चैप्टर 13 दो सखियाँ मुंशी प्रेमचंद का उपन्यास | Chapter 13 Do Sakhiyan Munshi Premchand Ka Upanyas

Chapter 13 Do Sakhiyan Munshi Premchand

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दिल्ली

20-2-26

प्यारी बहन,

तुम्हारा पत्र पढ़कर मुझे तुम्हारे ऊपर दया आयी। तुम मुझे कितना ही बुरा कहो, पर मैं अपनी यह दुर्गति किसी तरह न सह सकती, किसी तरह नहीं। मैंने या तो अपने प्राण ही दे दिये होते, या फिर उस सास का मुँह न देखती। तुम्हारा सीधापन, तुम्हारी सहनशीलता, तुम्हारी सास-भक्ति तुम्हें मुबारक हो। मैं तो तुरन्त आनंद के साथ चली जाती और चाहे भीख ही क्यों न मांगनी पड़ती, उस घर में क़दम न रखती। मुझे तुम्हारे ऊपर दया ही नहीं आती, क्रोध भी आता है, इसलिए कि तुममें स्वाभिमान नहीं है। तुम-जैसी स्त्रियों ने ही सासों और पुरुषों का मिज़ाज आसमान चढ़ा दिया है। ‘जहन्नुम में जाय ऐसा घर—जहां अपनी इज्जत नहीं।’ मैं पति-प्रेम भी इन दामों न लूं। तुम्हें उन्नीसवी सदी में जन्म लेना चाहिए था। उस वक्त तुम्हारे गुणों की प्रशंसा होती। इस स्वाधीनता और नारी-स्वत्व के नवयुग में तुम केवल प्राचीन इतिहास हो। यह सीता और दमयन्ती का युग नहीं। पुरुषों ने बहुत दिनों तक राज्य किया। अब स्त्री-जाति का राज्य होगा। मगर अब तुम्हें अधिक न कोसूंगी।

अब मेरा हाल सुनो। मैंने सोचा था, पत्रों में अपनी बीमारी का समाचार छपवा दूंगी। लेकिन फिर खयाल आया; यह समाचार छपते ही मित्रों का तांता लग जायेगा। कोई मिज़ाज पूछने आयेगा। कोई देखने आयेगा। फिर मैं कोई रानी तो हूँ नहीं, जिसकी बिमारी का बुलेटिन रोजाना छापा जाए। न जाने लोगों के दिल में कैसे-कैसे विचार उत्पन्न हों। यह सोचकर मैंने पत्र में छपवाने का विचार छोड़ दिया। दिन-भर मेरे चित्त की क्या दशा रही, लिख नहीं सकती। कभी मन में आता, ज़हर खा लूं, कभी सोचती, कहीं उड़ जाऊं। विनोद के संबंध में भांति भांति की शंकाएं होने लगीं। अब मुझे ऐसी कितनी ही बातें याद आने लगीं, जब मैंने विनोद के प्रति उदासीनता का भाव दिखाया था। मैं उनसे सब कुछ लेना चाहती थी; देना कुछ न चाहती थी। मैं चाहती थी कि वह आठों पहर भ्रमर की भांति मुझ पर मंडराते रहें, पतंग की भांति मुझे घेरे रहें। उन्हें किताबों और पत्रों में मग्न बैठे देखकर मुझे झुंझलाहट होने लगती थी। मेरा अधिकांश समय अपने ही बनाव-श्रृंगार में कटता था, उनके विषय में मुझे कोई चिंता ही न होती थी। अब मुझे मालूम हुआ कि सेवा का महत्व रूप से कहीं अधिक है। रूप मन को मुग्ध कर सकता है, पर आत्मा को आनंद पहुँचाने वाली कोई दूसरी ही वस्तु है।

इस तरह एक हफ्ता गुजर गया। मैं प्रात:काल मैके जाने की तैयारियाँ कर रही थी—यह घर फाड़े खाता था—कि सहसा डाकिये ने मुझे एक पत्र लाकर दिया। मेरा हृदय धक-धक करने लगा। मैंने कांपते हुए हाथों से पत्र लिया, पर सिरनामे पर विनोद की परिचित हस्तलिपि न थी, लिपि किसी स्त्री की थी, इसमें संदेह न था, पर मैं उससे सर्वथा अपरिचित थी। मैंने तुरन्त पत्र खोला और नीचे की तरफ देखा तो चौंक पड़ी—वह कुसुम का पत्र था। मैंने एक ही साँस में सारा पत्र पढ़ लिया। लिखा था—‘बहन, विनोद बाबू तीन दिन यहां रहकर बम्बई चले गये। शायद विलायत जाना चाहते हैं। तीन-चार दिन बम्बई रहेंगे। मैंने बहुत चाहा कि उन्हें दिल्ली वापस कर दूं पर वह किसी तरह न राजी हुए। तुम उन्हें नीचे लिखे पते से तार दे दो। मैंने उनसे यह पता पूछ लिया था। उन्होंने मुझे ताकीद कर दी थी कि इस पते को गुप्त रखना, लेकिन तुमसे क्या परदा। तुम तुरन्त तार दे दो, शायद रूक जाएं। वह बात क्या हुई ! मुझसे विनोद ने तो बहुत पूछने पर भी नहीं बताया, पर वह दु:खी बहुत थे। ऐसे आदमी को भी तुम अपना न बना सकी, इसका मुझे आश्चर्य है; पर मुझे इसकी पहले ही शंका थी। रूप और गर्व में दीपक और प्रकाश का संबंध है। गर्व रूप का प्रकाश है।’…

मैंने पत्र रख दिया और उसी वक्त विनोद के नाम तार भेज दिया कि बहुत बीमार हूँ, तुरन्त आओ। मुझे आशा थी कि विनोद तार द्वारा जवाब देंगे, लेकिन सारा दिन गुजर गया और कोई जवाब न आया। बंगले के सामने से कोई साइकिल निकलती, तो मैं तुरन्त उसकी ओर ताकने लगती थी कि शायद तार का चपरासी हो। रात को भी मैं तार का इंतज़ार करती रही। तब मैंने अपने मन को इस विचार से शांत किया कि विनोद आ रहे हैं, इसलिए तार भेजने की ज़रूरत न समझी।

अब मेरे मन में फिर शंकाएं उठने लगी। विनोद कुसुम के पास क्यों गये, कहीं कुसुम से उन्हें प्रेम तो नहीं हैं? कहीं उसी प्रेम के कारण तो वह मुझसे विरक्त नहीं हो गये? कुसुम कोई कौशल तो नहीं कर रही हैं? उसे विनोद को अपने घर ठहराने का अधिकार ही क्या था? इस विचार से मेरा मन बहुत क्षुब्ध हो उठा। कुसुम पर क्रोध आने लगा। अवश्य दोनों में बहुत दिनों से पत्र-व्यवहार होता रहा होगा। मैंने फिर कुसुम का पत्र पढ़ा और अबकी उसके प्रत्येक शब्द में मेरे लिए कुछ सोचने की सामग्री रखी हुई थी। निश्चय किया कि कुसुम को एक पत्र लिखकर खूब कोसूं। आधा पत्र लिख भी डाला, पर उसे फाड़ डाला। उसी वक्त विनोद को एक पत्र लिखा। तुमसे कभी भेंट होगी, तो वह पत्र दिखाऊंगी; जो कुछ मुँह में आया बक डाला। लेकिन इस पत्र की भी वही दशा हुई, जो कुसुम के पत्र की हुई थी। लिखने के बाद मालूम हुआ कि वह किसी विक्षप्त हृदय की बकवास है। मेरे मन में यही बात बैठती जाती थी कि वह कुसुम के पास हैं। वही छलिनी उन पर अपना जादू चला रही है। यह दिन भी बीत गया। डाकिया कई बार आया, पर मैंने उसकी ओर ऑंख भी नहीं उठायी। चंदा, मैं नहीं कह सकती, मेरा हृदय कितना तिलमिलाता रहा था। अगर कुसुम इस समय मुझे मिल जाती, तो मैं न-जाने क्या कर डालती।

रात को लेटे-लेटे खयाल आया, कहीं वह यूरोप न चले गये हों। जी बैचेन हो उठा। सिर में ऐसा चक्कर आने लगा, मानो पानी में डूबी जाती हूँ। अगर वह यूरोप चले गये, तो फिर कोई आशा नहीं—मैं उसी वक्त उठी और घड़ी पर नजर डाली। दो बजे थे। नौकर को जगाया और तार-घर जा पहुँची। बाबूजी कुर्सी पर लेटे-लेटे सो रहे थे। बड़ी मुश्किल से उनकी नींद खुली। मैंने रसीदी तार दिया। जब बाबूजी तार दे चुके, तो मैंने पूछा— “इसका जवाब कब तक आयेगा?”

बाबू ने कहा—”यह प्रश्न किसी ज्योतिषी से कीजिए। कौन जानता है, वह कब जवाब दें। तार का चपरासी जबरदस्ती तो उनसे जवाब नहीं लिखा सकता। अगर कोई और कारण न हो, तो आठ-नौ बजे तक जवाब आ जाना चाहिए।”

घबराहट में आदमी की बुद्धि पलायन कर जाती है। ऐसा निरर्थक प्रश्न करके मैं स्वयं लज्जित हो गयी। बाबूजी ने अपने मन में मुझे कितना मूर्ख समझा होगा; खैर, मैं वहीं एक बेंच पर बैठ गयी और तुम्हें विश्वास न आयेगा, नौ बजे तक वहीं बैठी रही। सोचो, कितने घंटे हुए? पूरे सात घंटे। सैकड़ों आदमी आये और गये, पर मैं वहीं जमी बैठी रही। जब तार का डमी खटकता, मेरे हृदय में धड़कन होने लगती। लेकिन इस भय से कि बाबूजी झल्ला न उठें, कुछ पूछने का साहस न करती थीं। जब दफ़्तर की घड़ी में नौ बजे, तो मैंने डरते-डरते बाबू से पूछा—”क्या अभी तक जवाब नहीं आया।”

बाबू ने कहा— “आप तो यहीं बैठी हैं, जवाब आता तो क्या मैं खा डालता?”

मैंने बेहयाई करके फिर पूछा—”तो क्या अब न आवेगा?”

 बाबू ने मुँह फेरकर कहा—”और दो-चार घंटे बैठी रहिए।”

बहन, यह वाग्बाण शर के समान हृदय में लगा। आँखे भर आयीं। लेकिन फिर मैं टली नहीं। अब भी आशा बंधी हुई थी कि शायद जवाब आता हो। जब दो घंटे और गुजर गये, तब मैं निराश हो गयी। हाय ! विनोद ने मुझे कहीं का न रखा। मैं घर चली, तो ऑंखें से आँसुओं की झड़ी लगी हुई थी। रास्ता न सूझता था।

सहसा पीछे से एक मोटर का हार्न सुनायी दिया। मैं रास्ते से हट गयी। उस वक्त मन में आया, इसी मोटर के नीचे लेट जाऊं और जीवन का अंत कर दूं। मैंने ऑंखे पोंछकर मोटर की ओर देखा, भुवन बैठा हुआ था और उसकी बगल में बैठी थी कुसुम। ऐसा जान पड़ा, अग्नि की ज्वाला मेरे पैरों से समाकर सिर से निकल गयी। मैं उन दोनों की निगाहों से बचना चाहती थी, लेकिन मोटर रूक गयी और कुसुम उतर कर मेरे गले से लिपट गयी। भुवन चुपचाप मोटर में बैठा रहा, मानो मुझे जानता ही नहीं। निर्दयी, धूर्त !

कुसुम ने पूछा—”मैं तो तुम्हारे पास जाती थी, बहन? वहां से कोई खबर आयी?जेड

मैंने बात टालने के लिए कहा—”तुम कब आयी?”

भुवन के सामने मैं अपनी विपत्ति-कथा न कहना चाहती थी।

कुसुम—”आओ, कार में बैठ जाओ।”

“नहीं, मैं चली जाऊंगी। अवकाश मिले, तो एक बार चली आना।”

कुसुम ने मुझसे आग्रह न किया। कार में बैठकर चल दी। मैं खड़ी ताकती रह गयी। यह वही कुसुम है या कोई और? कितना बड़ा अंतर हो गया है?

मैं घर चली, तो सोचने लगी—”भुवन से इसकी जान-पहचान, कैसे हुई? कहीं ऐसा तो नहीं है कि विनोद ने इसे मेरी टोह लेने को भेजा हो। भुवन से मेरे विषय में कुछ पूछने तो नहीं आयी हैं?”

मैं घर पहुँचकर बैठी ही थी कि कुसुम आ पहुँची। अब की वह मोटर में अकेली न थी—विनोद बैठे हुए थे। मैं उन्हे देखकर ठिठक गयी। चाहिए तो यह था कि मैं दौड़कर उनका हाथ पकड़ लेती और मोटर से उतार लाती, लेकिन मैं जगह से हिली तक नहीं। मूर्ति की भांति अचल बैठी रही। मेरी मानिनी प्रकृति आपना उद्दण्ड-स्वरूप दिखाने के लिए विकल हो उठी। एक क्षण में कुसुम ने विनोद को उतारा और उनका हाथ पकड़े हुये ले आयी। उस वक्त मैंने देखा कि विनोद का मुख बिल्कुल पीला पड़ गया है और वह इतने अशक्त हो गये हैं कि अपने सहारे खड़े भी नहीं रह सकते, मैंने घबराकर पूछा, “क्यों तुम्हारा यह क्या हाल है?”

कुसुम ने कहा—”हाल पीछे पूछना, जरा इनकी चौपाई चटपट बिछा दो और थोड़ा-सा दूध मंगवा लो।”

मैंने तुरन्त चारपाई बिछायी और विनोद को उस पर लेटा दिया। और दूध तो रखा हुआ था। कुसुम इस वक्त मेरी स्वामिनी बनी हुई थी। मैं उसके इशारे पर नाच रही थी। चंदा, इस वक्त मुझे ज्ञात हुआ कि कुसुम पर विनोद को जितना विश्वास है, वह मुझ पर नहीं। मैं इस योग्य हूँ ही नहीं। मेरा दिल सैकड़ों प्रश्न पूछने के लिए तड़फड़ा रहा था, लेकिन कुसुम एक पल के लिए भी विनोद के पास से न टलती थी। मैं इतनी मूर्ख हूँ कि अवसर पाने पर इस दशा में भी मैं विनोद से प्रश्नों का तांता बांध देती।

विनोद को जब नींद आ गयी, मैंने ऑंखो में ऑंसू भरकर कुसुम से पूछा—”बहन, इन्हें क्या शिकायत है? मैंने तार भेजा। उसका जवाब नहीं आया। रात दो बजे एक ज़रूरी और जवाबी तार भेजा। दस बजे तक तार-घर बैठी जवाब की राह देखती रही। वहीं से लौट रही थी, जब तुम रास्ते में मिली। यह तुम्हें कहां मिल गये?”

कुसुम मेरा हाथ पकड़कर दूसरे कमरे में ले गयी और बोली—”पहले तुम यह बताओं कि भुवन का क्या मुआमला था? देखो, साफ, कहना।”

मैंने आपत्ति करते हुए कहा—”कुसुम, तुम यह प्रश्न पूछकर मेरे साथ अन्याय कर रही हो। तुम्हें खुद समझ लेना चाहिए था कि इस बात में कोई सार नहीं है। विनोद को केवल भ्रम हो गया।”

“बिना किसी कारण के?”

“हां, मेरी समझ में तो कोई कारण न था।”

“मैं इसे नहीं मानती। यह क्यों नहीं कहतीं कि विनोद को जलाने, चिढ़ाने और जगाने के लिए तुमने यह स्वांग रचा था।”

कुसुम की सूझ पर चकित होकर मैंने कहा—”वह तो केवल दिल्लगी थी।”

“तुम्हारे लिए दिल्लगी थी, विनोद के लिए वज्रपात था। तुमने इतने दिनों उनके साथ रहकर भी उन्हें नहीं समझा ! तुम्हें अपने बनाव-श्रृंगार के आगे उन्हें समझने की कहां फुर्सत? कदाचित् तुम समझती हो कि तुम्हारी यह मोहनी मूर्ति ही सब कुछ है। मैं कहती हूँ, इसका मूल्य दो-चार महीने के लिए हो सकता है। स्थायी वस्तु कुछ और ही है।”

मैंने अपनी भूल स्वीकार करते हुए कहा—”विनोद को मुझसे कुछ पूछना तो चाहिए था?”

कुसुम ने हँसकर कहा—”यही तो वह नहीं कर सकते। तुमसे ऐसी बात पूछना उनके लिए असंभव है। वह उन प्राणियों में है, जो स्त्री की ऑंखें से गिरकर जीते नहीं रह सकते। स्त्री या पुरुष किसी के लिए भी वह किसी प्रकार का धार्मिक या नैतिक बंधन नहीं रखना चाहते। वह प्रत्येक प्राणी के लिए पूर्ण स्वाधीनता के समर्थक हैं। मन और इच्छा के सिवा वह कोई बंधन स्वीकार नहीं करते। इस विषय पर मेरी उनसे खूब बातें हुई हैं। खैर—मेरा पता उन्हें मालूम था ही, यहां से सीधे मेरे पास पहुँचे। मैं समझ गई कि आपस में पटी नहीं। मुझे तुम्हीं पर संदेह हुआ।

मैंने पूछा—”क्यों? मुझ पर तुम्हें क्यों संदेह हुआ?”

“इसलिए कि मैं तुम्हे पहले देख चुकी थी।”

“अब तो तुम्हें मुझ पर संदेह नहीं।”

“नहीं, मगर इसका कारण तुम्हारा संयम नहीं, परंपरा है। मैं इस समय स्पष्ट बातें कर रहीं हूं, इसके लिए क्षमा करना।”

“नहीं, विनोद से तुम्हें जितना प्रेम है, उससे अधिक अपने-आपसे है। कम-से-कम दस दिन पहले यही बात थी। अन्यथा यह नौबत ही क्यों आती? विनोद यहां से सीधे मेरे पास गये और दो-तीन दिन रहकर बम्बई चले गये। मैंने बहुत पूछा, पर कुछ बतलाया नहीं। वहां उन्होंने एक दिन विष खा लिया।”

मेरे चेहरे का रंग उड़ गया।

“बम्बई पहुँचते ही उन्होंने मेरे पास एक खत लिखा था। उसमें यहां की सारी बातें लिखी थीं और अंत में लिखा था—मैं इस जीवन से तंग आ गया हूँ, अब मेरे लिए मौत के सिवा और कोई उपाय नहीं है।”

मैंने एक ठंडी साँस ली।

“मैं यह पत्र पाकर घबरा गयी और उसी वक्त बम्बई रवाना हो गयी। जब वहां पहुँची, तो विनोद को मरणासन्न पाया। जीवन की कोई आशा नहीं थी। मेरे एक संबंधी वहां डॉक्टरी करते हैं। उन्हें लाकर दिखाया तो वह बोले—”इन्होंने ज़हर खा लिया है। तुरन्त दवा दी गयी। तीन दिन तक डाक्टर साहब न दिन-को-दिन और रात-को-रात न समझा, और मैं तो एक क्षण के लिए विनोद के पास से न हटी। तीसरे दिन इनकी ऑंख खुली। तुम्हारा पहला तार मुझे मिला था, पर उसका जवाब देने की किसे फुर्सत थी? तीन दिन और बम्बई रहना पड़ा। विनोद इतने कमज़ोर हो गये थे कि इतना लंबा सफर करना उनके लिए असंभव था। चौथे दिन मैंने जब उनसे यहां आने का प्रस्ताव किया, तो बोले—”मैं अब वहां न जाऊंगा। जब मैंने बहुत समझाया, तब इस शर्त पर राजी हुए कि मैं पहले आकर यहां की परिस्थिति देख जाऊं।”

मेरे मुँह से निकला—”हा ! ईश्वर, मैं ऐसी अभागिनी हूँ।”

“अभागिनी नहीं हो बहन, केवल तुमने विनोद को समझा न था। वह चाहते थे कि मैं अकेली जाऊं पर मैंने उन्हें इस दशा में वहां छोड़ना उचित न समझा। परसों हम दोनों वहां से चले। यहां पहुँचकर विनोद तो वेटिंग-रूम में ठहर गये, मैं पता पूछती हुई भुवन के पास पहुँची। भुवन को मैंने इतना फटकारा कि वह रो पड़ा। उसने मुझसे यहां तक कह डाला कि तुमने उसे बुरी तरह दुत्कार दिया है। आँखों का बुरा आदमी है, पर दिल का बुरा नहीं। उधर से जब मुझे संतोष हो गया और रास्ते में तुमसे भेंट हो जाने पर रहा-सहा भ्रम भी दूर हो गया, तो मैं विनोद को तुम्हारे पास लायी। अब तुम्हारी वस्तु तुम्हें सौपतीं हूँ। मुझे आशा है, इस दुर्घटना ने तुम्हें इतना सचेत कर दिया होगा कि फिर ये नौबत न आयेगी। आत्मसमर्पण करना सीखो। भूल जाओ कि तुम सुंदरी हो, आनंदमय जीवन का यही मूल मंत्र है। मैं डींग नहीं मारती, लेकिन चाहूं, तो आज विनोद को तुमसे छीन सकती हूँ। लेकिन रूप में मैं तुम्हारे तलुओं के बराबर भी नहीं। रूप के साथ अगर तुम सेवा-भाव धारण कर सको, तो तुम अजेय हो जाओगी।’

मैं कुसुम के पैरों पर गिर पड़ी और रोती हुई बोली—”बहन, तुमने मेरे साथ जो उपकार किया है, उसके लिए मरते दम तक तुम्हारी ऋणी रहूंगी। तुमने न सहायता की होती, तो आज न-जाने क्या गति होती।”

बहन, कुसुम कल चली जायगी। मुझे तो अब वह देवी-सी दिखती है। जी चाहता है, उसके चरण धो-धोकर पिऊं। उसके हाथों मुझे विनोद ही नहीं मिले हैं, सेवा का सच्चा आदर्श और स्त्री का सच्चा कर्त्तव्य-ज्ञान भी मिला है। आज से मेरे जीवन का नवयुग आरंभ होता है, जिसमें भोग और विलास की नहीं, सहृदयता और आत्मीयता की प्रधानता होगी।

तुम्हारी,

पद्मा

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