चैप्टर 13 मैला आँचल फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास, Chapter 13 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Novel, Chapter 13 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu Ka Upanyas Read Online
Chapter 13 Maila Anchal Phanishwar Nath Renu
गाँव के ग्रह अच्छे नहीं !
सिर्फ जोतखी जी नहीं, गाँव के सभी मातबर लोग मन-ही-मन सोच-विचार कर देख रहे हैं-गाँव के ग्रह अच्छे नहीं !
तहसीलदार साहब को स्टेट के सर्किल मैनेजर ने बुलाकर एकान्त में कहा है, “एक साल का भी खजाना जिन लोगों के पास बकाया है, उन पर चुपचाप नालिश कर दो। बलाय-बलाय (घूस देकर) से नोटिस 58 बी. तामील करवा लो। कुर्की और इश्तहार निकास करवाकर सरज़मीन पर चपरासी को ले जाने की जरूरत नहीं। कचहरी में ही बैठकर गाँव के चमार से अँगूठा का टीप लेकर ढोल बजाने की रसीद बनवा लो।…गाँव के एक-दो गवाहों को भी ठीक करके रखो। स्टेट से उनको भत्ता मिलेगा। इन काँगरेसियों का कोई ठीक नहीं।”
सिंघ जी यादवटोला के नढ़ेलों (बदमाशों) का सीना तानकर चलना बरदाश्त नहीं कर सकते। जोतखी जी ठीक कहते थे-बार-बार लाठी-भाला दिखलाते हैं। हौसला बढ़ गया है। अब तो राह चलते परनाम-पाती भी नहीं करते हैं यादव लोग ! कलिया कभी-कभी चिढ़ाने के लिए नमस्कार करता है। देह में आग लग जाती है सुनकर। लेकिन सिंघ जी क्या करें ? राजपूतटोली के नौजवान लोग भी ग्वालों के दल में ही धीरे-धीरे मिल रहे हैं। अखाड़े में ग्वालों के साथ कुश्ती लड़ते हैं। रोज शाम को कीर्तन में भी जाने लगे हैं। हरगौरी ठीक कहता था-यदि यही हालत रही तो पाँच साल के बाद ग्वाले बेटी माँगेंगे। तब काली कुर्तीवालों के बारे में जो हरगौरी कहता था, उन लोगों को बुला लिया जाए ? कहता था, लाठी-भाला सिखानेवाला मास्टर आवेगा। संजोगकजी या सनचालसजी, क्या कहता था, सो आवेंगे। हिन्दू राज-महराना प्रताप और शिवाजी का राज होगा। हरगौरी आजकल बड़ी-बड़ी बातें करता है।
भंडारा के दिन सिंघ जी रूठे हुए खेलावनसिंह यादव को घर से जबर्दस्ती खींचकर ले गए थे, लेकिन खेलावनसिंह का मन रूठा ही हुआ था। जोतखी काका रोज आते हैं। उन्होंने कहा है, सकलदीप का अठारह साल की उम्र में माता या पिता का बिजोग लिखा हुआ है। सकलदीप का यह सत्रहवाँ जा रहा है। सकलदीप की माँ बेटे का गौना करवाने के लिए रोज तकादा करती है। बेटे को वोकील बनाने की इच्छा शायद काली माई पूरी नहीं होने देगी। गौना के बाद फिर क्या पढ़ेगा ! माता-पिता का बिजोग ? बालदेव को सारी दुनिया की भलाई तो सूझती है, मगर जिसका नमक खाता है उसके लिए एक तिनका भी तो सोचे। दिन-भर तहसीलदार के यहाँ बैठा रहता है और शाम को कीर्तन ! कमला किनारेवाले एक जमा में कलरु पासवान के दादा का नाम कायमी बटैयादार की हैसियत से दर्ज है। बालदेव से कहा कि कलरु से कह-सुनकर सुपुर्दी लिखवा दो या रजिस्ट्री करवा दो, तो कान ही नहीं दिया। हलवाहा गोनाय ततमा कल से हल जोतने नहीं आता है। कहता है, पिछले साल का बकाया साफ कर दीजिए तो हल उठावेंगे। बालदेव टुकुर-टुकुर देखता रहा, कुछ बोला भी नहीं, उलटे हमसे बहस करने लगा,…गरीब लोगों का दरमाहा नहीं रोकना चाहिए भाई साहब !
जोतखी जी की अठारह साल की नववधू कनचीरावाली के पेट में रोज खाने के बाद दर्द हो जाता है। पिछले एक साल से वह खाने के बाद पेट पकड़कर सो जाती है। इस साल तो और भी दर्द बढ़ गया है।…डागडरी दवा ? नहीं, नहीं। डागडर तो पेट टीपेगा, जीभ देखेगा, आँख की पपनियाँ उलटाकर देखेगा, पेसाब और पाखाना के बारे में पूछेगा, सायद लहू भी जाँच करे। इधर वह रोज कहती है, डागडरबाबू ने कोयरीटोला की छोटी चम्पा को एक ही जकशैन में आराम कर दिया है। इसी तरह उसके पेट में भी दर्द रहता था।…औरत को समझाना बड़ा कठिन काम है। सभी औरतें एक समान। जो जिद पकड़ेगी, पकड़े रहेगी। जोतखी जी को अपनी चार स्त्रियों का अनुभव है। पहली बेचारी को तो सिर्फ मेला-बाजार देखने का रोग था। कोई भी मेला नहीं छोड़ती थी वह। जहाँ मेला आया कि जोतखी जी के तीसों दिन परमानन झा की खुशामद करने में ही बीतते थे। परमानन की भैंसागाड़ी पर ही मेला जाएगी। परमानन बेचारा खुद गाड़ी हाँककर मेला ले जाता था, कभी भाड़ा नहीं लिया। आखिर बेचारी की मृत्यु भी मेले में ही हुई। उस साल अर्धोदय के मेले में वह जोरों का हैजा फैला था।…दूसरी को हुक्का पीने की आदत थी। ब्राह्मण का हुक्का पीना ? लेकिन जोतखी जी क्या करते-औरत की जिद्द। जब वह बीमार पड़ती थी तो बहुत बार जोतखी जी को ही हुक्का तैयार कर देना पड़ता था।…पुरानी खाँसी से खाँसते-खाँसते वह भी मर गई।…तीसरी को इस बात की जिद्द लग गई थी कि वह गाँव के लड़कों से हँसना-बोलना बन्द नहीं करेगी।…और कनचीरावाली को डागडरी दवा की जिद लग गई है। एकमात्र पुत्र रामनगरायण तो कुपुत्र निकला। बिदापत नाच करता है। ततमा पासवानों के साथ रहता है। सारी ब्राह्मण मंडली में उसकी शिकायत फैल गई है। कोई बेटी देता ही नहीं। जोतखी जी क्या करें ? हाथ की उर्ध्व-रेखा तो सीधे तर्जनी में चली गई है, लेकिन कुंडली के दसम घर में शनि है। समझाते-समझाते थक गया कि अपना नाम रामनारायण मिश्र कहा करो, लेकिन वह भी गँवार की तरह नामलरैन ही कहता है।…रामनारायण के साथ कनचीरावाली को एक दिन इसपिताल भेज दें ? घर पर बुलाने से तो डागडर फीस लेगा।
लरसिंघदास गाँव के घर-घर में जाकर पंचों से कह रहा है-“आचारज गुरु आ रहे हैं। मठ का अधिकारी महन्थ वही है; उसी को चादर-टीका मिलनी चाहिए, महन्थ की रखेलिन या दासिन को मठ के मामले में कुछ बोलने का अधिकार नहीं। रामदास तो भैंसवार है। इतने बड़े मठ को चलाना मूरख आदमी के बूते की बात नहीं। वह ‘बीए’ पास है। अंग्रेजी में ही बीजक बाँचता है। इसीलिए तो बाबड़ी-केश रखता है, धोती-कुर्ता पहनता है और आधी मूंछ कटाता है।…मठ पर एक स्कूल खोलेंगे। गाँववालों की भलाई करेंगे। आप लोग बुद्धिमान आदमी हैं, खुद विचारकर देख सकते हैं। दासिन रखेलिन मठ को बिगाड़ देती है; साधू-धरम को भ्रष्ट कर देती है। आप लोग खुद विचारकर देख सकते हैं।”
तन्त्रिमाटोले में पंचायत हुई ! बन्दिश हुई है-तन्त्रिमाटोले की कोई औरत अब बाबूटोला के किसी आँगन में काम करने नहीं जाएगी। बाबू-बबुआन लोग शाम को गाँव में आवें, कोई हर्ज नहीं; किसी की अन्दरहवेली में नहीं जा सकते। मजदूरी में जो एक-आध सेर मिले, उसी में सबों को सन्तोख रखना होगा। बलाई आमदनी में कोई बरकत नहीं। अनोखे और उचितदास छड़ीदार हुआ है। जिसे चाल से बेचाल देखेगा, 3 बाँस की छड़ी से पीठ की चमड़ी उधेड़ लेगा।
तन्त्रिमा लोगों की इस बन्दिश के बाद गहलोत छत्री, कर्म छत्री, पोलियाटोले, धनुखधारी और कुशवाहा छत्रीटोले के पंचों ने भी ऐसी ही व्यवस्था की है।…सिर्फ जनेऊ लेने से ही नहीं होता है, करम भी करना होगा। जाए तो कोई बाबू कभी संथालटोली में, शाम या रात को ! उनकी औरतों से कोई दिल्लगी भी कर सकता है।…संथालों के तीर पर जहर का पानी चढ़ाया रहता है।
कुंर्म छत्रीटोले के लौजमानों ने कल रात को शिवशक्करसिंह को बेपानी कर दिया। झुबरी मुसम्मात का घर तो टोले के एक छोर पर है न, सिपैहियाटोली की बाँसवाड़ी के ठीक बगल में ! लेकिन शिवशक्करसिंह को क्या मालूम कि बाँस की झाड़ियों में छोकरे पहले से ही छिपे हुए हैं !…झुबरी मुसम्मात को दस रुपए जरिमाना हुआ है। जहाँ से दे, देना तो होगा ही, नहीं तो हुक्का-पानी बन्द। शिवशक्करसिंह से रुपया लेकर दे। इसी तरह लालबाग मेला में पंचलैट खरीद होगा। बिना पंचलैटवाली पंचायत की क्या कीमत ? लैट के दाम में बीस रुपैया और कम है। एक दिन फिर बाँसवाड़ी में एक घंटा मच्छड़ कटवाना होगा, और क्या ?
कालीचरन का अखाड़ा आजकल खूब जमता है। शाम को कीरतन भी खूब जमता है। नया हरमुनियाँ खरीद हुआ है। गंगा जी के मेले से गंगतीरिया ढोलक लाया गया है। खूब गम्हड़ता है।
बालदेव जी को कीरतन तो पसन्द है, लेकिन अखाड़ा और कुश्ती को वे खराब समझते हैं।…शरीर में ज्यादा बल होने से हिंसाबात करने का खौफ रहता है। असल चीज़ है बुद्धि । बुद्धि के बल से ही गन्ही महतमा जी ने अंग्रेजों को हराया है। गाँधी जी की देह में तो एक चिड़िया के बराबर भी मांस नहीं। काँगरेस के और लीडर लोग भी दुबले-पतले ही हैं।
लेकिन कालीचरन का अखाड़ा बन्द नहीं हो सकता। ढोल की आवाज में कुछ ऐसी बात है कि कुश्ती लड़नेवाले नौजवानों के खून को गर्म कर देती है।
ढाक ढिन्ना, ढाक ढिन्ना ! शोभन मोची ने ढोल पर लकड़ी की पहली चोट दी कि देह कसमसाने लगता है।
ढिन्ना ढिन्ना, ढिन्ना ढिन्ना…!
अर्थात्-आ जा, आ जा, आ जा, आ जा !
सभी अखाड़े में आए। काछी और जाँघिया चढ़ाया, एक मुट्ठी मिट्टी लेकर सिर में लगाया और ‘अज्ज्ज्जा ‘ कहकर मैदान में उतर पड़े। कालीचरन ‘आ-आ-अली’ कहकर मैदान में उतरता है। चम्पावती मेला में पंजाबी पहलवान मुश्ताक इसी तरह ‘आली’ (या अली) कहकर मैदान में उतरता था…
तब शोभन ताल बदल देता है-
चटधा गिड़धा, चटधा गिड़धा !
…आ जा भिड़ जा, आ जा भिड़ जा !
अखाड़े में पहलवान पैंतरे भर रहे हैं। कोई किसी को अपना हाथ भी छूने नहीं देता है। पहली पकड़ की ताक में हैं। वह पकड़ा…
धागिड़ागि, धागिड़ागि, धागिड़ागि !
…कसकर पकड़ो, कसकर पकड़ो !
चटाक चटधा, चटाक चटधा !
…उठा पटक दे, उठा पटक दे !
गिड़ गिड़ गिड़ धा, गिड़ धा गिड़ धा !
…..वह वा, वह वा, वाह बहादुर !
पटक तो दिया, अब चित्त करना खेल नहीं ! मिट्टी पकड़ लिया है। सभी दाव के पेंच और काट उसको मालूम हैं !
ढाक ढिन्ना, तिरकिट ढिन्ना !
…दाव काट, बाहर हो जा! वाह बहादुर ! दाव काटकर बाहर निकल आया। फिर, धा-चट गिड़ धा ! आ जा भिड़ जा ! ढोल के हर ताल से पैंतरे, दाँव-पेंच, काट और मार की बोली निकलती है।
कालीथान में पूजा के दिन इसी ढोल की ताल एकदम बदल जाती है। आवाज़ भी बदल जाती है। धागिड़ धिन्ना, धागिड़ धिन्ना !
…जै जगदम्बा ! जै जगदम्बा !
गाँव की रक्षा करो माँ जगदम्बा।
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