चैप्टर 12 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास | Chapter 12 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

चैप्टर 12 वैशाली की नगरवधु आचार्य चतुरसेन शास्त्री की उपन्यास | Chapter 12 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 12 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

Chapter 12 Vaishali Ki Nagarvadhu Acharya Chatursen Shastri Novel

राजगृह : वैशाली की नगरवधू

अति रमणीय हरितवसना पर्वतस्थली को पहाड़ी नदी सदानीरा अर्धचन्द्राकार काट रही थी। उसी के बाएं तट पर अवस्थित शैल पर कुशल शिल्पियों ने मगध साम्राज्य की राजधानी राजगृह का निर्माण किया था। दूर तक इस मनोरम सुन्दर नगरी को हरी भरी पर्वत-शृंखला ने ढांप रखा था। उत्तर और पूर्व की ओर दुर्लंघ्य पर्वत-श्रेणियां थीं, जो दक्षिण की ओर दूर तक फैली थीं। पश्चिम की ओर मीलों तक बड़े-बड़े पत्थरों की मोटी अजेय दीवारें बनाई गई थीं। पर्वत का जलवायु स्वास्थ्यकर था और वहां स्थान-स्थान पर गर्म जल के स्रोत थे। बहुत-सी पर्वत-कन्दराओं को काट-काटकर गुफाएं बनाई गई थीं, जिन्हें प्रासादों की भांति चित्रित एवं विभूषित किया गया था। नगर की शोभा अलौकिक थी तथा उसका कोट दुर्लंघ्य था। राजमहालय में पीढ़ियों की सम्पदा एकत्र थी। नगर के बाहर अनेक बौद्ध विहार बन गए थे। सम्राट् बिम्बसार स्वयं तथागत गौतम के उपासक बन चुके थे। सम्राट् के अनुरोध से गौतम राजगृह में आ चुके थे। राजगृह के विश्वविद्यालय की भारी प्रतिष्ठा थी। उस समय तक नालन्दा के विश्वविद्यालय को भी उतनी प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त हुई थी। राजगृह के जगद्विख्यात विश्वविद्यालय में दूर-दूर के नागरिक उपाध्याय, वटु, प्रकांड विद्वानों के चरणतल में बैठकर अपनी-अपनी ज्ञानपिपासा शान्त करते थे। वहां सुदूर चीन के लम्बी चोटी वाले, पीतमुख और छोटी आंखों वाले मंगोल; तिब्बत, भूटान के ठिगने-गठीले भावुक तरुण; दीर्घ, गौरवर्ण नीलनेत्र एवं स्वर्णकेशी पारसीक और यवन तरुण; सिंहल के उज्ज्वल श्यामवर्ण, चमकीली आंखों में प्रतिभा भरे स्वर्णद्वीप, यव-द्वीप, ताम्रपर्णी, चम्पा, कम्बोज और ब्रह्मदेशीय तरुण वटुकों के साथ बैठकर अपनी ज्ञानपिपासा मिटाते थे। कपिशा, तुषार, कूचा के पिंगल पुरुष भी वहां थे। उन दिनों मगध साम्राज्य का केन्द्र राजगृह विश्व की तत्कालीन जातियों का संगम हो रहा था।

कोसल के अधिपति प्रसेनजित् ने मगध-सम्राट् बिम्बसार को अपनी बहिन कोशलदेवी ब्याही थी और उसके दहेज में काशी का राज्य दे दिया था। इस समय काशी पर बिम्बसार के अधीन ब्रह्मदत्त शासन करता था। बिम्बसार की दूसरी राजमहिषी विदेहकुमारी कूकिना थी। उसके विषय में प्रसिद्ध था कि वह ब्रह्मविद्या की पारंगत पण्डित है। इन दिनों सम्पूर्ण भारत में चार राज्य ही प्रमुख थे—मगध, वत्स, कोसल और अवन्ती। इन चारों राज्यों में परस्पर संघर्ष रहता था, कोसल से सम्बन्ध होने पर भी मगध सम्राट की महत्त्वाकांक्षा ने कोसल और मगध में सदैव संघर्ष रखा। जिस समय की बात हम कर रहे हैं उस समय मगध-सम्राट् बिम्बसार ने स्वयं कोसल पर चढ़ाई की थी और उसके महान् सेनापति भद्रिकचण्ड ने चम्पा का घेरा डाला हुआ था, जिसे आठ मास बीत चुके थे। चम्पा और कोसल के इस अभियान का उद्देश्य यह था कि भारत के पूर्वीय और पश्चिमी वाणिज्य द्वार सर्वतोभावेन मागधों के हाथ में रहें। चम्पा उन दिनों सम्पूर्ण पूर्वी द्वीपसमूहों का एकमात्र वाणिज्य-मुख था। इसी समय मगधराज की राजधानी राजगृह में प्रसिद्ध मगध अमात्य वर्षकार, जिनकी बुद्धि-कौशल की उपमा बृहस्पति और शुक्राचार्य से ही दी जा सकती थी, बैठे शासन-चक्र चला रहे थे।

आर्यों के बोए वर्णसंकरत्व के विष-वृक्ष का पहला फल मगध साम्राज्य था, जिसने असुरवंशियों से रक्त-सम्बन्ध स्थापित करके शीघ्र ही भारत-भूमि के आर्य राजवंशों को हतप्रभ कर दिया था। ब्राह्मणों और क्षत्रियों ने इतर जाति की युवतियों को अपने उपभोग में लेकर उनकी सन्तानों को अपने कुलगोत्र एवं सम्पत्ति से च्युत करके उनकी जो नवीन संकर जाति बना दी थी, इनमें तीन प्रधान थीं जिनमें मागध प्रमुख थे। इन्हीं मागधों ने राजगृह की राजधानी बसाई। मागध सम्राट् जरासन्ध ने महाभारत-काल में अपने दामाद कंस का वध हुआ सुनकर बीस अक्षौहिणी सैन्य लेकर मथुरा पर 18 बार चढ़ाई की थी। इस चढ़ाई में उसकी कमान के नीचे कारुष के राजा दन्तवक्र, चेदि के शिशुपाल, कलिंगपति शाल्व, पुण्ड्र के महाराजा पौण्ड्रवर्धन, कैषिक के क्रवि, संकृति तथा भीष्मक, रुक्मी, वेणुदार, श्रुतस्सु, क्राथ, अंशुमान, अंग, बंग, कोसल, काशी, दशार्ह और सुह्य के राजागण एकत्र हुए थे। विदेहपति मद्रपति, त्रिगर्तराज, दरद, यवन, भगदत्त, सौवीर का शैव्य, गंधार का सुबल, पाण्ड, नग्नजित्, कश्मीर का गोर्नद, हस्तिनापुर का दुर्योधन, बलख का चेकितान तथा प्रतापी कालयवन आदि भरत-खण्ड के कितने ही नरपति उसके अधीन लड़े थे। इनमें भगदत्त और कालयवन महाप्रतापी राजा थे। भगदत्त का हाथी ऐरावत के कुल का था और उसकी सेना में चीन और तातार के असंख्य हूण थे। कलिंगपति शाल्व के पास आकाशचारी विमान था। जरासन्ध ने उसे दूत बनाकर कालयवन के पास युद्ध में निमन्त्रण देने भेजा था। जरासन्ध के इस दूत का कालयवन ने मन्त्रियों सहित आगे आकर सत्कार किया था और जरासन्ध के विषय में ये शब्द कहे थे कि––”जिन महाराज जरासन्ध की कृपा से हम सब राजा भयहीन हैं, उनकी हमारे लिए क्या आज्ञा है?”

ऐसा ही जरासन्ध का प्रताप था जिसके भय से यादवों को लेकर श्रीकृष्ण अट्ठारह वर्ष तक इधर-उधर भटकते फिरे और अन्त में ब्रजभूमि त्याग द्वारका में उन्हें शरण लेनी पड़ी। महाभारत से प्रथम भीम ने द्वन्द्व में जरासन्ध को कौशल से मारा। उसके बाद निरन्तर इस साम्राज्य पर अनेक संकरवंश के राजा बैठते रहे। हम जिस समय का यह वर्णन कर रहे हैं उस समय मगध साम्राज्य के अधिपति शिशुनाग-वंशी सम्राट् का शासन था। सम्राट् बिम्बसार की आयु पचास वर्ष की थी। उनका रंग उज्ज्वल गौरवर्ण था, आंखें बड़ी-बड़ी और काली थीं, कद लम्बा था, व्यक्तित्व प्रभावशाली था। परन्तु उनके चित्त में दृढ़ता न थी, स्वभाव कोमल और हठी था। फिर भी वे एक विचारशील और वीर पुरुष थे और उन्होंने अपने साम्राज्य को समृद्ध किया था। इस समय मगध साम्राज्य में अस्सी हज़ार गांव लगते थे और राजगृह एशिया के प्रसिद्ध छ: महासमृद्ध नगरों में से एक था। यह साम्राज्य विंध्याचल, गंगा, चम्पा और सोन नदियों के बीच फैला हुआ था, जो 300 योजन के विस्तृत भूखण्ड की माप का था। इस साम्राज्य के अन्तर्गत 18 करोड़ जनपद था।

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