चैप्टर 13 नारी सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 13 Nari Siyaramsharan Gupt Novel

चैप्टर 13 नारी सियारामशरण गुप्त का उपन्यास | Chapter 13 Nari Siyaramsharan Gupt Novel

Chapter 13 Nari Siyaramsharan Gupt Novel

Chapter 13 Nari Siyaramsharan Gupt Novel

जमना खेत पर जाने के लिए भीतर के घर की साँकल लगा रही थी, इतने में हल्ली आकर उससे लिपट गया। बोला- कहाँ जाती हो माँ? – परन्तु तुम और कहाँ जाओगी खेत पर ही जाती होगी।

जमना ने स्नेह से कहा – इस समय छोड़ दे, नहीं तो देर हो जायगी।

“ऐसी बहुत दूर तो जाना है जो देर हो जायगी। दूर मैं जाऊँगा । वहाँ से चिट्ठी लिखूँगा तो तुम पढ़ भी न सकोगी कि मैंने क्या लिखा।”

“यह कैसी मूरखपने की बात करता है ! छोड़, इस समय जाने दे।”

“जाती हो तो चार पैसे मुझे दे जाओ।”

जमना ने विस्मय के साथ पूछा- चार पैसे किसलिए?

“बन्दर वाले आये हैं माँ । उनके साथ रीछ भी हैं। दो पैसे बन्दर के खेल के लिए, दो पैसे रीछ के खेल के लिए। मैं अभी बुलाये लाता हूँ, तुम भी खेल देखकर जाना। बढ़ा बढ़िया खेल है! हीरा ने दो आने दिये थे, मैं एक आने में करा लूँगा।”

“खेल के लिए मेरे पास पैसे नहीं हैं” – कहकर जमना आगे बढ़ने को हुई ।

धोती का छोर पकड़कर माँ के साथ-साथ आगे बढ़ते हुए हल्ली ने कहा – सुनो तो माँ, बहुत बढ़िया खेल है। देखकर तुम हँसी के मारे लोट-पोट हो जाओगी। एक बन्दर सिर पर लाल टोपी पहनकर हाथ में लाठी लिये हुए दुलहिन को लिवाने जाता है । दुलहिन रिसा जाती है, आना नहीं चाहती। तब बन्दर लाठी से धमकाकर उसे घसीटता हुआ ले आता है। कैसा खेल है, देखो तो तुम! पैसा देकर खेल कराने से बन्दर वाले से मेरी दोस्ती हो जायगी। वह बहुत देस परदेस घूमता रहता है।

हल्ली बराबर कहीं जाने की चर्चा छेड़ता रहता हैं, इस समय फिर वैसी ही बात उससे सुनकर जमना चिन्तित हो उठी। बोली- खबरदार जो उन लोगों से मिला-जुला । ये लोग अच्छे नहीं होते। एक बार खेल देख चुका है, और देखने की जरूरत नहीं ।

“हीरा भी तो देख चुका था”-

“वह बड़े आदमी का लड़का है, तू हर बात में उसकी बराबरी नहीं कर सकता।” कहकर जमना चली गई।

मुँह बिगाड़ कर हल्ली वहीं खड़ा रहा। हीरालाल बड़े आदमी का लड़का है, परन्तु बड़ापन उसमें क्या है, यह उसकी समझ में नहीं आता। वह जानता है कि पढ़ने-लिखने और दौड़-धूप में मैं उससे सब तरह श्रेष्ठ हूँ। उसने दो आने में खेल कराया, मैं एक आने में ही करा सकता हूँ। फिर भी माँ प्रत्येक बात में उसका पक्ष क्यों लेती हैं, उसका जी एकदम बुझ-सा गया। पास की दूसरी गली से बन्दर वालों की गिड़गिड़ी की आवाज वहाँ तक आ रही थी । वह उसे और भी दुःखित करने लगी। उसने निश्चय किया, आज वह अच्छी तरह खाना-पीना न करेगा। कह देगा – हीरा को बुलाकर उसी को खिलाओ-पिलाओ, मैं नहीं खाऊँगा ! एक बार उसने यह भी सोचा कि इन बन्दर वालों के साथ ही वह कहीं भाग जाय, तब माँ रो रोकर पछतायेंगीं । परन्तु माँ ने उन लोगों से हेल-मेल करने के लिए मना कर दिया था, इसलिए वह बात उसके मन में अधिक देर तक न रह सकी।

चार-पाँच दिन बाद दोपहर को मदरसे से दौड़ा-दौड़ा आकर हल्ली रसोईघर में घुस गया। चूल्हे के पास से व्यस्त होकर जमना ने कहा- अरे, पैर धोकर आ !

हल्ली इस समय एक बहुत अच्छा समाचार लाया था। उसे शीघ्र सुनाने के लिए वह जहाँ तक आ गया था, वहीं खड़ा हो गया, पीछे नहीं लौटा। हाँफते – हाँफते बोला- मेरे रुपये मिल गये हैं।

जमना ने उत्सुक होकर पूछा-मिल गये? कहाँ मिले?

“अभी मुझे नहीं मिले, हीरा ने चुरा लिये थे।”

जमना का समस्त उत्साह शान्त हो गया, वह हल्ली से भी छिपा नहीं रहा। उसने कहा- माँ, घबराओ नहीं, रुपये मिल जायँगे । पण्डितजी ने कहा है ।

जमना ने बात अनसुनी करके कहा- जल्द नहाकर आ जा, देर हो गई है। नहीं, – तू ठहर; हाथ धोकर धूप में मैं तुझे अच्छी तरह नहलाये देती हूँ।

माँ का यह ढङ्ग हल्ली समझ न सका। मैं इतनी बड़ी जासूसी करके आ रहा हूँ, परन्तु जैसे मेरी बात माँ के कान ही न पड़ी हो। बराबर बप्पा की बात सोच सोचकर यह इनका स्वभाव कैसा हो गया है ! उसने फिर कहा- पण्डितजी ने आज हीरा की अच्छी मरम्मत कर दी है। उन्होंने उससे कहा है, – रुपये घर से लाकर दे, नहीं तो मदरसे से निकाल देंगे।

जमना ने कहा- नहीं, उसने रुपये नहीं चुराये। अपनी चीज तो अच्छी तरह रखता नहीं है और चोरी लगाता है दूसरे को । पण्डितजी से कह देना, उसे तँग न करें। – खड़ा क्यों है, उतार झट से कपड़े; मैं नहला दूँ।

इतनी देर में हल्ली की समझ में आया कि हीरालाल बड़े आदमी का लड़का है, इसलिए माँ की समझ में वह चोरी नहीं कर सकता । उसको स्वयं रुपये मिल जाने की इतनी खुशी न थी, जितनी इस बात की कि हीरालाल को माँ अब अच्छी तरह समझ लेंगी। इस आनन्द में वह ठंडी, जगह बैठकर दो घण्टे तक मिट्टी के घड़े के वासी पानी से चुपचाप नहा सकता था । परन्तु इनकी समझ में कुछ आता ही नहीं है । पण्डितजी तक को विश्वास हो गया है और ये कहती है हीरा ने चोरी नहीं की। क्रुद्ध होकर बोला- हीरा ने चोरी नहीं की तो क्या तुम्हारे रुपये मैंने चुरा लिये?

“तू मेरे रुपये चुरायगा किसलिए ? ” – हँसकर स्नेह से जमना ने कहा, परन्तु तुरन्त ही एक अद्भुत कठोरता उसके मुख पर दिखाई पड़ी – ” जिस दिन मैं देखूँगी कि तू चोरी करता है, उस दिन मैं समझ लूँगी, मेरे लड़का था ही नहीं।”

हल्ली चुपचाप माँ का मुँह ताकने लगा। माँ की यह बात उसे बहुत अच्छी मालूम हुई ! क्या इसलिए कि इसे लेकर वह हीरालाल को अत्यन्त घृणा की दृष्टि से देख सकता है? अथवा क्या इसलिए कि इसमें भी उसे अपने प्रति माँ का अत्यन्त स्नेह दिखाई दिया? ठीक नहीं कहा जा सकता कि बात क्या है। हो सकता है, घृणा और प्रेम के दोनों विरोधी भाव अनजान में उसके हृदय में हों,- पूर्व और पश्चिम में चन्द्रमा और सूर्य की तरह एक साथ ।

परन्तु इस समय हल्ली के हृदय में क्रोध का भाव ही प्रबल दिखाई दिया। एक क्षण बाद ही बोल उठा – तुम चोर की कोद ले रही हो। मैं अपने रुपये लिये बिना न मानूँगा।

जमना ने कहा- तू यही समझ, तेरे रुपये खो गये। जो खो जाय उसके लिए समझना चाहिए, वह मेरा नहीं था ।

मुँह से बात निकली नहीं कि उसके मन में आया, उसका भी तो कुछ खो गया है। उसका खोया धन फिर मिल जाय तो क्या वह उसे लेना न चाहेगी?

हल्ली बोला- मैंने सोच लिया था, जिसने मेरे रुपये चुराये हैं वे उसके मरघट पर गये। पर अब मैं किसी की न सुनूँगा-

मुँह पर दिये तमाचे तीन,

डर किसका, अपनी ली छीन ।

जमना अभी-अभी पति की बात मन में ला चुकी थी, उसके बाद तत्काल मरघट का नाम उसके कान में पहुँचा। उसने डपटकर कहा- बुरे लड़कों की कैसी बुरी बातें सीखता है! आई मैं, देखती हूँ।

माँ का यह सच्चा क्रोध देखकर भी हल्ली पीछे नहीं हटा। इस समय हीरालाल के प्रति उसके मन में ऐसा ही विद्वेष था। उसके पण्डितजी तक ने कह दिया था कि उसके रुपये उसे दे दिये जायँ । जब हीरा नहीं देगा तो वह मार-पीटकर वसूल कर लेगा। जमींदार के आदमी जोर- करके किसान से लगान लेते हैं। यह वह बराबर देखता है। वह क्यों किसी पर दया करे? माँ का दिमाग तो न जानें कैसा हो गया है।

किसी तरह नहा धोकर हल्ली जब थाली पर बैठा, तब भी रह रहकर इसी सम्बन्ध में बात करता रहा। उसने बताया, किस तरह इस चोरी की बात फूटी है। एक दूसरे लड़के से मिलकर हीरा ने यह चोरी की थी। किसी बात पर दोनों में खटपट हो गई, तब भेद खुल गया। जो चोरी करेगा, वह एक न एक दिन जेल जायगा ही! पण्डितजी के पूछने पर उस दूसरे लड़के ने चोरी का सब हाल बताया है। उस दिन हल्ली अपनी जेब से पैन्सिल या और कुछ निकालने के लिए उसका अगड़म-बगड़म सामान निकाल निकालकर नीचे एक किताब पर रख रहा था, उसी के साथ उसने रुपये भी रख दिये थे। इसी समय उसे किसी काम के लिए पण्डितजी ने बुलाया और वह उठकर वहाँ से चला गया। मौका देखकर उस लड़के ने हीरा से मिलकर वे रुपये उठा लिये। दोनों ने मिलकर हलवाई के यहाँ खूब मीठा उड़ाया, बाजार से पैन्सिल बनाने का गोल चाकू और रबर लगा होल्डर खरीदा और इधर-उधर खेल में पैसे लुटाये। अब सब दाम अकेले हीरा को देने पड़ेंगे, यह पण्डितजी ने कहा है। बड़े आदमी के बेटाजी को सजा भी तो बड़ी मिलनी चाहिए। बच्चू मदरसे में तो पिटे ही हैं, घर में भी जब उनकी चमड़ी उधेड़ी जायगी, तब जानेंगे, बुरे काम का नतीजा ऐसा होता है !

सब बातें सुनकर जमना को भी क्रोध आ गया। फिर भी उसने उसे प्रकट होने नहीं दिया। हल्ली को माँ की यह चुप्पी बहुत अखरी ।

क्रमश:

Prev | Next| All Chapters

प्रेमा मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास 

वैशाली की नगरवाधु आचार्य चतुर सेन शास्त्री का उपन्यास

अप्सरा सूर्य कांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास

 

Leave a Comment