चैप्टर 16 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 16 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

चैप्टर 16 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 16 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 16 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 16 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

गंगा पार कर चार सवार उत्तर-पूर्व की ओर बढ़ते जा रहे हैं।

समय दिन डेढ़ पहर हो चुका है। चारों मौन हैं। दृष्टि पर एक स्थिर प्रतीक्षा झलक रही है।

आगे के सवार ने कोमल कंठ से कहा, “उधर से भी तीन-चार सवार आ रहे हैं, शायद।”

“हाँ।” दूसरे ने अच्छी तरह देखते हुए कहा।

“हम लोग दस कोस से ज्यादा आ गए होंगे,” पहले ने कहा।

“कम नहीं,” दूसरे ने बरछी तौलते हुए कहा।

“दुश्मन हो तो बड़ा अच्छा मौका है।” पहले ने दूसरे को फिरकर मुस्कुराती आँखों से देखते हुए कहा।

“हाँ, उस बार विवश होना पड़ा था।” दूसरे ने बरछी कमर से लगाते हुए कमान निकालकर कहा।

तीसरे ने चौथे से पूछा, “आप घबराते तो नहीं?”

“अरे भय्या, हमारी गरमी गंगाजी ही बुझा पाती हैं,” कहकर चौथे ने बनी भंग की एक गोली जीभ पर रख ली और पेंचदार गिलास का ढक्कन खोलकर पानी के साथ उतार दी। फिर पेंच बन्द कर गिलास रखते हुए तीसर से पूछा, “अभी और है, आपी को चाही? विजया है भय्या, वार खाली न जाएगा, दूना हौसला बढ़ाती है।”

“नहीं महाराज, हम तो विजया के नशे में रही सूझ भी नहीं रहती,” कहकर तीसरा आते हुए सवारों की तरफ देखने लगा।

पहले प्रभावती, उसके बाद यमुना, उसके पीछे वीरसिंह और वीरसिंह के पीछे महाराज शिवस्वरूप कुमार देव के उद्धार के लिए। मनवा जा रहे हैं। देव से महेन्द्रपाल का सारा संवाद भी कहना है।

“इधर से बलवन्तसिंह या उनके सिपाहियों के आने की सम्भावना अधिक है। सम्भव है, पत्रवाला दूत पत्र खो जाने पर घबराकर बलवन्तसिंह से मिला हो और पत्र खोने का झूठा संवाद कहा हो। देर होने पर कुमार और महेन्द्रपाल की दृष्टि में कान्यकुब्जेश्वर के पास प्रमाण पहुँच न जाए, ऐसा विचार कर बलवन्त स्वयं चल दिए हों!” वीरसिंह ने यमुना से कहा।

“हाँ, सम्भव है।” यमुना देख रही थी, सवार अब बहुत निकट आ गए थे।

प्रभावती एकाग्र थी। इससे पहले वीरसिंह के सम्बन्ध की कल्पनाओं में पड़ी थी। यमुना ने जो परिचय दिया था, वह और विस्मयोत्पादक था।

“लेकिन हम…” पहचानकर यमुना ने कहा, “वही हैं।”

“कुछ परवाह नहीं, प्रभा का बायाँ देखना दूर से, मैं दाहिने हूँ। महाराज, जिसका हथियार घटे, अपना दे देना, घबराना मत।” वीरसिंह के कहते ही यमुना ने घोड़ा बढ़ाया। वीरसिंह दाहिने आ गए।

“बलवन्त, अगर बलवन्त है!” प्रभा ने आवाज दी।

बलवन्त ने अच्छी तरह देखा न था। विचार में थे। केवल आते हुए राजपूत सोचा था। प्रभावती को न पहचाना, पर यमुना और वीरसिंह को देखकर घृणा से भर गया।

“उस रोज नाव पर अवसर नहीं मिला मुझे बलवन्त, मैं ही प्रभावती हूँ। तैयार हो, देखा जाए, द्वन्द्व किसका रहता है,” कहती हुई प्रभावती ने भाला मारा।

बलवन्त ने बचने के लिए जल्द घोड़े को बाएँ फेरा, पर वार बड़ा तेज था। भाला एक बगल से दाहिनी जाँघ पार कर जीन छेदकर कुछ घोड़े के भी जा चुभा। बलवन्त के साथी उसी वक्त रास फेंककर भाग खड़े हुए, वे यमुना और वीरसिंह को जानते थे।

बलवन्त होश में था, पर घायल, डरा हुआ। वीरसिंह ने भाला निकालकर सँभालकर उतार लिया। वहीं लेटाकर यमुना को दूर लें जाकर कहा, “अब तो चलने की सूरत बदल गई। मैं इनको यहाँ से अपने एक केन्द्र में ले जाता हूँ, दूसरे रास्ते से। भागे सिपाही कहीं से मदद लेकर जल्द आ सकते हैं। वे हमें पहचान गए हैं। सम्भव, मनवा जाकर कुमार देव पर अत्याचार करें। तुम्हें बचकर भी जाना है और जल्द भी। महाराज को हमारे साथ कर दो। हम दोनों इन्हें सँभाल लेंगे। चिन्ता न करना, सचेत रहना।”

प्रभावती देवी की तरह, स्पर्द्धा से खड़ी बलवन्तसिंह को देख रही थी। लौटकर यमुना ने कहा, “इन्हें प्रणाम करो बहू, यही तुम्हारे जेठ वीरसिंह हैं।” प्रभावती वीरसिंह को भक्तिपूर्वक प्रणाम करने लगी। बलवन्त को देखकर यमुना की आँखें सजल हो आईं। तेज रक्तस्राव हो रहा था। पत्तियाँ लेकर रस निचोड़कर घाव बाँधने लगी। फिर करुण दृष्टिपात कर बोली, “भाई, तुम सच्चे भाई न हुए! बहन को अपराधिनी समझा, पर क्षमा करना। राज-दर्प से ईश्वर तुम्हारा भला करें।”

महाराज बड़े ताव से बलवन्त को देख रहे थे। यमुना की बातचीत से बिलकुल मूढ़ हो गए।

महाराज को वीरसिंह के साथ निश्चिन्त होकर रहने के लिए कहकर यमुना प्रभावती को लेकर प्रस्थान कर गई।

क्रमश: 

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