर-पंचायत में नहीं जाते हैं। सिंघ जी सुनकर गुम हो गए। खेलावन जी ने तो बालदेव जी पर ही बात फेंक दी-जाने बालदेव !…सतगुरु हो ! कोई उपाय नहीं।
“साहेब बन्दगी कोठारिन जी!”
“कौन ! कालीचरन बबुआ ! दया सतगुरु के !”
“हाँ, टीका कब होगा ? कीरतन नहीं करवाइएगा ?”
लछमी दासिन कालीचरन को रो-रोकर सुनाती है; “काली बाबू ! ऐसी खराबखराब गाली ! उफ़ ! सतगुरु हो !…मैं अब कहाँ जाऊँगी ? कौन सहारा है मेरा ?”
“अच्छी बात ! आप कोई चिन्ता मत कीजिए।…बालदेव जी क्या करेंगे, वह तो बुरजुआ हैं। रोइए मत।”
लछमी देखती है कालीचरन को…उस बार परयाग जी के जादूघर में एक आबलूस की मूर्ति देखी थी, ठीक ऐसी ही।
मठ पर सभी साधू-सती, बाबू-बबुआन, दास-सेवकान शमियाने में बैठे हैं। लरसिंघदास ने सिर का जुल्फा छिलवा लिया है। अधकट्टी मूंछ को भी मुड़वा लिया है। साधुओं की भाषा में कहते हैं-मोंछभदरा। सुफेद मलमल की नई लँगोटी और कोपीन, देह पर चादर नहीं है।…चादर तो आचारजगुरु देंगे। आचारजगुरु का मुंशी एकरारनामा और सूरतहाल लिख रहा है। लछमी एक किनारे चुपचाप बैठी है जमीन पर। रामदास की सारी देह में हल्दी-चूना लगा है। बालदेव जी को लछमी पर बड़ी दया आ रही है। लेकिन क्या किया जाए !
“सभी साधू-सती, सेवक-सेवकान, सुन लीजिए !” आचारज जी का मुंशी दलील पढ़ता है, “लिखित लरसिंघदास चेले गोबरधनदास मोतफा जात बैरागी फिरके…। अब आप लोग इस पर दस्तखत कर दीजिए।”…लछमी फूट-फूटकर रो पड़ती है। सतगुरु हो !
“तैं चुप रह हरामजादी ! चुप रहती है या लगाऊँ डंडा !” नागा बाबा चिल्लाते हैं, “तैं चुप !”
जो दस्तखत करना जानते हैं दस्तखत कर रहे हैं। बालदेव जी ने भी दस्तखत कर दिया। उनका हाथ जरा भी नहीं काँपा।…कालीचरन दलील हाथ में लेकर उठता है-“आचारज जी! आप कहते हैं, महन्थ सेवादास बिना चेला के मरा है। आप क्या गाँव के सभी लोगों को उल्लू ही समझते हैं ?”
“कालीचरन !” बालदेव मना करते हैं, “बैठ जाओ।”
“कालीचरन !” खेलावन यादव डाँटते हैं।
लेकिन कालीचरन आज नहीं रुकेगा। कोई हिंसाबाद कहे या अनसन करे ! वह भी भाखन दे सकता है।
“…हम जानते हैं और अच्छी तरह जानते हैं कि रामदास इस मठ का चेला है, महन्थ सेवादास का चेला है। उसको महन्थी का टीका न देकर, आप एक नम्बरी बदमास को महन्थ बना रहे हैं।…मठ में हम लोगों के बाप-दादा ने जमीन दान दी है, यह किसी की बपौती सम्पत्ति नहीं…।”
“तेरी जात को मच्छड़ काटे, चुप साले ! कुत्ते के बच्चे ! अभी कुल्हाड़े से तेरा…! तेरी माँ को…।”
“चुप रह बदमास !” कामरेड वासुदेव उछलकर खड़ा होता है।
“पकड़ो सैतान को !” कामरेड सुन्दर चिल्लाता है।
“भागने न पावे !”
“मारो!”
…ले-ले ! पकड़-पकड़ ! मार-मार, हो-हो !…रुको, ऐ बासुदेब ! ऐ सुन्दर !…ऐ !
नागा बाबा दाढ़ी छुड़ाते हैं, जटा छुड़ाते हैं, थप्पड़ों की मार से आँखों के आगे जुगनू उड़ते नज़र आ रहे हैं। गाँजे का नशा उतर गया है।…आखिर दाढ़ी और जटा नोंचवाकर, कुल्हाड़ा छोड़कर ही भागते हैं।…पकड़ो, पकड़ो ! छोड़ दो, छोड़ दो ! अब मत मारो ! नागा बाबा भागे जा रहे हैं। भभूत लगाया हुआ नंग-धडंग शरीर, बिखरी हुई जटा ! दौड़ते समय उनकी सूरत और भी भयावनी मालूम होती है। गाँव के कुत्ते पागल हो जाते हैं। भौं ! भौं !…नागा बाबा के पीछे दर्जनों गँवार कुत्ते दौड़ रहे हैं। अधिकारी महन्थ लरसिंघदास तो चार चाँटे में ही चे बोल जाते हैं-“नहीं लेंगे महन्थी, छोड़ दीजिए हमको !”
“छोड़ दो ! छोड़ दो!” कालीचरन हुक्म देता है। लरसिंघदास भी भागते हैं।
पंचों को लकवा मार गया है; साधुओं की हालत खराब है। पंचों के मुँह पर हवाइयाँ उड़ रही हैं। और सबों के बीच, कालीचरन हाथ में दलील लेकर सिकन्नरशाह बादशा की तरह खड़ा है। पलक मारते ही क्या-से-क्या हो गया !…जैसे रामलीला का धनुसजग हो गया।…
“अब आचारज जी, आपसे हम अरज करते हैं कि सुरतहाल पर रामदास जी का नाम चढ़ाकर महन्थी का टीका दे दीजिए।”
आचारजगुरु काँपते हुए कहते हैं, “ब-बुआ ! हम तो सतगुरु की दया से…हमको तो लोगों ने कहा कि सेवादास का कोई चेला ही नहीं था। जब रामदास उसका चेला है तो वही महन्थ होगा।…मुंशीजी, लिखिए सूरत-हाल ! ले आओ, चादर, दही का बरतन !”
रामदास नहा-धोकर, देह के हल्दी-चूने के दाग को छुड़ा आया है। दही का टीका कपाल पर पड़ते ही सारे देह की जलन मिट गई।…सतगुरु हो ! सतगुरु हो !
पूजा-विदाई लिए बिना ही आचारज जी आसन तोड़ रहे हैं। पंचायत के लोग भी चुपचाप अपने-अपने घर की ओर वापस होते हैं। लछमी हाथ में पूजा-विदाई की थाली लेकर खड़ी है-“कबूल हो प्रभू ! दासिन का अपराध छिमा करो प्रभू !”
“काली बाबू !”
बालदेव जी उलटकर देखते हैं। लछमी कालीचरन को बुलाकर अन्दर ले जा रही है।…कालीचरन ने अन्याय किया है, घोर अन्याय किया है, हिंसाबाद किया है। इस बार दो दिन का अनसन करना पड़ेगा।
खेलावन जी जाति-बिरादरी की पंचायत बुलाकर सब बदमाशों को ठीक करेंगे। हे भगवान ! साधुओं के शरीर पर हाथ उठाना !
कालीचरन कुश्ती लड़ता है। उस्ताद ने कहा है, कुश्ती लड़नेवालों को औरतों से पाँच हाथ दूर रहना चाहिए।…वह पाँच हाथ से ज्यादे दूरी पर खड़ा है।
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