चैप्टर 14 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 14 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
Chapter 14 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi
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प्रभा-यमुना आदि के रहने का जहाँ इन्तजाम हुआ, वह पूर्व की आढ़त है। वहाँ व्यापार होता है। पर यह जासूसी के सुभीते के लिए एक प्रदर्शन मात्र है। यहाँ वीरसिंह के मित्र-वर्ग रहते हैं। ऊपर का दोमंजिला यमुना आदि के लिए खाली कर दिया गया। यथावकाश, में यमुना भविष्य के कार्यक्रम पर वीरसिंह से बातें कर लेती है।
महाराज शिवस्वरूप रोटी पकाते, सुबह-शाम शहर घूमकर सम्वाद एकत्र करते हैं। आज रात साढ़े सात बजे भोजन से निवृत्त होकर कन्नौज के प्रधान रास्ते से टहलते हुए जा रहे हैं कि निगाह एक छज्जे पर गई, एक निरुपमा सुन्दरी खड़ी राज-पथ के लोगों को देख रही थी। दृष्टि से सौन्दर्य का घनिष्ठ सम्बन्ध है। नई कली से बँधे भोर की तरह महाराज कुछ देर तक दूसरा ज्ञान भूलकर देखते रहे-कैसी सुघर, गोरे, जरा लम्बे मुख पर बड़ी-बड़ी आँखें!-पलकों की छाँह में कह रही हैं- हम संसार में मुक्त हैं, कोई बाधा हमें रोक नहीं सकती।
होश में आ, देर करने के अभिप्राय से, महाराज दुकान में पान लेने लगे। फिर बेगम धीरे-धीरे आगे बढ़े। पीछे किसी ने पीठ छूकर कहा, “सुनिए!” जरा घूमकर देखा, एक स्त्री है। कहने से पहले उस स्त्री ने कहा, “उस मकान में मेरी मालकिन आपको बुलाती हैं।”
महाराज डरे। पर यमुना का उपदेश याद आया, धीरे-धीरे साथ हो लिए। दासी जीने से कमरे में ले गई। कमरा उसी प्रकार सजा है, जैसे सुरभि के लिए दल केशर पराग आदि से फूल। इक्कीस-बाईस वर्ष की युवती सुगन्धित दीपों के प्रकाश को मन्द करती हुई बैठी है। महाराज को द्वार पर आते देख मुस्कुराकर उठकर खड़ी हो गई और झंकृत सरस पदों से बढ़कर हाथ पकड़, ऊँचे रेशमी चादर बिछे गद्दे की ओर ले चलने लगी। पहले महाराज जरा खिंचे, युवती इतने से समझ गई। महाराज को साथ ही यमुना की बात याद आई, बढ़ गए।
बैठालकर युवती ने दासी को इशारा किया। वह चली गई।
युवती ने पानों की तश्तरी महाराज की ओर बढ़ाई।
महाराज ने हाथ जोड़कर खिंचते हुए कहा, “हम पर तो दूरै से दया करौ!”
“अच्छा,” युवती महाराज की भाषा से प्रान्तदेश का निश्चय कर हँसती हुई बोली, “आँख लड़ाते वक्त दूरी का खयाल न था!”
महाराज ने जनेऊ निकालकर कहा, “यह देख लेव!”
युवती को वर्ण, स्थिति, स्वभाव और साक्षरता का ज्ञान हो गया। गुदगुदाई हुई-सी महाराज को देखती रही।
महाराज ने सोचा, इनको विश्वास नहीं हो रहा। सफलतापूर्वक बोले, “छानबे की कसम, कहीं बिना जाने पान नहीं खाते।”
युवती वैसी ही हँसती आँखों देखती हुई बोली, “लेकिन हमारे हाथ के तो पान-पानी दोनों चलते हैं।”
सादगी से महाराज बोले, “यह हमारा नहीं जाना।”
“अरररररर!” जैसे भूली बात याद आई। बोली, “हे भगवान्, ब्राह्म-हत्या का पाप मुझे बदा था?”
चोटी से महाराज के प्राण निकल गए! घबराकर पूछा, “बरमहत्या कैसी?”
युवती ने एक लम्बी साँस छोड़ी। फिर अनमनी होकर बोली, “आज महाराजाधिराज कान्यकुब्जेश्वर के यहाँ में बुलाई गई हूँ। सिपाही शायद ले जाने को आ गए। मेरी दो ही दासियों यहाँ रहती है। बाकी वहाँ की। उन्होंने सिपाहियों से आपका हाल कर दिया हो, तो वे आपकी जान ले लेंगे!”
महाराज काँपने लगे। स्वर भंग हो गया। युवती ने शान्त होने का इशारा किया। फिर उठकर जीने के द्वार बन्द कर आई। हँसकर कहा, “जब तक द्वार न खोलूँगी, वे भीतर न आ सकेंगे।” महाराज घबराए हुए देखते रहे।
“मैं तुम्हें दिल से चाहती हूँ। जरूर बचाने की कोशिश करूँगी।” खिलकर पूछा, “तुम्हारा नाम?”
वैसे ही घबराए स्वर से महाराज बोले, “सिवसरूप।”
युवती ने कहा, “कल तो इसी रास्ते पर किसी को बरमदत बतलाया था।”
महाराज ने पैर पकड़ लिए। बोले, “वह झूठ था।”
युवती ने कहा, “मैं जानती हूँ। मैं तुम्हारी परीक्षा ले रही हूँ, तुम्हारा सारा हाल जानती हूँ।”
फिर कुछ सोचते हुए पूछा, “खास स्थान कहाँ है?”
महाराज: “दलमऊ।”
युवती : “यहाँ कैसे आए?”
काँपते-काँपते महाराज सारा हाल कहने लगे। निविष्टचित्त युवती सुनती रही। किस्सा खत्म होने पर, महाराज को उठने का इशारा किया। पानी लेकर हाथ-मुँह धुलाया। फिर पान खाने को इंगित किया। मन्त्र से चलते हुए जैसे महाराज आज्ञा पूरी करते गए, अनिमेष करुण दृष्टि से देखते हुए।
युवती मुस्कुराई। बोली, “मैं तुम्हें चाहती हूँ!”
महाराज आशा से बँधे देखने लगे।
युवती ने कहा, “मान लो, मैंने तुम्हें बचा लिया, तो मुझे प्यार करोगे?”
जल्दी से महाराज बोले, “मैं तुम्हारा गुलाम बना रहूँगा।” पगड़ी उतारकर पैरों पर रखने लगे।
युवती ने रोक लिया। कहा, “घबराओ मत। मतलब तुम्हारी समझ में आएगा, मैं कहती हूँ।”
महाराज कृतार्थ दृष्टि से युवती को देखने लगे। युवती कहती गई, “देवी यमुना और प्रभावती से मेरा प्रणाम कहना।” महाराज को समझाकर, सँभलकर फिर बोली, “मैं तो यमुना को भी प्रणाम कर सकती हूँ, क्योंकि नर्तकी से दासी का कुल ऊँचा है, क्यों महाराज?”
“हाँ, क्यों नहीं!” गम्भीर होकर महाराज बोले।
हँसकर युवती कहने लगी, “कहना कि बलवन्तसिंह कुमार देव के साथ मनवा पहुँचकर दवा के लिए वहीं छोड़कर तहसील के लिए फिर निकल गए हैं। चलते वक्त एक पत्र उन्होंने महाराजाधिराज कान्यकुब्जेश्वर को लिखा था। पत्र के साथ कुछ कर भी वसूल किया हुआ भेजा था। पत्रवाहक कर जमा कराकर, यहाँ के लिए कहना कि गाना सुनकर रहने के लिए आया था। उसके साथ और दो-तीन आदमी थे। पहले से शराब पिए हुए थे। आपस में बातचीत करने लगे। महाराजाधिराज के पास पत्र नहीं पहुँचा सके थे। दूसरे दिन पहुँचाना चाहते थे। कहना कि गायिका का नौकर उनके पीछे खड़ा बातचीत सुन रहा था। उसने गायिका से वे बातें कह दीं। गाना सुनकर पत्रवाहक के साथी चले गए, वह रह गया। गायिका ने उसे और अच्छी शराब पिलाई और नशे में कर कुल बातें पूछ लीं। जब वह सो गया, तब उसकी चिट्ठी निकाल ली। पत्र यदि महाराजाधिराज के पास पेश हुआ होता, तो राजा महेन्द्रपाल के वध की आज्ञा निकल चुकी होती। कोशिश होनी चाहिए कि महाराजाधिराज के पास जल्द-से-जल्द अनुकूल प्रमाण पेश हों।” फिर सोचती हुई बोली, “मैं चिट्ठी देती, पर मैं खुद भी कोशिश में हूँ।”
एक के बाद दूसरा, इस तरह महाराज के मन में अनेक भाव आए-गए। ऐसा सजीव पट-परिवर्तन जीवन में न देखा था। युवती को आश्चर्यपूर्वक देखते हुए उठे, वह स्थिर बैठी रही, “फिर आइएगा,” गुंजित स्वर से बोली। महाराज कुछ कदम बढ़े तो फिर बुलाया, और खड़ी हो गई। कहा, “सिपाजी जो खड़े हैं?”घबराकर महाराज पीछे हटे और उसे पकड़ लिया, “आप कैसी प्रेमी हैं?”नर्तकी युवती ने पूछा, “अभी तक मेरा नाम भी आप नहीं मालूम कर सके।” महाराज बेवकूफ की तरह देखने लगे। “मेरा नाम विद्या है,” कहकर उसने पीछे के जीने से सस्नेह उन्हें उतार दिया।
क्रमश:
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