चैप्टर 16 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 16 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
Chapter 16 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
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मगध महामात्य आर्य वर्षकार : वैशाली की नगरवधू
मगध महामात्य के सौध, सौष्ठव और वैभव को देखकर सोम हतबुद्धि हो गया। उसने कुभा, कपिशा, काम्बोज, पार्शुक, यवन, पांचाल, अवन्ती और कौशाम्बी के राजवैभव देखे थे। कोसल की राजनगरी श्रावस्ती और साकेत भी देखी थीं, पर इस समय जब उसने कुण्डनी के साथ राजगृह के अन्तरायण के अभूतपूर्व वैभव को देखते हुए महामात्य के सौध के सम्मुख आकर वहां का विराट् रूप देखा तो वह समझ ही न सका कि वह जाग्रत् है या स्वप्न देख रहा है।
प्रतीक्षा-गृह में बहुत-से राजवर्गी और अर्थी नागरिक बैठे थे। दण्डधर और प्रतिहार दौड़-धूप कर रहे थे। राजकर्मचारी अपने-अपने कार्य में रत थे। सोम के वहां पहुंचते ही एक दण्डधर ने उसके निकट आकर पूछा—”भन्ते, यदि आप आचार्य शाम्बव्य काश्यप के यहां से आ रहे हैं तो अमात्य-चरण आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं।”
“निस्संदेह मित्र, मैं वहीं से आया हूं, मेरा नाम सोमप्रभ है।”
“तो भन्ते, इधर से आइए!”
दण्डधर उसे भीतर ले गया। अनेक अलिन्दों और प्रकोष्ठों को पार कर जब वह अमात्य के कक्ष में पहुंचा तो देखा, अमात्य रजत-पीठ पर झुके हुए कुछ लिख रहे हैं। सोम को एक स्थान पर खड़ा कर दण्डधर चला गया, थोड़ी देर में लेख समाप्त कर अमात्य ने ज्यों ही सिर उठाया, उसे देखते ही सोमप्रभ भयभीत होकर दो कदम पीछे हट गया। उसने देखा—महामात्य और कोई नहीं, रात में आचार्य के गर्भगृह में जिन राजपुरुष को देखा था, वही हैं।
अमात्य भी सोम को देखकर एकदम विचलित हो उठे। वे हठात् आसन छोड़कर उठ खड़े हुए, परन्तु तत्क्षण ही वे संयत होकर आसन पर आ बैठे।
सोम ने आत्मसंवरण करके खड्ग कोश से निकालकर उष्णीष से लगा अमात्य को सैनिक पद्धति से अभिवादन किया। अमात्य पीठ पर निश्चल बैठे और कठोर दृष्टि से उसकी ओर कुछ देर देखते रहे। फिर भृकुटी में बल डालकर बोले—
“अच्छा, तुम्हीं वह उद्धत युवक हो, जिसे छिद्रान्वेषण की गन्दी आदत है?”
“आर्य, मैं अनजान में अविनय और गुरुतर अपराध कर बैठा था, किन्तु मेरा अभिप्राय बुरा न था।”
“तुमने तक्षशिला में शस्त्र, शास्त्र और राजनीति की शिक्षा पाई है न?”
“आर्य का अनुमान सत्य है।”
“तब तो तुम्हारे इस अपराध का गौरव बहुत बढ़ जाता है।”
“किन्तु आचार्य ने मेरी मनःशुद्धि को जानकर मेरा अपराध क्षमा कर दिया है, अब मैं आर्य से भी क्षमा–प्रार्थना करता हूं।”
अमात्य बड़ी देर तक होंठ चबाते और दोनों हाथों की उंगलियां ऐंठते रहे, फिर एक मर्मभेदिनी दृष्टि युवक पर डालकर कहा—
“हुआ, परन्तु क्या तुम अपने दायित्व को समझने में समर्थ हो?”
“मैं आर्य का अनुगत हूं।”
“क्या कहा तुमने?”
“मैं सोमप्रभ, मगध महामात्य का अनुगत सेवक हूं।”
“और मगध साम्राज्य का भी?”
“अवश्य आर्य, मैं सम्राट् के प्रति भी अपना एकनिष्ठ सेवा-भाव निवेदन करता हूं।”
अमात्य ने घृणा से होंठ सिकोड़कर कहा—”यह तो मैंने नहीं पूछा, परन्तु जब तुमने निवेदन किया है तो पूछता हूं—यदि सम्राट् और साम्राज्य में मतभेद हो तो तुम किसके अनुगत होगे?”
“साम्राज्य का, आर्य!”
अमात्य ने मुस्कराकर कहा—”और यदि अमात्य और साम्राज्य में मतभेद हुआ तब?”
क्षण-भर सोमप्रभ विचलित हुआ, फिर उसने दृढ़ स्वर में, किन्तु विनम्र भाव से कहा—
“साम्राज्य का, आर्य!”
अमात्य की भृकुटी में बल पड़ गए। उन्होंने रूखे स्वर में कहा—
“किन्तु युवक, तुम अज्ञात-कुलशील हो।”
“तो मगध महामात्य मेरी सेवाओं को अमान्य कर सकते हैं और अनुमति दे सकते हैं कि मैं आचार्य बहुलाश्व और आचार्यपाद काश्यप से की गई प्रतिज्ञाओं से मुक्त हो जाऊं।”
“अपने आचार्यों से तुमने क्या प्रतिज्ञाएं की हैं आयुष्मान्?”
“मगध के प्रति एकनिष्ठ रहने की, आर्य!”
“क्यों?”
“क्योंकि मैं मागध हूं। तक्षशिला से चलते समय बहुलाश्व आचार्यपाद ने कहा था कि तुम मगध साम्राज्य के प्रति प्राण देकर भी एकनिष्ठ रहना और आचार्यपाद काश्यप ने कहा था—”महामात्य के आदेश का पालन प्रत्येक मूल्य पर करना।”
“आचार्य ने ऐसा कहा था?” अमात्य ने मुस्कराकर कहा। फिर कुछ ठहरकर धीमे स्वर से बोले—
“यह यथेष्ट है आयुष्मान् कि तुम मागध हो। अच्छा, तो तुम याद रखो—मगध साम्राज्य और मगध अमात्य के तुम एक सेवक हो।”
“निश्चय आर्य!”
“ठीक है, कुण्डनी से तुम परिचित हुए?”
“वह मेरी भगिनी है आर्य!”
“और वयस्य काश्यप ने तुम्हें उसका रक्षक नियत किया है?”
“जी हां आर्य!”
“मैं तुम्हें अभी एक गुरुतर भार देता हूं। तुम्हें इसी क्षण एक जोखिम-भरी और अतिगोपनीय यात्रा करनी होगी।”
“मैं प्रस्तुत हूं!”
“तो तुम इसी क्षण कुण्डनी को लेकर चम्पा को प्रस्थान करो। तुम्हारे साथ केवल पांच योद्धा रहेंगे। वे मैंने चुन दिए हैं। सभी जीवट के आदमी हैं, वे बाहर तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं। किन्तु तुम्हारी यात्रा कोई जान न पाएगा, तथा तुम्हें कुण्डनी की रक्षा भी करनी होगी। उससे भी अधिक और एक वस्तु की—
“वह क्या आर्य?”
“यह”, वर्षकार ने एक पत्र सोमप्रभ को देकर कहा—”इसे जल्द से जल्द सेनापति चण्डभद्रिक को पहुंचाना होगा। पत्र निरापद उनके हाथ में पहुंचना अत्यन्त आवश्यक है।”
“आर्य निश्चिन्त रहें!”
“परन्तु यह सहज नहीं है आयुष्मान्, राह में दस्युओं और असुरों के जनपद हैं। फिर तुम्हें मैं अधिक सैनिक भी नहीं ले जाने दे सकता।”
“वचन देता हूं, पत्र और कुण्डनी ठीक समय पर सेनापति के पास पहुंच जाएंगे।”
“कुण्डनी नहीं, केवल पत्र। कुण्डनी सेनापति के पास नहीं जाएगी। सेनापति को उसकी सूचना भी नहीं होनी चाहिए।”
“ऐसा ही होगा आर्य, किन्तु कुण्डनी को किसके सुपुर्द करना होगा?”
“यह तुम्हें चम्पा पहुंचने पर मालूम हो जाएगा।”
“जो आज्ञा आर्य!”
अमात्य ने दण्डधर को कुण्डनी को भेज देने का संकेत किया। कुण्डनी ने अमात्य के निकट आकर उनके चरणों में प्रणाम किया। अमात्य ने उसके मस्तक पर हाथ धरकर कहा—
“कुण्डनी!”
कुण्डनी ने विह्वल नेत्रों से अमात्य की ओर देखा।
अमात्य ने कहा—”सम्राट् के लिए!”
कुण्डनी उसी भांति स्थिर रही—अमात्य ने फिर कहा—”साम्राज्य के लिए!”
कुण्डनी फिर भी स्तब्ध रही। अमात्य ने कहा—”मागध जनपद के लिए!”
कुण्डनी अब भी अचल रही। अमात्य ने कहा—”हाथ दो कुण्डनी!”
कुण्डनी ने अपना दक्षिण हाथ अमात्य के हाथ में दे दिया।
अमात्य ने कहा—”कांप क्यों रही हो कुण्डनी?”
कुण्डनी बोली नहीं। अमात्य ने उसके मस्तक पर हाथ धरकर कहा—”सोम की रक्षा करना, सोम तुम्हारी रक्षा करेगा, जाओ!”
कुण्डनी ने एक शब्द भी बिना कहे भूमि में गिरकर प्रणाम किया।
अमात्य ने एक बहुमूल्य रत्नजटित खड्ग तरुण को देकर कहा—”सोम, इसे धारण करो। आज से तुम मगध महामात्य की अंगरक्षिणी सेना के अधिनायक हुए।”
सोम ने झुककर खड्ग दोनों हाथों में लेकर अमात्य का अभिवादन किया और दोनों व्यक्ति पीठ फेरकर चल दिए।
अमात्य के मुख पर एक स्याही की रेखा फैल गई। उन्हें प्राचीन स्मृतियां व्यथित करने लगीं और वे अधीर भाव से कक्ष में टहलने लगे।
बाहर आकर सोम ने कहा—”कुण्डनी, अभी मुझे एक मुहूर्त—भर राजगृह में और काम है।”
“आर्या मातंगी के दर्शन न?”
“हां, क्या तुम जानती हो?”
“जानती हूं।”
“तो तुम कह सकती हो वे कौन हैं?”
“क्या तुम भूल गए सोम, राजनीति में कौतूहलाक्रान्त नहीं होना चाहिए?”
“ओह, मैं बारम्बार भूल करता हूं। पर क्या तुम भी साथ चलोगी?”
“नहीं, वहां प्रत्येक व्यक्ति का जाना निषिद्ध है।”
“तब मैं कैसे जाऊंगा?”
“पिता ने कुछ व्यवस्था कर दी होगी।”
“तब तुम सैनिकों को लेकर दक्षिण तोरण पर मेरी प्रतीक्षा करो और वहीं मैं आर्या मातंगी के दर्शन करके आता हूं।”
दोनों ने दो दिशाओं में अपने अश्व फेरे।
सोम आर्या मातंगी के मठ की ओर तथा कुण्डनी सैनिकों के साथ नगर के दक्षिण तोरण की ओर चल दिए।
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