चैप्टर 123 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 123 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 123 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 123 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 123 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 123 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

प्राणाकर्षण : वैशाली की नगरवधू

उसी गम्भीर रात्रि में अर्धरात्रि व्यतीत होने पर किसी ने भद्रनन्दिनी के द्वार पर डंके की चोट की । प्रहरी शंकित भाव से आगन्तुक को देखने लगे । आगन्तुक देवजुष्ट सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक था । वह मोहक नागर वेश धारण किए वाड़वाश्व की वल्गु थामे मुस्करा रहा था । उसने सुवर्ण भरी हुई दो थैलियां प्रहरी पर फेंककर कहा- एक तेरे लिए, दूसरी तेरी स्वामिनी के लिए । आगत का वेश, सौंदर्य, अश्व और उसकी स्वर्ण – राशि देख प्रहरी , प्रतिहार , द्वारी जो वहां थे, सभी आ जुटे और कर्तव्य -विमूढ़ की भांति एक – दूसरे को देखने लगे । सेट्टिपुत्र ने कहा – “ क्या कुछ आपत्ति है भणे ? ”

“ केवल यही भन्ते , कि स्वामिनी आजकल किसी नागरिक का स्वागत नहीं करतीं। ”

“ इसका कारण क्या है मित्र ? ”

“ युद्ध की विभीषिका तो आप देख ही रहे हैं , राजाज्ञा है । ”

“ परन्तु मैं किसी की चिन्ता नहीं करता; तू मेरी आज्ञा से मुझे अपनी स्वामिनी के निकट ले चल । ”

“ किन्तु भन्ते…..! ”

“ क्या मैंने तुझे शुल्क और उत्कोच दोनों ही नहीं दे दिए हैं ? ”

“ दिए हैं भन्ते , यह आपका सुवर्ण है । ”

“ तब मंत्र पास एक और वस्तु है, देख ! ”यह कहकर उसने खड्ग कमर से निकाली । खड्ग देख और उससे अधिक नागरिक की दृढ़ मुद्रा देखकर प्रहरी -प्रतिहार भय से थर – थर कांपने लगे । उसके प्रधान ने कहा – “ भन्ते , हमारा अपराध नहीं है, हम स्वामिनी के अधीन हैं । ”

“ मैं तेरी स्वामिनी का स्वामी हूं रे! सेट्ठिपुत्र ने कहा और उन्हें खड्ग की नोक से पीछे धकेलता हआ ऊपर चढ़ गया ।

इस पर एक प्रतिहार ने दौड़कर मार्ग बताते हुए कहा – “ इधर से भन्ते , इधर से । ”

नग्न खड्ग लिए एक तरुण सुन्दर नागरिक को आते देख दासियां भय – शंकित हो पीछे हट गईं।

नागर हंसता हुआ कुण्डनी के सम्मुख जा खड़ा हुआ । कुण्डनी ने किंचित् कोप से कहा

“ आपको राजनियम की भी चिन्ता नहीं है भन्ते ? ”

“ नहीं सुन्दरी , मुझे केवल अपनी ही चिन्ता रहती है। ”

“ किन्तु मैं आपका स्वागत नहीं कर सकती । ”

“ ओह प्रिये, मैं इस थोथे शिष्टाचार की परवाह नहीं करता, बैठो तुम। ”

“ किन्तु मैं बैठ नहीं सकती। ”

“ तब नृत्य करो। ”

“ आप भद्र हैं , किन्तु आपका व्यवहार अभद्र है। ”

“ यह तो प्रिये, मैं तुमसे कह सकता हूं। ”

“ किस प्रकार ? ”

“ मैंने तुम्हारा शुल्क दे दिया , आज रात तुम मेरी वशवर्तिनी हो । मैं जिस भांति चाहूं, तुम्हारे विलास का आनन्द प्राप्त कर सकता हूं। ”

“ तो आप खड्ग की नोक चमकाकर विलास – सान्निध्य प्राप्त करेंगे ? ” नागर हंस पड़ा । उसने खड्ग एक ओर फेंककर कहा

“ ऐसी बात है तो यह लो प्रिये , परन्तु मेरा विचार था कि खड्ग से तुम आतंकित होनेवाली नहीं हो । ”

कुण्डनी समझ गई कि आगन्तुक कोई असाधारण पुरुष है। उसने कहा – “ भन्ते, यदि आप बलात्कार ही किया चाहते हैं तो आपकी इच्छा! ”

“ बलात्कार क्यों प्रिये, जितना अधिकार है, उतना ही बस। ”

“ तो भद्र, क्या आप पान करेंगे ? ”

“ मैं सब कुछ करूंगा प्रिये ! आज की रात्रि महाकाल – रात्रि है। तुम्हारी जैसी विलासिनी के लिए एकाकी रहने योग्य नहीं। फिर आज मैं बहुत प्रसन्न हूं। अब मैं तुम्हारे सान्निध्य में और भी प्रसन्न होना चाहता हूं। ”

कुण्डनी विमूढ़ की भांति आगन्तुक का मुंह ताकने लगी । फिर उसने मन का भाव छिपाकर हंसकर कहा – “ आप तो अद्भुत व्यक्ति प्रतीत होते हैं । ”

“ क्या सचमुच ? ”

“ नहीं तो क्या झूठ! ”उसने दासी को पान -पात्र लाने का संकेत किया । फिर नागर से कहा – “ तो आप बैठिए भन्ते ! ”

सेट्ठिपुत्र सोपधान आराम से बैठ गया । उसने हाथ खींचकर कुण्डनी को निकट बैठाते हुए कहा

“ तुम तो भुवनमोहिनी हो सुन्दरी! ”

“ ऐसा ? ”कुण्डनी ने व्यंग्य से हंस दिया और पान-पात्र बढ़ाया ।

“ इसे उच्छिष्ट कर दो प्रिये! ”

कुण्डनी ने शंकित नेत्रों से नागर को देखा, फिर कुछ रूखे स्वर में कहा “ नहीं भन्ते , ऐसा मेरा नियम नहीं है। ”

“ ओह, विलास में नियम- अनियम कैसा प्रिये! जिसमें मुझे आनन्द लाभ हो , वही करो प्रिये ! ”

“ तो आप आज्ञा देते हैं ? ”

“ नहीं प्रिये, विनती करता हूं। ”

नागर खिलखिलाकर हंस पड़ा। उस हास्य से अप्रतिहत हो छद्मवेशिनी कुण्डनी आगन्तुक को ताकने लगी । वह सोच रही थी – क्या यह मूढ़ अकारण ही आज मरना चाहता नागर ने तभी मद्यपात्र कुण्डनी के होठों से लगा दिया । कुण्डनी गटागट संपूर्ण मद्य पीकर हंसने लगी। नागर ने कहा – “ मेरे लिए एक बूंद भी नहीं छोड़ा प्रिये ! ”

“ उस पात्र में यथेष्ट है , तुम पियो भद्र ! ”

“ उस पात्र में क्यों ? तुम्हारे अधरामृत -स्पर्श से सुवासित सम्पन्न इसी पात्र में पिऊंगा, दो मुझे। ”

“ यह पात्र तो नहीं मिलेगा । ”

“ वाह , यह भी कोई बात है ? ”

“ यही बात है भन्ते , ” कुण्डनी ने वह पात्र एक ओर करते हुए कहा ।

“ समझ गया , तुम मुझ पर सदय नहीं हो प्रिये, मुझे आह्लादित करना नहीं चाहतीं । ”

“ उसके लिए तो मैं बाध्य हूं भन्ते ! ”

“ तो दो हला, वही पात्र भरकर, उसे फिर से उच्छिष्ट करके , उसे अपने अधरामृत की सम्पदा से सम्पन्न करके । ”

“ भन्ते , आप समझते नहीं हैं । ”

“ अर्थात् मैं मूढ़ हूं ! ”

“ यदि मैं यही कहूं ? ”

“ तो साथ ही वह पात्र भी भरकर दो तो क्षमा कर दूंगा । ”

“ नहीं दूंगी तब ? ”

“ तो क्षमा नहीं करूंगा। ”

“ क्या करोगे भन्ते ? ”

“ अधरामत पान करूंगा। ”

कुण्डनी सिर से पैर तक कांप गई। पर संयत होकर बोली – “ बहुत हुआ भन्ते , शिष्ट नागर की भांति आचार कीजिए। ”

“ तो वह पात्र दो प्रिये! कुण्डनी ने क्रुद्ध हो पात्र भर दिया ।

“ अब इसे उच्छिष्ट भी करो! ”

कुण्डनी ने होठों से छू दिया और धड़कते हृदय से परिणाम देखने लगी। नागर ने हंसते -हंसते पात्र गटक लिया । खाली पात्र कुण्डनी को देते हुए कहा – “ बहुत उत्तम सुवासित मद्य है , और दो प्रिये ! ”

कुण्डनी का मुंह भय से सफेद हो गया । पृथ्वी पर ऐसा कौन जन है, जो उस विषकन्या के होठों से छुए मद्य को पीकर जीवित रह सके ! परन्तु इस पुरुष पर तो कोई प्रभाव नहीं हुआ । उसने कांपते हाथों से पात्र भरा , एक घुट पिया और नागर की ओर बढ़ा दिया , नागर ने हंसते -हंसते पीकर खाली पात्र फिर कुण्डनी की ओर बढ़ा दिया और एक हाथ उसके कण्ठ में डाल दिया । उसे हटाकर कुण्डनी भयभीत हो खड़ी हो गई । वह सोच रही थी कौन है यह मृत्युञ्जय !

नागर ने कहा – “ रुष्ट क्यों हो गईं प्रिये ! ”

“ तुम कौन हो भन्ते ? ”

“ तुम्हारा तृषित प्रेमी हूं प्रिये, निकट आओ और मुझे तृप्त होकर आज मद्य पिलाओ। ”उसने अपने हाथों से पात्र भरकर कुण्डनी की ओर बढ़ाते हुए कहा “ सम्पन्न करो प्रिये! ”कुण्डनी आधा मद्य पी गई और विह्वल भाव से आगन्तुक की गोद में लुढ़क गई । उसकी सुप्त – लुप्त वासना जाग्रत हो गई । उसने देखा , इस मृत्युञ्जय पुरुष पर उसका प्रभाव नहीं है । न जाने कहां से आज की कालरात्रि में उसके विदग्धभाग्य और असाधारण जीवन को , जिसके विलास में केवल मृत्यु विभीषिका ही रहती रही है, यह गूढ़ पुरुष आ पहुंचा है । उसने अंधाधुन्ध मद्य ढाल -ढालकर स्वयं पीना और पुरुष को पिलाना प्रारम्भ किया । अंतत : अवश हो आत्मसमर्पण के भाव से वह अर्धनिमीलित नेत्रों से एक चुम्बन की प्रार्थना – सी करती हुई उसकी गोद में लुढ़क गई । यह दृष्टि उन दृष्टियों से भिन्न थी जो अब तक मृत्यु – चुम्बन देते समय वह अपने आखेटों पर डालती थी । मदिरा के आवेश में उसके उत्फुल्ल अधर फड़क रहे थे। उन्हीं फड़कते और जलते हुए अधरों पर मदिरा से उन्मत्त नागर ने अपने असंयत होंठ रख दिए । परन्तु यह चुम्बन न था , प्राणाकर्षण था । एक विचित्र प्रभाव से अवश होकर कुण्डनी के होठ आप- ही – आप खल गए . उसके श्वास का वेग बढ़ता ही गया । शरीर और अंग निढाल हो गए, देखते – ही – देखते कुण्डनी के चेहरे पर से जीवन के चिह्न लोप होने लगे। शरीर में रक्त का कोई लक्षण न रह गया और वह कुछ ही क्षणों में मृत होकर उस मृत्युञ्जय पुरुषसत्त्व की गोद में लुढ़क गई ।

तब उसके मृत शरीर को भूमि पर एक ओर फेंककर तृप्त होकर भोजन किए हुए पुरुष के समान आनन्द और स्फूर्ति से व्याप्त वह पुरुष निश्चित चरण रखता हुआ उस तथाकथित नागपत्नी – वेश्या भद्रनन्दिनी के आवास से बाहर आ , एक मुट्ठी सुवर्ण प्रहरियों , दौवारिकों तथा दण्डधरों के ऊपरफेंक वाड़वाश्व पर चढ़ अन्धकार में लोप हो गया ।

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