चैप्टर 12 परिणीता : शरत चंद्र चट्टोपाध्याय का उपन्यास | Chapter 12 Parineeta Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 12 Parineeta Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

Chapter 12 Parineeta Novel By Sharat Chandra Chattopadhyay

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माँ को लेकर शेखर वापस आ गया, परंतु अभी शादी के दस बाहर दिन शेष थे।

दो-तीन दिन व्यतीत हो जाने पर ललिता सवेरे के समय भुवनेश्वरी के पास बैठी हुई कोई चीज उठा-उठाकर टोकरी में रख रही थी। इस बात की जानकारी शेखर को न थी कि ललिता आई है। वह कमरे के अंदर आकर माँ को पुकारते ही चौकन्ना हो गया। ललिता ने सिर झुकाकर काम जारी रखा।

भुवनेश्वरी ने पूछा- ‘क्या है बेटा?’ जिस लिए वह अंदर माँ के पास आया था, उस आशय को भूलकर ‘नहीं’ कहता हुआ वह झट वहाँ से चला गया। ललिता की ओर भरपूर नज़र न डाल सका था, परंतु उसकी निगाह उसके दोनों हाथों पर पड़ चुकी थी। उसके हाथों में कांच की दो-दो चूड़ियाँ पड़ी थीं। शेखर ने शुष्क मुस्कान में कहा- ‘यह तो एक तरह का ढोंग है। उसे पता था कि गिरीन्द्र ही उसका पति है। विवाहिता स्त्री की इस प्रकार खाली कलाइयों को देखकर आश्चर्य हुआ।

उसी संध्या समय की बात है। जब वह तेजी से नीचे जा रहा था, उसी समय ललिता ऊपर आ रही थी। बीच में दोनों ने एक-दूसरे को देखा। ललिता एक तरफ रुक गई, परंतु शेखर के पास पहुचते ही धीमे स्वर बोली- ‘तुमसे कुछ बात कहनी है।’

शेखर ने आश्चर्यचकित हो पूछा- ‘किससे कहनी है? क्या मुझसे?’

ललिता- ‘हाँ, तुम्हीं से कहनी है।’

शेखर- ‘अब कौन सी बात मुझसे कहने के लिए शेष रह गई?’

ललिता चुपचाप सुन्न-सी उसी स्थान पर खड़ी फिर गहरी सांस छोड़कर धीरे-धीरे चली गई।

दूसरे दिन शेखर अपनी बैठक मैं बैठा हुआ अखबार पढ़ रहा था। इसी बीच ज्यों ही उसने अपनी दृष्टि ऊपर फेंकी, तो दिखाई पड़ा कि गिरीन्द्र उसके पास आ रहा है। निकट आकर गिरीन्द्र एक कुर्सी पर बैठ गया। शेखर ने नमस्कार किया और अखबार को एक तरफ रख दिया। फिर उसकी ओर उसने दृष्टि डाली, मानो उसके आने का कारण जानना चाहता हो! थोड़ी देर दोनों एक-दूसरे को देखते रहे, किसी ने कोई बात न छेड़ी। आज तक किसी ने इस विषय में बात करने की इच्छा भी प्रकट न की थी।

गिरीन्द्र ने काम की बात प्रारंभ की। वह बोला- ‘किसी विशेष के लिए आज आपको कष्ट देने आया हूँ। मेरी सास जो चाहती है, वह तो आपको पता ही है। उनकी इच्छा अपना मकान आप लोगों के हाथ बेचने की है। उन्हीं का संदेश लेकर मैं आया हूँ। इस घर का जितना शीघ्र तोड़-ताड़ हो जाये, वह मुंगेर इसी माह में वापस चली जाये।’

गिरीनद्र को देखते ही शेखर के हृदय में एक तेज तूफान उमड़ा हुआ था। गिरीन्द्र की बातें उसको अच्छी न लगीं। उसने गुस्से में कहा- ‘यह सब ठीक है, पर बाबूजी के मरने के बाद से बड़ै भैया ही कर्ता-धर्ता हैं। उन्हीं की राय से सब कार्य होते हैं। उनके पास ही जाकर यह सब कहिये।’

मुस्कराते हुए गिरीन्द्र ने कहा- ‘यह बात हमको भी ज्ञात है, परंतु इस बात को आप ही कहें, तो अच्छा होगा।’

उसी भाव से शेखर ने कहा- ‘आपके कहने से भी तो काम बन सकता है। इस समय तो आप ही उस पक्ष के सर्वोपरि हैं।’

गिरीन्द्र ‘यदि मेरे कहने की आवश्यकता हो, तो मैं कहे देता हूँ, परंतु कल छोटी दीदी कह रही थीं कि आप तनिक ध्यान दे दें, तो सारा काम मिनटों में बन जायेगा।’

शेखर एक मोटे तकिये के सहारे बैठा हुआ बातें कर रहा था। गिरीन्द्र के ये शब्द कानों में पड़ने पर वह चौंककर उठ बैठा और बोला- ‘किसने कहा? ज़रा फिर सुनूं कि आपने क्या कहा?’

गिरीन्द्र- ‘ललिता दीदी कह रही थीं।’

शेखर- ‘ललिता दीदी’ शब्द सुनकर आश्चर्यचकित हो गया। वह आगे की बात सुन ही नहीं सका कि गिरीन्द्र ने क्या कहा। बड़ी उत्कण्ठा के साथ विह्वल भाव से गिरीन्द्र की ओर देखते हुए उसने पूछा- ‘गिरीन्द्र बाबू, मुझे क्षमा करना, आपका पाणिग्रहण ललिता के साथ नहीं हुआ?’

गिरीन्द्र ने दांतो के नीचे जीभ दबाते हुए कहा- ‘नहीं, बस घर के सभी लोगों को तो आप जानते ही हैं। अन्नाकाली के साथ मेरा विवाह…।’

ललिता के मुँह से गिरीन्द्र को सभी बातें मालूम हो चुकी थी। बोला- ‘हाँ, तय तो कुछ और ही हुआ था, अन्नाकाली के साथ शादी की बात न हुई थी। प्राण निकलते समय गुरुचरण बाबू ने मुझसे कहा था कि मैं अन्यत्र अपनी शादी न करुं। मैंने उनसे उस समय वादा किया था। उनके मरने के बाद ललिता दीदी ने सब बातें मुझे समझाकर कही कि ‘वास्तव में किसी को यह मालूम नहीं है कि उनके पतिदेव जीवित हैं या उनकी शादी हो गयी है। शायद दूसरे से बात को सुनकर उन पर विश्वास न करते, परंतु मैंने तुरंत उन पर विश्वास कर लिया। इसके सिवा किसी भी स्त्री का एक से अधिक ब्याह भी नहीं हो सकता, और क्या?’

शेखर की आँखो में पहले से आँसू भरे थे। इस समय तो उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे और उसे किसी बात की सुध भी न थी। उसे यह भी ध्यान न था कि एक पुरूष दूसरे के सामने इस प्रकार आँसू बहाये, इस लज्जा का उसे अनुभव भी न था।

गिरीन्द्र की ओर शेखर भौंचक्का-सा देखता रहा। उसका हृदय पहले से ही शंकित था। ललिता के पतिदेव को आज उसने जान लिया। आँसू पोंछते हुए शेखर ने कहा- ‘लेकिन ललिता को आप चाहते हैं?’

गिरीन्द्र के मुख पर वेदना का क्षणिक आभास हुआ, परंतु शीघ्र ही अपने को संभालकर वह हँस दिया और प्रश्न के उत्तर में कहा- ‘आपके इस प्रश्न का उत्तर देना व्यर्थ है। प्यार कितना भी क्यों न हो, फिर भी किसी ब्याही हुई स्त्री से कोई ब्याह नहीं करता। खैर, जाने दे इन बातों को, मैं अपने से बड़ों के सामने इस तरह की बातें नहीं किया करता।’

गिरीन्द्र ने एक बार हँसकर खड़े होते हुए कहा- ‘फिर मैं जा रहा हूँ, बाद में मुलाकात होगी।’ इतना कहकर प्रणाम करके वह चला गया।

शेखर पहले से ही गिरिन्द्र के प्रति द्वेषभाव रखता था। आजकल इस अवसर पर तो उस द्वेष ने और भी भयंकर रूप धारण कर लिया। परंतु आज गिरीन्द्र के चले जाने पर उसको, जहाँ पर गिरीन्द्र बैठा था, बार-बार मस्तक झुकाकर वह प्रणाम करता रहा। आदमी कितना बड़ा त्यागी हो सकता है, हँसते-हँसते कितने कठिन-से-कठिन प्रण कर बैठता है, यह अनुभव उसे अपने जीवन में आज पहली बार हुआ।

दोपहर के बाद भुवनेश्वरी ललिता की मदद से कपड़े ठीक-ठाक करके रख रही थी। उसी समय शेखर भी वहाँ जाकर माँ के बिछौने पर जा बैठा। आज वह ललिता को देखकर भी दूर न जा सका।

भुवनेश्वरी ने उसकी ओर देखकर कहा- ‘क्यों बेटा?’

पहले तो निरुत्तर होकर कपड़ो की ओऱ देखता रहा। फिर थोड़ी देर बात पूछा- ‘माँ, यह क्या हो रहा है?’

भुवनेश्वरी ने कहा-‘कितने कपड़े चाहिए, किस प्रकार से दिए जायेंगे, इसी सबका इंतज़ाम कर रही हूँ। अभी तो और भी कपड़े मंगाने पड़ेंगे। क्यों बेटी ललिता?’

ललिता ने सिर हिलाकर समर्थन किया।

शेखर ने मुस्कराते हुए कहा- ‘यदि मैं अपना ब्याह न करुं, तो माँ?’

भुवनेश्वरी ने हँसकर कहा- ‘तुम यह भी कर सकते हो?’

शेखर- ‘तो फिर ऐसा ही समझिए माँ!’

व्यग्रतापूर्वक माँ ने कहा- ‘यह कैसी अशुभ बात मुँह से निकाल रहे हो? अब ऐसी बात मत कहना!’

शेखर- ‘अब तक मैं चुप्पी सीधे रहा माँ, किन्तु अब चुप रहने में भलाई नहीं है। काम सब भले ही सत्यानाश हो जाये, मेरे लिए अब चुप रहना कलंक होगा माँ!’

भुवनेश्वरी इन बातों का आशय न समझ सकी थी। वे शोकाकुल भाव में शेखर ओऱ देखने लगी।

शेखर ने कहा- ‘तुमने अपने बेटे के अब तक के सभी गुनाह माफ किए है। यह भी एक गुनाह माफ कर देना। वास्तव में मैं यह शादी न कर सकूंगा!’

शेखर की इस बात को सुनकर भुवनेश्वरी की व्यग्रता और भी बढ़ गई, परंतु इस भाव को प्रकट न करके उन्होंने कहा- ‘अच्छा बेटा, ठीक है। इस समय मुझे बहुत-से आवश्यक कार्य करने हैं।’

शेखर ने हँसने का-सा मुँह बनाकर सूखे स्वर में कहा- ‘मैं तुमसे बिल्कुल सत्य कहता हूँ, माँ। यह शादी कतई नहीं हो सकती।’

भुवनेश्वरी- ‘यह भी क्या बच्चों का खेल है, बेटा?’

शेखर- ‘यह बच्चों का खेल नहीं है, इसी कारण तो मैं तुमसे बार-बार कहता हूँ, माँ।’

इस बार सचमुच ही कुछ क्रोध करके भुवनेश्वरी ने कहा- ‘मुझे ठीक-ठीक बता, बात क्या है? इस प्रकार गोल-गोल बातें मुझे न ही भली लगतीं हैं और न ही उन्हें समझ पाती हूँ।’

धीमे स्वर में शेखर ने कहा-‘किसी दूसरे दिन सुन लोगी, मैं सभी बातें स्पष्ट रूप से तुम्हारे सामने रख दूंगा, माँ!’

‘किसी दूसरे दिन कहेगा?’ कपड़ों को एक बार किनारे हटाते हुए भुवनेश्वरी ने कहा- ‘ललिता भी मेरे साथ जाने के लिए तैयार बैठी है। देखूं उसका कुछ प्रबंध कर सकती हूँ अथवा नहीं।’

इस बार शेखर ने मुँह उठाकर कहा- ‘माँ, जब तुम उसको साथ ले जा रही हो, तो उसके लिए कुछ बंदोबस्त करने की आवश्यकता क्या है? तुम्हारी आज्ञा से बढ़कर उसके लिए और किसकी आज्ञा हो सकती है।’

शेखर को हँसते देखकर वह बड़े ही आश्चर्य में पड़ गई, और एक बार ललिता की ओर देखकर बोली- ‘बेटी! इसकी बातें सुनती हो न। यह समझता है कि मैं अपनी इच्छा से जो भी जाहूँ तुमसे कह सकती हूँ, जहाँ चाहूँ ले जा सकती हूँ, शायद वह तुम्हारी मामी से पूछने की भी ज़रूरत नहीं अनुभव करता।’

ललिता बिल्कुल चुप रही, पर शेखर की बातचीत और भावों को देखकर वह शर्म के मारे जमीन के अंदर घंसी जा रही थी।

शेखर ने फिर कहा- ‘यदि तुम इसकी मामी को सूचना देना ही चाहती हो, तो वह तुम्हारी मर्जी, परंतु होगा वही, जो तुम कहोगी। मैं तो यह कहता हूँ कि इसमें तनिक भी संदेह नहीं। जिसको तुम साथ ले जाना चाहती हो, उसे तनिक भी इंकार न होगा। वह तुम्हारी बहू है माँ। यह कहकर शेखर ने अपना सिर झुका लिया।

भुवनेश्वरी आश्चर्य में पड़ गई। जन्म देने वाली माँ के सम्मुख पुत्र का इतना परिहास, लेकिन अपने को संभालकर उन्होंने कहा, ‘क्या कह रहा है शेखर, ललिता मेरी कौन है?’

शेखर ने मुँह ऊपर नहीं उठाया और धीरे-धीरे बोला, ‘चार वर्ष पहले की बात है। तुम उसकी सास हो माँ, और वह तुम्हारी पुत्रवधु है। अधिक मैं कहने में असमर्थ हूँ माँ! तुम उससे ही सब पूछ लो।’

यह कहने के पश्चात् शेखर ने देखा कि ललिता गले में आंचल डालकर माँ को प्रणाम करने का उपक्रम कर रही है। वह भी उसके बगल में आकर खड़ा हो गया। दोनों ने आशीर्वाद पाने की लालसा से झुककर माँ को प्रणाम किया। दोनों घुटने टेककर जमीन पर नतमस्तक हो गये। इसके पश्चात् शेखर एक मिनिट भी न रुक सका और वहाँ से चला गया।

भुवनेश्वरी बड़ी ही प्रसन्न थी। उनकी आँखों में खुशी के आँसू उमड़ आये। वास्तव में वह ललिता को हृदय से प्यार करती थी, बिल्कुल सगी पुत्री की ही भांति उसे समझती थी। खुशी से उन्होंने ललिता को अपने पास खींच लिया और उसके सामने गहने वाला संदूक खोलकर रख दिया। थोड़ी ही देर में उन्होंने ललिता के संपूर्ण अंगो को गहनों से आभूषित कर दिया। फिर ललिता से कहा- ‘क्या इसी कारण गिरीन्द्र का ब्याह अन्नाकाली से हुआ?’

ललिता ने सिर झुकाये कहा- ‘हाँ, माँ! इस संसार में गिरीन्द्र बाबू की भांति सत्य पुरुष होना कठिन है। जब मैंने उनसे अपनी बातें बताई, तो उन्होंने मेरे कहने पर विश्वास कर लिया। उन्होंने समझ लिया कि मैं ‘परिणीता’ हूँ। मेरे पतिदेव इस संसार में मौजूद अवश्य हैं, पर मुझे अपनायें या न अपनायें- यही उनकी अपनी इच्छा है। इतना सुनकर गिरीन्द्र ने और आगे जानने की चेष्टा न की।’

भुवनेश्वरी बहुत ही प्रसन्न थीं। उन्होंने ललिता के मस्तक पर हाथ रखकर कहा- ‘मैं आशीर्वाद देती हूँ कि तुम दोनों दीर्घजीवी हो। अच्छा, बेटी, तुम यहीं ठहरो! और मैं जाकर बड़े पुत्र अविनाश को बता आऊं कि ब्याह की लड़की बदल गई है।’

यह कहकर भुवनेश्वरी हँसती हुई प्रसन्नचित से अविनाश के कमरे की ओर चली गई और ललिता नई बहू की भांति सिर पर घूंघट डालकर बैठ गई।

***समाप्त***

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