चैप्टर 12 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 12 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

चैप्टर 12 प्रभावती सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का उपन्यास | Chapter 12 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 12 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

Chapter 12 Prabhavati Suryakant Tripathi Nirala Novel In Hindi 

गोमती की उपनदी सरायन के तट पर प्रसिद्ध दुर्ग मणिपुर अवस्थित है। इसे अब मनवा कहते हैं। इसके राजा बलवन्तसिंह अपनी कार्यदक्षता के कारण पूर्वी प्रदेशों के लिए कान्यकुब्जेश के दक्षिण हस्त हो रहे हैं। इधर की राजकीय व्यवस्था के यही सबसे बड़े अधिकारी, इसलिए सम्मान्य हैं।

मनवा चारों ओर से ऊँची चारदीवार द्वारा घिरा हुआ है। बीच की प्रशस्त भूमि में पृथक्-पृथक् आवास तथा प्रासाद शोभन क्यारियों के रूप में निर्मित हैं। यहाँ की कारीगरी में गुम्बदों की अधिकता है। सूर्य और चन्द्र की रश्मियों में सैकड़ों सुवर्ण-कलश, एक-एक श्रेणी में एक-एक पत्र और मध्य में छः दलों के फूल की आकृति लिए, आकाश में पूर्ण पारिजात की तरह झिलमिला रहे हैं; ऊपर हल्के पद खड़ी, कभी रवि और कभी शशि का एक बगल बालों में हीरा लगाए, नीलिमा बिना शब्द के जैसे पथिकों को अपने शुभ्र विकास का परिचय दे रही हो। विलास की सहस्रों तरंगें दुर्ग से दूर-दूर तक ग्रामीणों को आश्चर्य की शक्ति से प्लावित कर रही हैं। ऐश्वर्य के मधुर आतंक में नत-मस्तक सभी जैसे हृदय से उसे वरण कर रहे हों।उसके विरोध में आने की शक्ति उनमें नहीं। जैसे स्वीकार कर रहे हों, वे भी यही चाहते हैं। ईश्वर, धर्म और पूजार्चन में जैसे यहीं कांक्षित स्वर्ग उनके हृदय में छिपा हुआ हो।

सन्ध्या हो रही है। आकाश में पीली किरणें पीलू गा रही हैं। संसार की परिवर्तनशीलता की प्रमाणस्वरूपा सरायन ताल-ताल पर मन्द नृत्य करती बहती जा रही है। राजकुमारी रत्नावली सोपान पर मखमल के बिछे सुकोमल आसन पर बैठी तन्मय हो रही है, अंगों से प्रिय-करुणावेश अज्ञात अपरिचित प्रिय की ओर प्रवाहित है- साक्षात् कमलिनी जैसे ध्यान कर रही हो।

राजकुमारी की वही उम्र है जब प्रिय की तलाश में दृष्टि एक दूसरा रूप, एक नया आलोक पाती है। प्रति अंग की कला आप विकसित हो अपनी आकुलता प्रदर्शित करती है। यौवन त्रिभुवन पर विजय प्राप्त करने को समुद्यत होता है। वाणी शब्द-शब्द पर वीणा-झंकार करती है। चमत्कार अपना पूर्व प्रसार पाता है। छल और कौशल चपल हो उठते हैं। लावण्य बँधकर रह जाता है।

दासियाँ यत्र-तत्र आज्ञा की प्रतीक्षा में खड़ी हैं। एक बाहर से भीतर, घाट पर आई और हाथ जोड़कर बोली, “कुमारीजी, एक भिक्षुक दर्शन कर कुछ निवेदन करना चाहता है।”

वैसे ही ध्यान-नेत्रों से दासी को देखती हुई रत्नावली ने भिक्षुक को ले आने की आज्ञा दी।

यह वही भिक्षुक है जिसे राजकुमार देव ने अपनी माला देकर प्रभा वाली बदली थी। भीख माँगता हुआ यहाँ पहुँचा है। कई अच्छे घर रास्ते में मिले पर डरकर मालावाली बात नहीं कही। मालिकों से कुछ मिलने के बदले माला के छिन जाने का डर अधिक था। यह सोच रहा था कि कोई सहृदया बड़े घर की युवती या तरुणी मिले तो उसके गले में पुरस्कार स्वरूप डालकर मुद्राओं से उचित विनिमय की प्रार्थना करे, अधिक मुद्राएँ हुई तो अधिकांश वहीं रखकर धीरे-धीरे लेता रहे। इस योग्य उसे कोई नहीं मिली। यहाँ की रत्नावली पर विश्वास है। बड़ी देर से बाहर खड़ा हुआ था। एक दासी से पूछकर, रत्नावली की परिचारिका जान, पैरों पड़कर कुबूल करा लिया है कि वह राजकुमारी के पास पहुँचा देगी। राजकुमारी के पास जाने का कारण नहीं कहा। रत्नावली की आज्ञा पाकर दासी भिक्षुक को सरायन के घाट पर ले गई। घाट पर बैठी राजकुमारी को देखकर भिक्षुक ने पहले हाथ जोड़कर कुछ विनय-शब्द कहे, फिर झोली से माला निकालकर दीनता से मुस्कुराते हुए गले में डाल दी, और भिक्षुक के पास उसकी कोई शोभा नहीं, बल्कि उससे असहाय प्राणों का भय है, राजकुमारी ही उसकी योग्यता रखती हैं, बदले में थोड़ा-थोड़ा-सा धन समय-असमय ले-लेकर अपने बुढ़ापे के दिन भगवद्भजन में बिताएगा, इस आशा से आया हुआ है, समझा दिया। भावनामयी कुमारी दया के पुष्प-सी खुली रहती हैं। भिक्षुक को जीवनपर्यन्त के लिए अभय मिला। कुछ धन उसी समय लाकर देने के लिए उसने सदय आज्ञा की। सफल- मनोरथ हो भिक्षुक ‘मनोवाच्छाएँ पूर्ण हों’- आशीर्वाद देकर बाहर गया।

सन्ध्या होते-होते बन्दी कुमार देव को लिए हुए बलवन्त की वाहिनी पहुँची। दुर्ग में सन्नाटा छा गया। अपने जो-जो रक्षक थे, उन्हें बलवन्त ने देव का सच्चा वृत्तान्त न कहने की पहले आज्ञा कर दी थी। रथ की चाल से हिलने के कारण देव के घावों का रूप और भयानक हो गया था। दुर्ग के एक अच्छे प्रासाद में उन्हें स्थान दिया गया। सेवक तथा रक्षक नियुक्त कर दिए गए। फाटक में आज्ञा कर दी गई कि कुमार देव पर सदा दृष्टि रखी जाए, वे किसी कारण बन्दी हैं। चिकित्सा के लिए भी राजवैद्यों द्वारा प्रबन्ध करा दिया गया है। खजाना जमा हो गया। सिपाही हथियार खोलकर विश्राम करने लगे। कुछ देर में खबर हुई, कल फिर महाराज के साथ कर-ग्रहण के लिए बाहर जाना होगा।

बलवन्तसिंह ने रनवास में विश्राम करते, अपने प्रबन्ध पर सोचते, राज्य के इधर के समाचार मालूम करते हुए यह निश्चय किया कि यद्यपि दलमऊ से कान्यकुब्जेश को सूचना दी जा चुकी है, फिर भी यह और अच्छा होगा कि वहाँ से भी उन्हें एक उससे भी पुष्ट, रचनात्मक, प्रमाण के तौर पर सूचना दे दी जाए, और उनकी मनःतुष्टि के लिए लाए हुए धन का भी अधिकांश भेज दिया जाए। इस तरह कुमार देव के घायल होने और बन्दी करने का अपराध पूरी तरह से जाता रहेगा, उल्टे दोषारोपण दृढ़ होगा।

इस विचार से वही वृत्तान्त उन्होंने बड़े नम्र भाव से महाराजाधिराज जयचन्द को लिखा। राज-कार्य से वे स्वयं सेवा में उपस्थित होकर निवेदन नहीं कर सके- बार-बार स्मरण दिलाया। अपना भविष्य कार्यक्रम लिखा और इस समय कुमार देव की चिकित्सा करा रहे हैं, इस दयालुता का भी दबे शब्दों में उल्लेख किया।

रानियों के पूछने पर कुमार देव का यथार्थ हाल उन्होंने न बताया। उस सम्बन्ध में दूसरा प्रबन्ध बाँधकर बहला दिया। फिर गर्व से पहले के अपमान की याद दिलाई। रानियाँ चुप हो गई। आराम करते हुए राजकार्य से शीघ्र फुर्सत पाकर बलवन्त कन्नौज जाने की सोचने लगे। यदि इस बार वार पूरा बैठा गया, तो मुमकिन है, महेन्द्रपाल अधिकार के स्वत्व से वंचित किए जाएँ-तब राज्य का आस-पास के सरदारों में किस प्रकार विभाजन होगा, आदि-आदि प्रासंगिक बातें सोचते रहे। प्रातःकाल पत्र और कोष बहुत-सा रक्षकों के साथ भेजकर अपना दल लेकर कर के लिए बाहर प्रस्थान कर गए।

रत्नावली पर यमुना देवी का सबसे अधिक प्रभाव था। सत्य और तपस्या की ओर से वह उसी का छोर पकड़े हुए थी। जब देवी यमुना की घटना हुई थी, तब वह एक बालिका थी, पर ऐसी जिसे सारी स्मृतियाँ याद हों। वहाँ और कोई भी नशा ऐसा न था जो उसके हृदय को किसी दिव्य शक्ति से स्पन्दित करता। राजकुमार देव वहाँ के हैं जहाँ के वीरसिंह थे। एक साथ रत्नावली का हृदय सुहृत्-कल्पनाओं से उच्छ्वसित हो उठा- कितने स्वप्न एक साथ खुलकर राजकुमार से लिपटने लगे। कोई भी संसार में प्यार करने के लिए है, तो वह वही है। आज तक वह न समझ सकी थी।

आज एकाएक समझ की कली पूरे जोर से चटक गई। अभी उसने देखा नहीं, केवल सुना है। वे घायल होकर आए हैं, जरूर एक को बहुतों ने घेरा या धोखे में घायल हुए हैं, उस देश के एक का एक क्या बिगाड़ सकता है। राजकुमार अविवाहित हैं।

एक के बाद एक सुघर भावनाएँ फूटने लगीं। कुमारी राजकुमार को देखने के लिए व्याकुल हो गई। घायल की सेवा-शुश्रूषा उसका धर्म है। इस कार्य में कोई रोक क्या हो सकती है? बलवन्त उसका भाई है। वह सच्चे मार्ग पर उसकी गति को रोककर भी नहीं रोक सकता। वह अपना रास्ता आप पहचानेगी। दासी को देख आने के लिए भेजकर मालूम किया, राजकुमार जग रहे हैं।

जितने स्वप्नों से वह राजकुमार को सजा रही थी, उतने से खुद भी सजी जा रही थी। दो सेविकाएँ साथ लेकर राजकुमार के महल को चली। रात को वैद्यों ने घाव को साफ कर औषधि लगा दिया था। कुमार यथेष्ट अशान्ति के बाद घोर निद्रा में सो रहे थे। जगे, तब चिन्ता-स्नायुओं का प्रवाह प्रभा की ओर स्वभावतः बहा। कुछ देर पार्श्व-वर्तन करने के बाद उसी के ध्यान में अन्तर्हित हो गए। एक तन्द्रा-सी आ गई। स्वप्न देखने लगे-प्रभा की भावनाभरी-आँखों में आँसू हैं। वह उन्हें खोजती हुई जहाँ पहुँची है-वह एक वन है, वहाँ कोई नहीं, कोई राजकुमार को घायल कर हाथ-पैर बाँधकर डाल गया है, प्रभा सुखद हाथों से उनके बन्धन खोल रही है, अपने हृदय की सम्पूर्ण सहानुभूति से उनकी पीड़ा को प्रशमित करती हुई, अपने सर्वस्व का अर्पण कर उनका सर्वस्व ले रही है। उन्हीं की तरह उसे व्यथा है।

सुखकर स्वप्न के भीतर से राजकुमार की पलकें खुलीं। देखा- अपूर्व सुन्दरी तरुणी हृदय की समस्त प्रीत दृष्टि से देती हुई, देख रही है, उनके पलँग के मध्य भाग में बैठी हुई, निस्संकोच, सुगन्धि से कक्ष भरा हुआ, दो परिचारिकाएँ दो ओर से मन्द-मन्द व्यजन करती हुई। राजकुमार ने अच्छी तरह देखा। यह प्रभा न थी। वन न था। होश में आए।

तरुणी को देखकर मर्यादा के विचार से उठने लगे। हृदय पर हाथ रखकर उसने रोक दिया, “मैं सेविका हूँ, लेटिए। कष्ट होगा।”

राजकुमार उड़ी दृष्टि से देखते रहे। कई भाव व्यंजित हो रहे थे। समझकर तरुणी बोली, “मैं देवी त्रियामा की छोटी बहन रत्नावली हूँ। वे यमुना नाम से प्रसिद्ध हैं। यहाँ इसी नाम से वे पुकारी जाती थीं,” कहकर राजकुमारी देखती रही।

यह हृदय का सम्प्रदान उतना ही निश्छल था, जितना प्रभा की ओर से हुआ था। मनुष्य में क्या शक्ति थी कि वह इसे रोक देती?

राजकुमार की दृष्टि से खुलते हुए प्रभा की याद के कितने मर्म रत्नावली की दृष्टि से विनय कर रहे हैं, वह नहीं समझी।

क्रमश: 

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