चैप्टर 15 तितली जयशंकर प्रसाद का उपन्यास | Chapter 15 Titli Jaishankar Prasad Novel In Hindi
Chapter 15 Titli Jaishankar Prasad Novel In Hindi
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शैला का सब सामान नील-कोठी में चला गया था। वह छावनी में आई थी। कल के संबंध में कुछ इंद्रदेव से कहने, क्योंकि इंद्रदेव को उसके भावी धर्मपरिवर्तन की बात नहीं मालूम थी।
भीतर से कृष्णमोहन चिक हटाकर निकला। उसने हंसते हुए नमस्कार किया। शैला ने पूछा-बड़ी सरकार कहाँ है ?
पूजा पर।
और बीबी-रानी ?
मालूम नहीं-कहता हुआ कृष्णमोहन चला गया।
शैला लौटकर इंद्रदेव के कमरे के पास आई। आज उसे वही कमरा अपरिचित-सा दिखाई पड़ा ! मलिया को उधर से आते हुए देखकर शैला ने पूछा-इंद्रदेव कहाँ हैं ?
एक साहब आए हैं। उन्हीं के पास छोटी कोठी गए हैं ? आप बैठिए। में बीबी-रानी से कहती हूँ।
शैला कमरे के भीतर चली गई ? सब अस्त-व्यस्त ! किताबें बिखरी पड़ी थीं। कपड़े खूंटियों पर लदे हुए थे। फूलदान में कई दिन का गुलाब अपनी मुरझाई हुई दशा में पंखुरियां गिरा रहा था। गर्द की भी कमी नहीं। वह एक कुर्सी पर बैठ गई।
मलिया ने लैंप जला दिया। बैठे-बैठे कुछ पढ़ने की इच्छा से शैला ने इधर-उधर देखा। मेज पर जिल्द बंधी हुई एक छोटी-सी पुस्तक पड़ी थी। वह खोलकर देखने लगी।
किंतु वह पुस्तक न होकर इंद्रदेव की डायरी थी। उसे आश्चर्य हुआ-इंद्रदेव कब से डायरी लिखने लगे।
शैला इधर-उधर पन्ने उलटने लगी। कुतूहल बढ़ा। उसे पढ़ना ही पड़ा- सोमवार की आधी रात थी। लैंप के सामने पुस्तक उलटकर रखने जा रहा था। मुझे झपकी आने लगी थी। चिक के बाहर किसी की छाया का आभास मिला-मैं आंख मींचकर कहना ही चाहता था-‘कौन’ ? फिर न जाने क्यों चुप रहा। कुछ फुसफुसाहट हुई। दो स्त्रियां बातें करने लगी थीं। उन बातों में मेरी भी चर्चा रही। मुझे नींद आ रही थी। सुनता भी जाता था। वह कोई संदेश की बात थी। मैं पूरा सुनकर भी सो गया और नींद खुलने पर जितना ही मैं उन बातों का स्मरण करना चाहता, वे भूलने लगीं। मन में न जाने क्यों घबराहट हुई, किंतु उसे फिर से स्मरण करने का कोई उपाय नहीं। अनावश्यक बातें आज-कल मेरे सिर में चक्कर काटती रही है परंतु जिसकी आवश्यकता होती है, वे तो चेष्टा करने पर भी पास नहीं आतीं। मुझे कुछ विस्मरण का रोग हो गया है क्या ? तो मैं लिख लिया करूं।
मैं सब कुछ समीप होने पर चिंतित क्यों रहता हूँ। चिंता अनायास घेर लेती है। जान पड़ता है कि मेरा कौटुंबिक जीवन बहुत ही दयनीय है। ऊपर से तो कहीं भी कोई कभी नहीं दिखाई देती। फिर भी, मुझे धीरे-धीरे विश्वास हो चला है कि भारतीय सम्मिलित कुटुंब की योजना की कडि़यां चूर-चूर हो रही हैं। वह आर्थिक संगठन अब नहीं रहा, जिसमें कुल का एक प्रमुख सबके मस्तिष्क का संचालन करता हुआ रुचि की समता का भार ठीक रखता था। मैंने जो अध्ययन किया है उसके बल पर इतना तो कही सकता हूँ कि हिंदू समाज की बहुत-सी दुर्बलताएं इस खिचरी-कानून के कारण हैं। क्या इसका पुनर्निर्माण नहीं हो सकता। प्रत्येक प्राणी, अपनी व्यक्तिगत चेतना का उदय होने पर, एक कुटुंब में रहने के कारण अपने को प्रतिकूल परिस्थिति में देखता है 1 इसलिए सम्मिलित कुटुंब का जीवन दुखदाई हो रहा है।
सब जैसे – भीतर-भीतर विद्रोही ! मुँह पर कृत्रिमता और उस घड़ी की प्रतीक्षा में ठहरे हैं कि विस्फोट हो तो उछलकर चले जाएं।
माधुरी कितनी स्नेहमयी थी। मुझे उसकी दशा का जब स्मरण होता है, मन में वेदना होता है। मेरी बहन ! उसे कितना दुख है। किंतु जब देखता हूँ। कि वह मुझसे स्नेह और सांत्वना की आशा करने वाली निरीह प्राणी नहीं रह गई है, वह तो अपने लिए एक दृढ़ भूमिका चाहती है, और चाहती है, मेरा पतन, मुझी से विरोध मेरी प्रतिद्वंद्विता ! तब तो हृदय व्यथित हो जाता है। यह सब क्यों ? आर्थिक सुविधा के लिए !
और मां- जैसे उनके दोनों हाथ दो दुर्दांत व्यक्ति लूटने वाले-पकड़कर अपनी ओर खींच रहे हों, द्विविधा में पड़ी हुई, दोनों के लिए प्रसन्नता-दोनों को आशीर्वाद देने के लिए प्रस्तुत ! किंतु फिर भी झुकाव अधिक माधुरी की ओर ! माधुरी को प्रभुत्व चाहिए। प्रभुत्व का नशा, ओह कितना मादक है ! मैंने थोड़ी-सी पी है। किंतु मेरे घर की स्त्रियां तो इस एकाधिकार के वातावरण में मुझसे भी अधिक ! सम्मिलित कुटुंब कैसे चल सकता है ?
मुझे पुत्र-धर्म का निर्वाह करना है। मातृ-भक्ति, जो मुझमें सच्ची थी, कृत्रिम होती जा रही है। क्यों ? इसी खींचा-तानी से। अच्छा तो मैं क्यों इतना पतित होता जा रहा हूँ। मैंने बैरिस्टरी पास की हैं मैं तो अपने हाथ-पैर चला कर भी आनंद से रह सकता हूँ। किंतु यह आर्थिक व्यथा ही तो नहीं रही। इसमें अपने को जब दूसरों के विरोध का लक्ष्य बना हुआ पाता हूँ, तो मन की प्रतिक्रिया प्रबल हो उठती है। तब पुरुष के भीतर अतीतकाल से संचित अधिकार का संस्कार गरज उठता है।
और भी मेरे परिचय के संबंध में इन लोगों को इतना कुतूहल क्यों ? इतना विरोध क्यों ? मैं तो उसे स्पष्ट षड्यंत्र कहूँगा। तो ये लोग क्या चाहती हैं कि बच्चा बना हूँ।
यह तो हुई दूसरी बात। हाँ जी दूसरे, अपने कहाँ ? अच्छा, अब अपनी बात। मैं किसी माली की संकरी क्यारी का कोई छोटा-सा पौधा होना बुरा नहीं समझता, किंतु किसी की मुट्टी में गुच्छे का कोई सुगंधित फूल नहीं बनना चाहता। प्राचीन काल में घरों के भीतर तो इतने किवाड़ नहीं लगते थे। उतनी तो स्वतंत्रता थी। अब तो जगह-जगह ताले, कुण्डियां और अर्गलाएं ? मेरे लिए यह असह्य है।
बड़ी-बड़ी अभिलाषाएं लेकर मैं इंग्लैंड से लौटा था 1 यह सुधार करूंगा , वह करूंगा। किंतु मैं अपने वातावरण में घिरा हुआ बेबस हो रहा हूँ। हम लोगों का जातीय जीवन संशोधन के योग्य नहीं रहा। धर्म और संस्कृति। निराशा की सृष्टि है। इतिहास कहता है कि संशोधन के लिए इसमें सदैव प्रयत्न हुआ है। किंतु जातीय जीवन का क्षण बड़ा लंबा होता है न। जहाँ हम एक सुधार करते हुए उठने का प्रयत्न करते हैं, वहीं कहीं जनजान में रो-रुलाकर आंसुओं से फिसलन बनाते जाते हैं। जब हम लोग मंदिर के सुवर्ण-कलश का निर्माण करते हैं, तभी उसके साथ कितने पीड़ितों का हृदय-रक्त उसकी चमक बढ़ाने में सहायक होता है।
तो भी आदान-प्रदान, सुख-दुख का विनिमय-व्यापार, चलता ही रहता है। मैं सुख का अधिक भाग लूं और दुख दूसरे के हिस्से रहे, यही इच्छा बलवती होती है। व्यक्ति को छुट्टी नहीं मुझे क्या करना होगा ? मैं दुख का भी भाग लूं ?
और अनवरी –
बाहर से चंचल और भीतर से गहरे मनोयोग-पूर्वक प्रयत्न करने वाली चतुर स्त्री है। उस दिन शैला और मधुबन के संबंध में हंसी-हंसी से कितना गंभीर व्यंग्य कर गई। वह क्या चाहती है। हंसते-हंसते अपने यौवन से भरे हुए अंगों को, लोट-पोट होकर असावधानी से, दिखा देने का अभिनय करती है, और कान में आकर कुछ कहने के बहाने हंसकर लौट जाती है। वह धर्म-परिवर्तन की भी बातें करती है। उसे हिंदू आचार-विचार अच्छे लगते हैं। रहन-सहन, पहिनावा और खाना-पीना ठीक-ठीक। जैसे मेरे कुटुंब की स्त्रियां भी उसे अपने में मिला लेने में हिचकेंगी नहीं। यह मुझे कभी-कभी भी टटोलती है। पूछती है – ‘क्या स्त्रियों को शैला की तरह स्वतंत्रता चाहिए ? अवरोध और अनुशासन नहीं ? मैं तो किसी से भी ब्याह कर लूं और वह इतनी स्वतंत्रता मुझे दे तो मैं ऊब जाऊंगी।’ वह हंसी में कहती है। सब हंसने लगती हैं। सब लोगों को शैला पर कही हुई यह बात अच्छी लगती है। और मैं ? दबते-दबते मन में अनवरी का समर्थन क्यों करने लगता हूँ ? वह ढीठ अनवरी-मां से हंसी करती हुई पूछती है, मैं हिंदू हो जाऊं तो मुझे अपनी बहू बनाइएगा ?
मां हंस देती हैं।
दूसरे दिन रात को, जब लोग सो रहे थे, मैं ऊंघता हुआ विचार कर रहा था। फिर वैसा ही शब्द हुआ। मैंने पूछा-कौन ?
मैं हूँ- कहती हुई अनवरी भीतर चली गई 1 मेरा मन न जाने क्यों उद्धिग्न हो उठा।
पढ़ते-पढ़ते शैला ने घबराकर डायरी बंद कर दी। सोचने लगी-इन्द्रदेव कितनी मानसिक हलचल में पड़े हैं और यह अनवरी। केवल इंद्रदेव के परिवार से सहानुभूति के कारण वह मेरे विरुद्ध है, या इसमें कोई और रहस्य है ! क्या वह इंद्रदेव को चाहती है ?
क्षण-भर सोचने पर उसने कहा-नहीं, वह इंद्रदेव को प्यार कभी नहीं कर सकती। – फिर डायरी के पन्ने खोलकर पढ़ने लगी। उसने सोचा कि मुझे ऐसा न करना चाहिए , किंतु न जाने क्यों उसे पढ़ लेना वह अपना अधिकार समझती थी। हाँ, तो वह आगे पढ़ने लगी –
… वह मेरे सामने निर्भीक होकर बैठ गई। गंभीर रात्रि, भारतीय वातावरण, उसमें एक युवती का मेरे पास एकांत में बिना संकोच के हंसना-बोलना। शैला के लिए तो मेरे मन में कभी ऐसी भावना नहीं हुई। तब क्या मेरा मन चोरी कर रहा है ? नहीं, मैं उसे अपने मन से हटाता हूँ। अरे, उसे क्यों, अनवरी को ? नहीं। उसके प्रति अपने संदिग्धभाव को। मुझे वह छिछोरापन भला नहीं लगा। वह भी कहने लगी। – मैं संस्कृत पढूंगी, पूजा-पाठ करूंगी। कुंवर साहब ! मुझे हिंदू बनाइए न। किंतु उसमें इतनी बनावट थी कि मन में घृणा के भाव उठने लगे। किंतु मेरा पाखंड-पूर्ण मन…कितने चक्कर काटता है ?
शैला-सामने घुसती हुई चली जाने वाली सरल और साहसभरी युवती। फिर वह तितली-सी ग्रामीण बालिका क्यों बनने की चेष्टा कर रही है? क्या मेरी दृष्टि में उसका यह वास्तविक आकर्षक क्षीण नहीं हो जाएगा ? वह तितली बनकर मेरे हृदय में शैला नहीं बनी रहेगी। तब तो उस दिन तितली को ही जैसा मैंने देखा, वह कम सुंदर न थी।
अरे-अरे, मैं क्या चुनाव कर रहा हूँ। मुझे कौन-सी स्त्री चाहिए ! हाँ, प्रेम चतुर मनुष्य के लिए नहीं, वह तो शिशु से सरल हृदयों की वस्तु है। अधिकार मनुष्य चुनाव ही करता है, यदि परिस्थिति वैसी हो। मैं स्वीकार करता हूँ कि संसार की कुटिलता मुझे अपना साथी बना रही है। वह मित्र-भाव तो शैला का साथ न छोड़ेगा। किंतु मेरी निष्कपट भावना … जैसे मुझसे खो गई है। मुझे संदेह होने लगा है कि शैला को वैसा ही प्यार करता हूँ, या नहीं !
मनुष्य का हृदय, शीलकाल की उस नदी के समान जब हो जाता है-जिसमें ऊपर का कुछ जल बरफ की कठोरता धारण कर लेता है, तब उसके गहन तल में प्रवेश करने का कोई उपाय नहीं। ऊपर-ऊपर भले ही वह पार की जा सकती है। आज प्रवंचनाओं की बरफ की मोटी चादर मेरे हृदय पर ओढ़ा दी गई है। मेरे भीतर का तरल जल बेकार हो गया है, किसी की प्यास नहीं बुझा सकता। कितनी विवशता है।
शैला ने डायरी रख दी।
इंद्रदेव आ गए, तब भी वह आंख मूंद कर बैठी रही। इंद्रदेव ने उसके सिर पर हाथ रखकर कहा-शैला ?
अरे, कब आ गए ? मैं कितनी देर बैठी हूँ !
मैं चला गया था मिस्टर वाट्सन से मिलने। कोआपरेटिव बैंक के संबंध में और चकबंदी के लिए वह आए हैं। कल ही तो तुम्हारा औषधालय खुलेगा। इस उत्सव में उनका आ जाना अच्छा हुआ। तुम्हारे अगले कामों में सहायता मिलेगी।
हाँ, पर मैं एक बात तुमसे पूछने आई हूँ।
वह क्या ?
कल मैं बाबा रामनाथ से हिंदू धर्म की दीक्षा लूंगी।
अच्छा ! यह खिलवाड़ तुम्हें कैसे सूझा ? मैंने तो …
नहीं, तुम इस मेरे धर्म-परिवर्तन का कोई दूसरा अर्थ न निकालो। इसका कुछ भी बोझ तुम्हारे ऊपर नहीं है।
अवाक् होकर इंद्रदेव ने शैला की ओर देखा। वह शांत थी। इंद्रदेव ने साहस एकत्र करके कहा- तब जैसी तुम्हारी इच्छा !
तुम भी सवेरे ही बनजरिया में आना। आओगे न ? आऊंगा। किंतु मैं फिर पूछता हूँ कि-यह क्यों ?
प्रत्येक जाति में मनुष्य को बाल्यकाल ही में एक धर्म-संघ का सदस्य बना देने की मूर्खतापूर्ण प्रथा चली आ रही है। जब उसमें जिज्ञासा नहीं, प्रेरणा नहीं, तब उसके धर्म-ग्रहण करने का क्या तात्पर्य हो सकता है ? मैं आज तक नाम के लिए ईसाई थी। किंतु धर्म का रूप समझ कर उसे मैं अब ग्रहण करूंगी। चित्रपट पहले शुभ्र होना चाहिए, नहीं तो उस पर चित्र बदरंग और भद्दा होगा। मैं हृदय का चित्रपट साफ कर रही हूँ- अपने उपास्य का चित्र बनाने के लिए।
इंद्रदेव, उपास्य को जानने के लिए उद्धिग्न हो गए थे। वह पूछना ही चाहते थे कि बीच में टोककर शैला ने कहा-और मुझे क्षमा भी मांगनी है।
किसी बात की ?
मैं यहाँ बैठी थी, अनिच्छा से ही अकेले बैठे-बैठे तुम्हारी डायरी के कुछ पृष्ठ पढ़ लेने का अपराध मैंने किया है।
तब तुमने पढ़ लिया ? अच्छा ही हुआ। यह रोग मुझे बुरा लग रहा था-कहकर इंद्रदेव ने अपनी डायरी फाड़-डाली !
किंतु उपास्य को पूछने की बात उनके मन में दब गई।
दोनों ही हंसकर विदा हुए।
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