चैप्टर 13 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 13 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

चैप्टर 13 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 13 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 13 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi

Chapter 13 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi

बलवन्तसिंह का भेजा हुआ कर पहुँच चुका। महेश्वरसिंह स्वयं आकर मिले और उनकी जबानी कान्यकुब्जेश को जैसा मालूम हुआ, बलवन्तसिंह का पक्ष उससे और दृढ़ हो गया, विशेषतः उनका मौन, प्रमाण हुआ। महाराज जयचन्द अपने मन्त्रणा-कक्ष में बैठे विचार कर रहे हैं। उच्च द्वितल सौध का वृहत् प्रकोष्ठ, ऊँचा रत्नासन, स्वर्ण-मंडित बहुचित्रवाला प्रकोष्ठाच्छद कारुखचित, विशाल स्तम्भाधार, मसृण, पद-सुख-स्पर्श ईरानी कालीन जिस पर सरदार बैठे हुए। रत्नाधारों पर सुगन्धित तैल के दीपक जल रहे हैं। सामने प्रशान्त गंगा प्रवाहित। उदार स्वच्छ आकाश द्वारों से देख पड़ता हुआ है। दूर नक्षत्रों की नील ज्योति आती हुई। सरदार सिर झुकाए अपने स्वार्थ की चिन्ता में लीन। एक ओर महेश्वरसिंह बैठे हुए। केवल महेन्द्रपाल अनुपस्थित हैं-न बुलाए जाने के कारण।

स्वतन्त्रता खोकर मनुष्य किस प्रकार सरदार होता है, इसके प्रमाण कभी संसार में विरल नहीं हुए। तब व्यक्तिवाद और प्रबल था।इसलिए हर व्यक्ति, जिस तरह भी हुआ, सिर देकर या लेकर, सरदार होने के प्रयत्न में था। यह सिर लेने और देने का अभ्यास-अध्यास पड़ोस से ही शुरू होता था, हो भी सकता है। इसी तरह उत्तरोत्तर फैलता हुआ मनुष्य का एक वृहत् वृत्त में सरदार के रूप में स्थित करता था। आज एक वैसा ही दृश्य उपस्थित है। जो लोग अपनी क्षुद्रता के कारण महाराज जयचन्द को सिर झुकाकर बढ़े हुए थे, वे समय समझकर, और बड़े होने की चिन्ता में लीन हैं। शक्ति में छोटा होकर बड़े से लड़ना राजनीति नहीं-किसी प्रकार का विरोध नहीं। बड़े की हर बात में, गीत की ताल पर बजते बाजे की तरह। साथ रहना चाहिए, तभी सिद्धि प्राप्त हो सकती है, उसकी बात में ताल या बेताल बात है, इसका निर्णय बाजा नहीं कर सकता। राजनीति विराजमान होने की पद्धति ऐसी ही है। हमेशा रही, हमेशा रहेगी। इसकी साधनिका है- जीव को भोजन मिलना चाहिए, भोजन से बैर जीवन का नाश – आत्महत्या है। वहाँ सब सरदार इस कला के पंडित हैं। जिधर राजदृष्टि हुई, उधर शून्य क्यों न हो, उस दर्शन के अनुरूप सब सम्यक् सृष्टि-तत्त्व देखते हैं। आज महेन्द्रपाल पर महाराज क्रुद्ध हैं, इसलिए सरदार अनुरूप कैसे हों?

महेन्द्रपाल स्वयं ऐसे सरदार थे। बहुत जाल डाले जा चुके थे, जाल काटकर, निकल चुके थे। कभी सोचा न था कि जल में रहने से एकदिन जाल में आना होता है। दूसरों की तरह उनका भी अभ्यास था, ‘फाँसेंगे, फँसेंगे नहीं।’

आज दूसरे उन्हें फँसता देखकर फाँसने के विचार में हैं। इससे स्वास्थ्य-लाभ की सम्भावना है। लालगढ़ बेदखल किया गया, तो पड़ोसवालों को उसका हिस्सा मिलेगा। जो पड़ोस के नहीं, उन्हें धन-रत्न। दोष पिता-पुत्र दोनों पर हैं। एक बार बैर साबित हो चुका है। उसमें बलवन्तसिंह की मानहानि हुई थी।

“आप लोग बलवन्त के विषय में क्या कहते हैं?”

“महाराजाधिराज की ही आज्ञा यथार्थ आज्ञा है।” खजुआ के सरदार ने सिर खुजलाते भक्ति-भाव से उठकर हाथ जोड़े।

“महाराज राजेश्वर की आज्ञा हमारे लिए ईश्वर की आज्ञा है। ईश्वर की कोई अपनी जिहा नहीं।” महेश्वरसिंह हाथ जोड़े विनयपूर्वक कहकर सबको देखते हुए बैठ गए।

कुछ सरदारों ने एक साथ उठकर महेश्वरसिंह के कथन में तिलार्द्ध झूठ नहीं, इसकी दोहाई दी।

“हमें बलवन्त का मौन रहना महत्तायुक्त सच जान पड़ता है।” महाराज जयचन्द ने कहा।

“बलवन्त जैसे मनुष्य!” शिवराजपुर के सरदार बोले।

“इसमें महेन्द्रपाल की चाल है।” महाराज जयचन्द ने कहा।

“महाराजाधिराज इसमें सन्देह नहीं; वे बड़े चालाक आदमी हैं,” एक सरदार ने कहा।

प्राणों को बल मिला। महेश्वरसिंह बोले, “महाराजाधिराज के डर से मैं नहीं कह सका, वरना लोगों से ऐसे प्रमाण मिले हैं। महेन्द्रपाल अपने पुत्र से कहकर यहाँ सफाई के लिए चले आए थे।”

“हाँ, यह बहुत बड़ी मानहानि है। दूसरी बार स्पर्द्धा की,” गम्भीर होकर महाराज बोले।

“महाराज, उनकी तो आदत पड़ गई है। बलवन्तसिंह को महाराज की ओर से सम्मान मिला है, वे ऐसे हैं भी! यह महेन्द्रपाल देख नहीं सकते।” एक ने कहा।

दूसरा बोला, “किसी गाढ़े समय मे देखो, कट जाएँगे, बस प्रशंसा के सामने हैं।”

“शशिवृत्तावाली लड़ाई में बहुत कहने से गए थे, लड़े नहीं, हमारी सेना की आड़ में रहे। पूछने पर कहा, ‘सहायता के लिए हैं।’ दाहिना पक्ष टूटा तो भागती सेना के साथ भाग खड़े हुए,” तीसरे ने पुष्टि की।

“हम तो बहुत दिनों से देख रहे हैं, युद्ध की बात पर महेन्द्रपाल हमेशा कटते हैं।” महाराज जयचन्द ने कहा और सोचने लगे।

“स्वार्थी हैं और पूरे विश्वासघाती।” महेश्वरसिंह ने गले में जोर देकर कहा।

“इस तरह औरों का स्वभाव बिगड़ता है।” एक ने मदद की।

“ऐसे मनुष्य को उचित शिक्षा न दी गई, तो सरदार राज-धर्ज का पालन न करेंगे, केवल स्वार्थ की चिन्ता में रहेंगे।” महाराज ने कहा।

“महाराज सत्य आदेश करते हैं।” कई कंठों से एक ध्वनि हुई।

“इसका कठोरतम दंड देना है, अगर विधान की रक्षा पर दृष्टि की जाए।” महाराज गम्भीर हो गए।

सभा चप हो रही। न्याय की कार्यावली पूरी न होने तक, दोष के प्रमाण धर्माधिकरण के सामने न आने तक महेन्द्रपाल को बन्दी कर रखने की आज्ञा हुई।

जयचन्द जानते थे, जितने प्रमाण मिले हैं, प्रकाश्य रूप से इतने ही कठोरतम दंड के कारण बन जाएँगे। लोगों को विश्वास हो जाएगा। पुनः ऐसे अपराध के लिए सरदार शंकित रहेंगे।

क्रमश: 

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