चैप्टर 122 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री का उपन्यास | Chapter 122 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
Chapter 122 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel
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अप्रत्याशित : वैशाली की नगरवधू
महारासायनिक कीमियागर गौड़पाद जिस समय देश -विदेश के वट्कों को रसायन के गुह्य – गहन तत्त्व समझा रहे थे और अजर – अमर होने के मूल सिद्धान्तों की गूढ़ व्याख्या कर रहे थे, तभी उन्हें हठात् एक अप्रत्याशित कण्ठ -स्वर सुनाई दिया ।
शताब्दियों पूर्व श्रुत -विश्रुत अप्रत्याशित कण्ठ – स्वर सुनकर आचार्य गौड़पाद चमत्कृत हुए । उन्होंने आंख उठाकर देखा कि सेट्ठिपुत्र पुण्डरीक भद्रवसन धारण किए सम्मुख खड़ा मुस्करा रहा है । आचार्य के दृष्टि -निक्षेप करते ही सेट्टिपुत्र की आंखों से एक विद्युत्प्रभा निकल आचार्य को आन्दोलित कर गई। उन्हें फिर वही अप्रत्याशित, शताब्दियों पूर्व श्रुत कण्ठस्वर सुनाई दिया
“ सोऽहं सोऽहं गौड़पाद ! ”
एक चुम्बकीय आकर्षण के वशीभूत होकर गौड़पाद भ्रान्त हो दौड़कर सेट्ठिपुत्र के चरणों में लकड़ी के कुन्दे की भांति गिर गए ।
युवक सेट्ठिपुत्र ने लाल -लाल उपानत से अपना कमनीय चरण निकाल अंगुष्ठ के नख से आचार्य का भूपतित मस्तिष्क छूकर कहा
“ उत्तिष्ठ ! ”
गौड़पाद उठकर बद्धांजलि हो स्तवन करने लगे । वटुक आश्चर्य से मूढ़ बने खड़े रहे और यह अघटित घटना देखने लगे ।
सेट्ठिपुत्र ने हाथ उठाकर वटुकों को वहां से चले जाने का संकेत किया । भय , विस्मय और आश्चर्य से हतबुद्धि वटुक वहां से भाग गए। एकान्त होने पर सेट्ठिपुत्र ने एक आसन पर बैठकर गौड़पाद को भी सामने बैठने का आदेश दिया । दोनों में परिष्कृत संस्कृत में बातें होने लगीं। यहां हम अपनी भाषा में लिखेंगे । गौड़पाद ने कहा
“ देवाधिदेव यहां ? ”
“ तूने क्या देखा नहीं था ? ”
“ देखा था देव ! ”
“ तो आया क्यों नहीं ? ”
“ सन्देह में रहा देव ! ”
“ सोचता था अब मैं नहीं रहा ? ”
“ नहीं देव , यही विचारता रहा – देव यहां क्यों ? ”
“ क्या वैशाली मेरे लिए अगम्य है रे ? ”
“ देव के लिए ब्रह्माण्ड गम्य है परन्तु वैशाली का भाग्योदय क्यों ? ”
“ यह भण्ड कृतपुण्य कालिकाद्वीप से मेरा बहुत – सा रत्न – भण्डार और वाड़व अश्व हरण कर लाया है। ”
“ इसीलिए देव – दैत्य – पूजित श्रीमन्थान भैरव का इस लोक के मर्त्य शरीर में आगमन हुआ ! ”
“ नहीं रे गौड़पाद,मैं कौतूहलाक्रान्त भी हूं। ”
“ कैसा देव ? ”
“ अम्बपाली का रे, अभिरमणीय है न ? ”
“ है तो , किन्तु काकिणी नहीं है। ”
“ देख लिया है तूने ? ”
“ ठीक देखा है देव ? ”
“ तो दर्शनीय ही सही! ”
“ दर्शनीय तो है । ”
“ देखूगा , फिर। ”
“ एक और स्त्री है देव ! ”
“ काकिणी है ? ”
“ है, किन्तु अभिरमणीय नहीं है। ”
“ क्यों रे ? ”
“ विषकन्या है। ”
“ अच्छा – अच्छा , उसका मदभंजन करूंगा। कौन है वह ? ”
“ मागधी है, छद्मवेश में यहां भद्रनन्दिनी वेश्या बनी बैठी है। ”
“ अभिरमण करूंगा। ”
“ मर जाएगी देव ! ”
“ मरे , युद्ध कब होगा ? ”
“ नातिविलम्ब। ”
“ उत्तम है, रक्तपान करूंगा, कुरु -संग्राम के बाद रक्तपान किया ही नहीं है । कितनी सेना का विनाश होगा ? ”|
“ सम्भवत : तीन अक्षौहिणी देव ! ”
“ बहुत है, आकण्ठ तृप्ति होगी । सेट्टिपुत्र मृदुल भाव से मोहक मुस्कान कर आसन से उठ खड़ा हुआ। गौड़पाद ने पृथ्वी में गिरकर प्रणितपात किया , सेट्ठिपुत्र ने हंसकर कहा – “ रहस्य ही रखना, गौड़पाद। ”
“ जैसी देव की आज्ञा! ” वह देवजुष्ट सेट्ठिपुत्र चल दिया । गौड़पाद बद्धांजलि खड़े रहे ।
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