चैप्टर 14 हृदयहारिणी किशोरी लाल गोस्वामी का उपन्यास | Chapter 14 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas
Chapter 14 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas
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चौदहवां परिच्छेद : समर-विजय
“क्क भूपतीनाञ्चरितं क्व जन्तवः।”
सन् १७५६ ई० में सदाशय अलीवर्दीखां के मरने पर उनके भतीजे जौनुद्दीन का बेटा, अर्थात् उनका नाती सिराजुद्दौला बंगाल, बिहार और उड़ीसे का सूबेदार हुआ, जिसने मर्शिदाबाद को अपनी राजधानी बनाया था। वह बड़ा क्रोधी, हठी और अत्याचारी था, तथा अंगरेज़ों से बड़ा विरोध रखता था। जब उसने यह सुना कि,-‘मेरे ख़जानचीराजा राय दुर्लभ ने अपना सारा मालमता और घरबार के लोगों को मेरे पंजे से निकाल अपने लड़के कृष्णदास के साथ अंगरेजों की सरन में कलकत्ते भेज दिया है;’ तो तुरंत उसने राय दुर्लभ को कैदकर लिया और एक दूत को कलकत्ते अंगरेजों के पास इसलिये भेजा कि,-‘ वह उनसे रायदुर्लभ के बेटे आदि को मांगलावे।’ वह मनुष्य कलकत्ते फेरीवाले सौदागरों के भेस में पहुंचा और सेठ अमीचंद के मकान पर ठहरा। अमीचंद ने उसे अंगरेज़ों से मिलाया, पर उनलोगों ने इस मामले में अमीचंद का लगाव समझा और उनकी या सिराजुद्दौला के दूत की बातों पर कुछ भी ध्यान न दिया।
निदान, जब वह आदमी अपना सा मुंह लेकर ख़ाली हाथ झुलाता लौट आया तो फिर सिराजुद्दौला ने झल्लाकर एक दूत भेजकर अंगरेज़ों को यों धमकाया कि,-‘तुम कलकत्ते में किले की मज़बूती मत करो;’इस बात पर भी अंगरेज़ों ने कुछ ध्यान न दिया। तब तो सिराजुद्दौला का खून जोश में आया, उसके क्रोध की आग भड़क उठी और उसने लड़ाई का बहुत अच्छा बहाना पालिया। पहिले उसने कासिमबाजार वाली अंगरेजों की कोठी जप्त करली और फिर उन्हें कलकत्ते के किले में जा घेरा। वहां पर उस समय गोरे सिपाही सौ भी न थे और किले के बचने की भी कोई आशा न थी। यह उपद्रव देख, बहुत से अंगरेज़ तो ड्रेक साहब गवर्नर के साथ जहाज और किश्तियों पर सवार होकर वहां से निकल भागे और जो बिचारे बेखबरी में किले के अन्दर रह गए थे, वे दूसरे दिन कैद होकर सिराजुद्दौला के सामने लाए गए, उनमें किले के अफ़सर हालवेल साहब भी थे, जिनकी मुश्के बंधी हुई थीं। सिराजुद्दौला ने उनकी मुश्के खुलवा दी और कहा,-‘खातिर जमा रक्खो, तुम्हारा ज़रा भी नुकसान न होने पावेगा;’ किन्तु रात के समय जब गोरे कैदियों के रखने के लिये कोई मकान न मिला तो सिराजुद्दौला के नौकरों ने एकसौ छियालीस (१४६) अग्रेज़ों को एक ही कोठरी में, जो केवल अठारह फुट लंबी और चौदह फुट चौड़ी थी, बंदकर दिया। (१) उस सांसतघर में जो कुछ उन कैदी बिचारों के जी पर बीता होगा, उसे वे ही अभागे जानते होंगे! उनमें कितने घायल थे, बहुतेरे शराब के नशे में प्यास से व्याकल थे और कई, मल मूत्रादि के बेग के रोकने से बहुत ही बेचैन थे!
(१. इस कोठरी का नाम अंग्रेजों ने Black hole अर्थात् काली बिल रक्खा है।)
निदान, सबेरे जब उस काल कोठरी का दर्वाज़ा खोला गया, तो एकसौ छियालीस गोरों के केवल तेईस गोरे जीते निकले जो मुर्दो से भी गए बीते थे! उनमें से हालवेल साहब सिराजुद्दौला के सामने पेश किए गए, उनसे वह दुराचारी बार बार यही पूछता रहा कि,-‘बतलाओ, अगर जांबख़शी चाहते हो तो जल्द बतलाओ, अंग्रेजों ने ख़ज़ाना कहां छिपाकर रक्खा है?”
किन्तु बिचारे हालवेल साहब ने इस बात का कुछ भी जवाब न दिया, तब सिराजुद्दौला ने उनके सहित दो और अंग्रेज़ों के पैरों में बेड़ियां डलवाकर उन तीनों को तो खुली किश्तीपर कैद रहने कि लिये मुर्शिदाबाद भेज दिया और शेष बीस गोरों को छोड़ दिया; किन्तु तीन चार दिन पीछे स्वर्गीय नव्वाब अलीवर्दीख़ां की बूढ़ी और नेक बेगम हमीदा ने सिराजुद्दौला से सिफ़ारिश करके उन तीनों गोरों को भी कैद से छुटकारा दिलवा दिया था।
इधर तो यह सब होरहा था और उधर जय इस अत्याचार का समाचार मंदराज पहुंचा तो वहां वालों ने, ६०० गोरे और १५७० देशी सिपाहियों के साथ क्लाइब को, जो इंगलैण्ड से इष्टइण्डिया कम्पनी का लेफ्टिनेण्ट कर्नल होकर आया था, दस जहाज़ों पर कलकत्ते भेजा। दूसरी जनवरी सन् १७५७ ई० को पहुंचते ही क्लाइब ने पहिले कलकत्ता लिया, जिससे चिढ़कर तीसरी फर्वरी को सिराजुद्दौला चालीस हज़ार आदमियों की भीड़भाड़ लेकर कलकत्ते के पास जा पहुंचा, किन्तु क्लाइब ने बंगाले के कई जिमीदार राजाओं की सहायता से किले से बाहर निकल सिराजुद्दौला की फ़ौज पर ऐसा हमला किया कि यद्यपि उस हल्ले में उसे १२० गोरे, १०० सिपाही और दो तो गवांकर फिर किले में पनाह लेनी पड़ीथी, पर सिराजुद्दौला २२ अफ़सर और ६०० सिपाहियों के मारे जाने से इतना घबरागया कि उसने उस समय इस शर्त पर सुलह करली कि,-“जो कुछ कम्पनी का माल असबाब लूट और जप्ती में आया हो, दाम दाम लौटा दिया जाय; कम्पनी के आदमी कलकत्त में चाहे जैसा मजबूत किला बनावें टकसाल अपनी जारी करें, अड़तीसों गावों पर, जिनकी सनद सन् १७१७ ई० में उन्होंने पाई थी, अपना कब्जा रक्खें; बंगाले में जहाँ चाहें, बेरोक टोक सौदागरी करें; जहां चाहें, कोठियां खोलें और महसूल की माफ़ी के वास्ते उनका दस्तखत काफ़ी समझा जाय।”
आखिर, इस शर्त पर सुलह होगई। इसमें कोई सन्देह नहीं कि सिराजुद्दौला ने इस शर्त पर केवल अंग्रेज़ों कोभुलावा देने और काबू पाने के लिए ही सुलह की थी; क्यों कि जी उसका मैला था, अंग्रेजों से वह भीतरी डाह रखता था और फरासोसियों का पक्ष करता था, बरन अपने यहां उन्हें नौकर भी रखने लग गया था। उसकी इन चालबाजियों से क्लाइब अनजान न था, वह भी मौका ढूंढ़ रहा था। उसने मन ही मन इस बात पर भली भांति विचार कर लिया था कि,-‘इस देश में या तो अंगरेज़ ही रहेंगे, या फ़रासीसी; क्यों कि जैसे एक मियान में दो तलवारें नहीं रह सकती, वैसे ही एक देश में अंगरेज़ और फ़रासीसी-ये दोनों कभी नहीं रह सकते।’
निदान, जब सिराजुद्दौला ने फ़रासीसियों का सहारा लिया तो लाचार होकर क्लाइब को भी उसका उपाय करना पड़ा। उस समय सिराजुद्दौला के अत्याचारों से सभी उससे फिर गए थे और सभोंको अपनी जान-माल; और इज्जत-आबरू का खटका हरदम बना रहता था। सो, यह मौका क्लाइब के लिये बहुत अच्छा था और वह सिराजुद्दौला के दरवारियों और कारपर्दाजों को अपनी ओर तरह तरह के लालच देदेकर मिलाने लगा।
निदान, अलीवर्दीखां के दामाद मीरज़ाफ़रखां, जो सिराजुद्दौला का खजानची या सेनापति था, दीवान राजा रायदुर्लभ और जगत सेठ महताब राय (१) ने अपनी जान, माल और इज्जत-आबरू उस अत्याचारी के हाथ से बचाए रखने की इच्छा से मुर्शिदाबाद के रेजीडेंट वाटस साहब के द्वारा क्लाइव से यह कहलाया कि,-‘यदि आप सिराजुद्दौला की जगह मीरजाफर खां को सूबेदार बनावें तो हम सब आपके सहायक होंगे। ‘इस पर चतुरशिरोमणि लाट क्लाइव ने कहला भेजा कि,- आप लोग धीरज रक्खें, मैं ५००० ऐसे सिपाही साथ लेकर आता हूं कि जिन्होने आज तक कभी रन में पीठ नहीं दिखलाई है। यदि आप लोग सिराजद्दौला को गिरफ्तार करा देगें तो मैं आप लोगों का कृतज्ञ होऊंगा और आप लोगों के कहने के अनुसार मीरजाफ़रख़ां को बंगाले का नव्वाब बनाऊंगा।’
(१. हिन्दी भाषा के सुप्रसिद्ध लेखक राजा शिवप्रसाद सितारेहिन्द इसी वंश में हुए।)
फिर तो आपस में नित्य नई नई शर्ते होने लगी, पर अन्त में अंग्रेजों ने उसी शर्त पर, जो कि सिराजुद्दौला के साथ हुई थी और जिसका हाल हम ऊपर लिख आये हैं, मीरजाफरखां से एक अहद- नामा लिखवा लिया और उसमें इतना और भी बढ़ाया कि,-“अब तक फ़रासीसियों के लिये जो कुछ हुआ हो,या उनका जो कुछ हो वह अंगरेजों के लिये हो या अंगरेजों का हो; फ़रासीसी सदा के लिये बंगाले से निकाल दिए जांय और मीरजाफ़रख़ां करोड़ रुपए कम्पनी को, पचास लाख कलकत्ते के अंगरेजों को, बीस लाख हिंदुस्तानियों को, सात लाख अर्मनियों को, पचास लाख सिपाहियों और जहाज़ियों को और दसलाख कौंसिल के मेम्बरों को नुकसानी या नज़राने के तौर पर दें और कलकत्ते से दक्खिन काल्पी तक कम्पनी की ज़मीदारी समझी जाय।”
कलकत्ते के महाधनी महाजन सेठ अमीचंद यदि अंगरेज़ों की हर तरह से सहायता न किए होते तो अंगरेजों के लिये सिराजुद्दौला को तख़ से उतारना बहुत ही कठिन होता, किन्तु उन्हीं अंगरज़ों ने सेठ अमीचन्द पर जैसे जैसे भयानक अत्याचार किए, उसका साक्षी इसिहास है । सो, कम्पनीवालों के अत्याचारसे सेठ अमीचंद का घर खूब ही लूटा गया था। इस लिये जब मीरजाफ़रखां के साथ कम्पनीवालों का अहदनामा होने लगा तो इस खबर को पाकर सेठ अमीचन्द (१) भी उममें जा पहुंचे और लाचार अंग्रेजों को उन्हें भी उस कमेटी में रखना पड़ा। सेठ अमीचन्द सिराजुद्दौला के मुंह लग गए थे और वह उनकी बात भी बहुत मानता था और बाट्स साहब का भी उनसे बहुत काम निकलता था, इसलिए उन्हें उस कमेटी में न रखना अंग्रेजों की सामर्थ्य से बाहर था।
(१. हिन्दीभाषा के जनक भारत भूषण भारतेन्दु श्रीयुत बाबू हरिश्चन्द्र जी इसी वंस में हुए।)
यह एक ऐसा मौका था कि अमीचन्द अंग्रेजों से उनके अत्याचार का बदला लें और अपनी हानि मिटाडालें, इसलिए उन्होंने क्लाइव से कहा कि,-” सुनिए, साहब ! आप लोगोंने बिना कारण जो कुछ अत्याचार मुझपर किए, या मेरा सर्वस्व लूटकर मेरे घर को उजाड़ डाला, इसका हाल तो आपलोगों का जी ही जानता होगा कि आपलोगों ने अपने एक उपकारी मित्र को उसके उपकारों का किस भांति बदला चुकाया!!! अस्तु, अब बात यह है कि मीरजाफ़रखां के सूबेदार बनाने पर नव्वाबी ख़ज़ाने से जो कुछ रुपए अंग्रेजों को मिलें, उनमें से पांच रुपए सैकड़े मैं लूँगा, जिसका एकरारनामा कम्पनी अभी मुझे लिखदे; नहीं तो यह सारा भेद मैं अभी सिराजुद्दौला के आगे खोलकर सभोंको आफ़त में डाल दूंगा।”
यह सुनते ही अंग्रेज़ों के छक्के छूट गए और उनलोगों ने समझ लिया कि,—’एक तो हमलोगों के अत्याचार से यह बिचारा पिस ही गया है, दूसरे अब यदि इसे राजी नहीं करलेते तो यह ज़रूर नव्वाब के आगे सारा भेद खोल देगा और हम लोगों को बड़ी भारी बला में फंसावेगा।’ पर उतना रुपया अमीचन्द को देना अंग्रेज़ों को कब स्वीकार हो सकता था, इसलिए उन लोगोंने अमीचन्द को राज़ी करने के लिये काम बनाया और दो रंग के काग़ज़ों पर दो तरह का अहदनामा लिखा गया। लाल काग़ज़ पर जो अहदनामा लिखा गया, उसमें तो पांच रुपए सैकड़े अमीचन्द को देने का इकरार था, किन्तु जो अहदनामा सफेद काग़ज़ पर लिखा गया, उसपर उन बेचारे का कहीं नाम ही न था! ये दोनों काग़ज़ जब दस्तख़त होने के लिए कौंसिल में पेश किए गए तो अडमिलर अर्थात् अमीरुलबहर ने लाल काग़ज़ पर हस्ताक्षर करना स्वीकार नहीं किया, तब कौंसिलवालों ने उसका दस्तख़त आप बना लिया।[१]
(१. इस पर राजा शिवप्रसाद यों लिखते हैं कि,—”मानो फार्सी मसल पर काम किया—गर ज़रुरत बवद ख़ां बाशद।”)
निदान क्लाइव तीन हज़ार लड़ाके और नौ तोपें लेकर कलकत्ते से चला और सिराजुद्दौला भी पचास हज़ार सवार, प्यादे और चालीस तोपें लेकर पलासी के मैदान में आधमका; सैकड़ों फ़रासीसी भी उसके साथ थे। तेईसवीं मई को प्रातः काल उसी जगह लड़ाई प्रारम्भ हुई और सिराजुद्दौला ने बिजय पाई। फिर चौबीसवीं को जब कम्पनी की सेना में लड़ाई के बाजे बजने लगे, मीरजाफ़र ने अपनी सेना को लड़ाई के लिए तैयार होने से रोक दिया। हायरे, स्वार्थपरता!!! और धिक विश्वासघात!!!
अपने सेनापति मीरजाफ़र का यह ढंग देख सिराजुद्दौला बहुत ही घबराया और उसने मीरजाफ़र को बहुत कुछ समझाया, पर जब उसने किसी तरह भी लड़ने की सलाह न दी तब सिराजुद्दौला ने अपने सिर से ताज़ उतार कर उसके पैरों पर रख दिया और कहा,-“खुदा के वास्ते अब इस बेकस पर रहम कीजिए और अगर इस नादान की कुछ खता हो तो उसे मुआफ़ कीजिए।” किंतु विश्वासघातक और राज्यलोभी मीरजाफर बराबर यही कहता रहा कि,-“जहांपनाह! आज लड़ाई मौकूफ़ रहने दीजिए, फौज पीछे हटा लेने दीजिए, कल फिर ज़रूर लड़ेंगे।” और जगतसेठ ने तो यो हीं कह डाला कि,-“हुजूर का मुर्शिदाबाद ही तशरीफ लेचलना बिहतर होगा, क्यों कि इन सफेद देवों से फ़तहयाबी हासिल करना गैर मुमकिन है।”
निदान, सिराजुद्दौला को फ़ौज का मुड़ना था कि अंग्रेज़ उस पर पंजे झाड़कर इस तरह लपके,जैसे हिरनों के झंड पर चीते लपकते हैं। आख़िर, सिराजुद्दौला की फ़ौज तितर बितर होकर भागी और अंग्रेज़ों ने आठ मील तक उसका पीछा किया। बस, सिराजुद्दौला के नौकरों का विश्वासघात और यह पलासी की बिजय ही मानो भारतवर्ष में अंग्रेजी राज्य की जड़ जमाने का कारण हुई।
सिराजुद्दौला के भागने पर मुर्शिदाबाद के खजाने की रोकड़ मिलाई गई तो डेढ़ करोड़ रुपए के लगभग गिनती में आए, जो अहदनामें के अनुसार सबका दाम दाम चुका देने के लिये काफ़ी न थे। तब अंग्रेजों ने यह बात ठहराई कि,–’अहदनामें के बमूजिब आधे आधे रुपए तो अभी चुका दिए जायं और आधे तीन किस्तों में तीन साल के अंदर पटा दिए जायं।’
अन्त में इसी सम्मति के अनुसार आधे रुपए चुका दिए गए और इसके अलावे मीरजाफ़रख़ां ने सूबेदारी पाने की खुशी में सोलह लाख रुपए अपनी ओर से क्लाइव के नज़र किए! जब ख़ज़ाने से रुपए बंटने लगे, उस समय सेठ अमीचंद मारे आनन्द के फूले अंगों नहीं समाते थे, क्यों कि उन्होंने हिसाब लगाकर अपने हिस्से के तीस पैंतीस लाख रुपए जोड़ रक्खे थे; किन्तु जब फोर्ट विलियम किले के दरवार में अहदनामा पढ़ा गया और उसमें उनका नाम न निकला तो वे बहुत ही घबराए और चट बोल उठे कि,-” क्यों साहब! यह क्या बात है कि इस अहदनामे में मेरा नाम नहीं है?”
क्लाइव,-” हां, साहब! इसमें आपका नाम नहीं है।”
अमीचंद,-” मगर, साहब! वह तो लाल काग़ज़ पर था?”
क्लाइव,-” जीहां लेकिन वह लाल कागज सिर्फ आपको सब्ज़बाग़ दिखलाने के लिये लिखा गया था,इस वास्ते इन रुपयों में से आपको एक कौड़ी भी न मिलेगी।”
यह सुनते ही अमीचंद चक्कर खाकर धर्ती में गिर, बेसुध होगए और उनके नौकर चाकर उन्हें पालकी में डाल घर उठा लाए। जब वे होश में आए तो पागलपने की बातें करने लगे और उसी अवस्था में डेढ़ बरस तक अपने कर्मों को भोग, परलोक सिधारे!
राजा शिवप्रसाद सदा अंग्रेजों की खुशामद करते रहे, पर क्लाइव की यह बात उन्हें भी बुरी लगी और उन्होंने भी उसके लिये यों लिखा कि,-“अफ़सोस है कि क्लाइव ऐसे मर्द से ऐसी बात ज़हूर में आवे, पर क्या करें ईश्वर को मंजूर है कि आदमी का कोई काम बे ऐब न रहे। इस मुल्क में अंगरेज़ी अमल्दारी शुरू से आज तक मुआमले की सफाई और कौलक़रार की सचाई में मानो धोबी की धोई हुई सफ़ेद चादर रही है, केवल इसी अमीचंद ने उसमें यह एक छोटासा लगा दिया है।”
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