चैप्टर 14 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास | Chapter 14 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 14 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास | Chapter 14 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 14 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

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बन्दी की मुक्ति : वैशाली की नगरवधू

बहुत देर तक राजगृह का वह अद्भुत वैज्ञानिक उस एकान्त भयानक कुञ्ज में चुपचाप अकेला टहलता रहा। वह होंठों-ही-होंठों में गुनगुना रहा था। कभी-कभी उसके हाथों की मुट्ठियां बंध जातीं और वह बहुत उत्तेजित हो जाता। सम्भवतः वह अतीत की अति कटु और वेदनापूर्ण स्मृतियों को विस्मृत करने की चेष्टा कर रहा था। थोड़ी देर में वह शान्त होकर एक व्याघ्र-चर्म पर बैठ गया। बहुत देर तक वह ध्यानस्थ वहीं बैठा रहा। फिर वह उठा, कक्ष का द्वार सावधानी से बन्द करके वह उसी अन्धकारपूर्ण गर्भगृह में टेढ़ी तिरछी सुरंगों में चलता रहा, एक जलती हुई मशाल उसके हाथ में थी। अन्त में वह एक गर्भगृह के द्वार पर आकर खड़ा हो गया। प्रहरियों ने उसका प्रणिपातपूर्वक अभिवादन किया। प्रहरी से उसने कहा—

“क्या बन्दी सो रहा है?”

“नहीं जाग रहा है।”

“तब ठीक है, द्वार खोल दो!”

प्रहरी ने द्वार खोल दिया। वैज्ञानिक ने भीतर जाकर देखा, युवक अशान्त मुद्रा में एक काष्ठफलक पर बैठा है। आचार्य ने स्निग्ध स्वर में कहा—”तुम्हारा ऐसा अविनय आयुष्मान्?”

“किन्तु मैं…”

“चुप, एक शब्द भी नहीं—मेरे पीछे आओ!” आचार्य ने द्वार की ओर मुंह किया। पीछे-पीछे युवक था। वे उन्हीं टेढ़ी-तिरछी सुरंगों में चलते गए। अन्त में एक कक्ष के द्वार पर आकर वे रुके। वह एक प्रशस्त कक्ष था। एक दीपक वहां जल रहा था। बहुत-से मृतक पशु-पक्षियों के शरीर वहां लटक रहे थे। अनेक जड़ी-बूटियां थैलियों में भरी हुई थीं। बहुत सी पिटक, भाण्ड और कांच की शीशियों में रसायन द्रव्य भरे थे। यह सब देखकर युवक भय और घबराहट से भौचक रह गया। एक शिलापीठ पर बैठकर आचार्य ने तरुण को भी निकट बैठने का संकेत किया। वे कुछ देर उसके नेत्रों की ओर देखकर बोले—”तुम्हें अपने बाल्यकाल की कुछ स्मृति है?”

“बहुत कम आचार्यपाद! “

“तुम आठ वर्ष की अवस्था तक मेरे पास यहीं रहे हो। स्मरण है?”

“कुछ-कुछ।”

“अब, जब तुम तक्षशिला से चले थे—तब वयस्य बहुलाश्व ने तुमसे मेरे विषय में कुछ कहा था?”

“कहा था आचार्य। आचार्य बहुलाश्व ने कहा था—’सोम, तुम्हें मैंने शस्त्र और शास्त्रों का पूर्ण अध्ययन करा दिया, तुम्हारी बुद्धि प्रखर कर दी। अठारह वर्षों में तुम एक अजेय योद्धा, रणपंडित और सर्वशास्त्र-निष्णात पंडित हो गए। अब इस शौर्य और प्रखर बुद्धि का उपयोग तुम्हें राजगृह के समर्थ सिद्ध योगेश्वर वयस्य शाम्बव्य काश्यप बताएंगे।”

“बस, इतना ही कहा था?

“और भी कहा था। कहा था, ‘तुम सीधे उन्हीं के पास जाना, वे जो कुछ कहें वही करना। तुम पूर्वीय भारत के एक महान् साम्राज्य के महारथी सूत्रधार होगे। तुम्हारा दायित्व बहुत भारी होगा।”

“ठीक है, परन्तु अभी तुमने अविनय ही नहीं किया, गुरुतर अपराध भी किया है, जिसका दण्ड मृत्यु है; परन्तु इस बार तो मैंने तुम्हें बचा लिया, पर मैं सोच रहा हूं कि कहीं वयस्य बहुलाश्व ने तुम्हारे बुद्धिवाद के सम्बन्ध में धोखा तो नहीं खाया। गुरुजन के क्रिया कलाप पर इस प्रकार उत्तेजित हो जाना बड़ी ही मूर्खता की बात है।”

तरुण लज्जित हो गया। उसने कहा—”आचार्यपाद, मुझे क्षमा कीजिए, मैंने समझा, एक निरीह अबला पर अत्याचार हो रहा है।”

आचार्य ने क्रुद्ध होकर कहा—”वत्स, अत्याचार तुम्हारे—जैसे अविवेकी तरुण करते हैं, न कि हमारे जैसे विरक्त, जिन्होंने विश्व में अपने लिए घृणा, भय, विरक्ति और अशौच ही प्राप्त किया है। तुम्हें अभी यह जानना शेष है कि राजतन्त्र शस्त्रविद्या और बुद्धि-बल पर ही नहीं चलता। यदि ऐसा होता तो योद्धा लोग ही सम्राट् बन जाते। वत्स, राजतन्त्र के बड़े जटिल ताने-बाने हैं, उसके अनेक रूप बड़े कुत्सित, बड़े वीभत्स और अप्रिय हैं। राजवर्गी पुरुष को वे सब करने पड़ते हैं। जो सत्य है, शिव है वही सुन्दर नहीं है आयुष्मान्, नहीं तो मानव-समाज सदैव लोहू की नदी बहाना ही अपना परम पुरुषार्थ न समझता।”

यह कहते-कहते आचार्य उत्तेजना के मारे कांपने लगे। उनका पीला भयानक अस्थिकंकाल-जैसा शरीर एक प्रेत के समान दीखने लगा और उनकी वाणी प्रेतलोक से प्रेरित-सी होने लगी।

युवक भय और आचार्य के विचित्र प्रभाव से ऐसा अभिभूत हुआ कि कुछ बोल ही न सका। आचार्य एकाएक उठ खड़े हुए। उन्होंने कहा—”जाओ, अब तुम विश्राम करो, कल प्रातः तुम्हें आर्य वर्षकार की सेवा में उपस्थित होना होगा। तुमने अब तक जो सीखा है उसका यथावत् परिचय भी आर्य वर्षकार को देना होगा।”

आचार्य ने अपनी सूखी कांपती हुई उंगली उठाई। तीखी चितवन से देखा और युवक को जाने का संकेत किया। तरुण ने उठकर आचार्य को नमस्कार किया और कहा—”एक निवेदन और है। मुझे अभी तक मेरे माता-पिता का नाम नहीं मालूम है, मेरा क्या कुलगोत्र है यह भी मैं नहीं जानता हूं। क्या आचार्यपाद मुझे मेरे माता-पिता और कुलगोत्र से परिचित कर सकेंगे?”

“वयस्य बहुलाश्व ने क्या कहा था?”

“उन्होंने कहा था—’तुम्हारा आत्मपरिचय संसार में केवल तीन व्यक्ति जानते हैं, उनमें एक आचार्य शाम्बव्य काश्यप हैं।’ शेष दो का नाम नहीं बताया। इसी से मैंने आचार्यपाद से निवेदन किया।”

“वह समय पर जानोगे।”

और वे तेज़ चाल से एक ओर जाकर अन्धकार में विलीन हो गए। उस भयानक स्थान में तरुण अकेला ठहरने का क्षण-भर भी साहस न कर सका। वह शीघ्रता से यज्ञशाला में चला आया। इस अद्भुत वैज्ञानिक का विचित्र प्रभाव और उस आनन्द-सुन्दरी बाला का वह अप्रतिम रूप और वह सर्पदंश उसके मस्तक में तूफान उठाने लगा।

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