चैप्टर 13 हृदयहारिणी किशोरी लाल गोस्वामी का उपन्यास | Chapter 13 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas
Chapter 13 Hridayaharini Kishorilal Goswami Ka Upanyas
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तेरहवां परिच्छेद : युद्धयात्रा
“क्षतात् किल त्रायत इत्युदन,क्षत्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः।”
कुसुम,-“तो ऐसी कौन सी झंझट आपड़ी है?”
नरेन्द्र,-“सुनो, कहता हूं, इसीके कहने के लिये तो मैं इस समय तुम्हारे पास आया ही हूं।”
कुसुम,-“तो बतलाओ भी कि वह कौन सी बात है?”
नरेन्द्र,-“सुनो, लाट क्लाइब साहब का दूत एक पत्र लेकर आया है। उस पत्र में उन्होंने लड़ाई में साथ देने का न्योता भेजा है और मुझे बुलाया है। नवाब सिराजुद्दौला के साथ कंपनीवालों की लड़ाई छिड़गई है और ऐसा विश्वास होता है कि अबकी बार वह गोरे सौदागरों से भरपूर हार खाएगा। आज अंग्रेज़ी के मई महीने की पहिली तारीख़ (सन् १७५७ ई०) है और मुझे पलासी के मैदान में जहां तक होसके जल्द पहुंचना चाहिए, इसलिये मैं तुमसे युद्धयात्रा के लिये बिदा मांगने आया हूँ कि तुम मुझे हंसी-खुशी बिदा करो। ईश्वर ने चाहा तो बहुत जल्द मैं जीत के नगाड़े बजाता हुआ तुमसे आकर मिलूँगा।”
नरेन्द्र की इन बातों ने कुसुमकुमारी के हृदय को किस भांति मसल डाला, इसका हाल उसका जी ही जानता होगा! लड़ाई में जाने की बात सुनकर वह मारे घबराहट के रोने लग गई। यहां तक कि घंटों तक नरेन्द्र उसे समझाते रहे।
अन्त में वह शान्त हुई और बोली,-“जाओ, प्यारे! संग्राम में बिजयलक्ष्मी का आलिंगन करो, पर देखना मुझे भूल न जाना।”
नरेन्द्र ने कुसुम को गले लगा, आंखों में आंसू भरकर कहा,- “प्यारी! भला, जीते जी, मैं तुम्हें कभी भूल सकता हूं। तुम निश्चय जानो कि तुम्हारे इसी अलौकिक प्रेम के बल से ही तो मैं संग्राम में बिजय पाऊंगा!”
कुसुम ने आंसू ढलकाते-ढलकाते कहा,-“प्यारे! ईश्वर ऐसा ही करे! अस्तु, मैं तुम्हें रोककर राजपूत-बालाओं के माथे अपयश न मढूंगी, इसलिये……”
इसके अनन्तर कुसुम ने नरेन्द्र को फूलों की माला पहिना, माथे में दही का टीका और भुजा पर रक्षाकवच बांधकर उनके हाथ में नंगी तल्वार धराई और गले गले मिलकर रोते रोते उसने अपने प्रान प्यारे को बिदा किया।
फिर नरेन्द्र लवंगलता से बिदा हो और अंतःपुर की रखवाली का भार मदनमोहन तथा मंत्री को देकर राजमंदिर से पधारे।
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