चैप्टर 156 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 156 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
Chapter 156 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
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अश्रु – सम्पदा : वैशाली की नगरवधू
मध्य रात्रि थी । एक भी तारा आकाश – मण्डल में नहीं दीख रहा था । काले बादलों ने उस अंधेरी रात को और भी अंधेरी बना दिया था । बीच -बीच में कभी -कभी बूंदा- बांदी हो जाती थी । हवा बन्द थी , वातावरण में एक उदासी , बेचैनी और उमस भरी हुई थी । दूर तक फैले हुए युद्ध – क्षेत्र में सहस्रों चिताएं जल रही थीं । उनमें युद्ध में निहित सैनिकों के शव जल रहे थे। चरबी के जलने के चट – चट शब्द हो रहे थे। कोई -कोई चिता फट पड़ती थी । उसकी लाल – लाल अग्निशिखा पर नीली – पीली लौ एक बीभत्स भावना मन में उदय कर रही थी । सैनिक शव ढो -ढोकर एक महाचिता में डाल रहे थे। बड़े – बड़े वीर योद्धा, जो अपनी हुंकृति से भूतल को कपित करते थे,छिन्नमस्तक -छिन्नबाहु भूमि पर धूलि – धूसरित पड़े थे । राजा और रंक में यहां अन्तर न था । अनेक छत्रधारियों के स्वर्ण-मुकुट इधर – उधर लुढ़क रहे थे। कोई – कोई घायल योद्धा मृत्यु -विभीषिका से त्रस्त हो रुदन कर बैठता था । कोई चीत्कार करके पानी और सहायता मांग रहा था । वायु में चिरायंध भरी थी । जलती हुई चिताओं की कांपती हुई लाल आभा में मृतकों को ढोते हुए सैनिक उस काली कालरात्रि में काले -काले प्रेत – से भासित हो रहे थे। सम्पूर्ण दृश्य ऐसा था , जिसे देखकर बड़े-बड़े वीरों का धैर्य च्युत हो सकता था ।
मागध सेनापति सोमप्रभ एक महाशाल्मलि वृक्ष के नीचे तने से ढासना लगाए ध्यान – मुद्रा से यह महाविनाश देख रहे थे। गहन चिन्ता से उनके माथे पर रेखाएं पड़ गई थीं । उनके बाल रूखे, धूल – भरे और बिखरे हए थे । मह सूख रहा था और होंठ सम्पटित थे ।
बीच- बीच में उल्लू और सियार बोल उठते थे। उनकी डरावनी शब्द- ध्वनि बहुधा उन्हें चौंका देती थी । क्षण – भर को विचलित होकर वे फिर गहरी ध्यान – मुद्रा में डूब जाते थे । कभी उनके कल्पना – संसार में भूतकालीन समूचा जीवन विद्युत् – प्रवाह की भांति घूम जाता था , कभी तक्षशिला की उत्साहवर्धक और आनन्द तथा ओजपूर्ण छात्रावस्था के चित्र घूम जाते थे; कभी चम्पा की राजबाला का कुन्देंदुधवल अश्रुपूरित मुख और कभी देवी अम्बपाली का वह अपार्थिव नृत्य , कभी सम्राट् की भूलुण्ठित आर्त मूर्ति और कभी अम्बपाली का आर्त चीत्कार; अन्ततः उनका निस्सार -निस्संग जीवन – उस रात्रि से भी अधिक बीभत्स , भयानक और अन्धकारमय भविष्य !
इसी समय निकट पद- शब्द सुनकर उन्होंने किसी वन -पशु की आशंका से खड्ग पर हाथ रखा। परन्तु देखा – एक मनुष्य छाया उन्हीं की ओर आ रही है । छाया के और निकट आने पर उन्होंने भरे स्वर में पुकारा – “ कौन है ? ”
एक स्त्रीमूर्ति आकर उनके निकट खड़ी हो गई । जलती हुई निकट की चिता के लाल – पीले प्रकाश में सोमप्रभ ने देखा , पहचानने में कुछ देर लगी । पहचानकर वह ससंभ्रम खड़े हो गए । उनके मुंह से जैसे आप ही निकल गया
“ आप ? ”
“ मैं ही हूं सोमप्रभ ! ”
सोम स्तम्भित , जड़वत् – अवाक् खड़े रह गए । आगन्तुका ने और भी निकट आकर कहा – “ तुझे इस अवस्था में इस स्थान पर देखने के लिए ही भद्र , अपना कठोर जीवन व्यतीत करती हुई मैं अब तक जीवित रही थी । आज मेरे दुर्भाग्यपूर्ण जीवन की सोलहों कला पूर्ण फल गईं ; मेरा नारी होना , मां होना सब कुछ सार्थक हो गया । ”सोम ने चिता के कांपते पीले प्रकाश में आंख उठाकर उस शोक- सन्ताप – दग्धा स्त्री के मुख की ओर देखा , जिस पर वेदनाओं के इतिहास की गहरी अनगिनत रेखाएं खुदी हुई थीं । सोम का मस्तक झुकने लगा और एक क्षण बाद ही वह उस मूर्ति के चरणों पर लोट गए ।
आगन्तुका ने धीरे – से बैठकर सोम का सिर उठाकर अपनी गोद में रखा। बहुत देर तक सोमप्रभ उस गोद में फफक – फफककर अबोध शिशु की भांति रोते रहे और वह महिमामयी महिला भी अपने आंसुओं से सोमप्रभ के धूलि – धूसरित सिर को सिंचन करती रहीं । बहुत देर बाद सोमप्रभ ने सिर उठाकर कहा – “ मां , इस समय यहां पर क्यों आईं ? ”
“ मेरे पुत्र , तुझ निस्संग के साथ रुदन किए बहुत दिन व्यतीत हुए । जब जीवन के प्रभात ही में शोक और दुर्भाग्य की कालिमा ने मुझे ग्रसा था तब रोई थी , सब आंसू खर्च कर दिए थे। फिर इन चालीस वर्षों में एक बार भी रो नहीं पाई भद्र , बहुत – बहुत यत्न किए, एक आंसू भी नहीं निकला । सो आज चालीस वर्ष बाद पुत्र , तुझे छाती से लगाकर इस महाश्मशान में रोने की साध लेकर ही आई हूं । लोकपाल -दिग्पाल देखें अब , यह एक मां अपने एकमात्र पुत्र को चालीस वर्षों से महाकृपण की भांति संचित अपने विदग्ध आंसुओं की निधि से सम्पन्न करने , आप्यायित करने , पुत्र पर अपने आंसुओं से भीगे हुए सुख सौभाग्य की वर्षा करने आई है । ”
सोम बहुत दूर तक उनकी गोद में सिर झुकाए पड़े रहे। फिर उन्होंने सिर उठाकर कहा –
“ चलो मां , पुष्करिणी के उस पार अपनी कुटिया में मुझ परित्यक्त को ले चलो , मुझे अपनी शरण में ले लो मां ! ”
“ मेरे पुत्र , अभी एक गुरुतर कार्य शेष है; वह हो जाए,पीछे और कुछ । ”
“ वह क्या मां ? ”
“ तेरे पिता की मुक्ति ? ”
“ कहां हैं वे मां ? ”
“ बन्दी हैं ! ”
“ किसने उन्हें बन्दी किया है ? मैं अभी उसका शिरच्छेद करूंगा। ”उन्होंने अत्यन्त हिंस्र भाव से खड्ग उठाया ।
“ तैने ही पुत्र, जा , उन्हें मुक्त कर! सोम आश्चर्य से आंखें फाड़कर आर्या मातंगी को देखने लगे । भय, आशंका और उद्वेग से जैसे उनके प्राण निकलने लगे, बड़ी कठिनाई से उनके मुंह से टूटे – फूटे शब्द निकले – “ क्या सम्राट….. “
“ हां , पुत्र, अब अधिक मेरी लाज को मत उघाड़ ! ”
सोम चीत्कार करके मूर्छित हो गए।
बहुत देर तक आर्या मातंगी मूर्छित पुत्र को गोद में लिए पड़ी रहीं । उन्होंने पुत्र को होश में लाने का कुछ भी यत्न नहीं किया । एक अवश जड़ता ने उन्हें घेर लिया । धीरे धीरे उनका मुंह सफेद होने लगा । नेत्र पथराने लगे, अंग कांपने लगे ।
सोम की मूर्छाभंग हुई । उन्होंने आर्या मातंगी की मुद्रा देखकर चिल्लाकर कहा –
“ मां , मां , मां , सावधान हो , मैं कभी अपने को क्षमा नहीं करूंगा। ”
आर्या ने नेत्र खोले , उनके सूखे रक्तहीन होंठ हिले । सोम ने कान निकट लाकर सुना । आर्या कह रही थीं – “ अम्बपाली तेरी भगिनी है , किन्तु उसके पिता ब्राह्मण वर्षकार… “
आर्या के ओष्ठ, हृदय, जीवन सब निस्पन्द हुए !
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