चैप्टर 135 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 135 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 135 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 135 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 135 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 135 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

 घातक द्वन्द्व युद्ध : वैशाली की नगरवधू

जयराज ने समझ लिया कि अब उनके और अभयकुमार के बीच एक घातक द्वन्द्व युद्ध होना अनिवार्य है। परन्तु उन्हें अपनी साहसिक यात्रा झटपट समाप्त कर डालनी थी । उन्होंने मुस्कराकर अपने संगी कृषक तरुण से कहा – “ मित्र , टटू की चाल का जौहर दिखाने का यही सुअवसर है, हमें शीघ्र यहां से भाग चलना चाहिए। ”

“ यही अच्छा है। ”युवक ने बहुत सोचने -विचारने की अपेक्षा अपने साथी के मत पर निर्भर होकर कहा।

दोनों ने अपने – अपने अश्वों को एड़ दी । जयराज ने निश्चय कर लिया था , कि जब तक वह सुरक्षित स्थान पर नहीं पहुंच जाएंगे, राह में विश्राम नहीं करेंगे । उनके कंचुक के भीतर बहुमूल्य हल्का लोह- वर्म था तथा उष्णीष के नीचे भी झिलमिल टोप छिपा था । बहुमूल्य लेखों और मानचित्रों को , जो उनके पास थे उन्होंने यत्न से अपने वक्षस्थल पर लोह- वर्म के नीचे छिपा लिया था और उन सबकी एक – एक प्रति सांकेतिक भाषा में तैयार करके अपने साथी के कंचुक में सी दी थीं ।

दोनों के अश्व तीव्र गति से बढ़ चले । युवक अपने अश्व -संचालन की सब कला साथी को दिखाना चाहता था तथा अपने पार्वत्य टटू की जो वह बढ़- चढ़कर डींग हांक चुका था , उसे प्रमाणित किया चाहता था । इसी से वह साथी के साथ बराबर उड़ा जा रहा था । उसकी इच्छा साथी से वार्तालाप करने की थी , परन्तु जयराज गम्भीर प्रश्नों पर विचार करते जा रहे थे । द्रत गति से दौड़ते हए अश्व पर भी मनुष्य गम्भीर विषयों पर विचार कर सकता है, टेढ़ी राजनीति की वक्र चाल सोच सकता है, यह कैसे कहा जा सकता था ! पर यहां संधिवैग्राहिक जयराज भागते – भागते यही सब सोचते तथा गहरी से गहरी योजना बनाते जा रहे थे। वे प्रत्येक बात की तह तक पहुंचने के लिए अब तक की पूर्वापर सम्बन्धित सभी बातों की तुलना , विवेचना और आरोप की दृष्टि से देखने के लिए अपने मस्तिष्क में विचार स्थिर करते जा रहे थे। उन्होंने मन – ही – मन यह स्वीकार कर लिया कि सम्राट अद्भुत और तेजवान् पुरुष हैं । उन्हें सरलता से मूर्ख नहीं बनाया जा सकता है। फिर भी सम्राट की अम्बपाली के प्रति आसक्ति एवं अपने ही जीवन में उनके शून्यपने को भी वह समझ गए थे । उन्होंने यह समझ लिया था युद्ध तो अनिवार्य है ही , वह भी अनति विलम्ब । परन्तु मूल मुद्दा यह है कि देवी अम्बपाली ही का आवास एक छिद्र होगा , जहां से मगध साम्राज्य को विजय किया जा सकता है। आर्य वर्षकार की दुर्धर्ष कुटिल राजनीति के ताने बाने को छिन्न -भिन्न करके आर्य भद्रिक के प्रबल पराक्रम को नत किया जा सकता है । उसी कूटनीतिक छिद्र पर जयराज ने अपनी दृष्टि केन्द्रित की । उन्होंने मन – ही – मन कहा – “ सम्राट एक ऐसी उलझी हई गुत्थी है, जो जीवन में नहीं सुलझेगी। परन्तु इसी से सम्राट का पराभव होगा तथा ब्राह्मण वर्षकार की बुद्धि और भद्रिक का शौर्य कुछ भी काम न आएगा ।

उसने बड़े ध्यान से देखा था कि सम्पूर्ण मागध जनपद सम्पन्न और निश्चिन्त है । उसे यहां वह युद्ध की विभीषिका नहीं दिखाई दी थी , जो वैशाली में थी । वे अत्यन्त आश्चर्य से यह देख चुके थे कि वहां जनपद में बेचैनी के कोई चिह्न न थे। कृषक अपने हल -बैल लिए खेतों की ओर आराम से जा रहे थे। रंगीन वस्त्रों से सुसज्जित ग्रामीण मागध बालाएं छोटे छोटे सुडौल घड़े सिर पर रखे आती- जाती बड़ी भली लग रही थीं । वे गाने गाती जाती थीं , जिनमें यौवन जीवन – आनन्द, आशा और मिलन -सुख के मोहक चित्र चित्रित किए हुए थे । जयराज को ऐसा प्रतीत हो रहा था , जैसे चिड़ियां चहचहाती हुई उड़ रही हैं । सम्पूर्ण मागध जनपद शत -सहस्र मुख से कह रहा था – “ देखो , हम सुखी हैं , हम सन्तुष्ट हैं ! ”

जयराज सोचते जाते थे। हमारे वज्जी गणतन्त्र से तो यह साम्राज्यचक्र ही अधिक सुविधाजनक प्रतीत होता है । यदि साम्राज्य – तन्त्र में आक्रमण- भावना न होती , तो निस्सन्देह राजनीति के विकसित -स्थिर रूप को तो साम्राज्य ही में देखा जा सकता है । वे चारों ओर आंख उघाड़कर देखते जा रहे थे, पीले और पके हुए धान्य से भरपूर खेत खड़े थे । आम्र के सघन बागों में कोयले कूक रही थीं । स्वस्थ बालक ग्राम के बाहर क्रीड़ा कर रहे थे। बड़े -बड़े हरिणों के यूथ खेतों की पटरियों पर स्वच्छन्द घूम रहे थे। ऋतु बहुत सुहावनी बनी थी । कोई – कोई ग्रामीण सस्ते टटुओं पर इधर – उधर आते – जाते दीख पड़ रहे थे। ये टटू बड़े मज़बूत थे। उनके मुंह से निकल पड़ा – “ वाह , ये तो बड़ी मौज में हैं । ”

साथी युवक ने जयराज के होंठ हिलते देखे। वह अपना टट्ट बढ़ाकर आगे आया और उसने कहा – “ आपने कुछ कहा भन्ते ! ”

“ हां मित्र , मैं सोचता हूं कि तेरी और मेरी दोनों की ससुराल यहां कहीं किसी गांव में होती ; और ये रंगीन घाघरे पहने हुए जो वधूटियां छोटे- छोटे जल के घड़ेसिरों पर रखे इठलातीं, बलखातीं, लोगों के मन को ललचातीं आ रही हैं , इनमें ये कोई भी एक – दो हमारी-तेरी वधूटियां होतीं तथा हम और तू साथ – साथ इसी तरह इन गांवों में से किसी एक के श्वसुरगृह में आकर आदर – सत्कार पाते, तो कैसी बहार होती ! ”

साथी का यह रंगीन विनोद सुनकर युवक खिलखिलाकर हंस पड़ा । उसने थोड़ा लजाते हुए कहा – “ भन्ते , इधर ही उस ओर के एक ग्राम में मेरी ससुराल है और मैं वहां एक – दो बार जा चुका हूं । चलिए भन्ते , वहां चलें । ”

“ अच्छा, क्या वधूटी वहीं है ? ”

“ वहीं है भन्ते ! ”

“ ओहो, यह बात है मित्र, तो देखा जाएगा, वह ग्राम यहां से कितनी दूर है ? ”

“ यदि हम इसी प्रकार चलते रहे, राह में कहीं न रुके , तो सूर्यास्त तक वहां पहुंच जाएंगे। ”

“ और यदि हम घोड़ों को सरपट छोड़ दें ? ”

“ वाह, तब तो दण्ड दिन रहे पहुंच सकते हैं । ”

“ परन्तु तुम्हारे श्वसुर और श्यालक कहीं मुझे गवाट में तो नहीं बन्द कर देंगे ? ”

“ नहीं भन्ते , जब मैं उनसे कहूंगा कि आप राजकुमार हैं और सम्राट से बात करके आ रहे हैं , तो वे आपको सिर पर उठा लेंगे। मेरा श्यालक मेरा प्रिय मित्र भी है । ”

“ तब तो बढ़िया भोजन की भी आशा करनी चाहिए ! ”

“ ओह, वे लोग सम्पन्न हैं , इसकी क्या चिन्ता! ”

“ तो मित्र, यही तय रहा, आज रात वहीं व्यतीत करेंगे ? ”

उत्सुकता और आनन्द के कारण तरुण कृषक कुमार का मुंह लाल हो गया । वह उत्साह से अपने टटू पर जमकर बैठ गया ।

जयराज साथी से बातें करते जाते थे, पर खतरे से असावधान न थे । वृक्षों के सघन कुञ्ज को देखकर उनके मन में सिहरन उत्पन्न होती, एक गहरे नाले और ऊंचेटीले को देख वे ठिठक गए । वे दिन – भर चलते ही रहे थे, सन्ध्या होने में अब विलम्ब न था । इसी समय पीछे से उन्होंने कुछ अश्वारोहियों के आने की आहट सुनी । वह एक सुनसान जंगल था । दाहिनी ओर एक टीला था उन्होंने पीछे मुड़कर देखा, उसी टीले के ऊपर तेरह अश्वारोही एक पंक्ति में खड़े हैं । वे उनसे कोई दस धनुष के अन्तर पर थे। इन दोनों को देखते ही तेरहों ने तीर की भांति अश्व फेंके। जयराज ने साथी से कहा – “ सावधान हो जा मित्र , शत्रु आ पहुंचे! ”इसी समय बाणों की एक बौछार उनके इधर -उधर होकर पड़ी । जयराज ने कहा – “ मित्र, साहस करना होगा , भागना व्यर्थ है , सामने समतल मैदान है और कोई आड़ भी नहीं है । हमारे अश्व थके हुए हैं , तू दाहिनी ओर को वक्रगति से टटू चला , जिससे शत्रु बाण लक्ष्य न कर सकें और अवसर पाते ही ससुराल के गांव में भाग जाना मेरे लिए रुकना नहीं। ”

“ किन्तु , भन्ते आप ? ” _ “ मेरी चिन्ता नहीं मित्र , तेरा श्वसुर – ग्राम निकट है, वहां से समय पर सहायता ला सके तो अच्छा है। ”

“ वृक्षों के उस झुरमुट के उस ओर ही वह ग्राम है; जीवित पहुंच सका, तो दो दण्ड में सहायता ला सकता हूं । मेरे दोनों श्यालक उत्तम योद्धा हैं । ”

इसी बीच बाणों की एक और बौछार आई। जयराज ने साथी को दाहिनी ओर वक्रगति से बढ़ने का आदेश दे स्वयं बाईं ओर को तिरछा अश्व चलाया । शत्रु और निकट आ गए। वे उन्हें घेरने के लिए फैल गए और निरन्तर बाण बरसाने लगे। जयराज ने एक बार साथी को खेतों में जाते देखा और स्वयं चक्राकार अश्व घुमाने लगा । शत्रु , अब एक धनुष के अन्तर से बाण बरसाने लगे। जयराज ने अश्व की बाग छोड़ दी और फिसलकर अश्व से नीचे आकर उसके पेट से चिपक गए । और अपना सिर घोड़े के वक्ष में छिपा लिया , तथा एक हाथ में खड्ग और दूसरे में कटार दृढ़ता से पकड़ ली ।

शत्रुओं ने साथी की परवाह न कर उन्हें घेर लिया । एक ने चिल्लाकर कहा – “ वह आहत हुआ , उसे बांध लो , जीवित बांध लो । परन्तु पहले देख , मर तो नहीं गया । ”

तीन अश्वारोही हाथ में खड्ग लिए उनके निकट आ गए । जयराज ने अब अपनी निश्चित मृत्यु समझ ली । परन्तु आत्मरक्षा के लिए तनिक भी नहीं हिले । वे उनके अत्यन्त निकट आ गए । जयराज ने एक के पाश्र्व में कटार घुसेड़ दी । दूसरे के कण्ठ में उनका खड्ग विद्युत्गति से घुस गया । दोनों गिरकर चिल्लाने लगे । तीसरा दूर हट गया । इसी समय अवसर पा जयराज ने फिर अश्व फेंका। शत्रु क्षण- भर के लिए स्तम्भित हो गए, पर दूसरे ही क्षण वे ‘ लेना – लेना करके उनके पीछे भागे ।

अन्धकार होने लगा । दूर वृक्षों के झुरमुट की ओट में सूर्य अस्त हो रहा था । जयराज ने एक बार उधर दृष्टि डाली । जब तक वे धनुषों पर बाण संधान करें , वह पलटकर दुर्धर्ष वेग से शत्रु पर टूट पड़े। दो को उन्होंने खड्ग से दो टूक कर डाला । एक ने आगे बढ़कर उनके मोढ़े पर करारा वार किया । अभयकुमार को पहचान कर जयराज आहत होने पर भी उस पर टूट पड़े। दो सैनिक पाश्र्व से झपटे , एक को उन्होंने बायें हाथ की कटार से आहत किया , दूसरा पैंतरा बदलकर पीछे हट गया । इसी समय जयराज ने अभयकुमार के सिर पर एक भरपूर हाथ खड्ग का मारा। वह मूर्छित होकर धड़ाम से धरती पर गिर गया ।

अब शत्रु सात थे। नायक के मूर्छित होने से वे घबरा गए थे, परन्तु जयराज भी अकेले तथा आहत थे। उनके मोढ़े से रक्त झर – झर बह रहा था । वे लड़ते – लड़ते ग्राम को लक्ष्य कर बढ़ने लगे। इसी समय अभयकुमार की मूर्छा भंग हुई , उसने चिल्लाकर कहा – “ मारो, उसे मार डालो , देखो, बचकर भागने न पाए । ”शत्रुओं ने फिर उन्हें घेर लिया । अब वे चौमुखा वार करके खड्ग चला रहे थे । पर क्षण – क्षण पर विपत्ति की आशंका थी । अवसर पा उन्होंने एक शत्रु को और धराशायी किया ।

इसी समय ग्राम की ओर से चार अश्वारोही अश्व फेंकते आते उन्होंने देखे। उन्हें देख जयराज उत्साहित हो खड्ग चलाने लगे । शत्रु घातक वार कर रहे थे। कृषक तरुण ने कहा – “ हम आ पहुंचे भन्ते राजकुमार! ”और साथियों को लेकर वह शत्रुओं पर टूट पड़ा । सब शत्रु काट डाले गए, अभयकुमार को बांध लिया गया । सब कोई ग्राम की ओर चले । इस समय रात एक दण्ड व्यतीत हो चुकी थी । ग्राम के निकट पहुंचकर जयराज ने कृषक युवक और उसके साथियों से कहा – “ मित्रो , आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है, इसके लिए तुम्हारा आभार ले रहा हूं , परन्तु मुझे एक अच्छा अश्व दो । ”

“ यह क्या भन्ते ! क्या आप रात विश्राम नहीं करेंगे ?

“ नहीं मित्र , मुझे जाना होगा। इतना कह, उसे एक ओर ले जाकर स्वर्ण की एक भारी थैली उसके हाथ में रखकर कहा – “ मित्र , तू रात – भर यहां रहकर भोर होते ही वैशाली की राह पकड़ना और वैशाली के संथागार में पहुंचकर यह मुद्रा किसी भी प्रहरी को दे देना , वह तुझे मुझ तक पहुंचा देगा। ”

“ किन्तु आप आहत हैं भन्ते! ”

“ परन्तु मित्र , कार्य गुरुतर है । ”

“ तो मैं भी साथ हूं । ”

“ नहीं मित्र, रात्रि – भर ठहरकर प्रात: चलना, पर राह में अटकना नहीं, तेरे पास मेरी थाती है। ”

“ समझ गया भन्ते , किन्तु यह स्वर्ण ? ”

जयराज ने हंसकर कहा – “ संकोच न कर मित्र ! वधूटी का कोई आभूषण बनवाना, ला अश्व दे। ”

युवक ने ऊंची रास का अश्व श्यालक से दिला दिया । फिर उसने आंखों में आंसू भरकर कहा

“ तो भन्ते…. “

“ हां , मित्र मैं चला । ”

“ पर यह बन्दी ? ”

“ इसकी यत्न से रक्षा करना और राजगृह भेज देना , पाथेय और अश्व देकर । यह राजकुमार है। ”

“ ऐसा ही होगा भन्ते! ”

जयराज ने उसी अन्धकार में अश्व छोड़ दिया ।

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