चैप्टर 15 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 15 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

चैप्टर 15 आँख की किरकिरी उपन्यास (चोखेर बाली उपन्यास) रवींद्रनाथ टैगोर | Chapter 15 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) Novel By Rabindranath Tagore

Chapter 15 Aankh Ki Kirkiri (Chokher Bali) 

Chapter 15 Aankh Ki Kirkiri

बाहर से हिला-डुला दो तो दबी राख में आग फिर से लहक उठती है। आशा और महेंद्र की मुहब्बत का उछाह मंद पड़ता जा रहा था, वह तीसरी तरफ की ठोकर से फिर जाग पड़ा।

आशा में हँसी-दिल्लगी की ताकत न थी, पर आशा उससे थकती न थी, लिहाज़ा विनोदिनी की आड़ में आशा को बहुत बड़ा आश्रय मिल गया। महेंद्र को हमेशा आनंद की उमंग में रखने के लिए उसे लोहे के चने नहीं चबाने पड़ते थे।

विवाह होने के बाद कुछ ही दिनों में आशा और महेंद्र एक-दूसरे के लिए अपने को उजाड़ने पर आमादा थे – प्रेम का संगीत शुरू ही पंचम के निषाद से हुआ था, सूद के बजाय पूँजी ही भुना खाने पर तुले थे।

अब उसकी अपनी कोशिश न रह गई। महेंद्र और विनोदिनी जब हँसी-मज़ाक करते होते, वह बस जी खोल कर हँसने में साथ देती। पत्ते खेलने में महेंद्र आशा को बेतरह चकमा देता, तो आशा विनोदिनी से फैसले के लिए गिड़गिड़ाती हुई शिकायत करती। महेंद्र कोई मज़ाक कर बैठता या गैरवाजिब कुछ कहता, तो आशा को यह उम्मीद होती कि उसकी तरफ से विनोदिनी उपयुक्त जवाब दे देगी। इस प्रकार इन तीनों की मंडली जम गई।

मगर इससे विनोदिनी के काम-धंधों में किसी तरह की ढिलाई न आ पाई। रसोई, गृहस्थी के दूसरे काम-काज, राजलक्ष्मी की सेवा-जतन- सारा कुछ खत्म करके ही वह इस आनंद में शामिल होती। महेंद्र आज़िजी से कहता – ‘नौकर-महरी को काम नहीं करने देती हो, चौपट करोगी उन्हें तुम।’

विनोदिनी कहती- ‘काम न करके खुद चौपट होने से यह बेहतर है। तुम अपने कॉलेज जाओ!’

महेंद्र – ‘ऐसी बदली के दिन?’

विनोदिनी – ‘न यह नहीं होने का… गाड़ी तैयार है, जाना पड़ेगा।’

महेंद्र – ‘मैंने तो गाड़ी को मना कर दिया था।’

विनोदिनी ने कहा ‘मैंने कह रखा था।’ कह कर महेंद्र की पोशाक ला कर हाज़िर कर दी।

महेंद्र – ‘तुम्हें राजपूत के घर पैदा होना चाहिए था, लड़ाई के समय अपने आत्मीय को कवच पहनाती।’

मौज-मजे के लिए कॉलेज न जाना, पढ़ाई में ढिलाई करना विनोदिनी कतई न सह पाती थी। उसके कठोर शासन से दिन ‘दोपहर को विनोद एकबारगी उठ गया और साँझ का अवकाश महेंद्र के लिए बड़ा ही रमणीक और मोहक हो उठा। उसका दिन मानो अवसान के इंतज़ार में रहता।

पहले बीच-बीच में रसोई समय पर न बनती और महेंद्र को कॉलेज न जाने का बहाना मिल जाता। अब विनोदिनी सारा इंतज़ाम खुद करके समय पर रसोई बनाती। खाना खत्म होता कि महेंद्र को खबर कर दी जाती- ‘गाड़ी तैयार खड़ी है।’ पहले कपड़ों का इस तरतीब से रहना तो दूर रहा। यही पता न होता था कि वे धोबी के यहाँ हैं कि अलमारी की ही किसी गुफा में पड़े हैं।

शुरू-शुरू में विनोदिनी इन बेतरतीबियों के लिए महेंद्र के सामने आशा को मीठा उलाहना दिया करती थी- महेंद्र भी उस बेचारी की ला-इलाज योग्यता पर स्नेह से हँस दिया करता। अंत में सखी के नेह से उसने आशा की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। घर की शक्ल बदल गई।

अचकन का बटन नदारद है, आशा झट-पट कोई तरकीब नहीं निकाल पाती कि विनोदिनी आ कर अचकन उसके हाथ से झपट लेती और बात-की-बात में सी देती। एक दिन महेंद्र की परसी हुई थाली बिल्ली ने जूठी कर दी। आशा परेशान। देखते-ही-देखते विनोदिनी ने रसोई से जाने क्या-क्या ला कर काम चला दिया। आशा दंग रह गई।

अपने खाने-पहनने, काम और आराम में, हर बात में तरह-तरह से महेंद्र को विनोदिनी के सेवा-स्पर्श का अनुभव होने लगा। विनोदिनी के बनाए रेशमी जूते उसके पाँवों में पड़े, विनोदिनी का बुना रेशमी गुलबंद गले में एक पति के पास जाती – उसमें कुछ तो होता आशा का अपना और कुछ किसी और का – अपनी वेश-भूषा के रूप और आनंद में वह अपनी सखी से मानो गंगा-यमुना-सी मिल गई है।

बिहारी की अब वह कद्र न रही थी- उसकी बुलाहट नहीं होती। उसने महेंद्र को लिख भेजा – ‘कल इतवार है, दोपहर को आ कर मैं माँ के हाथ का बना भोजन खाऊँगा।’ महेंद्र ने देखा, यह तो इतवार ही गोबर हो जाएगा। उसने जल्दी से लिख भेजा, ‘इतवार को कुछ जरूरी काम से मुझे बाहर जाना पड़ेगा।’

फिर भी भोजन कर चुकने के बाद बिहारी खोज-खबर के लिए महेंद्र के यहाँ आया। नौकर से पता चला, महेंद्र कहीं बाहर नहीं गया है। ‘महेंद्र भैया’ कह कर उसने सीढ़ी से आवाज दी और कमरे में दाखिल हुआ। महेंद्र बड़ा अप्रतिभ हो गया। ‘सिर में बे-हिसाब दर्द है’-कह कर उसने तकिए का सहारा लिया। यह सुन कर और महेंद्र के चेहरे का हाव-भाव देख कर आशा तो अचकचा गई। उसने विनोदिनी की तरफ इस आशय से ताका कि क्या करना चाहिए। विनोदिनी खूब समझ रही थी- मामला संगीन नहीं है, फिर भी घबरा कर बोली, ‘बड़ी देर से बैठे हो, थोड़ी देर लेट जाओ! मैं यूडीकोलोन ले आती हूँ।’

महेंद्र बोला – ‘रहने दो, उसकी जरूरत नहीं।’

विनोदिनी ने उस पर ध्यान न दिया। वह जल्दी से बर्फ-मिले पानी में यूडीकोलोन डाल कर ले आई। आशा को गीला रूमाल देती हुई बोली – ‘उनके सिर पर बाँध दो!’

महेद्र बार-बार कहने लगा – ‘अरे छोड़ो-छोड़ो!’

बिहारी हँसी रोक कर चुपचाप यह नाटक देखता रहा। मन में गर्व करते हुए महेंद्र ने कहा – ‘कमबख्त बिहारी देखे कि मेरी कितनी इज्ज़त होती है!’

बिहारी खड़ा था। लाज से काँपते हाथों से आशा ठीक से पट्टी न बाँध पाई, लुढ़क कर यूडीकोलोन की एक बूँद महेंद्र की आँख से गिर गई। विनोदिनी ने आशा से रूमाल ले कर अपने कुशल हाथों से ठीक से बाँध दिया। सफेद कपड़े के दूसरे टुकड़े को यूडीकोलोन में भिगो कर धीमे-धीमे पट्टी पर निचोड़ने लगी। आशा घूँघट काढ़े पंखा झलती रही।

स्निग्ध स्वर में विनोदिनी ने पूछा – ‘महेंद्र बाबू, आराम मिल रहा है’ आवाज में इस तरह शहद घोल कर विनोदिनी ने तेज कनखियों से बिहारी को देख लिया। देखा, कौतुक से बिहारी की आँखें हँस रही हैं। उसको यह सब कुछ प्रहसन-सा लगा। विनोदिनी समझ गई, ‘इस आदमी को ठगना आसान नहीं, इसकी पैनी निगाह से कुछ नहीं बच सकता।’

बिहारी ने हँस कर कहा – ‘विनोदिनी भाभी, ऐसी तीमारदारी से बीमारी जाने की नहीं, और बढ़ जाएगी।’

विनोदिनी – ‘मैं मूर्ख स्त्री, मुझे इसका क्या पता! आपके चिकित्सा-शास्त्र में ऐसा ही लिखा है, क्यों?’

बिहारी – ‘लिखा तो है ही। सेवा देख कर अपना भी माथा दुखने लगा। लेकिन फूटे कपाल को चिकित्सा के बिना ही चंगा हो जाना पड़ता है। महेंद्र भैया का कपाल जोरदार है।’

विनोदिनी ने कपड़े का ओछा टुकड़ा रख दिया। कहा – ‘न, हमें क्या पड़ी! दोस्त का इलाज दोस्त ही करे।’

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