चैप्टर 15 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 15 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 15 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास | Chapter 15 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 15 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 15 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

राजगृह का वैज्ञानिक : वैशाली की नगरवधू

“रात में सो नहीं पाए आयुष्मान्, तुम्हारी आंखें भारी हो रही हैं?”

“आचार्य, नहीं ही सो सका।”

“ठीक है, अकस्मात् ही तुम्हें अतर्कित तथ्य देखना पड़ा। परन्तु तुमने मेरी प्रयोगशाला देखी?”

“अभी मित्र सुन्दरम् ने जो यत्किंचित् दिखाई, वही।”

“अधिक तो समय-समय पर जानोगे सोम, ये सब विविध जन्तुओं के पित्त, रक्त और आंतों के रस, विविध द्रव्य-गुण-विपाक वाली वनस्पति, अमोघ सामर्थ्यवान् रस रसायन, जो इन पिटकों और भाण्डों एवं कांचकूप्यकों में देख रहे हो, वास्तव में इनमें जीवन और मृत्यु बन्द है।”

“जीवन और मृत्यु? इसका क्या अभिप्राय है आचार्य?”

“अभिप्राय है राजतन्त्र! तुमने योद्धा का कार्य किया है, तुम जानते हो, युद्ध करना और युद्ध में विजय पाना, दोनों भिन्न-भिन्न कार्य हैं और दोनों का मूल्य बहुत अधिक है। अपरिमित धन-जन नाश करके ही युद्ध के लिए जाते हैं और युद्ध जय किए जाते हैं।”

“यह तो सत्य है आचार्य।”

“परन्तु इन कांचकूप्यकों में बन्द रसायन उस कठिनाई को कम कर देते हैं। बहुत धन-जन का क्षय बच जाता है तथा जय निश्चित मिल जाती है।”

“किस प्रकार आचार्य?”

“इनमें बहुतों में ऐसे हलाहल विष हैं जिन्हें कूपों, तालाबों और जलाशयों में डाल देने से, उसके जल को पीने ही से शत्रु-पक्ष में महामारी फैल जाती है। बहुत-से ऐसे रसायन हैं कि शत्रु सैन्य विविध रोगों से ग्रसित हो जाता है। वायु विपरीत हो जाती है, ऋतु विपर्यय हो जाती है। इनमें कुछ ऐसे द्रव्य हैं कि यदि उन्हें हवा के रुख पर उड़ा दिया जाए तो शत्रु सैन्य के सम्पूर्ण अश्व, गज अन्धे हो जाएंगे। सैनिक मूक, बधिर और जड़ हो जाएंगे?”

“परन्तु यह तो अति भयानक है, आचार्य?”

“फिर भी युद्ध से अधिक नहीं! युद्ध तो जीवन की अपरिहार्य घटना है आयुष्मान! युद्ध ही मानव-सभ्यता का इतिहास है। युद्ध ही मानवता का विकास है, तुमने यही तो अपने जीवन में सीखा है!”

“मैंने और भी कुछ सीखा है!”

“और क्या सीखा है, आयुष्मान्?”

“मैंने सीखा है, ये युद्ध मानवता के प्रतीक नहीं, पशुता के प्रतीक हैं। मनुष्य में ज्यों ज्यों पशुत्व कम होकर मानवता का विकास होगा, वह युद्ध नहीं करेगा। जब वह पूर्ण मानव होगा तो उसमें से युद्ध-भावना नष्ट हो जाएगी। वह रोषहीन, संतृप्त मानव होगा।”

“अरे, यह तूने उस शाक्य श्रमण गौतम से ही सीखा है न आयुष्मान्, जो आर्य-धर्म का प्रबल विरोधी है। वह वेद-प्रतिपादित श्रेणी-विभाग को नहीं मानता है। वह आर्य-अनार्य को समान पद देता है। वह ब्राह्मणों के उत्कर्ष का विरोधी है। यज्ञों को हेय बताता है और स्त्रियों को निर्वाण का अधिकार देता है।”

“परन्तु आचार्य, मनुष्य तो जन्मतः विभागरहित है। आचरण और बुद्धि के विकास से ही तो सौष्ठव होता है, रहे वे यज्ञ जो मूक पशुओं के रुधिर में डूबे हुए हैं, वे झूठे देवताओं के नाम पर भारी ढोंग हैं।”

“शान्तं पापं, यह ब्राह्मण-विद्रोह है सौम्य, सम्राट् भी यही कहते हैं। वे भी उसी गौतम के शिष्य हो गए हैं। शारिपुत्र मौद्गलायन, अश्वजित् आचार्य महाकाश्यप और उनके भाई जो प्रख्यात विद्वान् कर्मकाण्डी ब्राह्मण थे, सब उसके शिष्य बन गए हैं। मगध के सेट्ठी शतकोटिपति यश भी अपने चारों मित्रों के सहित उसके शिष्य बन गए हैं और तुम भी आयुष्मान्…”

“किन्तु आचार्य, यह छल-कपट…”

“यह कौशल है तात, अपनी हानि न कर शत्रु का सर्वनाश करना। सम्मुख युद्ध करके समान खतरा उठाना पशुबुद्धि है और कौशल से शत्रु को नष्ट कर देना तथा स्वयं सुरक्षित रहना मनुष्यबुद्धि है। यही कूटनीति है!”

“तो आचार्य, आपकी इन कांचकूप्यकों में सब कौशल-ही-कौशल बन्द हैं?”

“अधिक वही हैं, कहना चाहिए। इन कांचकूप्यकों के रसायन को छूकर, खाकर, देखकर मनुष्य और जनपद, अन्धा, बहरा, उन्मत्त, नपुंसक, मूर्च्छित तथा मृतक हो जाता है, वत्स!”

“ओह, कितना दुस्सह है आचार्य!”

“पर उससे अधिक नहीं, जब तुम स्वस्थ पुरुष के कलेजे में दया-भावहीन होकर खड्ग घुसेड़ देते हो; तुम्हारे बाण निरीह-व्यक्तियों की पसलियों में बलात् घुस जाते हैं; जब तुम जीवने, आशापूर्ण हृदय रखनेवाले तरुण का अनायास ही शिरच्छेद कर डालते हो। रणोन्माद में यही करना पड़ता है तुम्हें।”

“पर वह युद्ध है आचार्य!”

“यह भी वही है वत्स, उसमें शौर्य चाहिए, इसमें बुद्धि–कौशल। राजतन्त्र की धवल अट्टालिकाएं और राजमहलों के मोहक वैभव ऐसे ही कदर्य कार्यों से प्राप्त होते हैं। तुम देखोगे वत्स, कि जिस विजय का सेहरा तुम्हारी सेना के सिर बंधता है, वह इन्हीं पिटकों और कांचकूप्यकों से प्राप्त होती है। परन्तु अधिक वितण्डा से क्या, तुम्हें अभी आर्य वर्षकार के निकट जाना है। स्मरण रखो, तुम भरतखण्ड के एक महान् व्यक्तित्व के सामने जा रहे हो। आज पृथ्वी पर दो ही राजमंत्री पुरुष जीवित हैं; एक कौशाम्बी में यौगन्धरायण और दूसरे राजगृह में वर्षकार।”

“यौगन्धरायण को देख चुका हूं। आचार्य, कौशाम्बीपति उदयन के साथ मैं देवासुर-संग्राम में सम्मिलित हुआ हूं। तभी आर्य यौगन्धरायण का कौशल देखा था।”

“तो अब आर्य वर्षकार को देखो आयुष्मान्! परन्तु एक बात याद रखना, मगध साम्राज्य के प्रति, एकान्त एकनिष्ठ रहना और दो व्यक्तियों के प्रति अविनय न करना—एक सम्राट् के प्रति, दूसरे वर्षकार के प्रति।”

“और आचार्यपाद?”

“मैं तुम्हें अभय देता हूं, मेरे लिए तुम वही आठ वर्ष के बालक हो।”

“आचार्यपाद का यह आदेश याद रखूंगा, अनुग्रह भी।”

“तो तुम अभी कुण्डनी को लेकर वयस्य वर्षकार के पास जाओ और उनके आदेश का यत्नपूर्वक पालन करो।”

“कुण्डनी कौन।”

“कल रात जिसे देखा था।”

“वह कौन?”

“तुम्हारी भगिनी।”

“इस अज्ञातकुलशील भाग्यहीन की कोई भगिनी भी है?”

“कहा तो, है। परन्तु इससे अधिक जानने की चेष्टा न करो। गुरुजन के आदेशों पर कौतूहल ठीक नहीं, एक वचन दो सोम।”

“आचार्य की क्या आज्ञा है?”

“यदि वयस्य वर्षकार तुम्हें किसी अभियान पर कुण्डनी के साथ भेजें तो…”

“…अभियान पर कुण्डनी के साथ?”

“छी, छी, मैंने कहा था—गुरुजन के आदेश पर कौतूहल नहीं प्रकट करना चाहिए।”

“भूल हुई आचार्य, इस बार क्षमा करें!”

“मैं कह रहा था, यदि कुण्डनी के साथ तुम्हें यात्रा करनी पड़े तो प्राण देकर कुण्डनी की रक्षा करना।”

“ऐसा ही होगा आचार्य, किन्तु इस समय राजगृह पर मालवराज चण्डमहासेन के अभियान का भय है। मैं समझता था, यहां मेरी सेवाओं की आवश्यकता होगी।”

“यह मगध महामात्य के विचार का विषय है भद्र।” आचार्य ने उपेक्षा से कहा। फिर आचार्य ने उच्च स्वर से कुण्डनी को पुकारा। कुछ ही क्षण में वही रातवाली बाला आ खड़ी हुई। इस समय वह एक लम्बे वस्त्र से अपने को आवेष्टित किए हुए थी। उसका चम्पा की कली के समान पीतप्रभ मुख, उस पर वही विलासपूर्ण मदभरी आंखें और लालसा से लबालब होंठ, कुंचित भृकुटि-विलास, सब कुछ वही रातवाला था। देखकर युवक ने आंखें नीची कर लीं।

आचार्य ने कहा—”तो तुम बिलकुल तैयार हो? यह तुम्हारा भाई और रक्षक सोम है, इस पर विश्वास करना पुत्री! और यह लो, इसे अत्यन्त सावधानी से प्रयोग करना।” इतना कहकर एक हाथीदांत के मूंठ की छोटी-सी किन्तु अति सुन्दर कटार उसे पकड़ा दी। फिर उन्होंने दोनों हाथ उठाकर कहा—”शुभास्ते पन्थान: स्युः!” वे कुछ देर चुप रहे।

मालूम होता है, कहीं से आर्द्रभाव उनके नेत्रों में आ गया। उसे क्षण-भर ही में रोककर कहा—

“सौम्य, सोम, तुम्हें एक और आवश्यक काम करना होगा, महामात्य से आदेश लेकर जब राजगृह से प्रस्थान करने लगो, तब प्रस्थान से पूर्व तुम एक बार आर्या मातंगी से साक्षात् करना।”

“आर्या मातंगी कौन?”

आचार्य ने क्रुद्ध नेत्रों से सोम की ओर ताककर कहा—”फिर कौतूहल? क्या तुमने मेरा आदेश नहीं सुना?”

सोम ने नतशिर होकर कहा—”क्षमा आचार्य, मेरी भूल हुई!”

“तुम्हारे अश्व बाहर तैयार हैं।” आचार्य ने रुखाई से कहा—”अब आओ तुम।”

“कुण्डनी ने कटार को बेणी में छिपाकर भूमि में गिरकर आचार्य को प्रणिपात किया। फिर दृढ़ स्वर में कहा—”चलो सोम!”

सोम ने पाषाण-कंकाल के समान खड़े आचार्य का अभिवादन किया और मन्त्रप्रेरित-सा कुण्डनी के पीछे चल दिया।

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