चैप्टर 15 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास | Chapter 15 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

चैप्टर 15 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास, Chapter 15 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel, Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas 

Chapter 15 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu 

Chapter 15 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel

सुमरितदास को लोग लबड़ा आदमी समझते हैं, लेकिन समय पर वह पते की बातें बता जाता है। आजकल उसका नाम पड़ा है-बेतार की खबर। संक्षेप में ‘बेतार’ । बात छोटी या बड़ी, कोई भी नई बात बेतार तुरत घर-घर में पहुँचा देता है। तहसीलदार का वह रोटिया (गवाही की रोटी खानेवाला) गवाह है। गवाही देते-देते वह बूढ़ा हो गया है; वसूल-तगादा के समय तहसीलदार के साथ रहता है। किसी को दाखिल खारिज करवानी है, किसी रैयत की जमीन में झंझट लगा है या किसी को बन्दोबस्ती लेनी है, तहसीलदार से पहले सुमरितदास से बातें करे। वह रैयतों को एकान्त में ले जाकर कहेगा-तहसीलदार तो हमारी मुट्ठी में हैं। हमको पान-सुपारी खाने के लिए कुछ दो या नहीं दो, तुम्हारी मर्जी; लेकिन तहसीलदार साहब को तो…वाजिब जो है सो… !

रैयतों से छोटी-छोटी चीजें तहसीलदार साहब खुद कैसे माँग सकते हैं ? वह सुमरितदास ही माँगता है-कदू, खीरा, बैंगन, करेला, कबूतर, हल्दी, मिर्चा, साग, मूली और सरसों का तेल ! वह सब तो सुमरितदास अपने लिए लेता है। लेकिन चीजें लेते समय सुमरितदास रैयत से एकान्त में कहता है, “अरे भाई, ये सब चीजें मैं लेकर क्या करूँगा ? न घर है न घरनी, न चूल्हा है न चौका। एक पेट के लिए मँगनी क्यों करूँ ? यह सब तो…।” कभी एक पैसे की तरकारी तहसीलदार साहब के यहाँ खरीदी नहीं जाती। सुमरितदास भला मँगनी करेगा। आज उसकी हालत खराब हो गई है तो क्या वह खानदान की इज्जत को भी लुटा देगा ! उसके परदादा के दरवाजे पर हाथी झूमता था। सब करम का फेर है।…सुमरितदास के पेट में कोई बात नहीं पचती। कालीचरन कहता है-मुँह में दाँत हैं नहीं, बात अटके भी तो कैसे ? बेतार !

बेतार को बहुत-सी बातें मिल गई हैं। पहली बात तो यह कि पच्छिम से मठ पर आचारजगुरु आ रहे हैं, लरसिंघदास को कलक्टर साहब ने भी महन्थ मान लिया है। दूसरी बात यह कि कल से खम्हार (खलिहान) खुलनेवाला है, बीच में भदवा पड़ गया है। तहसीलदार साहब ने कहा है-कल शुभ दिन है।

तहसीलदार साहब के खम्हार के साथ ही गाँव के और किसानों का खम्हार खुलता है। तहसीलदार साहब का खम्हार बड़ा खम्हार कहलाता है। ‘जरीदहाड़’ (बाढ़-सूखा) से बचकर भी दो हजार मन धान होता है।

हाँ, तीसरी बात तो कहना भूल ही गया बेतार ! वह लौटकर सुना जाता है, “कपड़ा, तेल और चीनी की पुर्जी बाँटने का काम बालदेव को मिला है। नाम तो उसमें डागडरबाबू का भी है, लेकिन डागडरबाबू कहते हैं-हमको फुर्सत नहीं। हमसे कहते थे कि हमारा काम आप ही कीजिए दास जी ! हम बोले कि हमको भी फुर्सत कहाँ है।”

आचारजगुरु के आने की खबर का कोई मोल नहीं भी हो, बाकी दो बातें, यदि सच हैं, तो वास्तव में कीमती हैं।

बात सच है। बालदेव जी भी कहते हैं, बात ठीक है।

खम्हार ! साल-भर की कमाई का लेखा-जोखा तो खम्हार में ही होता है। दो महीने की कटनी, एक महीना मड़नी, फिर साल-भर की खटनी। दबनी-मड़नी करके जमा करो, साल-भर के खाए हुए कर्ज का हिसाब करके चुकाओ। बाकी यदि रह जाए तो फिर सादा कागज पर अंगूठे की टीप लगाओ। सफाई करनी है तो बैल-गाय भरना रखो या हलवाहा-चरवाहा दो। फिर कर्ज खाओ। खम्हार का चक्र चलता रहता है। खम्हार में बैलों के झुंड से दबनी-मड़नी होती है। बैलों के मुँह में जाली का ‘जाब’ लगा दिया जाता है। गरीब और बेजमीन लोगों की हालत भी खम्हार के बैलों जैसी है।-मुँह में जाली का ‘जाब’।…लेकिन खम्हार का मोह ! यह नहीं टूट सकता। भुरुकवा उगते ही खम्हार जग जाता है। सूई की तरह गड़नेवाली, माघ के भोर की ठंडी हवा का कोई असर देह पर नहीं होता। ओस और पाले से देह शून्य हो जाता है। जब हाथ से अपनी नाक भी नहीं छूई जाती है तब घूर में फिर से सूखे पुआल डालकर नई आग पैदा की जाती है। घर में शकरकन्द पकता रहता है। घर के पास देह गर्माने की बारी जिसकी रहती है, वह प्रातकी गाता है-‘हरि बिनू के पूरिहैं मोर सुआरथ, हरि बिनू के।…’ अथवा ‘निरबल के बल राम हो सन्तो, निरबल के बल राम !’

दिन-भर धान झाड़-फटककर जमा किया। फिर धान के बोझे छींट दिए गए और शाम से फिर दबनी-मड़नी शुरू हो गई। शाम को घर के पास ‘लोरिक’ या कुमर ‘बिज्जेभान’ की गीत-कथा होती है-

अरे राम राम रे दैबा रे इसर रे महादेव,

बामे ठाढ़ी देवी दुरगा दाहिन बोले काग।

अपन मन में सोच करैये मानिक सरदार,

बात से नाहीं माने वीर कनोजिया गुआर… ।

कपड़ा, तेल और चीनी की पुर्जी कमलदाहा के कमरुद्दीबाबू बाँटते थे। मेरीगंज से कमलदाहा दस कोस है। दस कोस जाना तो कोई बड़ी बात नहीं, लेकिन पुर्जी पाना बड़े भाग की बात समझी जाती है। कमरुद्दीबाबू कुँजड़ा हैं; बैंगन की बिक्री से ही जमींदार हुए हैं; मुस्लींग के लीडर हैं। कटिहार-पूर्णिया मोटर रोड के किनारे पर ही घर है। हमेशा हाकिम-हुक्काम उनके यहाँ आते रहते हैं। महीने में साठ मुर्गियों का खर्च है। लोग कहते हैं कि नए इसडिओ जब आए तो सारे इलाके में यह बात मशहूर हो गई कि बड़े कड़े हाकिम हैं; किसी के यहाँ न तो जाते हैं और न किसी का पान ही खाते हैं। लेकिन कमरुद्दीबाबू भी पीछा छोड़नेवाले आदमी नहीं। इसडिओ का डलेबर मुसलमान है। उसको कुरान की कसम देकर पान-सुपारी खाने के लिए दिया। बस, एक बार कटिहार से लौट रहे थे इसडिओ साहब, ठीक कमरुद्दीबाबू के घर के सामने आकर मोटरगाड़ी खराब हो गई। दस बजे रात को इसडिओ साहब और कहाँ जाते ?…उसके बाद से ही कमरुद्दीबाबू आँख मूंदकर बिलेक करने लगे। एक बार पुरैनिया मिटिन में कैंगरेसी खुशायबाबू ने हाकिम से कहा-“पबलिक बहुत शिकायत करती है।” कमरुद्दीबाबू ने हँसते हुए पूछा-“हिन्दू पबलिक या मुसलमान ?” हाकिम भी समझ गए-कमरुद्दीबाबू लीगी हैं, इसीलिए लोग झूठ-मूठ दोख लगाते हैं।…अब तो बालदेव जी पुर्जी देंगे। बालदेव जी को बिलैती कपड़ा से क्या जरूरत है ? खधड़ को छोड़कर दूसरे कपड़े को छूते भी नहीं।…छूते हैं ? छूने में हर्ज नहीं।…

“जै हो, गन्ही महतमा की जै हो !”…कल खम्हार खुलेगा, पिछले साल तो खम्हार खुलने के दिन जालिमसिंह का नाच हुआ था। जालिमसिंह सिपैहिया ने एक डोमिन से शादी कर ली थी।…लेकिन इस बार कीर्तन होना चाहिए। सुराजी कीर्तन ! बेतार कहता ‘है-इस बार बिदापत नाच होगा। डागडरबाबू, बिदापत नाच देखेंगे।…तहसीलदार साहब तो हँसते-हँसते लोट-पोट हो गए। कितना समझाया कि डागडरबाबू, वह तो बहुत पुराना नाच है। खाली बिकटै (कॉमिक) होता है। डागडरबाबू कहने लगे-‘बिदापत ही करवाइए।’ पासवानटोली के लिबडू पासवान को खबर दे दी गई है। लिबडू नाच का मूलगैन है। मूलगैन, अर्थात् म्यूजिक डायरेक्टर !

कालीचरन का कीरतन नहीं होगा ? अच्छा कोई बात नहीं, डाक्टर साहब को एक दिन कीरतन सुना देंगे।

बालदेव जी को डागडरबाबू की बुद्धि पर अचरज होता है-बिदापत नाच क्या देखेंगे ? बड़ा खराब नाच है। कोई भला आदमी नहीं देखता। खराब-खराब गीत गाता है। नाच ही देखने का मन था तो तहसीलदार साहब से कहकर सिमरबनी गाँव की ठेठर कम्पनी को बुला लेते। आने-जाने और पचास आदमी के खाने का खर्चा क्या तहसीलदार साहब नहीं दे सकते ?…गाँववाले देखते तो आँखें खुलतीं। सिमरबनी का ठेठर कम्पनी मशहूर है, महाबीर जब दुर्जोधन का पाठ लेकर हाथ में तरवार लेकर गरजते हुए निकलता है तो एक कोस तक उसकी बोली साफ सुनाई पड़ती है-“बस बन्द करा दो यह मृदंग बाजा, हमको अच्छा नहीं लगता।”

धिन्ना धिन्ना धिन्ना निन्ना निन्ना !

धिन तक धिन्ना, धिन तक धिन्ना !

बिदापत नाच का मृदंग ‘जमीनका’ दे रहा है-चलो ! चलो ! चलो !

धिनक धिनक धा तिरकिट धिन्ना !

धिनक धिनक धा तिरकिट धिन्ना !

गाँव-भर के लोग तहसीलदार साहब के खम्हार में जमा हुए हैं। शामियाना तान दिया गया है। शामियाना खचमखच है। डाक्टरबाबू, सिंघ जी और खेलावनसिंह यादव कुर्सी पर बैठे हैं ! कालीचरन अपने दल के साथ है। जोतखी जी नहीं आए हैं। सिंघ जी ने कहा-“आज भी उनके दाँत में दरद है भाई !” सभी ठठाकर हँस पड़ते हैं। सभी जोतखी जी के नहीं आने का कारण जानते हैं-उनका बेटा नामलरैन भी बिदापत नाच का समाजी है।-बाभन नाचे तेली तमाशा देखे ! कुपुत्र निकला रामनारायण ! शिव हो !…बालदेव जी नहीं आए हैं। कोई भला आदमी नहीं देखता बिदापत नाच ! अब मृदंग पर ‘चलंती’ बज रहा है-

तिरकिट धिन्ना, तिरकिट धिन्ना !

धिन तक धिन्ना, धिन तक धिन्ना !

धिनक धिनक धा,

ध्रिक् ध्रिक् तिन्ना।

“ओ… ! होय ! नायक जी!”

बिकटा (विदूषक) आया। भीड़ में हँसी की पहली लहर खेल जाती है-सैकड़ों मुक्त हृदयों की हँसी !…पायल की झनकार !

मुँह पर कालिख-चूना पोतकर, फटा-पुराना पाजामा पहनकर लौकायदास बिकटा बन गया है। वह जन्मजात बिकटा है। भगवान ने उसे बिकटा ही बनाके भेजा है। ऊपर का ओंठ त्रिभुजाकार कटा है। सामने के दाँत हमेशा निकले रहते हैं और शीतला माई ने एक आँख ले ली है। बात गढ़ने में उस्ताद है।

“ओ ! होय ! हो नायक जी !”

“क्या है ?”

“अरे, यह फतंग-फतंग क्या बज रहे हैं ?”

“अरे, मृदंग बज रहा है। यह करताल है, यह झाल है।”

“सो तो समझा। यह धडिंग धडिंगा, गनपतगंगा क्या बजाते हैं ?”

“नाच होगा नाच, विद्यापति नाच !”

“ओ, हम समझे कि ‘लीलामी’ का ढोल बोल रहा है।”

…धिन ताक धिन्ना, धिन ताक धिन्ना !

आहे ! उत्तरहि राज से आयेल हे नटुकवा कि आहे मैया

कि आहे मैया सरोसती हे परथमे बन्नोनि हे तोहार !

…हमहूँ मूरख गँवार कि आहे मैया,

सरोसती, भूलल आखर जोड़िके आहे मैया,

कंठे लीहै है बास !

“ओ…ओ, होय नायक जी !” बिकटा जोर से चिल्ला उठता है। ताल भी कट चुका है। ठीक तान काटने के समय बिकटा को चिल्लाना चाहिए, इसलिए मृदंग के ताल का ज्ञान बिकटा को होना ही चाहिए।

“तुम कैसा बेकूफ हो जी!”

“अरे हो नायक जी ! यह आप लोग किसका बन्दना कर रहे हैं ?”

“हा-हा ! हा ! हा-हा-हा !…हँसी की दूसरी, लेकिन हल्की लहर।

“बेकूफ ! सुनते नहीं हो, सरोसती माता का बन्दना है !”

“यह सुरस्सु सुरती…सुर…सुरसस्सती माता को तुम देखा है ?…हमको तुम बेकुफ कहते हो ? बेकुफ तो तुम खुद हो। अरे, सरस्सती का बन्दना तो पढ़ल पन्नित लोग करता है।”

…हा ! हा ! हा-हा !…भीड़ में खिलखिलाहट।

“तो हम लोग किसको बंदेंगे ?”

“ऊँह, तुम खाँटी चलानी घी हो, जिस चलानी घी की पूड़ी भंडारा में हुई थी जिसको खाकर हमारा पेट दस दिन खराब रहा था।…बिना किसी मिलावट के तुम भी खाँटी बेकूफ मालूम होते हो। इतना भी नहीं जानते ? सुनो ! जरा बजाने कहो-धिनक धिन्ना, तिरकिट धिन्ना !”

“अरे दाल बन्दो, भात बन्दो, साग बन्दो बथुआ !

“यह तो हुआ कच्ची, सरकार !” अब जरा पक्की सुनिए”

अरे चूड़ा बन्दो, भूजा बन्दो, रोटी बन्दो मड़ुआ !”

…हा ! हा ! हा !…हा ! हा !…

“अब फल मेवा, सरकार !

“अरे गुलर बन्दो, डुमर बन्दो और बन्दो अल्हुआ !”

हा ! हा ! हा !…सैकड़ों खिलखिलाहट !

“हल बन्दो, बैल बन्दो और बन्दो गइआ ! “

…अब सबसे बड़ा भगवान !”

बिकटा मुँह बनाता है।

“चटाक पटपट दड़त सिर पर भागत बाप के भूतवा।

सबसे बढ़ि के तोहरे बन्दो मालिक बाबूक जूतवा !”

बिकटा खेलावन के पैर के सलमसाही जूते को प्रणाम करता है।

डाक्टर साहेब तो अचरज से गुम हो गए हैं; एकदम खो गए हैं नाच में।…इस बार नाच जमेगा। आखिर यह सब पुरानी चीज है, क्यों भाई !…सब बात तो ठीक ही कहता है।

…..धिन्ना धिन्ना, धिन्ना तिन्ना। समाजी लोगों ने शुरू किया :

आहे लेल परवेश परम सुकुमारी हे,

हँस गमन बिरखामान दुलारी हे।

मृदंग के ताल पर दबे पाँवों नटवा आता है। ताल पर ही चलकर सबसे पहले मृदंग को प्रणाम करता है, फिर झाल-करताल की ओर, अन्त में मूलगैन लिबडू पासवान का पैर छूकर प्रणाम करता है। पोलियाटोली के छीतनदास का बेटा चलित्तरा लड़कियों की तरह लम्बा बाल रखता है। नाक में बुलाक भी हमेशा पहने रहता है। वह नटवा है। अभी साज-पोशाक पहनकर एकदम बाभिन की तरह लग रहा है छौंड़ा।…कान में कनफूल किसका है ? कमली दीदी का ?…वाह रे छौंडा, आज यदि यह कान का कनफूल बकसीस में जीत ले तो समझें कि असल बिदपतिया का चेला है।…मृदंग बजाता है उचितदास ! क्या कहा-असल बिदपतिया ?…हम सहरसा के गैनू मिरदंगिया का चेला है।-जानते नहीं, गैनू मिरदंगिया एक बार अपने समाजी के साथ कहीं से नाचकर आ रहा था। चोर लोग जानते थे कि गैनू मिरदंगिया का समाज एक-एक सौ रुपैया नकद, धोती, कुर्ता, गमछा वगैरह लेकर घर लौटता है। बस, ठुट्ठी पाखर के पेड़ के पास चोरों ने घेर लिया गैनू मिरदंगिया को। वह पीछे पड़ गया था-दिसामैदान के लिए सायद। गैनू मिरदंगिया ने क्या किया ? बोलो तो! नहीं जानते ? हा-हा ! मिरदंग पर थाप दिया। दाहिने पूरे पर अंगुलियाँ फिरकी की तरह नाचने लगीं-धूकिट धिन्ना ना निन्ना ना निन्ना ना ना। तो मृदंग के पूरे की सूखी चमड़ी मानो जी उठी; साफ आदमी की तरह बोली निकली-‘ठुट्ठी पाखैर तर चोर घेरलक हो, चोर घेरलक !”…लिबडूदास का समाजी है, खेल नहीं ! नाच बेटा !…

धिरिनागि धिरिनागि धिरिनागि धिनता !

आहे तन मन बदन मदन सहजोर हे,

आहे दामिनी ऊपर…

“है रे ! है रे ! है रे !” बिकटा कलेजा पकड़कर मुँह बनाता है।

…धिनक धिनक ता, धिनक धिनक ता…

आहे, दामिनी ऊपर उगलय चान हे।

बिकटा मूर्छित होकर गिर पड़ता है-“अरे बाप !”

“अरे क्या हुआ ?”

“अरे बाप!”

“अरे ! बोलो भी तो ? क्या हुआ ?”

“अच्छा नायक जी, एक बात बताइए। जल्दी बताइए। आस्मान का चान यदि धरती पर उतर आया है तो धरती के चान को ऊपर जाना पड़ेगा ?”

“अरे धरती पर भी कहीं चान होता है ?”

“सुनिए जरा इसकी बोली ! इसीलिए न कहा था कि खाँटी चलानी घी हो। अजी हमारी एक ही बिजली बत्ती खराब है, तुम्हारी क्या दोनों खराब हैं ?…आजकल रेलगाड़ी में सुनते हैं कि बत्ती नहीं जलती। पहले बिलेकोट तब तो बिलेक मारकेट ।”…हा ! हा ! हा ! हा !…साला कटिहार नानी के यहाँ बराबर जाता है। रेलगाड़ी की भी गलती निकालता है। अंग-भंग आदमी सारी दुनिया को अंग-भंग देखता है। सुनो क्या कहता है, धरती का चान किसको बनाता है ?

“अरे भकुआ नायक जी, धरती का चान अपनी छतीसों कल्ला के साथ तुम्हारे सामने खड़ा है, चौंधिया गए हो क्या ? जरा छट्ठम लैट जलाकर देखो।”

…हा ! हा ! हा ! हा !…साला अलबत्त बात बनाता है !

“छट्ठम लैट नहीं जानते ? देखो पंचम लैट तो यही है जो अभी पंच परमेसर के बीच में जल रहा है।…छट्ठम लैट तुम्हारे घर में आजकल जलता है ! तेल मिलता ही नहीं-एक पटुआ के संठी में आग लगाकर हाथ में लेकर खड़ा रहो, भकभक गैशबत्ती की-सी रोसनी होने लगेगी। हम आजकल यही करते हैं।…अच्छा, आप ही लोग देखिए पंच परमेसर, हमसे ज्यादे सुन्नर यहाँ कोई हैं ?”

“नहीं नहीं, आप तो कामदेव के औतार हैं।” सिंघ जी कहते हैं।

हा ! हा ! हा ! हा ! हा ! हा ! नाचो रे चलितरा ! आज मोहड़ा (मोर्चा) पड़ा है ! जी खोल के नाच बेटा !…

ध्रिनागि धिन्ना, तिरनागि तिन्ना

धिनक धिनता तिटकत ग-द-धा !…

आहे चलहु सखि सुखधाम, चलहु !

आहे कन्हैया जहाँ सखि हे,

रास रचाओल हे ! चलहु हे चलहु !

…धिन्ना तिन्ना ना धि धिन्ना !

आहे सिर बिरनाबन कुंज गलिन में

कान्हु चरावत धेनु,

आहे मुड़ली जे टेड़े बिरीछी के ओटे,

आहे अबे ग्रिहे…

…धिरिनागि धिरिनागि धिरिनागि…

आहे ! अबे ग्रिहे रहलो नि जाए, चलहु हे चलहु !

ततमाटोली की औरतों के गिरोह में बैठी फुलिया का जी ऐंठता है…अबे ग्रिहे रहलो नि जाए !

तहसीलदार साहब की हबेली की सामनेवाली खिड़की खुली हुई है। कमली दीदी भी देख रही है। नहीं देखेगी तो बक्सीस कैसे देगी ?

“देखा बेटा ! फिरकी की तरह नाच ! पुरइन के फूल की तरह घाँघरी खिल जाए !”

“अरे हो नायक जी ! एक बात तो बताइए। वह हमको छोड़कर कहाँ जा रही है ? चलहु-चलहु-कहीं मेला-तमासा है या भोज है? या कपड़ा की पूर्जी बँटती है ?”

“अजी वह तुम्हारे ही पास जा रही है। तुम्ही किसुनकन्हैया हो न ! तुम्हारे रूप पर मोहित हो गई है।”

“आ !…वही तो हम भी कहते थे कि हमको छोड़कर कहाँ जा रही है ! हम कन्हैया हैं, लेकिन कन्हैया के बाप का नाम तो नन्द था और हमारे बाप का नाम उजाड़ूदास।”

…हा-हा ! हा-हा ! हा-हा !

“अरे उल्लू ! तुम्हारे बाप का नाम उजागिरदास था। तुम इसको खराब करके काहे बोलते हो?”

“उजागिरदास तो माय-बाप ने रख दिया था। लेकिन जिस मालिक के यहाँ भैंस-गाय चराने के लिए भरती होते थे, वही उनको कुछ दिन बाद मार-पीटकर निकाल देता था। मेरे बाबूजी गाय-भैंस लेकर जाते थे और मालिक के ही हरे-भरे खेत में छोड़कर सो जाते थे-मिहनत किया है लछमी ने, बैल ने ! मालिक लोग दूध-घी खा-खाकर जिस भैंस के दूध से मोटे हो गए हैं, इस उपजा में तो इनका भी हिस्सा है। खाओ लछमी !…इसलिए लोगों ने उनका नाम उजाड़ूदास रख दिया।”

नटवा अब गाँजा में दम मार आया है। अब देखना, नाच जमाएगा छौंडा आज। धिरनागि धिन्ना…

आहे कुंज भवन से निकलल हो,

आहे सखि रोकल गिरधारी !

“हाँ, चोरी-चोरी घर से निकलकर कोठी के बागान में जाओगी, रसलील्ला करने, तो रोकेगा नहीं ? अच्छा किया है।” बिकटा अपने-आप बड़बड़ाता है।

नटुआ दोनों हाथ जोड़कर, फन काढ़े गेहुअन साँप की तरह हिलते-डुलते, कमर के सहारे बैठ रहा है। धरती पर घाँघरी पुरैन के पत्ते की तरह बिछी हुई है।…मिनती करती है। है रे… ! है रे !…वाह रे छौंड़ा ! नाम रखा लिया गाँव का !

आहे, एकहि न-ग-र बसू माधव हो,

आहे जनि करू बटवा-वा-री !

आहे छोड़ छोड़ जदूपति आँचर हो,

हो भाँगत न-ब सारी।

“हाँ भैया ! कोटा-कनटरोल का जमाना है। कपड़ा नहीं मिलता है। जरा होसियारी से…!”

अरे अपजस होइत जगत भरि हो!

“ओह बड़ी कुलमन्ती बनी है ! लछलछ किरिया खाए कुलमन्त, मोर मन नहिं पतिआए।” बिकटा बीच-बीच में टोकता रहता है।

आजु परेम रख लय लीह हो,

आहे पंथ छाड़ झटकारी !

“सब दही जुटैलक रे किसना। आहि रे बाप !” बिकटा चिल्लाता है।

आहे संग के सखि अगुआइल हो।

आहो कान्हा, ह-म-हू एकसरि नारी !

“है रे ! है रे ! एकसरि नारि रे !”

भनहिं विद्यापति गाओल हो, सनू कूलमन्ती नारी

हरि के संग किछु डर नाहिं हे…।

“हाँ, हरि के संग काहे दोख होगा ! जितना दोख, हम सब लोगों के साथ। अपने खेले रसलील्ला, हमरे बेला में पंचायत का झाड़ और जूत्ता।”

क्या है ? क्या हुआ..डागडर साहब का नंगड़ा नौकर आकर क्या बोलता है ?… कमली दीदी ने कनफूल दे दिया ?…रे ?…वाह रे छौंड़ा ! नाम किया !…जीओ रे चलित्तरा ! जीओ!

बिकटा भी क्यों पीछे रहे ? वह भी आज ‘थै-थै’ कर देगा। नाच जमा है आज ! “अरे होय नायक जी ! हमारे दुख को देखनेवाला, सुननेवाला कोई नहीं।”

“क्या हुआ ?”

“लेकिन कहें कैसे ?” बिकटा तहसीलदार की ओर उँगली उठाकर डरने की मुद्रा बनाता है।

“अरे ! हम समझ गए। तो कहो न भाई,” तहसीलदार समझ जाते हैं, “दुनिया में सिर्फ हम ही एक तहसीलदार-पटवारी हैं ? बात तो तुम ठीक ही कहोगे। सुनते हैं २ डाक्टर साहब, अब यह तहसीलदार का बिकट करेगा !”

“नायक जी ! हमको धीरज बँधानेवाला कोई नहीं। सुनते हैं कि बराहछत्तर में सरकारबहादुर कोसी मैया को बाँध रहा है, लेकिन हमारे दिल को बाँधनेवाला कोई नहीं!”

“अरे कहो भी तो!”

“अच्छा तो सुनो ! पचास साल पहले से सुरू करते हैं, सर्वे सितलमंटी (सर्व सेटलमेंट) साल से।”

…सुनो ! सुनो ! जरूर कोई नई बात जोड़ा है। यह भी बकसीस वसूल करेगा। “बजाने कहो-ताकधिन-ताकधिन !”

अरे केना के बाँधबै रे धीरजा, केना के बाँधबै रे,

अरे मुद्दई भेल पटवारी रे धीरजा केना के बाँधबै रे!

“सर्वे जब होने लगा !”

दस हाथ के लग्गा बनैलके

पाँचे हाथ नपाई!

…पाँच हाथ पार ? हा…हा…हा !…

गल्ली-कुची सेहो नपलकै,

ढीप-ढाप सेहो नपलकै,

घाट-बाट सेहो नपलकै,

डगर-पोखर सेहो नपलकै।

“तब ?”

हाथी जस भलवेसन बैठलकै,

जम्मा भेलै भारी रे धीरजा के केना बाँधबै रे !

“इधर जमींदार सिपाही छप्पर पर का कद्, लत्तर का खीरा, बकरी का पाठा और चार जोड़ा कबूतर सिरिफ तलबाना में ही साफ कर गया।”

“तब ?”

थारी बेंच पटवारी के देलियै,

लोटा बेंच चौकीदारी।

बाकी थोड़ेक लिखाई जे रहलै,

कलक देलक धुराई रे धिरजा।

“आखिर…”

कहे कबीर सुनो भाई साधो

सब दिन करी बेगारी

खँजड़ी बजाके गीत गवैछी

फटकनाथ गिरधारी रे धिरजा।

ओ-हो-हा-हा, खी-खी-खी…हा-हा !…शामियाना फट जाएगा। कमाल कर दिया साले ने। अलबत्ता जोड़ा। वाह !…वाह रे लौकायदास !

डाक्टर तहसीलदार से पूछता है, “गीत तो विद्यापति का गाता है। बिकटै की रचना किसने की है ?”

“आप भी डाक्टरबाबू क्या पूछते हैं,” तहसीलदार साहब हँसते हैं, “इनकी रचना के लिए भी कोई तुलसीदास और बाल्मीकि की जरूरत है ? खेतों में काम करते हुए तुक पर तुक मिलाकर गढ़ लेता है।”

…डाक्टर साहब ने बिकटा को क्या दिया ?…पँचटकिया लोट ?…बाजी मार लिया बिकटा ने भी।

आहे परथम समागम पहुसंग हे…

धिरनागि धिरनागि !

भुरुकवा उगने के बाद नाच खत्म हुआ। खूब जमा। अब खुलेगा खम्हार।

बिछावन पर लेटकर डाक्टर सोचता है-कोमल गीतों की पंक्तियाँ ! अपभ्रंश शब्द भी कितने मधुर लगते हैं !…’पिया भइले डुमरी के फूल रे पियवा भइले।…चाँद बयरि भेल बादल, मछली बयरि महाजाल, तिरिया बयरि दुहु लोचन-हिरदए के भेद बताए।भोंमरा-भोंमरी-रोई-रोई कजरा दहायल, घामे तिलक बहि गेल।…चान के उगयत देखल सजनि गे…लट धोए गइली हम बाबा की पोखरिया-पोखरि मैं चान केलि करे।’

डाक्टर सोचता है-विद्यापति की चर्चा होते ही कविवर ‘दिनकर’ का एक प्रश्न बरबस सामने आकर खड़ा हो जाता था-“विद्यापति कवि के गान कहाँ ?” बहुत दिनों बाद मन में उलझे हुए उस प्रश्न का जवाब दिया-ज़िन्दगी-भर बेगारी खटनेवाले, अपढ़ गँवार और अर्धनग्नों में, कवि ! तुम्हारे विद्यापति के गान हमारी टूटी झोंपड़ियों में ज़िन्दगी के मधुरस बरसा रहे हैं। ओ कवि ! तुम्हारी कविता ने मचलकर एक दिन कहा था-चलो कवि, बनफूलों की ओर !

…बनफूलों की कलियाँ तुम्हारी राह देखती हैं।

Prev | Next | All Chapters 

तीसरी कसम फणीश्वर नाथ रेणु का उपन्यास 

चंद्रकांता देवकी नंदन खत्री का उपन्यास

आंख की किरकिरी रबीन्द्रनाथ टैगोर का उपन्यास 

देवांगाना आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास 

Leave a Comment