चैप्टर 157 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 157 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
Chapter 157 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
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पिता – पुत्र : वैशाली की नगरवधू
उस अर्ध-निशा में सेनापति को एकाकी बन्दीगृह के द्वार पर आया देख प्रहरी घबरा गए।
सोम ने पूछा – “ क्या बन्दी सो रहा है ? ”
“ नहीं जाग रहा है । ”
“ ठीक है । अब तुम्हारी आवश्यकता नहीं है। द्वार खोल दो । ”
प्रहरी ने द्वार खोल दिया । सोम ने भीतर जाकर देखा – सम्राट् धीर- गति से उस क्षुद्र कक्ष में टहल रहे थे ।
सोम को देखकर वे क्षण- भर को रुक गए । फिर बोले –
“ आ आयुष्मान्, क्या वध करने आया है ? वध कर , मैं प्रस्तुत हूं । परन्तु एक वचन दे, खड्ग छूकर। यदि अम्बपाली को पुत्र -लाभ हो , तो वही मगध सम्राट् होगा। मैंने देवी को यह वचन उसके शुल्क में दिया था , वह वचन सम्राट का वचन था । ”
सोम ने भरोए कण्ठ से कहा – “ वचन देता हूं। ”
“ खड्ग छूकर ? ”
“ खड्ग छूकर । ”
“ आश्वस्त हुआ, परन्तु आयुष्मान् , तू युवा है, सशक्त है, खड्ग चलाने में सिद्धहस्त है। ”
सोम ने उत्तर नहीं दिया । चुपचाप खड़े रहे ।
सम्राट् कहते गए – “ मैं समझता हूं , एक ही हाथ से मेरा शिरच्छेद हो जाएगा । अधिक कष्ट नहीं होगा , समझता है न आयुष्मन् ? अब मैं कायर हो गया हूं, कष्ट नहीं सह सकता। यह अवस्था का दोष है, भद्र पहले मैं ऐसा नहीं था । अब तू वध कर । ”
सम्राट् स्थिर मुद्रा में भूमि पर बैठ गए । सोम के मुंह से एक शब्द नहीं निकला – वह धीरे- धीरे सम्राट के चरणों में भूमि पर लोट गए । उन्होंने अवरुद्ध कण्ठ से कहा –
“ पिता , क्षमा कीजिए! ”
“ यह मैंने क्या सुना है आयुष्मान् ? ”
किन्तु सोम ने और एक शब्द भी नहीं कहा। वे उसी भांति भूमि पर पड़े रहे। सम्राट ने उठाकर और स्वयं उठकर सोम को छाती से लगाकर कहा –
“ पिता , क्षमा कीजिए! ”
“ यह मैंने क्या सुना है आयुष्मान् ? ”
किन्तु सोम ने और एक शब्द भी नहीं कहा। वे उसी भांति भूमि पर पड़े रहे। सम्राट ने उठाकर और स्वयं उठकर सोम को छाती से लगाकर कहा –
“ क्या कहा, फिर कह भद्र! अरे इस नीरस, निर्मम , शापग्रस्त सम्राट् के जीवन को एक क्षण- भर के लिए तो आप्यायित कर , फिर कह भद्र, वही शब्द ! ”
सोम ने सम्राट के अंक में बालक की भांति सिर देकर कहा –
“ पिता! ”
सम्राट ने असंयत हो उन्मत्त की भांति कहा – “ अहा- हा , कैसा सुधा -वर्षण किया भद्र, किन्तु यह क्या सत्य है ? स्वप्न नहीं है, मैं एक पुत्र का पिता हूं ? ”
“ हां देव , आप इस दग्ध – भाग्य सोम के पिता हैं । ”
“ किसने कहा भद्र, क्या मृत्यु के भय से मेरा मस्तिष्क विकृत तो नहीं हो गया है । तूने कहा न पिता ? ”
“ हां देव ! ”
“ तो फिर कह । ”
“ पिता ! ”
“ और कह। ”
“ पिता ! ”
“ अरे बार – बार कह, बार – बार कह! ”सम्राट् ने सोम को अंक में भर गाढ़ालिंगन किया ।
सोम ने कहा – “ पूज्य पिता, यह आपका पुत्र सोमप्रभ आपको अभिवादन करता है। ”
“ सौ वर्ष जी भद्र, सहस्र वर्ष! सम्राट् ज़ार- ज़ार आंसू बहाने लगे ।
सोम ने कहा – “ पिता , अभी एक गुरुतर कार्य करना है । ”
“ कौन – सा पुत्र ?
“
“ माता मातंगी आर्या का सत्कार ।
“ क्या आर्या मातंगी आई हैं ? ”
“ आई थीं , किन्तु चली गईं पिता ! ”
“ चली गईं ? मैं एक बार देख भी न सका ! ”
“ देख लीजिए पिता , अभी अवशेष है । ”
“ अरे , तो …..। ”
“ अभी कुछ क्षण पूर्व मुझे अपनी अश्रु- सम्पदा से सम्पन्न कर और दो सन्देश देकर वह गत हुईं । ”
“ अश्रु- सम्पदा से तुझे सम्पन्न करके ?
“ हां , देव ! ”
“ तो पिता पुत्र के सौभाग्य पर ईर्ष्या करेगा , किन्तु सन्देश , तूने कहा था , दो सन्देश ? ”
“ एक निवेदन कर चुका । ”…..
“ उसका मूल्य मगध का साम्राज्य – अस्तु , दूसरा कह …. “
“ देवी अम्बपाली मेरी भगिनी हैं । ”
सम्राट् चीत्कार कर उठे ।
सोम ने कहा – “ मुझे कुछ निवेदन करना है देव ! ”
“ अब नहीं , अब नहीं, सोमभद्र, तू मुझे वध कर , शीघ्रता कर! ”
“ देव ! ”
“ आज्ञा देता हूं रे, यह सम्राट् की आज्ञा है, अन्तिम आज्ञा ! ”
“ एक गुह्य है पिता , देवी अम्बपाली आर्य अमात्य की पुत्री हैं । ”
सम्राट ने उन्मत्त की भांति उछलकर सोम को हृदय से लगा लिया। संयत होने पर सोम ने कहा –
“ पिता , चलिए अब, माता का शरीर अरक्षित है। ”
“ कहां पुत्र “
“ निकट ही । ”
दोनों बाहर आए। महाश्मशान में अब भी चिताएं जल रही थीं । दोनों ने आर्या मातंगी को उठाकर गंगा -स्नान कराया । फिर सम्राट ने अपना उत्तरीय अंग से उतार कर देवी के अंग पर लपेट दिया । सोम सूखी लकड़ी बीन लाए और उस पर आर्या मातंगी की महामहिमामयी देहयष्टि रखकर एक चिता की अग्नि से मगध के सम्राट ने आर्या की चिता में दाह दिया । जिसके साक्षी थे सद्य: परिचित माता -पिता का पुत्र और वर्षोन्मुख मेघपुञ्ज।
पिता – पुत्र दोनों उसी वृक्ष के नीचे बैठे आर्या मातंगी की जलती चिता को देखते रहे । चिता जल चुकने पर सोम ने खड्ग सम्राट के चरणों में रखकर उनकी प्रदक्षिणा की , फिर अभिवादन करके कहा – “ विदा , पूज्य पिता ! ”
“ यह क्या पुत्र , जाने का अब मेरा काल है, मगध का साम्राज्य तेरा है । ”
सोमप्रभ ने कहा – “ इसी खड्ग की सौगन्ध खाकर कहता हूं , मगध का भावी सम्राट देवी अम्बपाली का गर्भजात पुत्र होगा। ”
सोम ने एक बार फिर भूमि में गिरकर सम्राट का अभिवादन किया और जलती हुई चिताओं में होते हुए उसी अभेद्य अन्धकार में लोप हो गए ।
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