चैप्टर 17 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 17 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

चैप्टर 17 गुनाहों का देवता धर्मवीर भारती का उपन्यास | Chapter 17 Gunahon Ka Devta Novel By Dharmveer Bharti Read Online

Chapter 17 Gunahon Ka Devta Novel

Chapter 17 Gunahon Ka Devta Dharmveer Bharti Ka Upanyas

चंदर को सबसे बड़ा सन्तोष था कि सुधा ठीक हो गयी थी। बैसाख पूनो के एक दिन पहले ही से बिनती ने घर को इतना साफ कर डाला था कि घर चमक उठा था। यह बात तो दूसरी है कि स्टडी-रूम की सफाई में बिनती ने चंदर के बहुत-से कागज बुहारकर फेंक दिये थे और आँगन धोते वक्त उसने चंदर के कपड़ों को छीटों से तर कर दिया था। उसके बदले में चंदर ने बिनती को डाँटा था और सुधा देख-देखकर हँस रही थी और कह रही थी, ”तुम क्यों चिढ़ रहे हो? तुम्हें देखने थोड़े ही आ रही हैं हमारी सास।”

बैशाखी पूनो की सुबह डॉक्टर साहब और बुआजी गाड़ी लेकर उनको लिवा लाने गये थे। चंदर बाहर बरामदे में बैठा अखबार पढ़ रहा था और सुधा अन्दर कमरे में बैठी थी। अब दो दिन उसे बहुत दब-ढँककर रहना होगा। वह बाहर नहीं घूम सकती थी; क्योंकि जाने कैसे और कब उसकी सास आ जाएँ और देख लें। बुआ उसे समझा गयी थीं और उसने एक गम्भीर आज्ञाकारी लड़की की तरह मान लिया था और अपने कमरे में चुपचाप बैठी थी। बिनती कढ़ी के लिए बेसन फेंट रही थी और महराजिन ने रसोई में दूध चढ़ा रखा था।

सुधा चुपके से आयी, किवाड़ की आड़ से देखा कि पापा और बुआ की मोटर आ तो नहीं रही है! जब देखा कि कोई नहीं है तो आकर चुप्पे से खड़ी हो गयी और पीछे से चंदर के हाथ से अखबार ले लिया। चंदर ने पीछे देखा, तो सुधा एक बच्चे की तरह मुस्कुरा दी और बोली, ”क्यों चंदर, हम ठीक हैं न? ऐसे ही रहें न? देखा तुम्हारा कहना मानते हैं न हम?”

”हाँ सुधी, तभी तो हम तुमको इतना दुलार करते हैं!”

”लेकिन चंदर, एक बार आज रो लेने दो। फिर उनके सामने नहीं रो सकेंगे।” और सुधा का गला रुँध गया और आँख छलछला आयी।

”छिह, सुधा…” चंदर ने कहा।

”अच्छा, नहीं-नहीं…” और झटके से सुधा ने आँसू पोंछ लिये। इतने में गेट पर किसी कार का भोंपू सुनाई पड़ा और सुधा भागी।

”अरे, यह तो पम्मी की कार है।” चंदर बोला। सुधा रुक गयी। पम्मी ने पोर्टिको में आकर कार रोकी।

”हैलो, मेरे जुड़वा मित्र, क्या हाल है तुम लोगों का?” और हाथ मिलाकर बेतकल्लुफी से कुर्सी खींचकर बैठ गयी।

”इन्हें अन्दर ले चलो, चंदर! वरना अभी वे लोग आते होंगे!” सुधा बोली।

”नहीं, मुझे बहुत जल्दी है। आज शाम को बाहर जा रही हूँ। बर्टी अब मसूरी चला गया है, वहाँ से उसने मुझे भी बुलाया है। उसके हाथ में कहीं शिकार में चोट लग गयी है। मैं तो आज जा रही हूँ।”

सुधा बोली, ”हमें ले चलिएगा?”

”चलिए। कपूर, तुम भी चलो, जुलाई में लौट आना!” पम्मी ने कहा।

”जब अगले साल हम लोगों की मित्रता की वर्षगाँठ होगी तो मैं चलूँगा।” चंदर ने कहा।

”अच्छा, विदा!” पम्मी बोली। चंदर और सुधा ने हाथ जोड़े तो पम्मी ने आगे बढ़ कार सुधा का मुँह हथेलियों में उठाकर उसकी पलकें चूम लीं और बोली, ”मुझे तुम्हारी पलकें बहुत अच्छी लगती हैं। अरे! इनमें आँसुओं का स्वाद है, अभी रोयी थीं क्या?” सुधा झेंप गयी।

चंदर के कन्धे पर हाथ रखकर पम्मी ने कहा, ”कपूर, तुम खत जरूर लिखते रहना। चलते तो बड़ा अच्छा रहता। अच्छा, आप दोनों मित्रों का समय अच्छी तरह बीते।” और पम्मी चल दी।

थोड़ी देर में डॉक्टर साहब की कार आयी। सुधा ने अपने कमरे के दरवाजे बन्द कर लिये, बिनती ने सिर पर पल्ला ढक लिया और चंदर दौड़कर बाहर गया। डॉक्टर साहब के साथ जो सज्जन उतरे वे ठिगने-से, गोरे-से, गोल चेहरे के कुलीन सज्जन थे और खद्दर का कुरता और धोती पहने हुए थे। हाथ में एक छोटा-सा सफरी बैग था। चंदर ने लेने को हाथ बढ़ाया तो हँसकर बोले, ”नहीं जी, क्या इतना-सा बैग ले चलने में मेरा हाथ थक जाएगा। आप लोग तो खातिर करके मुझे महत्वपूर्ण बना देंगे!”

सब लोग स्टडी रूम में गये। वहीं डॉक्टर शुक्ला ने परिचय कराया-”यह हमारे शिष्य और लड़के, प्रान्त के होनहार अर्थशास्त्री चन्द्रकुमार कपूर और आप शाहजहाँपुर के प्रसिद्ध काँग्रेसी कार्यकर्ता और म्युनिसिपल कमिश्नर श्री शंकरलाल मिश्र।”

”अब तू नहाय लेव संकरी, फिर चाय ठंडाय जइहै।” बुआजी ने आकर कहा। आज बुआजी ने बहुत दिनों पहले की बूटीदार साड़ी पहन रखी थी और शायद वह खुश थीं क्योंकि बिनती को डाँट नहीं रही थीं।

”नहीं, मैं तो वेटिंग-रूम में नहा चुका। चाय मैं पीता नहीं। खाना ही तैयार कराइए।” और घड़ी देखकर शंकर बाबू बोले, ”मुझे जरा स्वराज्य-भवन जाना है और दो बजे की गाड़ी से वापस चले जाना है और शायद उधर से ही चला जाऊँगा।” उन्होंने बहुत मीठे स्वर से मुस्कुराते हुए कहा।

”यह तो अच्छा नहीं लगता कि आप आये भी और कुछ रुके नहीं।” डॉक्टर शुक्ला बोले।

”हाँ, मैं खुद रुकना चाहता था, लेकिन माँजी की तबीयत ठीक नहीं है। कैलाश भी कानपुर गया हुआ है। मुझे जल्दी जाना चाहिए।”

बिनती ने लाकर थाली रखी। चंदर ने आश्चर्य से डॉक्टर साहब की ओर देखा। वे हँसकर बोले, ”भाई, यह लोग हमारी तरह छूत-पाक नहीं मानते। शंकर तुम्हारे सम्प्रदाय के हैं, यहीं कच्चा खाना खा लेंगे।”

”इन्हें ब्राह्मïण कहत के है, ई तो किरिस्तान है, हमरो धरम बिगाडिऩ हिंयाँ आय कै!” बुआजी बोलीं। बुआजी ने ही यह शादी तय करायी थी, लड़काबताया था और दूर के रिश्ते से वे कैलाश और शंकर की भाभी लगती थीं।

शंकर बाबू ने हाथ धोये और कुर्सी खींचकर बैठ गये। चन्दर, की ओर देखकर बोले, ”आइए, होनहार डॉक्टर साहब, आप तो मेरे साथ खा सकते हैं?”

”नहीं, आप खाइए।” चंदर ने तकल्लुफ करते हुए कहा।

”अजी वाह! मैं ब्राह्मण हूँ, शुद्ध; मेरे साथ खाकर आपको जल्दी मोक्ष मिल जाएगा। कहीं हाथ में तरकारी लगी रह गयी, तो आपके लिए स्वर्ग का फाटक फौरन खुल जाएगा! खाओ।”

दो कौर खाने के बाद शंकर बाबू ने बुआजी से कहा, ”यही बहू है, जो लड़की थाली रख गयी थी?”

”अरे राम कहौ, ऊ तो हमार छोरी है बिनती! पहचनत्यौ नै। पिछले साल तो मुन्ने के विवाह में देखे होबो!” बुआजी बोलीं।

शंकर बाबू कैलाश से काफी बड़े थे, लेकिन देखने में बहुत बड़े नहीं लगते थे। खाते-पीते बोले, ”डॉक्टर साहब! लड़की से कहिए, रोटी दे जाये। मैं इसी तरह देख लूँगा, और ज्यादा तडक़-भड़क की कोई जरूरत नहीं!”

डॉक्टर साहब ने बुआजी को इशारा किया और वे उठकर चली गयीं। थोड़ी देर में सुधा आयी। सादी सफेद धोती पहने, हाथ में रोटी लिये दरवाजे पर आकर हिचकी, फिर आकर चन्दर से बोली, ”रोटी लोगे!” और बिना चंदर की आवाज सुने रोटी चंदर के आगे रखकर बोली, ”और क्या चाहिए?”

”मुझे कढ़ी चाहिए!” शंकर बाबू ने कहा। सुधा गयी और कढ़ी ले आयी। शंकर बाबू के सामने रख दी। शंकर बाबू ने आँखें उठाकर सुधा की ओर देखा, सुधा ने निगाहें नीची कर लीं और चली गयी।

”बहुत अच्छी है लड़की!” शंकर बाबू ने कहा। ”इतनी पढ़ी-लिखी लड़की में इतनी शर्म-लिहाज नहीं मिलती। सचमुच जैसे आपकी एक ही लड़की थी, आपने उसे खूब बनाया है। कैलाश के बिल्कुल योग्य लड़की है। यह तो कहिए डॉक्टर साहब कि शिष्टा प्रबल होती है वरना हमारा कहाँ सौभाग्य था! जब से मेरी पत्नी मरी तभी से माताजी कैलाश के विवाह की जिद कर रही हैं। कैलाश अन्तर्जातीय विवाह करना चाहता था, लेकिन हमें तो अपनी जाति में ही इतना अच्छा सम्बन्ध मिल गया।”

”तो तोहरे अबहिन कौन बैस ह्वा गयी। तुहौ काहे नाही बहुरिया लै अउत्यौ। सुधी के अकेल मन न लगी!” बुआजी बोलीं।

शंकर बाबू कुछ नहीं बोले। खाना खाकर उन्होंने हाथ धोये और घड़ी देखी।

”अब थोड़ा सो लूँ, या जाने दीजिए। आइए, बातें करें हम और आप,” उन्होंने चंदर से कहा। एक बजे तक चंदर शंकर बाबू से बातें करता रहा और डॉक्टर साहब और सुधा वगैरह खाना खाते रहे। शंकर बाबू बहुत हँसमुख थे और बहुत बातूनी भी। चंदर को तो कैलाश से भी ज्यादा शंकर बाबू पसन्द आये। बातें करने से मालूम हुआ कि शंकर बाबू की आयु अभी तीस वर्ष से अधिक की नहीं है। एक पाँच वर्ष का बच्चा है और उसी के होने में उनकी पत्नी मर गयी। अब वे विवाह नहीं करेंगे, वे गाँधीवादी हैं, काँग्रेस के प्रमुख स्थानीय कार्यकर्ता हैं और म्युनिसिपल कमिश्नर हैं। घर के जमींदार हैं। कैलाश बरेली में पढ़ता था। अब भी कैलाश का कोई इरादा किसी प्रकार की नौकरी या व्यापार करने का नहीं है, वह मजदूरों के लिए साप्ताहिक पत्र निकालने का इरादा कर रहा है। वह सुधा को बजाय घर पर रखने के अपने साथ रखेगा क्योंकि वह सुधा को आगे पढ़ाना चाहता है, सुधा को राजनीति क्षेत्र में ले जाना चाहता है।

बीच में एक बार बिनती आयी और उसने चंदर को बुलाया। चंदर बाहर गया तो बिनती ने कहा, ”दीदी पूछ रही हैं, ये कितनी देर में जायेंगे?”

”क्यों?”

”कह रही हैं अब चंदर को याद थोड़े ही है कि सुधा भी इसी घर में है। उन्हीं से बातें कर रहे हैं।”

चंदर हँस दिया और कुछ नहीं कहा। बिनती बोली, ”ये लोग तो बहुत अच्छे हैं। मैं तो कहूँगी सुधा दीदी को इससे अच्छा परिवार मिलना मुश्किल है। हमारे ससुर की तरह नहीं हैं ये लोग।”

”हाँ, फिर भी सुधा इतनी सेवा नहीं कर रही है इनकी। बिनती, तुम सुधा को कुछ शिक्षा दे दो इस मामले में।”

”हाँ-हाँ, हम सेवा करने की शिक्षा दे देंगे और ब्याह करने के बाद की शिक्षा अपनी पम्मी से दिलवा देना। खुद तो उनसे ले ही चुके होंगे आप!”

चंदर झेंप गया। ”पाजी कहीं की, बहुत बेशरम हो गयी है। पहले मुँह से बोल नहीं निकलता था!”

”तुमने और दीदी ने ही तो किया बेशरम! हम क्या करें? पहले हम कितना डरते थे!” बिनती ने उसी तरह गर्दन टेढ़ी करके कहा और मुस्कुराकर भाग गयी।

जब डॉक्टर साहब आये तो शंकर बाबू ने कहा, ”अब तो मैं जा रहा हूँ, यह माला मेरी ओर से बहू को दे दीजिए।” और उन्होंने बड़ी सुन्दर मोतियों की माला बैग से निकाली और बुआजी के हाथ में दे दी।

”हाँ, एक बात है!” शंकर बाबू बोले, ”ब्याह हम लोग महीने भर के अन्दर ही करेंगे। आपकी सब बात हमने मानी, यह बात आपको हमारी माननी होगी।”

”इतनी जल्दी!” डॉक्टर शुक्ला चौंक उठे, ”यह असम्भव है, शंकर बाबू ! मैं अकेला हूँ, आप जानते हैं।”

”नहीं, आपको कोई कष्ट न होगा।” शंकर बाबू बहुत मीठे स्वर में बोले, ”हम लोग रीति-रसम के तो कायल हैं नहीं। आप जितना चाहे रीति-रसम अपने मन से कर लें। हम लोग तो सिर्फ छह-सात आदमियों के साथ आएँगे। सुबह आएँगे, अपने बँगले में एक कमरा खाली करा दीजिएगा। शाम को अगवानी और विवाह कर दें। दूसरे दिन दस बजे हम लोग चले जायेंगे।’

”यह नहीं होगा।” डॉक्टर साहब बोले, ”हमारी तो अकेली लड़की है और हमारे भी तो कुछ हौसले हैं। और फिर लड़की की बुआ तो यह कभी भी नहीं स्वीकार करेंगी।”

”देखिए, मैं आपको समझा दूँ, कैलाश शादियों में तड़क-भड़क के सख्त खिलाफ है। पहले तो वह इसलिए जाति में विवाह नहीं करना चाहता था, लेकिन जब मैंने उसे भरोसा दिलाया कि बहुत सादा विवाह होगा तभी वह राजी हुआ। इसीलिए इसे आप मान ही लें फिर विवाह के बाद तो जिंदगी पड़ी है। आपकी अकेली लड़की है जितना चाहिए, करिए। रहा कम समय का तो शुभस्य शीघ्रम्! फिर आपको कुछ खास इन्तजाम भी नहीं करना, अगर कुछ हो तो कहिए मैं यहीं रह जाऊँ, आपका काम कर दूँ!” शंकर बाबू हँसकर बोले।

कुछ देर तक बातें होती रहीं, अन्त में शंकर बाबू ने अपने सौजन्य और मीठे स्वभाव से सभी को राजी कर ही लिया। उसके बाद उन्होंने सबसे विदा माँगी, चलते वक्त बुआजी और डॉक्टर साहब के पैर छुए, चंदर से हाथ मिलाया और शंकर बाबू सबका मन जीतकर चले गये।

बुआजी ने माला हाथ में ली, उसे उलट-पलटकर देखा और बोलीं, ”एक ऊ आये रहे जूताखोर! एक ठो कागज थमाय के चले गये!” और एक गहरी साँस लेके चली गयीं।

डॉ. साहब ने सुधा को बुलाया। उसके हाथ में वह माला रखकर उसे चिपटा लिया। सुधा पापा की गोद में मुँह छिपाकर रो पड़ी।

उसके बाद सुधा चली गयी और चंदर, डॉक्टर साहब और बुआजी बैठे शादी के इंतज़ाम की बातें करते रहे। यह तय हुआ कि अभी तो इन्हीं की इच्छानुसार विवाह कर दिया जाए फिर यूनिवर्सिटी खुलने पर सभी को बुलाकर अच्छी दावत वगैरह दे दी जाए। यह भी तय हुआ कि बुआजी गाँव जाकर अनाज, घी, बड़िय़ाँ और नौकर वगैरह का इंतज़ाम कर लाएँ और पन्द्रह दिन के अन्दर लौट आएँ। अगवानी ठीक छह बजे शाम को हो जाए और सुबह के नाश्ते में क्या दिया जाए, यह सभी डॉक्टर साहब ने तय कर डाला। लेकिन निश्चय यह किया गया कि चूँकि आदमी बहुत कम आ रहे हैं, अत: सुबह-शाम के नाश्ते का काम यूनिवर्सिटी के किसी रेस्तराँ को दे दिया जाए।

इसी बीच में बिनती खरबूजा और शरबत लाकर रख गयी और चंदर ने बहुत आराम से शरबत पीते हुए पूछा, ”किसने बनाया है?”

”सुधा दीदी ने।”

”आज बड़ी खुश मालूम पड़ती है, चीनी बहुत कम छोड़ी है!” चंदर बोला। बुआ और बिनती दोनों हँस पड़ीं।

थोड़ी देर बाद चंदर उठकर भीतर गया, तो देखा कि सुधा अपने पलँग पर बैठी सामने एक किताब रखे जाने क्या देख रही है और सामने वह माला पड़ी है। चंदर गया और बोला, ”सुधा! आज मैं बहुत खुश हूँ।”

सुधा ने आँखें उठायीं और चंदर की ओर देखकर मुस्कुराने की कोशिश की और बोली, ”मैं भी बहुत खुश हूँ।”

”क्यों, तय हो गया इसलिए?” बिनती ने पूछा।

”नहीं, चंदर बहुत खुश हैं इसलिए!” और एक गहरी साँस लेकर किताब बन्द कर दी।

”कौन-सी किताब है, सुधा?” चंदर ने पूछा।

”कुछ नहीं, इस पर उर्दू के कुछ अशआर लिखे हैं जो गेसू ने सुनाये थे।” सुधा बोली।

चंदर ने बिनती की ओर देखा और कहा, ”बिनती, कैलाश तो जैसा है वैसा ही है, लेकिन शंकरबाबू की तारीफ मैं कर नहीं सकता। क्या राय है तुम्हारी?”

”हाँ, है तो सही; दीदी इतनी सुखी रहेंगी कि बस! दीदी, हमें भूल मत जाना, समझीं!” बिनती बोली।

”और हमें भी मत भूलना सुधा!” चंदर ने सुधा की उदासी दूर करने के लिए छेड़ते हुए कहा।

”हाँ, तुम्हें भूले बिना कैसे काम चलेगा।” सुधा ने और भी गहरी साँस लेते हुए कहा और एक आँसू गालों पर फिसल ही आया।

”अरे पगली, तुम सब कुछ अपने चंदर के लिए कर रही हो, उसकी आज्ञा मानकर कर रही हो। फिर यह आँसू कैसे? छिह! और यह माला सामने रखे क्या कर रही हो?” चन्दर ने बहलाया।

”माला तो दीदी इसलिए सामने रखे थीं कि बतलाऊँ…बतलाऊँ!” बिनती बोली, ”असल में रामायण की कहानी तो सुनी है चंदर, तुमने? रामचन्द्र ने अपने एक भक्त को मोती की माला दी, तो वह उसे दाँत से तोडक़र देख रहा था कि उसके अन्दर रामनाम है या नहीं। सो यह माला सामने रखकर देख रही थीं, इसमें कहीं चंदर की झलक है या नहीं?”

”चुप गिलहरी कहीं की?” सुधा हँस पड़ी, ”बहुत बोलना आ गया है!” सुधा ने हँसते हुए बनावटी गुस्से से कहा। फिर सुधा तकिये से टिककर बैठ गयी-”आज गेसू नहीं है। मुझे गेसू की बहुत याद आ रही है।”

”क्यों?”

”इसलिए कि आज उसके कई शेर याद आ रहे हैं। एक दफे उसने सुनाया था-

ये आज फिजा खामोश है क्यों, हर जर्रे को आखिर होश है क्यों?

या तुम ही किसी के हो न सके, या कोई तुम्हारा हो न सका।’

इसी की अन्तिम पंक्ति है-

मौजें भी हमारी हो न सकीं, तूफाँ भी हमारा हो न सका’!”

”वाह! यह पंक्ति बहुत अच्छी है,” चंदर ने कहा।

”आज गेसू होती तो बहुत-सी बातें करते!” सुधा बोली, ”देखो चंदर, जिंदगी भी क्या होती है! आदमी क्या सोचता है और क्या हो जाता है। आज से तीन-चार महीने पहले मैंने क्या सोचा था! क्लास-रूम से भागकर हम लोग पेड़ के नीचे लेटकर बातें करते थे, तो मैं हमेशा कहती थी-मैं शादी नहीं करूँगी। पापा को समझा लूँगी। उस दिन क्या मालूम था कि इतनी जल्दी जुए के नीचे गरदन डाल देनी होगी और पापा को भी जीतकर किसी दूसरे से हार जाना होगा। अभी उसकी तय भी नहीं हुई और महीने-भर बाद मेरी…” सुधा थोड़ी देर चुप रही और फिर-”और दूसरी बात उसकी, जो मैंने तुम्हें बतायी थी। उसने कहा था जब किसी के कदम हट जाते हैं सिर के नीचे से, तब मालूम होता है कि हम किसका सपना देख रहे थे। पहले हमें भी नहीं मालूम होता था कि हमारे सिर किसके कदमों पर झुक चुके हैं। याद है? मैंने तुम्हें बताया था, तुमने पूछा था!”

”याद है।” चंदर ने कहा। बिनती उठकर चली गयी लेकिन सुधा या चंदर किसी ने ध्यान भी नहीं दिया। चंदर बोला, ”लेकिन सुधा, इन सब बातों को सोचने से क्या फायदा, आगे का रास्ता सामने है, बढ़ो।”

”हाँ, सो तो है ही देवता मेरे! कभी-कभी जाने कितनी पुरानी बातें मन में आ ही जाती हैं और मन करता है कि मैं सोचती ही जाऊँ। जाने क्यों मन को बड़ा सन्तोष मिलता है। और चंदर, जब मैं वहाँ रहूँगी, तुमसे दूर, तो इन्हीं स्मृतियों के अलावा और क्या शेष रहेगा…तुम्हें वह दिन याद है जब मैं गेसू के यहाँ नहीं जा पायी थी और उस स्थान पर हम लोगों में झगड़ा हो गया था… चंदर, वहाँ सब कुछ है लेकिन मैं लड़ूँगी-झगड़ूँगी किससे वहाँ?”

चंदर एक फीकी-सी हँसी हँसकर बोला, ”अब क्या जन्म-भर बच्ची ही बनी रहोगी!”

”हाँ चंदर चाहती तो यही थी, लेकिन जिंदगी तो जबरदस्ती सब सुख छीन लेती है और बदले में कुछ भी नहीं देती। आओ, चलो लॉन पर चलें। शाम को तुमसे बातें ही करेंगे!”

उसके बाद सुधा रात को आठ बजे उठी, जब बुआ तैयार होकर स्टेशन जा रही थीं और ड्राइवर मोटर निकाल रहा था। और उदास टिमटिमाते हुए सितारों ने देखा कि चन्दर और सुधा दोनों की आँखों में आँसुओं की अवशेष नमी झिलमिला रही थी। उठते हुए सुधा ने क्षण-भर चन्दर की ओर देखा, चंदर ने सिर झुका लिया और बहुत उदास आवाज में कहा, ”चलो सुधा, बहुत देर कर दी हम लोगों ने।”

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