चैप्टर 16 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 16 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore
Chapter 16 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali)
बिहारी ने सोचा – ‘ऊँहूँ! दूर-दूर रहने से अब काम नहीं चलने का। चाहे जैसे हो, इसके बीच अपने लिए भी जगह बनानी पड़ेगी। इनमें से किसी को यह पसंद तो न होगा, लेकिन फिर भी मुझे रहना पड़ेगा।’
बुलावे या स्वागत की अपेक्षा किए बिना ही बिहारी महेंद्र के व्यूह में दाखिल होने लगा। उसने विनोदिनी से कहा – ‘विनोद भाभी, इस शख्स को इसकी माँ ने बर्बाद किया, इसकी बीवी बर्बाद कर रही है। तुम भी उस जमात में शामिल न हो कर इसे कोई नई राह सुझाओ।’
महेंद्र ने पूछा – ‘यानी?’
बिहारी – ‘यानी मेरे-जैसा आदमी, जिसे कभी कोई नहीं पूछता…’
महेंद्र – ‘उसको बर्बाद करो! बर्बाद होने की उम्मीदवारी इतनी आसान नहीं बच्चू कि दरखास्त दे दी और मंजूर हो गई।’
विनोदिनी हँस कर बोली – ‘बर्बाद होने का दम होना चाहिए बिहारी, बाबू!’
बिहारी ने कहा – ‘अपने आप में वह खूबी न भी हो, तो पराए हाथ से आ सकती है। एक बार देख ही लो पनाह दे कर!’
विनोदिनी – ‘यों तैयार हो कर आने से कुछ नहीं होता, लापरवाह रहना होता है। क्या खयाल है, भई आँख की किरकिरी! अपने इस देवर का भार तुम्हीं उठाओ न!’
आशा ने दो उँगुलियों से उसे ठेल दिया। बिहारी ने भी इस दिल्लगी में साथ न दिया।
विनोदिनी से यह छिपा न रहा कि बिहारी को आशा से मजाक करना पसंद नहीं। वह आशा पर श्रद्धा रखता है और विनोदिनी को उल्लू बनाना चाहता है, यह बात उसे चुभी।
उसने आशा से फिर कहा – ‘तुम्हारा यह भिखारी देवर मुझे इंगित करके तुमसे ही दुलार की भीख मांगने आया है। कुछ दे दो न, बहन!’
आशा बहुत खीझ उठी। जरा देर के लिए बिहारी का चेहरा तमतमा उठा, दूसरे ही दम वह हँस कर बोला – ‘दूसरे पर यों टाल देना ठीक नहीं है।’
विनोदिनी समझ गई कि बिहारी सब बंटाधार करके आया है, इसके सामने हथियारबंद रहना जरूरी है। महेंद्र भी आजिज आ गया। बोला – ‘बिहारी, तुम्हारे महेंद्र भैया किसी व्यापार में नहीं पड़ते, जो पास है, उसी से खुश हैं वे।’
बिहारी – ‘खुद न पड़ना चाहते हों चाहे, मगर किस्मत में लिखा होता है, तो व्यापार की लहर बाहर से भी आ सकती है।’
विनोदिनी – ‘बहरहाल, आपका तो हाथ खाली है, फिर आपकी लहर किधर से आती है?’
और व्यंग्य की हँसी हँस कर उसने आशा को दबाया। आशा कुढ़ कर चली गई। बिहारी मुँह की खा कर गुस्से में भी चुप रहा। वह जाने को तैयार हुआ, तो विनोदिनी बोल उठी – ‘हताश हो कर न जाइए बिहारी बाबू, मैं आँख की किरकिरी को भेजे देती हूँ।’
विनोदिनी के उठने से बैठक टूट गई। इससे महेंद्र मन-ही-मन नाराज हुआ। महेंद्र की नाराज शक्ल देख कर बिहारी का आवेग उमड़ आया।
बोला – ‘महेंद्र भैया, अपना सत्यानाश करना चाहते हो, करो! तुम्हारी ऐसी ही आदत रही है। लेकिन जो सरल हृदय की साध्वी तुम्हारा विश्वास करके पनाह में है, उसका सत्यानाश तो न करो। अब भी कहता हूँ, ऐसा न करो!’
कहते-कहते बिहारी का गला रूंध गया।
दबे क्रोध से महेंद्र ने कहा – ‘बिहारी, तुम्हारी बात बिलकुल समझ में नहीं आती। बुझौअल रहने दो, साफ-साफ कहो।’
बिहारी ने कहा – ‘मैं दो टूक ही कहूंगा। विनोदिनी तुम्हें जान-बूझ कर पाप की ओर खींच रही है और तुम बिना समझे कदम बढ़ा रहे हो।’
महेंद्र गरज उठा – ‘सरासर झूठ है। तुम अगर भले घर की बहू-बेटी को गलत शुबहे की निगाह से देखते हो, तो तुम्हारा घर के अंदर आना ठीक नहीं।’
इतने में विनोदिनी एक थाली में मिठाइयाँ ले कर आई और बिहारी के सामने रखीं। बिहारी बोला – ‘अरे, यह क्या! मुझे बिलकुल भूख नहीं।’
विनोदिनी बोली – ‘ऐसी क्या बात! मुँह मीठा करके ही जाना होगा।’
बिहारी बोला – ‘मेरी दरखास्त मंजूर हुई शायद? आदर-सत्कार शुरू हो गया?’
विनोदिनी होठ दबा कर हँसी। कहा – ‘आप जब देवर ठहरे, रिश्ते का जोर तो है। जहाँ दावा कर सकते हैं, वहाँ भीख क्या मांगना? आदर तो आप छीन कर ले सकते हैं। आप क्या कहते हैं, महेंद्र बाबू?’
महेंद्र बाबू ने कोई टिप्पणी नहीं की।
विनोदिनी – ‘बिहारी बाबू, आप शर्म से नहीं खा रहे हैं या नाराजगी से! किसी और को बुलाना पड़ेगा?’
बिहारी – ‘नहीं, जरूरत नहीं। जो मिला है, काफी है।’
विनोदिनी – ‘मजाक? आप से तो पार पाना मुश्किल है। मिठाई से भी मुँह बंद नहीं होता।’
रात को आशा ने महेंद्र से बिहारी की शिकायत की। महेंद्र और दिन की तरह हँस कर टाल नहीं गया, बल्कि उसने साथ दिया। सुबह ही महेंद्र बिहारी के घर गया। बोला – ‘बिहारी, लाख हो, विनोदिनी आखिर अपने घर की तो नहीं है। तुम सामने होते हो तो उसे कैसी झिड़क होती है।’
बिहारी ने कहा – ‘अच्छा! तब तो यह ठीक नहीं। उन्हें अगर एतराज है, तो मैं सामने न जाऊंगा।’
महेंद्र निश्चिंत हुआ। यह अप्रिय काम इस आसानी से बन जाएगा, वह सोच भी न सका था। बिहारी से वह डरता था।
वह उसी दिन महेंद्र के घर गया। बोला – ‘विनोद भाभी, मुझे माफ कर दो!’
विनोदिनी – ‘कैसी माफी?’
बिहारी – ‘महेंद्र से मालूम हुआ, मैं यहाँ आ कर सामने होता हूँ, इसलिए आप नाराज हैं। इसलिए मैं माफी मांग कर रुखसत हो जाऊंगा।’
विनोदिनी – ‘ऐसा भी होता है भला! मैं तो आज हूँ, कल नहीं रहूंगी। मेरी वजह से आप क्यों रुखसत होंगे? इतना झमेला होगा, यह जानती होती तो मैं यहाँ न आती…।’ कह कर विनोदिनी मुँह मलिन किए बिना आँसू छिपाने को तेजी से चली गई।
बिहारी के मन में आया – ‘झूठे संदेह पर मैंने नाहक ही विनोदिनी के मन को चोट पहुँचाई है।’
उस दिन मानो मुश्किल में पड़ी राजलक्ष्मी महेंद्र के पास जा कर बोली – ‘महेंद्र विपिन की बहू घर जाने के लिए उतावली हो गई है।’
महेंद्र ने पूछा – ‘क्यों, यहाँ उन्हें कोई तकलीफ है?’
राजलक्ष्मी – ‘तकलीफ नहीं, वह कहती है, मुझ-जैसी विधवा ज्यादा दिन दूसरे के घर रहेगी, तो लोग निंदा करेंगे।’
महेंद्र क्षुब्ध हो कर बोला – ‘तो यह पराया घर है!’
बिहारी बैठा था। महेंद्र ने उसे खीझी निगाह से देखा।
बिहारी ने सोचा था, ‘कल मैंने जो कुछ कहा, उसमें निंदा का आभास था। शायद उसी से विनोदिनी का जी दुखा।’
पति-पत्नी दोनों विनोदिनी से रूठे रहे।
ये बोलीं – ‘हमें पराया समझती हो, बहन!’
वे बोले – ‘इतने दिनों में हम पराए हो गए।’
विनोदिनी ने कहा – ‘हमें क्या तुम आजीवन पकड़े रहोगी?’
महेंद्र बोला – ‘ऐसी जुर्रत कहाँ!’
आशा बोली – ‘फिर ऐसे क्यों हमारे जी को चुराया तुमने?’
उस दिन कुछ भी तय न हो सका। विनोदिनी बोली – ‘नहीं बहन, बेकार है, दो दिनों के लिए ममता न बढ़ाना ही ठीक है।’
कह कर अकुलाई हुई आँखों से उसने एक बार महेंद्र को देखा।
दूसरे दिन बिहारी ने आ कर कहा – ‘विनोद भाभी, यह जाने की जिद क्यों? कोई कुसूर किया है, उसी की सजा?’
मुँह फेर कर विनोदिनी बोली – ‘कुसूर आप क्यों करने लगे, कुसूर है मेरी तकदीर का।’
बिहारी – ‘आप अगर चली जाएं, तो मुझे यही लगता रहेगा कि मुझी से नाराज हो कर चली गईं आप।’
करुण आँखों से विनती जाहिर करती हुई विनोदिनी ने बिहारी की ओर ताका। कहा – ‘आप ही कहिए न, मेरा रहना उचित है?’
बिहारी मुश्किल में पड़ गया। रहना उचित है, यह बात वह कैसे कहे?
बोला – ‘ठीक है, आपको जाना तो पड़ेगा ही, लेकिन दो-चार दिन रुक कर जाएं, तो क्या हर्ज है?’
अपनी दोनों आँखें झुका कर विनोदिनी ने कहा – ‘आप सब लोग रहने का आग्रह कर रहे हैं, आप लोगों की बात टाल कर जाना मेरे लिए मुश्किल है, मगर आप लोग गलती कर रहे हैं।’
कहते-कहते उसकी बड़ी-बड़ी पलकों से आँसू की बड़ी-बड़ी बूंदें तेजी से ढुलकने लगीं।
बिहारी इन मौन आँसुओं से व्याकुल हो कर बोल उठा – ‘महज इन कुछ दिनों में ही आपने सबको मोह लिया है, इसी से आपको कोई छोड़ना नहीं चाहता। अन्यथा न सोचें विनोद भाभी, ऐसी लक्ष्मी को चाह कर विदा भी कौन करेगा?’
आशा घूँघट काढ़े एक कोने में बैठी थी। घूँघट सरका कर वह रह-रह कर आँखें पोंछने लगी।
आइंदा विनोदिनी ने जाने की बात न चलाई।
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अनुराधा शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास