चैप्टर 17 हृदयहारिणी किशोरी लाल गोस्वामी का उपन्यास | Chapter 17 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas
Chapter 17 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas
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सत्रहवाँ परिच्छेद : प्रसाद
“प्रसादस्तु प्रसन्नता “
निदान, चंपा के साथ वे दोनों राजनन्दिनी राजसदन की सबसे ऊंची छतपर चढ़ गईं, किन्तु रात्रि के कारण वहांसे अच्छी तरह कुछ दिखलाई न दिया, इसलिये लवंगलता के साथ कुसुम नीचे उतर आई। फिर कुसुमकुमारी तो तेज़ी के साथ कमरे में घुस गई और लवगङलता दालान में रह गई; इतने ही में नरेन्द्रसिंह ने वहां पहुंचकर उसे आनन्द- गद्गद् कर दिया!
नरेन्द्र को देखते ही लवङ्गलता मारे खुशी के उनके पैरों पर गिरने लगी, पर उन्होंने उसे बीच ही में रोककर उसके मस्तक को हदय से लगा लिया और उसे सूंघा।
लवङ्गलता ने बड़ी प्रसन्नता से पूछा,-“भैया! आप राज़ी खुशी से रहे न?”
नरेन्द्र,-“हां, बहिन! मैं बड़े आनन्द से रहा और जगदीश्वर की दया तथा बड़ों के पुण्य-प्रताप से कुशल पूर्वक घर लौट आया।”
लवङ्ग,-“आहा, यह बड़ी खुशी की बात हुई कि आप राज़ी खशी आगए!”
इसके बाद नरेन्द्र ने पूछा,-“कुसुम कहां है?”
लवङ्ग,-“वह अभी इसी कमरे में गई हैं।”
यह सुन नरेन्द्र ने कमरे में पैर रक्खा और लवङ्गलता कमरे के बाहर ही इस लिए रह गई कि जिसमें बिछुरे हुए प्रेमी आपस में जी खोल कर मिल सकैं।
निदान, ज्यों ही नरेन्द्र कमरे में पहुंचे कि कुसुम कुमारी दौड़ कर उनके पैरों पर गिर पड़ी। यह देखते ही उन्होंने बड़े प्रेम से उसे उठाकर अपने हृदय से लगा लिया। उस समय उन दोनों की आंखों से प्रेमाश्र बह चले थे।
कसुम ने नरेन्द्र की और नरेन्द्र ने कुसुम की आंखें पोछ दी और कुसुम ने कहा,-“आप राजी खुशी से आगए, यह बड़े भाग्य की बात हुई।”
नरेन्द्र ने कहा,-“हां, देवी! हम तुम्हारे ही भाग्य से सकुशल लौट आए!”
कुसुम,-“यह भगवती का परम अनुग्रह है!”
नरेन्द्र,-“अवश्य, अवश्य! और तुम्हारे अद्भुत चरित्र की सारी कथा मैंने अभी मन्त्री जी से सुनी हैं; अहा, मुझसा भाग्य-वान पुरुष कदाचित त्रैलोक्य में दूसरा कोई न होगा! क्यों कि मैंने अनन्त पुण्य वा तपोबल के प्रताप से ही तुम सी गृहलक्ष्मी को पाया है।”
कुसुम,-“प्यारे, यह मेरी बड़ाई नहीं, बरन तुम्हारी ही है, क्यों कि मैं तो तुम्हारे चरणों की रज हूं।”
नरेन्द्र,-“तुम मेरे प्राणों से भी बढ कर प्यारी हो।”
कुसुम,-“भगवती करें, आपका ऐसा ही अनुराग इस दासी पर सदा बना रहै।”
इतने में नरेन्द्र ने इधर उधर देख कर कुसुम से कहा,-“लवङ्ग कहां रह गई?”
यह तो हम कही आए हैं कि लवङ्ग कमरे के बाहर ही ठहर गई थी, सो, नरेन्द्र की बात सुन, यह कहती हुई कमरे में चली गई कि,-“मैं आई, भैया!”
नरेन्द्र ने कहा,-“लवङ्ग! कुसुम के व्रत की बात, जो मैने अभी मन्त्री जी से सुनी है, वह कैसी है?”
लवङ्ग ने कहा,-“भैया! आप कुछ न पूछे। आहा! भाभी का व्रत देखकर तो मैं दंग हो गई! जिस दिन से आप गए, उस दिन से आज तक इन्होंने दूध के अलावे और कुछ भी नहीं खाया है!”
नरेन्द्र,-“मैंने मंत्रीजी से अभी सारी कथा सुनी है। अस्तु, लवङ्ग! तू मेरे भोजन का प्रबन्ध कर, तब तक मैं सन्ध्यावन्दन कर आऊं।”
यों कहकर वे बाहर चले गए और लवङ्ग तथा कुसुम ने मिल कर ब्यालू की तैयारी की। डेढ़ घंटे के अन्दर नरेन्द्र आए और आसन पर बैठकर उन्होंने कुसुम से कहा,-“मैं आज पहिले तुम्हें खिलाकर तब खाऊंगा।”
कुसुम,-“नहीं, तुम पहिले भोजन करो, फिर मैं भी तुम्हारी जूठन पाकर अपने को कृतार्थ करूंगी।”
नरेन्द्र,-“पर आज तो मैं बिना तुम्हे पहिले खिलाए कभी खाऊंगा ही नहीं।”
कुसुम,-“नहीं,प्यारे! इतना हठ न करो और मुझे कांटों में न घसीटो।”
नरेन्द्र,-“हाय! तुम्हें मुझपर ज़रा दया नहीं आती! राम,राम मारे भूख के मेरी आत्मा विकल होरही है और तुम कुछ भी मेरा कहना नहीं मानती!”
उस समय लवङ्ग वहांसे हट गई थी, बिल्कुल निराला था और आपस में खुलकर बात चीत करने का अच्छा मौका था, इसलिये कुसुम ने हंसकर कहा,-“तुम मानोगे नहीं, अच्छा, पहिले गस्सा तो उठाओ, मैं भी खाती हूं।”
नरेन्द्र,-“नहीं, आज तो ऐसा हो हीगा नहीं, आज पहिले तुम्हीं को खाना पड़ेगा।”
कुसुम,-“प्यारे! तुम्हें मेरी कसम! इतना आग्रह न करो, बस, एक कौर खाकर अपनी जूठन मुझे दो। मैं भी तुम्हारे सामने ही खाती हूं।”
निदान, ऐसा ही हुआ और कुसुम ने नरेन्द्र की प्रसादी पाकर उनके साथ बैठकर दूसरो थाली में ब्यालू की; मानो व्रत का सच्चा उद्यापन होगया!!!
नरेन्द्र ने कहा,-“प्यारी! दुराचारी सिराजुद्दौला का पतन हुआ और मीरजाफ़र तथा लाटक्लाइव ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार तुम्हारी माता और उनकी मामी की सारी स्थावर संपत्ति तुम्हें लौटा दी और दो लाख रुपए नकद तुम्हारी भेंट किए।”
कुसुम,-“मेरी सच्ची सम्पत्ति तो, प्यारे! तुम हो, इसलिये स्थावर सम्पत्ति जो कछ मुझे मिली है, उसे मैं तुम्हारी भेंट करती हूँ, और नकद जो दो लाख रुपए मिले हैं, उन्हें अपनी ननद के कन्या दान में अभी संकल्प कर देती हूं!”
ग्रंथकर्ता,-“धन्य, उन्नतहदये! हृदयहारिणी! तू धन्य है!”
निदान, वह दिन बड़े आनन्द से व्यतीत हुआ! ईश्वर करे, ऐसा ही सख संसार में सभी कोई पावें।
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